मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

प्रलय- 1


        पिछले दो महीने से बारिश जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। सितम्बर का आधा महीना बीत चुका था। अब तो इन्द्र भगवान को लॉन्ग  लीव पर चले ही जाना चाहिए था। सबको उम्मीद थी कि कि अब खुले आसमान के रोज़ दर्शन  हुआ करेंगे। बरसात के बाद शैलनगर की सुन्दरता देखते बनती है। हिमालय की चोटियां बिलकुल साफ़ दिखाई देती हैं और वो भी ऐसे जैसे आप हाथ बढ़कार उन्हें छू सकते हैं। पहाडि़यां और वादियां हरी मखमल की खूबसूरती को समेटे हुए दिखाई पड़ती हैं और जंगलों में फूलों की बहार होती है। पिकनिक, ट्रेकिंग और पर्वतीय तीर्थ-यात्रा के लिए ये मौसम बड़ा खुशगावार होता है। पर इस बार इन्द्र भगवान ने सितम्बर को सितमगर बनाने की ठान ली थी। पन्द्रह सितम्बर से पानी बरसना शुरू हुआ। लगा कि आखरी बरसात है, हमको थोड़ा-बहुत भिगोकर हमसे विदा ले लेगी पर पानी था कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।
बिशनपुर गांव की लछमिया का फौजी  बेटा शंकर छुटि्टयों में अपने घर आने वाला था। दो दिन की लगातार बारिश से लछमिया का जी घबराने लगा था। वो भगवान से मना रही थी कि उसका बेटा सही-सलामत उस तक पहुंच जाए। अब बादल कब छटेंगे ये तो पत्रा देखकर भानू पंडितजी  ही बता पाएंगे। बीस रूपये का एक नोट,एक थैली में अपने खेत की पैदावार करेले, कद्दू की थैली और गाय के दूध से भरा एक बड़ा लोटा पंडितजी के चरणों में अर्पित करके उसने उनसे पूछा -
'पंडितजी! जरा पत्रा देखकर बताइए कि इन्दर देवता कब अपने घर वापस जाएंगे। मुझे संकर की बड़ी फिकर हो रही है। कल वो रेलगाड़ी से गौरीद्वार पहुंच रहा है पर ऐसी बरखा में शैलनगर कैसे आ पाएगा?'
भानू पंडितजीने काले बादलों को देखा, अपनी उंगलियों पर कुछ गणना की, पत्रा के दो-चार पन्ने पलटे, फिर इत्मीनान से अपने मुहं में गुटके की एक बड़ी डोज़ डाल कर बोले -
'अरे लछमिया तू बेकार में परेशान  हो रही है। कहावत है -काला बादल जी डरवावे, भूरा बादल पानी लावे। अब तो बादलों का रंग भूरे से काला पड़ गया है। अब कोई चिन्ता की बात नहीं है। पत्रा बांचने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा  हूँ  कि दो-चार घण्टों में तेरी चिन्ता दूर हो जाएगी। मैं मन्तर पढ़ देता हूं। बारिश  शर्तिया रूक जाएगी। और हाँ  घर जाकर बाहर की दीवाल के सहारे सींक वाली झाड़ू उल्टी रख देना। इससे बारिश रुक  जाएगी।'

लछमिया इस भविष्यवाणी  को सुनकर और पंडितजीके मन्तर की शक्ति को जानकर खुश  हो गई। उसने पूरी श्रद्धा से पंडितजी को दण्डवत प्रणाम किया और फिर अपने घर जाने के लिए उठने लगी। पंडितजी ने उससे उलाहने के स्वर में कहा -

'अरी भागवान! मेरी दक्षिणा तो देती जा ।'

लछमिया के कुछ समझ नहीं आया। बीस का एक नोट, थैली भर करेले-कद्दू और लोटा भर गाय का बढि़या दूध क्या पंडितजी की मुहं दिखाई के लिए दिए थे?

