रविवार, 30 अगस्त 2015

गाँधी का नमक


नेहरूजी और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में श्री महावीर त्यागी ने एक सफल प्रशासक के रूप में ख्याति प्राप्त की थी. लेखक और पत्रकार त्यागीजी का नाम गाँधीवादी आन्दोलनकारियों में बड़े आदर से लिया जाता है. प्रथम विश्वयुद्ध में त्यागीजी ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हुए थे लेकिन जलियांवालाबाग हत्याकांड के बाद उन्होंने सेना से त्यागपत्र दे दिया जिसके कारण उनका कोर्टमार्शल भी हुआ था. गांधीजी के आंदोलनों में भाग लेने के कारण त्यागीजी कुल 11 बार जेल गए थे. यह प्रसंग 1930 का है. नमक बनाने और उसे बेचने का एकाधिकार सरकार के पास सुरक्षित था. इस शोषक कानून के कारण नमक की असली कीमत से उसका बाज़ार भाव 40 गुना था. महंगे नमक को न तो गरीब आदमी अपने प्रयोग के लिए पर्याप्त खरीद पाता था और न ही वो अपने मवेशियों को उसे दे पाता. कम नमक मिलने के कारण मनुष्यों और मवेशियों के शरीर में आयोडीन की कमी हो जाती थी जिसके परिणामस्वरूप उन्हें घेंघा और कई अन्य घातक रोग हो जाते थे. मार्च, 1930 में गांधीजी ने भारत को पूर्ण स्वराज्य दिए जाने की मांग को लेकर अँगरेज़ सरकार के इस सबसे शोषक और अमानवीय कानून ‘नमक कानून’ को तोड़ने का निश्चय किया था. 


देहरादून में इस आन्दोलन का नेतृत्व त्यागीजी कर रहे थे. आन्दोलनकारी किसी सार्वजनिक स्थल पर आग जलाकर एक बड़े कड़ाह में पानी में नमक डाल कर उसे उबालते थे और जब पानी जलकर केवल नमक शेष रह जाता था तो उसे एक पुड़िया में एकत्र कर लेते थे. बाद में नमक कानून तोड़कर इस नमक को बेचा जाता था. पुलिस नमक कानून तोड़ने वालों को गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करती थी. आन्दोलनकारी अपना जुर्म कुबूल कर लेता था और उसे दण्डित कर जेल भेज दिया जाता था. त्यागीजी को देहरादून के एक चौराहे पर नमक बनाते हुए पुलिस ने गिरफ्तार कर, नमक की पुड़िया सहित मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया. मजिस्ट्रेट एक भारतीय थे. मजिस्ट्रेट साहब ने त्यागीजी से नमक कानून तोड़ने के अपराध के विषय में पूछा तो उन्होंने अपना अपराध स्वीकार नहीं किया, उल्टे यह कहा कि जो सफ़ेद चूर्ण पुलिस ने कड़ाह में से बरामद किया है वो नमक है ही नहीं. त्यागीजी जैसा बार-बार जेल जाने के लिए तैयार बैठा आन्दोलनकारी अपना ऐसा झूठा बचाव करेगा, ऐसी किसी को आशा नहीं थी. मजिस्ट्रेट साहब ने त्यागीजी से कहा –


‘ आप नमक ही बना रहे थे. आपने नमक कानून तोड़ा है, आप अपना जुर्म कुबूल क्यूँ नहीं कर लेते?’


त्यागीजी ने कहा – जनाब जो पाउडर पुलिस को मौक़ा-ए-वारदात पर मिला है वो नमक है ही नहीं. इसलिए मैंने नमक कानून नहीं तोड़ा है.’

मजिस्ट्रेट ने कहा – ‘लेकिन ये तो नमक ही लग रहा है.’

त्यागीजी ने कहा – ‘आप इसे चखकर देख लीजिये. ये नमक नहीं है.’

