शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

सुस्वागतम डॉक्टर सुब्रमणियास्वामी -फ़साना-ए-उन्नीस सौ चौरासी की जेएनयू में पुनरावृत्ति?


कली को फूल बनने से, बहुत पहले मसल देंगे,
उठाया सर किसी ने तो, उसे फ़ौरन कुचल देंगे.
फ़साना सन् चौरासी का, हक़ीकत में बदल देंगे,
घरों की बात ही क्या है, ख़यालों में दख़ल देंगे.
विभीषण जो बने घर का, उसे ओहदा, महल देंगे,
वो हाकि़म को ख़ुदा समझे,उसे ऐसी अक़ल देंगे.
नए सांचों में उसको ढाल, मनमानी शक़ल देंगे,
नई पीढ़ी का मुस्तक़बिल, नए आक़ा बदल देंगे.

( जॉर्ज ओर्वेल के उपन्यास ‘नाइनटीन एटी फोर’ का खल-पात्र, तानाशाह ‘बिग ब्रदर’ देशवासियों की न केवल गतिविधियों पर बल्कि उनके विचारों पर भी नियंत्रण रखता है. मैंने यह कविता राजीव गाँधी के शासनकाल में लिखी थी पर लगता है कि उसका भाव आज भी प्रासंगिक है.)

बुधवार, 23 सितंबर 2015

पुत्रीवती भव

आज तक हमारे देश में किसी ने कभी किसी के भी मुख से किसी महिला के लिए ‘पुत्रीवती भव’ का आशीर्वचन देते हुए सुना है? खैर, मैंने तो कभी नहीं सुना. मैंने अपने जीवन में ऐसे सैकड़ों पंडितों, मौलवियों, दरवेशों, ओझाओं, बाबाजियों, नीम-हकीमों और नीम-हकीमनियों को देखा है जो अपना वंश चलाने के लिए, पुत्र की आस में सूखे जा रहे बेवकूफ़ अकबरों और जोधा बाईयों को एक जांनशीन होने की शर्तिया गारंटी दिलाकर उन्हें चूना लगाते हैं.

मेरी दोनों बेटियां, मेरी बेटियां कम और मेरी मित्र ज्यादा हैं. वो दोनों ही स्त्री-पुरुष की समानता में नहीं बल्कि पुरुष की तुलना में स्त्री की श्रेष्ठता में विश्वास करती हैं और मैं भी उनसे किंचित मत-भेदों के साथ ऐसा ही सोचता हूँ पर आमतौर पर बेटा कुनबा-तार और बिटिया, परिवार के लिए बोझ मानी जाती है. हमारे घर पहली बिटिया आई तो हमारे हितैषियों ने हमको ढाढस बंधाया कि यह बिटिया अपने लिए घर में भैया ही लाएगी पर उनकी भविष्यवाणी के विपरीत हमारे यहाँ दूसरी बिटिया आ गयी. मेरी श्रीमतीजी ने अपने मायके, रामपुर में बिटिया को जन्म दिया था. तब अल्मोड़ा में, हमारे घर में फ़ोन नहीं था लेकिन मेरे एक मित्र का फ़ोन नंबर ससुराल वालों को पता था जहाँ से कि आवश्यक सूचना मुझ तक पहुंचाई जा सकती थी. अब चूँकि हमारे दूसरी बिटिया पैदा हुई इसलिए मेरी ससुराल वालों को मुझे फ़ोन करके सूचना भिजवाने का साहस ही नहीं हुआ, बस मुझे बिटिया के जन्म की सूचना का टेलीग्राम कर दिया गया जो कि दुर्भाग्य से मेरे विभाग के पते पर 5 दिन बाद पहुंचा. यह खुशखबरी लेकर मेरे एक मित्र (खुद दो बेटियों के पिता) आये और मुझसे डरते-डरते बोले –

‘जैसवाल साहब एक खबर दें, आप नाराज़ तो नहीं होंगे?’

मैंने उन्हें अभयदान दिया तो उन्होंने मेरी दूसरी बिटिया के जन्म की सूचना वाला टेलीग्राम मुझे पकड़ा दिया.


इस सूचना मिलने के छह घंटे बाद ही मैं रामपुर में अपनी प्यारी सी गुड़िया के पास था. पर वहां सब यही सोच रहे थे कि दूसरी बिटिया के जन्म की खबर सुनकर मैं नाराज़ हो गया हूँ, इसलिए अब तक उसे देखने भी नहीं आया हूँ. अल्मोड़ा पहुंचकर जब मैंने अपने मित्रों में लड्डू बांटे तो वो मुझे बधाई कम और सांत्वना ज्यादा दे रहे थे. ये बेटी-विरोधी रवैया तो समाज के सबसे पढ़े-लिखे तबके का था. बाकी आम लोगों की मानसिकता के बारे में तो सोचकर भी मुझे डर लग रहा था.