पंडितजी ने लछमिया के कंफ्यूजन  को दूर करने के लिए उसे समझाया - 'अरे तेरा चढ़ावा  तो पत्रा देखने में खरच हो गया। बरखा रोकने का मन्तर पढ़ने में मेरा जो पुण्य लगा उसका मेहनताना तो और देती जा।'

अपनी साड़ी में उरसा हुआ बीस का आखरी नोट पंडितजी को थमाने में लछमिया को कष्ट  तो बहुत हुआ पर बेटे के घर आने की खुशी  में उसने लालची पंडित का ये गुनाह माफ़ कर दिया। उसने घर पहुंचते ही देवी मैया का जाप करके दीवाल के बाहर सींक वाली झाड़ू को उल्टा करके रख दिया। अब चिन्ता की कोई बात नहीं थी। उल्टी झाड़ू के टोटके और भानू पंडितजी के मन्तर के चमत्कार से बरसात थमने ही वाली थी और कल उसका लाडला संकर उससे गलबहिंया करने ही वाला था।

 पर लगता है भानू पंडितजी का मन्तर और उल्टी झाड़ू का टोटका कुछ असरदार नहीं निकले। बरसात थमने की उनकी प्रार्थना ऊपर  इन्द्र भगवान तक नहीं पहुँची। पानी पहले की तरह झमाझम बरसता रहा। बल्कि थोड़ी देर बाद बिजली के कड़कने की आवाज़ें कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो गई और बारिश  ने भी तूफ़ान  का रूप ले लिया। लछमिया का एक कमरे का मकान कई जगह से फ़र्श  की सिंचाई करने लगा। लछमिया बेचारी की बाल्टी, थाली और परात सब के सब फ़र्श को सूखा रखने में खर्च हो गए। लछमिया की बहू बिन्नो उसके साथ काम में हाथ बटाने लगी। लछमिया ने बिन्नो को प्यार से कहा -
'बिन्नो ! हम गरीबों की कुटिया में तेरी जैसी लच्छमी आई है। अभी तो तेरी लगन का साल भर भी नहीं हुआ है। मैं तुझ से ये उल्टे-सीधे काम कराऊँगी ? तेरी माँ  भग्गो को मैं क्या जवाब दूंगी? तू आराम कर मैं सब कर लूंगी।'
पर बिन्नो उसके साथ सामान बचाओ अभियान में जुटी रही। बिन्नो ने घर के कीमती(?) आइटम्स को घर की एकमात्र चौकी पर रखकर उन्हें टूटे त्रिपाल के टुकड़ों  और पॉलीथीन की थैलियों से ढक दिया। वैसे लछमिया को अपनी जान की कोई चिन्ता नहीं थी और न अपने घर या उसके सामान की। उसका लायक बेटा इस बार मकान की छत और घर के कच्चे फ़र्श को पूरी तरह से पक्का कराने वाला था। उसको चिन्ता थी तो बस बिन्नो की और शंकर  की। लछमिया शंकर की चिन्ता कर सोच रही थी कि वो इस तूफ़ना में कैसे घर पहुंचेगा। उसको भानू पंडितजी पर गुस्सा आ रहा था। इतना चढ़ावा  अगर वो सीधे इन्दर देवता को चढ़ाती  तो वो खुद बरसात रोक देते पर वो तो पंडितजी के झांसे में आ गई। लछमिया ने अपने हाथ ऊपर  जोड़ कर भगवान से अरदास की -
'हे भगवान ! भली करियो ! मेरा संकर कुसल से घर आ जाए या ऐसा करो कि उसको गौरीद्वार पर ही रोक दो !'

कड़कड़ की आवाज़ के साथ लछमिया के घर के बगल का तून का पेड़ बिन्नो के मायके वाले घर पर गिर पड़ा। बिन्नो 'हाय अम्मा ! हाय मुन्नी !' का चीत्कार करते हुए उस तरफ़ दौड़ पड़ी। लछमिया भी उसके साथ भागी पर दोनों मकान के मलबे में दबी औरतों की दर्द भरी चीखें सुनने के अलावा कुछ नहीं कर पाईं। उनकी मदद की गुहार सुनकर कोई नहीं आया। सबके सब अपनी जान और अपना-अपना घर बचाने में लगे हुए थे। रोती कलपती बिन्नो का हाथ पकड़ कर लछमिया उसे फिर अपने घर खींच लाई। यहां कम से कम उनकी जान जाने का खतरा तो नहीं था। घर की टूटी खिड़की से दोनों सास-बहू रोती-कलपती अपनी आँखें  फाड़-फाड़ कर विनाश  लीला देख रही थीं। किसना दर्जी के घर में पनाला सा बह रहा था और वो कुदाली से पानी की निकासी की नाकाम कोशिश कर रहा था पर कुछ देर बाद उसको इस कसरत से छुटकारा मिल गया। उसके घर के ऊपर  के टीले पर बना भूसन लुहार का मकान भरभराकर उसके मकान पर गिर पड़ा। बिन्नो अपने दर्द को भूलकर किसना को बचाने के लिए दौड़ पड़ी पर किसना तब तक मलबे में दबकर बिलकुल शांत हो गया था।
कुछ देर बाद बिजली कड़कने के साथ एक दिल दहलाने वाली आवाज़ हुई। लगा कि जैसे आसमान ही फट गया हो। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं था। आसमान कहां फटता है? वो तो धमाके के साथ ज़रा सा बादल फट गया था। अब इस छोटे से हादसे से बिशनपुर  गांव में दो मन्जि़ला बाढ़ आ जाए और तीस-चालीस मकान बह जाएं या टूट जाएं तो क्या किया जा सकता है?    