मजिस्ट्रेट ने पुड़िया में रखे उस सफ़ेद पाउडर पर ऊँगली लगाकर अपनी जीभ पर रखी और फिर नाराज़ होकर उन्होंने त्यागीजी से कहा – ‘आप खुद को बचाने के लिए झूठ बोल रहे हैं? ये तो नमक ही है.’


त्यागीजी ने मुस्कुराते हुए कहा – ‘जी हाँ यह नमक ही है. मैं नमक कानून तोड़ने का अपना जुर्म कुबूल करता हूँ. मजिस्ट्रेट साहब, अब तक आपने अंग्रेजों का नमक खाया था पर आज आपने गाँधी का नमक खाया है. गाँधी के नमक के साथ नमक हरामी मत कीजियेगा.’

मजिस्ट्रेट साहब ने त्यागीजी को नमक कानून तोड़ने के अपराध में सज़ा देकर जेल भेज दिया पर फिर गाँधी के नमक का हक अदा करने के लिए उन्होंने खुद सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया.

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

परोपकाराय सताम् विभूतय


अल्मोड़ा प्रवास के अपने आखिरी तेईस साल (1988 से 2011 तक) मैंने कैंट एरिया के नीचे स्थित दुगालखोला में बिताए थे. दुगालखोला पर शहरी और ग्रामीण वातावरण दोनों की ही मिलीजुली छाप है. दुगालखोला में अल्मोड़ा कैंपस की मेरी सहयोगी प्रोफ़ेसर सुधा दुर्गापाल से हमारे परिवार जैसे सम्बन्ध रहे हैं. उनकी दोनों बेटियां रूपा और पारु मेरी दोनों बेटियों गीतिका और रागिनी की मित्र हैं और आर्मी स्कूल अल्मोड़ा में हाई स्कूल तक उनकी सहपाठी भी रही हैं. लेकिन यहाँ बात मैं प्रोफ़ेसर सुधा दुर्गापाल के पतिदेव, रूपा और पारु के पापा, डॉक्टर जगदीश दुर्गापाल की कर रहा हूँ. डॉक्टर साहब और मेरी अभिरुचियाँ भिन्न हैं, जीने का अंदाज़ भी अलग-अलग है इसलिए न तो मैं डॉक्टर साहब की मित्र मंडली में कभी रहा और न ही वो कभी मेरी मित्र मंडली में. लेकिन मेरे दिल में उनके लिए हमेशा एक सम्मान की भावना रही है. डॉक्टर जगदीश दुर्गापाल मूलतः नेत्र विशेषज्ञ थे. जिला अस्पताल में शीर्षस्थ पद तक पहुँचने के बाद उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था. दुगालखोला के लिए डॉक्टर दुर्गापाल संकटमोचक की भूमिका निभाते थे. कहीं भी किसी को कोई तकलीफ हो तो उसके परिवार का कोई सदस्य भागकर डॉक्टर साहब को बुलाने पहुँच जाता था. डॉक्टर साहब अपने सरकारी दायित्वों से मुक्ति पाने के बाद अपना स्टेथेस्कोप और मेडिकल किट लेकर तुरंत मरीज़ के पास पहुँच जाते थे और अपना इलाज शुरू कर देते थे. अब चाहे किसी के पेट में दर्द हो, चाहे किसी को जौंडिस हो गया हो, चाहे कोई तपेदिक का मरीज़ हो या किसी को बुखार हो, डॉक्टर साहब के पास हर मर्ज़ का तात्कालिक इलाज होता था और बाद में ज़रुरत पड़ने पर वो मरीज़ को अस्पताल भिजवाने की व्यवस्था भी करवा देते थे. मैंने कभी भी किसी से भी यह नहीं सुना कि डॉक्टर साहब ने अपनी सेवाओं के लिए किसी ग्रामवासी से फीस ली हो.