दो बेटियों के शुभागमन के बाद हमने तो अपना परिवार सम्पूर्ण मान लिया पर लोगों का तो यही कहना था कि परिवार तो तभी सम्पूर्ण होगा जब एक बेटा भी हो जाय. मेरी माँ, ससुराल पक्ष और दर्जनों तथाकथित हितैषियों के निशुल्क और बिन-मांगे परामर्श के बावजूद हमने दो बेटियों तक ही अपने परिवार को सीमित रखने का निर्णय लिया.

एक बार अल्मोड़ा में मेरे एक आत्मीय मुस्लिम परिवार में मुझे सपरिवार शादी में बुलाया गया. मैं मर्दों की टोली में, और मेरी 10 और 8 साल की बेटियां अपनी मम्मी के साथ महिलाओं की टोली में शामिल हो गईं. महिला-मंडली ने मेरी श्रीमतीजी और बच्चियों का स्वागत किया. दो बुजुर्गवार खालाओं ने शरबत, मिठाई वगैरा सर्व किये जाने से पहले ही मेरी श्रीमतीजी पर सवालों की झड़ी लगा दी –

‘कहाँ रहती हो?’ ‘खाविंद क्या करते हैं?’ ‘कितने बच्चे हैं?’

मेरी श्रीमतीजी के और जवाब तो उन्हें ठीक लगे पर उनका- ‘हमारे दो बच्चे हैं.’ वाला जवाब खालाओं के समझ में नहीं आया. एक खाला ने पूछा – तुम्हारे दो बच्चे हैं तो उनको साथ क्यूँ नहीं लाईं?’

मेरी श्रीमतीजी ने मुस्कुराकर बेटियों की तरफ इशारा करते हुए कहा –‘लाई तो हूँ, यही तो हैं हमारे दोनों बच्चे.’

दोनों खालाओं के तो मानों पैरों तले ज़मीन सरक गयी. दोनों हैरत से एक साथ बोलीं – ‘हाय, हाय, कोई बेटा नहीं है तुम्हारे?’

मेरी पत्नी ने इस पर हामी भरी तो एक खाला ने आह भरकर कहा – ‘बच्चियां तो तुम्हारी काफी बड़ी हो गयी हैं, अब तो तुमको सब्र करके बेटियों से ही काम चलाना पड़ेगा.’

मेरी छोटी बेटी रागिनी- ‘बेटियों से ही काम चलाना पड़ेगा’ वाला जुमला सुनकर आग बबूला हो गयी. वह अपनी मम्मी और अपनी दीदी, दोनों को खींचते हुए महिला-मंडली की क़ैद से छुड़ाकर मेरे पास ले आई. रागिनी की ज़िद पर बकौल उसके, उन बदतमीजों की महफ़िल छोड़कर हम बिना शादी अटेंड किये हुए, फ़ौरन बाहर निकल आये और मुझ बेचारे को पूरे परिवार को एक रेस्त्राँ में ले जाकर, पेट पूजा करानी पड़ी.

अंतिम किस्सा मेरे मित्र स्व-घोषित- धन्वन्तरि (महानतम आयुर्वेदाचार्य) का है. इन मित्र का नाम बताने की मुझमें हिम्मत नहीं है, बस इतना बता सकता हूँ कि वो हमारे विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय के एक विभाग के चमकते हुए वरिष्ठ सितारे थे. हमारे धन्वन्तरि अपने वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा पुत्र होने की शर्तिया दवा खोज लेने का दावा करते थे. मुझे वो बार-बार समझाते थे कि मैं उनकी दवा को आज़माकर अपनी बेटियों को एक भाई का उपहार दूं पर मैं हर बार उनकी बात मान लेने के स्थान पर उनकी पीठ पर दो-चार धौल जमाकर उनकी बात हवा में उड़ा देता था. पर धन्वन्तरिजी तो मेरा कल्याण करने के लिए कटिबद्ध थे. एक बार उन्होंने बाज़ार जा रही मेरी धर्मपत्नी का रास्ता रोक कर उनके सामने अपनी बात रक्खी –

‘भाभीजी, आप से जैसवाल साहब की एक शिकायत करनी है. मेरे लाख समझाने पर भी वो बेटा होने की हमारी शर्तिया दवा आज़माने को तैयार नहीं हैं. आप उन्हें समझाइए और वो अगर न भी मानें तो आप हमारी दवा का खुद सेवन कीजिये. आपके घर चाँद सा बेटा होने की गारंटी हमारी.’