- क्रमशः ...

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

राम राज्य


हर तरफ़ मजबूरियाँ  हैं, हर तरफ़ फ़रियाद है ,
राम तेरे राज की कितनी हँसीं बुनियाद है ।
खु़दकुशी के फ़ैसले से दूर होंगी मुश्किलें,
हम परिन्दों ने हिफाज़तदां चुना सय्याद है ।।


 

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

शाश्वत प्रश्न ???

पिघले कोलतार की चिपचिप से उक्ताई,
गर्म हवा के  क्रूर थपेड़ों  से मुरझाई,
मृग तृष्णा सी लुप्त, सिटी बस की तलाश में,
राजमार्ग पर चलते-चलते ।
मेरी नन्ही सी, अबोध, चंचल बाला ने,
धूल उड़ाती , धुआँ  उगलती,
कारों के शाही गद्दों पर,
पसरे कुछ बच्चों को देखा।
बिना सींग के, बिना परों के,
बच्चे उसके ही जैसे थे।

स्थिति  का यह अंतर उसके समझ न आया ,
कुछ पल थम कर, साँसें भर कर,
उसने अपना प्रश्न उठाया-
'पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं ?

कुछ पल उत्तर सूझ न पाया,
पर विवेक ने मार्ग दिखाया।
उठा लिया उसको गोदी में,
हँसते -हँसते  उससे बोला -
'होते होंगें,पर तू क्यों चिंता करती है ?
मेरी गुडि़या रानी तू तो,
शिक्षित घोड़े पर सवार है ।'
यूँ  बहलाने से लगता था मान गई वह,
पापा कितने पानी में हैं, जान गई वह ।

काँधे  से लगते ही मेरे,
बिटिया को तो नींद आ गई,
किंतु पसीने से लथपथ मैं,
राजमार्ग पर चलते-चलते ।
अपने अंतर्मन में पसरे,
परमपिता से पूछ रहा था-
'पैदल चलने वाले हम सब,
पापा ! क्या पापी होते हैं?'


Copyright © 2013

जश्न-ए-मातम


अरे मृतक की बेवा तुझको, इस अवसर पर लाख बधाई !

अखबारों में चित्र छपेंगे, पत्रों से घर भर जाएगा ,
मन्त्री स्वयम् सांत्वना देने, आज तिहारे घर आएगा ।
सरकारी उपहार मिलेंगे, भाग्य कमल भी खिल जाएगा,
पिता गए हैं स्वर्ग जानकर, पुत्र गर्व से मुस्काएगा ।।

विधवा ! रोती इसीलिए क्या, तेरी माँग  उजड़ जाएगी ?
जल्दी ही सूने माथे की, तुझको आदत पड़ जाएगी ।
यह उदार सरकार, दया के बादल तुझ पर बरसाएगी ,
थैली भर रूपयों के बदले तेरी बिंदिया ले जाएगी ।।

छाती पीट रही क्यों पगली, अभी कर्ज़ यम के बाकी हैं,
यहाँ  मौत का जाम पिलाने पर आमादा, सब साक़ी हैं ।
बकरों की माँ  खैर नहीं है, यहाँ  भेडि़ए छुपे हुए हैं,
कुछ ख़ूनी जामा पहने हैं, पर कुछ के कपड़े खाकी हैं ।।

मृत्यु सभी की अटल सत्य है, फिर क्यों छलनी तेरा सीना ?
बाट जोहने की पीड़ा से मुक्ति मिली, क्यों आँसू  पीना ?
बच्चों की किलकारी का कोलाहल भी अब कष्ट न देगा ,
शांत, सुखद, शमशान-महीषी, बन, आजीवन सुख से जीना ।।

अरे मृतक की बेवा तुझको, इस अवसर पर लाख बधाई,
आम सुहागन से तू, बेवा ख़ास  हुई है, तुझे बधाई ।।







 


Copyright © 2013