मेरे पैर में फ्रैक्चर हुआ तो डॉक्टर साहब ने मेरे बिना बुलाये मेरे घर के नौ चक्कर लगाए. मेरी धर्मपत्नी का गाल ब्लैडर रिमूव होना था तो डॉक्टर साहब ने पूरी व्यवस्था की कि ऑपरेशन अल्मोड़ा में ही हो जाये, यह बात और है कि उनका यह ऑपरेशन फिर दिल्ली में हुआ. मेरी बेटी रागिनी को चिकन पॉक्स निकलीं तो उसका इलाज करने के लिए डॉक्टर साहब ने पता नहीं हमारे घर के कितने चक्कर लगाए. पर डॉक्टर साहब ने जो मेरी स्वर्गीया माँ के लिए किया था उसको सोचकर भी मेरी आँखें भर आती हैं. गर्मियों में माँ दिल्ली से हमारे पास रहने आ जाती थीं. वृद्धावस्था और पिताजी के बिछोह ने माँ को अन्दर से बिलकुल तोड़ दिया था. एक बार माँ अल्मोड़ा आईं, उनको हर पंद्रह-पन्द्र दिन के अंतराल के बाद ड्यूरोबोलिन के कुल 5 इंजेक्शंस लगने थे. मैंने डॉक्टर दुर्गापाल से किसी अच्छे कम्पाउण्डर के बारे में पूछा तो डॉक्टर साहब काफी देर तक सोचते रहे फिर बोले –


‘ड्यूरोबोलिन का इंजेक्शन बहुत ऑयली होता है, उसे लगाने के लिए एक्सपर्ट चाहिए. मेरी नज़र में ऐसा कोई कम्पाउण्डर हमारे आसपास नहीं है. अम्माजी के इंजेक्शन मैं लगा दूंगा.’


मैंने कहा – ‘डॉक्टर साहब माँ के ऐसे 5 इंजेक्शन लगने हैं.’


डॉक्टर साहब ने मुझे आश्वस्त किया कि वो ये काम ज़रूर करेंगे बशर्ते कि मैं उन्हें निश्चित तिथि से एक दिन पहले ही उन्हें फ़ोन करके इसके लिए सचेत कर दूँ. डॉक्टर साहब ने मेरी माँ के ये पांचो इंजेक्शन लगाए और हर बार आधे-एक घंटे तक उनकी व्यथा कथा भी सुनी. मैंने माँ को डॉक्टर साहब के कीमती वक़्त की दुहाई दी तो उन्होंने मुझे रोक दिया और बोले –


‘जैसवाल साहब, अम्माजी की व्यथा-कथा को प्यार और धीरज से सुनना उनके इलाज का सबसे ज़रूरी हिस्सा है. इस तरह का इलाज तो आप सब कर सकते हैं’


मैं बिचारा खिसियाने और डॉक्टर साहब को धन्यवाद देने के सिवा और क्या कर सकता था.


2007 के गर्मियों में माँ आखिरी बार हमारे यहाँ आईं. माँ ने कई बार मुझसे डॉक्टर दुर्गापाल को बुलाने की फरमाइश की पर अपनी व्यस्तता के कारण मेरे अनुरोध पर भी डॉक्टर साहब माँ से मिलने नहीं आ पाए. 8 अगस्त, 2007 को सवेरे माँ की तबियत अचानक से बहुत ख़राब हो गयी. डॉक्टर साहब रोजाना सवेरे घूमने जाते थे. मैं उनके लौटने के रास्ते पर खड़ा हो गया और वो मुझे मिल भी गए. माँ का हाल सुनकर डॉक्टर साहब तुरंत मेरे साथ चल पड़े, उन्होंने माँ को देर तक एक्ज़ामिन किया फिर बोले – ‘मैं घर से स्टेथेस्कोप लेकर आता हूँ, बात कुछ गंभीर लग रही है. मिसेज़ जैसवाल, आप लोग नाश्ता कर लीजिये, जैसवाल साहब डायबटिक हैं, इनका नाश्ता करना ज़रूरी है.’


हमने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया और डॉक्टर साहब ने दुबारा माँ का मुआयना किया फिर हमको बतलाया कि माँ की तो करीब एक घंटे पहले ही मृत्यु हो चुकी है. डॉक्टर साहब को माँ की मृत्यु का पहले ही पता चल चुका था बस वो ये चाहते थे कि मैं दुखद सूचना से पहले नाश्ता कर लूं. माँ को भू-शयन कराने के लिए डॉक्टर साहब ने मेरे साथ मिलकर ड्राइंग रूम का सब सामान बाहर बरामदे में रखवाया फिर माँ को उनके कमरे से वो मेरे साथ उन्हें उठाकर ड्राइंग रूम में लाये. मैंने रोते हुए डॉक्टर साहब से कहा – ‘डॉक्टर साहब, आप माँ के बेटे का फ़र्ज़ अदा कर रहे हैं. आपको मैं कैसे धन्यवाद दूं?’


डॉक्टर साहब ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा –‘आप की माँ मेरी भी कुछ लगती थीं, उनकी आखरी सेवा करने का आप मुझे धन्यवाद देंगे?’

माँ का डेथ सर्टिफिकेट तैयार करने का काम भी डॉक्टर साहब ने किया और वो उनके अंतिम संस्कार में भी शामिल हुए.

आजतक मैंने अपने जीवन में डॉक्टर दुर्गापाल जैसा सेवाभाव वाला डॉक्टर नहीं देखा. अल्मोड़ा छोड़ने के बाद दुर्गापाल परिवार से मेरी भेंट नहीं हुई है पर मुझे यकीन है कि अभी भी किसी की भी पुकार पर डॉक्टर दुर्गापाल अपना स्टेथेस्कोप लेकर भाग रहे होंगे. और क्या कहूँ और क्या लिखूं बस यही कहूँगा – ‘मानवता की यूँ ही सेवा करते रहिये डॉक्टर! हो सकता है आपको देखकर हम भी किसी की सेवा निस्स्वार्थ भाव से करना सीख जाएँ.’

रविवार, 23 अगस्त 2015

चम्बल के पार


मार्च, 1994 में मुझे एम. ए. फाइनल, इतिहास के विद्यार्थियों को राजस्थान और आगरा, फतेहपुर सीकरी के टूर पर ले जाने का मौका मिला था. बच्चों की शरारतें, उनकी मस्तियाँ और उनकी जिंदादिली ने इस सफ़र को यादगार बना दिया था. राजस्थान में हमारा आखिरी पड़ाव चित्तौड़ गढ़ था. वहां से कोटा जाकर हमको कोटा-आगरा पैसेंजर पकडनी थी. हमारे कम्पार्टमेंट में कोटा जा रहा एक गुजराती नवदंपत्ति था, प्यारा सा लेकिन थोडा देहाती किस्म का. हमारे लड़के-लड़कियां इतने दुष्ट थे कि उनकी खिंचाई करते हुए उन्हीं के पकवान उड़ाए जा रहे थे. रास्ते में ट्रेन दो घंटे लेट हो गयी अब हमारे लिए मुश्किल था कि हम कोटा पहुंचकर कोटा-आगरा पैसेंजर पकड़ सकें. सहयात्रियों ने हमको सलाह दी कि हम चम्बल नदी से पहले ही एक स्टेशन पर उतर जाएँ. कोटा-आगरा पैसेंजर वहां से गुज़रती थी इसलिए हम वहीँ से उसपर सवार हो सकते थे. हमारे पास टिकट तो पहले से ही थे. स्टेशन आने पर हमने सामान उतारना शुरू किया कि ट्रेन चल पड़ी. जल्दी-जल्दी सामान उतारने में एक लड़की का सूटकेस ट्रेन में ही छूट गया. सारे टूर का मज़ा जाता रहा. पीड़ित लड़की से ज्यादा तो मैं दुखी था. पहला एजुकेशनल टूर और उस में ऐसा हादसा. स्टेशन पर एक गुड्स ट्रेन कोटा जाने के लिए तैयार खडी थी. उसके गार्ड स्मार्ट से एक सरदारजी थे, उन्होंने सलाह दी कि अब उस सूटकेस को भुलाकर बच्चे कोटा-आगरा पैसेंजर में चढ़ जाएँ और मैं सूटकेस की तलाश में उनके साथ उनकी गुड्स ट्रेन में कोटा के लिए चल दूं. हो सकता था कि कोई सहयात्री इतना मेहरबान हो कि उस सूटकेस को जीआरपी थाने में जमा करवा दे. यही तै हुआ. बच्चे उसी स्टेशन से कोटा-आगरा पैसेंजर में सवार करा दिए गए. आगरा में हमको आगरा फोर्ट के पास जैन धर्मशाला में टिकना था. मैंने अपने ग्रुप के सबसे स्मार्ट लड़के की यह ड्यूटी लगाई कि वो आगरा में सबको लेकर जैन धर्मशाला पहुंचे और मेरे वहां पहुँचने तक आगे के कार्यक्रम का इंतज़ार करे. मैंने पहली बार गुड्स ट्रेन में सफ़र किया वह भी बिलकुल खुले से केबिन में कुर्सी पर बैठकर. खुले केबिन में बैठकर चम्बल नदी पार करना एक रोमांचक अनुभव था. ट्रेन के गार्ड सरदारजी, इंडियन रेलवेज की हॉकी टीम से खेल चुके थे. उनके साथ तीस मिनट का छोटा सा सफ़र बड़ा यादगार रहा. हम कोटा पहुंचे तो सरदारजी मुझे जीआरपी थाने लेकर पहुंचे. वहां एक दीवानजी ऊंघते हुए मिले. सरदारजी ने मेरी व्यथा उन्हें सुनाई. दीवानजी ने कहा –


’हाँ एक गुजराती जोड़ा एक सूटकेस जमा तो करा गया है. आधे घंटे के करीब उन लोगों ने आप का इंतज़ार भी किया पर फिर वो अपने घर चले गए.’


यह सुनकर मेरी तो मानो लाटरी लग गयी. मैंने सूटकेस का रंग. उसका साइज़ और उसका ब्रांड बताया तो दीवानजी ने सरदारजी के कहने पर बिना लिखा-पढ़ी के सूटकेस मेरे हवाले कर दिया. मैं सरदारजी को धन्यवाद देने लगा तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर मुझे घसीटते हुए कहा –


‘थैंक यू बाद में गुरूजी, पहले मैं आपको अहमदाबाद-निजामुद्दीन एक्सप्रेस में चढ़ा दूँ. आप जल्दी से श्री महावीरजी तक का टिकट ले आइये. आपकी यह ट्रेन, कोटा-आगरा पैसेंजर से पहले वहां पहुँच जाएगी. श्री महावीरजी पर उतरकर आप कोटा-आगरा पैसेंजर में बैठ जाइएगा.’

सरदारजी ने अहमदाबाद-निजामुद्दीन एक्सप्रेस की चेयर कार के टीटीई से कहकर बिना रिजर्वेशन ही उसमें मुझे बिठवा दिया. रात के तीन बजे मैं श्री महावीरजी स्टेशन पर उतर गया. मेरे पास कोटा-आगरा पैसेंजर का टिकट तो था ही. कोटा-आगरा पैसेंजर पहुँचते ही मैं उसमें सवार हो गया. सुबह की रौशनी में आगरा से पहले ईदगाह स्टेशन पर मैंने बच्चों वाला डिब्बा भी खोज लिया. फिर ऐसा नज़ारा हुआ जो मैंने ज़िन्दगी में कभी नहीं देखा था. सूटकेस के साथ मुझे देखकर बच्चे मुझसे लिपटकर रो भी रहे थे, हंस भी रहे थे और मेरी जैसे भारी-भरकम शख्सियत को गोद में उठा भी रहे थे. मैं भी बिला-तकल्लुफ, हवा में लटका हुआ, रोये जा रहा था, रोये जा रहा था. आगरा में सूटकेस मिलने का जश्न मनाया गया और आगे भी अल्मोड़ा वापस पहुँचने तक हम सब जश्न मनाने के ही मूड में रहे पर उस गुजराती जोड़े और सरदारजी को अपने साथ न पाकर हमारी खुशी अधूरी रह गयी थी. हमारे पास न तो गुजराती नवदंपत्ति का कोई पता-ठिकाना था और न ही सरदारजी का. हम कैसे उनका एहसान चुका सकते थे? शायद किसी अपरिचित की ऐसे ही मदद कर के उनका क़र्ज़ किसी हद तक चुकाया जा सकता था. आज भी वो गुजराती जोड़ा और सरदारजी मेरे दिल में बसे हुए हैं. उनके बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि कबीर ठीक ही कहते हैं. दुनिया में बुरे लोगों की खोज करना बेकार है, हो सकता है कि हमको कोई बुरा न मिले बल्कि रास्ते में कोई नारायण मिल जाए.

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

चरखा और खादी

असहयोग आन्दोलन में गांधीजी ने भारतीयों को चरखे और खादी के रूप में एक ऐसा ब्रहमास्त्र दिया था जिसका तोड़ अँगरेज़ सरकार के पास नहीं था. हजारों साल से विश्व के सबसे बड़े वस्त्र निर्यातक देश भारत को विदेशी कपड़ों का सबसे बड़ा आयातक देश बनाने में अंग्रेजों को मात्र डेढ़ सौ साल लगे थे. उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही स्वदेशी की महत्ता को स्वीकार किया जाने लगा था और आर्थिक राष्ट्रवाद के विकास के साथ-साथ इसका व्यापक प्रचार-प्रसार भी होने लगा था. स्वदेशी आन्दोलन के दौरान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की कविता ‘स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार’ प्रकाशित हुई थी -

‘स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार कीजे, विनय इतना हमारा मान लीजे,
शपथ  करके विदेशी वस्त्र त्यागो, न जावो पास, उससे दूर भागो.
अरे भाई, अरे प्यारे, सुनो बात, स्वदेशी वस्त्र से शोभित करो गात,
वृथा क्यों फूंकते हो देश का दाम. करो मत और अपना नाम बदनाम.’

गांधीजी ने चरखे को भगवान् श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र के रूप में प्रस्तुत किया. गांधीजी के इस सुदर्शन चक्र ने अन्याय और दमन का ऐसा प्रतिकार किया कि अन्यायी और आततायी भी उनका प्रशंसक बन गया. उस्मान की नज़्म ‘चरखा’ चरखे की इसी महत्ता को दर्शाती है –

‘गुलामी से हमको छुड़ायेगा चरखा, लुटेरों की हस्ती मिटाएगा चरखा,
पड़े सर धुनेंगे विलायत के ताजिर (व्यापारी), इधर शान अपनी बढ़ाएगा चरखा.
न फिर खून चूसेंगे योरप के पिस्सू, हमें मुफलिसी (निर्धनता) से बचाएगा चरखा,
घरों में इसे जब चलाएंगे हिंदी (भारतवासी), विलायत में हलचल मचाएगा चरखा.’


1921 में ‘स्वराज’ पत्र में गया प्रसाद शुक्ल सनेही ‘त्रिशूल’ का एक शेर प्रकाशित हुआ था जिसमें स्त्रियों के आभूषण प्रेम की भर्त्सना की गयी थी –

‘निहायत बेहया हैं, अब भी जी जेवर पहनते हैं,
जिन्हें मुल्क का कुछ दर्द, वो खद्दर पहनते हैं.’


पंडित सोहन लाल द्विवेदी की कविता ‘भैरवी’ में खादी को भारत के सभी असाध्य आर्थिक रोगों के लिए संजीवनी के रूप में प्रस्तुत किया गया है -

‘खादी के धागे-धागे में, अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा.
खादी ही भर-भर देशप्रेम का, प्याला मधुर पिलाएगी,
खादी ही दे-दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी.’


अंत में शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की नज़्म ‘स्वराज्य की कुंजी’ की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं -

‘स्वदेशी प्रेम जनता में अगर इक बार हो जाये,
हमारा राज्य भारत में, बिना तलवार हो जाये,
वसन बनने लगें सुन्दर, हमारे हिन्द में जिस दम,
उसी दम मानचेस्टर का नरम बाज़ार हो जाये.
विदेशी वस्तु लेने से, सभी यदि हाथ धो बैठें,
स्वतः आधीन यह अपनी, ब्रिटिश सरकार हो जाये.
सुदर्शन चक्र चरखे को, अगर सब हाथ में ले लें,
भयानक तोप गोरों की, यहाँ बेकार हो जाये.’

रविवार, 9 अगस्त 2015

कलम आज उनकी जय बोल


9 अगस्त, 1925 को हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के लगभग सौ क्रांतिकारियों ने पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में सरकारी खज़ाना ले जा रही ट्रेन को काकोरी में लूटा था. इस ट्रेन डकैती में सरकारी खज़ाना लूटने के सिवा, खून-खराबा करने का क्रांतिकारियों का कोई इरादा नहीं था पर इसमें एक यात्री उनकी गोली से मारा गया था. क्रांतिकारियों के हाथ केवल 8000 रुपये लगे थे पर इस छोटी सी रकम का भी वो सदुपयोग नहीं कर सके और इस कांड से जुड़े हुए अधिकांश शीघ्र ही पकडे गए. इसमें पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां, राजेन्द्र लाहिरी और ठाकुर रौशन सिंह को फांसी, शचीन्द्रनाथ सान्याल व शचीन्द्रनाथ बक्शी को काला पानी तथा मन्मथनाथ गुप्त को 14 वर्ष के कारावास की सजा दी गयी थी. आज हम काकोरी कांड के 4 शहीदों की चर्चा करेंगे.

1. क्रान्तिकारी और प्रसिद्द शायर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की नज़्म ‘सरफरोशी की तमन्ना’ से हर जागरूक भारतीय परिचित है. बिस्मिल ने असहयोग आन्दोलन में उत्साहपूर्वक भाग लिया था. स्वदेशी में उनके प्राण बसते थे –

‘तन में बसन स्वदेशी, मन में लगन स्वदेशी, फिर से भवन-भवन में, विस्तार हो स्वदेशी.
सब हों स्वजन स्वदेशी, होवे चलन स्वदेशी, मरते समय कफ़न भी दरकार हो स्वदेशी.’


परन्तु चौराचौरी कांड के बाद असहयोग आन्दोलन का स्थगन उन जैसे नवयुवकों को स्वीकार्य नहीं था. अंततः इन नवयुवकों ने दमनकारी उपनिवेशवाद का प्रतिकार करने के लिए जवाबी हिंसा का रास्ता अपना लिया. अब बिस्मिल आज़ादी के पौधे को सदा हरा-भरा रखने के लिए उसे अपने खून से सींचने को तैयार थे -

‘दिल फ़िदा करते हैं, कुर्बान जिगर करते हैं, पास जो कुछ भी है, माता की नज़र करते हैं.
सूख जाये न कहीं, पौधा ये आज़ादी का, खून से अपने इसे, इसलिए तर करते हैं.’


खुद को और अपने तीन साथियों को फांसी की सजा सुनाये जाने का स्वागत करते हुए बिस्मिल ने यह आशा की थी कि उनके बलिदान से उनके जैसे सैकड़ों क्रांतिकारी और पैदा होंगे –

‘मरते बिस्मिल, रौशन, लहरी, अशफाक, अत्याचार से,
होंगे पैदा सैकड़ों, इनके रुधिर की धार से.’



2. अशफाक़उल्ला खां भी अपने अज़ीज़ दोस्त बिस्मिल की तरह एक शायर थे और उन्हीं की तरह वो सिर्फ अपने वतन के लिए जीना और मरना चाहते थे-

‘जुनूने हुब्बे वतन का मज़ा शबाब में है, लहू में फिर ये रवानी, रहे, रहे न रहे.
वतन हमारा रहे, शाद-काम और आज़ाद, हमारा क्या है, अगर हम रहे, रहे न रहे.’


(जुनूने हुब्बे वतन – देशभक्ति का पागलपन, शबाब – जवानी, रवानी – प्रवाह, शाद-काम और आजाद – खुश हाल और स्वतंत्र)


3. क्रांतिकारी संगठन ‘अनुशीलन समिति’ के सदस्य राजेन्द्र लाहिरी ने दक्षिणेश्वर बम कांड में भी भाग लिया था. वो एक सफल पत्रकार भी थे. अपनी शहादत से पूर्व राजेन्द्र लाहिरी ने कहा था –‘मैं मरने नहीं जा रहा हूँ बल्कि भारत को स्वतंत्र कराने के लिए पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ.’


4. ठाकुर रौशन सिंह काकोरी कांड से सम्बद्ध नहीं थे किन्तु 1924 में क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए आवश्यक धन जुटाने के लिए लूट करते समय उनसे एक व्यक्ति की हत्या हो गयी थी इसलिए काकोरी कांड के अभियुक्तों के साथ ही उन पर मुक़दमा चलाया गया था. जज ने उन्हें एक अन्य आरोप में पहले 5 साल की सजा सुनाई फिर हत्या के आरोप में फांसी की. अंग्रेजी कम जानने वाले रौशन सिंह यह समझ कर कि उन्हें सिर्फ 5 साल की सजा मिली है, बहुत निराश हुए पर उनके कान में किसी ने बताया कि उन्हें भी फांसी की सजा ही मिली है तो उन्होंने खुश होकर बिस्मिल को संबोधित करते हुए कहा – ‘क्यों पंडित! अकेले-अकेले फांसी पर चढ़ने की सोच रहे थे? अब मैं भी तुम्हारी तरह फांसी पर चढूंगा.’ रौशन सिंह को फांसी दिए जाने के बाद उनके परिवार को आर्थिक कठिनाई के साथ-साथ सामाजिक बहिष्कार का सामना भी करना पड़ा. कोई भी उनकी बेटी को अपने घर की बहू बनाने को तैयार नहीं था. श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के विशेष प्रयासों से ही उनकी बेटी की शादी संपन्न हो सकी थी.

काकोरी के अमर शहीदों को इतिहास में वो मान-सम्मान नहीं मिला है जिसके कि वो हकदार थे. क्रांतिकारियों में अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने की पर्याप्त क्षमता नहीं थी इसीलिये अपने अभियान में उन्हें कभी प्रत्यक्ष सफलता नहीं मिली पर उन्होंने अपनी कुर्बानियों से देशवासियों के दिल में देशभक्ति की ऐसी चिंगारी सुलगा दी थी जिसे आज़ादी का दावानल बनने में देर नहीं लगी. भारत के इन बहादुर किन्तु उपेक्षित सपूतों के निस्वार्थ त्याग और बलिदान के लिए मेरी कलम भी कवि दिनकर की वाणी दोहराती है – ‘जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर बिना लिए गर्दन का मोल, कलम आज उनकी जय बोल.’