इस बेशर्मी के ऑफर को सुन कर मेरी श्रीमतीजी का खून खौल उठा पर उन्होंने बड़ी शांति से जवाब दिया – ‘भाई साहब, हम लोग अपनी दो बेटियों के साथ खुश हैं. हमको किसी बेटे की चाहत नहीं है. आपको मुझसे ऐसी इंडीसेंट बात नहीं करनी चाहिए.’

मुझको जब इस काण्ड का पता चला तो मैं गुस्से से तमतमाता हुआ धन्वन्तरिजी का विधिवत क्रिया-कर्म करने के लिए उनकी खोज में निकल पड़ा. वो तो मुझे कहीं नहीं मिले किन्तु उनके विभाग में सभी मित्रों को मैं यह ज़रूर बता आया कि मेरा इरादा किसी सार्वजनिक स्थल पर उनकी जमकर धुनाई करने का है.

अपने मित्र, धन्वंतरि की धुनाई करने के मेरे इरादे धूल में मिल गए. इधर मैं उनको खोज रहा था और उधर वो खुद मुझे ढूंढ़ते हुए मेरे विभागीय कक्ष में पहुँच गए. मैं जब तक उन्हें खरी-खोटी सुनाना शुरू करूँ, उन्होंने मेरी श्रीमतीजी से बेहूदी बात करने की गुस्ताखी के लिए मुझसे हाथ जोड़कर माफ़ी मांगी. मैंने उन्हें गालियों भरा प्रवचन दिया और आगे से कभी किसी महिला से ऐसी बदतमीजी न करने की हिदायत देकर किस्से को ख़त्म किया.

मित्र धन्वन्तरि ने हमारी मित्रता की पुन-र्स्थापना की खुशी में मुझसे चाय पिलाने की फरमाइश कर डाली. चाय पीते हुए उन्होंने बड़े प्यार से पूछा – ‘यार जैसवाल, तुमने मुझे दिल से माफ़ किया या नहीं?

मैंने जवाब दिया – ‘अब तुम मुझसे इतने बड़े होकर भी माफ़ी मांग रहे हो तो तुम्हें माफ़ करने के सिवा मैं और क्या कर सकता हूँ?

मित्र ने फिर कन्फ़र्म किया – ‘पक्का माफ़ कर दिया?’

मैंने कहा – हाँ, हाँ, अब क्या स्टाम्प पेपर लिखकर दूँ?’

धम-धम कूटे जाने से पहले हमारे धन्वन्तरि का भोला सा सवाल था– “फिर हमारी सलाह पर हमारा अचूक नुस्खा ट्राई क्यूँ नहीं कर लेते?’

इस किस्से का क्लाइमेक्स अप्रत्याशित है. धन्वन्तरिजी के परिवार में तीन बेटियां और एक बेटा था. एक और बेटे की चाहत में उन्होंने अपनी ईजाद की गयी चमत्कारी दवा का प्रयोग अपनी श्रीमतीजी पर कर डाला. शीघ्र ही उनके प्रयोग का सु-फल सामने आ गया. पैंतालिस साल की उम्र में धन्वन्तरिजी चौथी बिटिया के पिता बन गए. उनके घर जाकर बधाई देकर हम मित्रों ने उनसे जब लड्डुओं की डिमांड की तो वो गुस्से में हमारे पीछे मच्छरदानी का बांस लेकर दौड़ पड़े. धन्वन्तरिजी ने बरसों की तपस्या से तैयार की गयी अपनी चमत्कारी दवा को नाली में बहा दिया.

बेटियों के साथ सेल्फी लेने से, ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ गाने से, या दो-चार नारी-कल्याण विषयक खोखले कानून बनाने से बात बनने वाली नहीं है, समाज में हमारे धन्वन्तरिजी की मानसिकता वालों का ही बहुमत हैं. मुझे उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब ‘पुत्रीवती भव’ के आशीर्वचन के फलीभूत होने पर जश्न मनाया जायेगा. पुत्रो की चाह में, अपने घर में जनानी पलटन तैयार करने वाले लालू प्रसादों के दर्शन दुर्लभ हो जायेंगे और कन्या जन्म पर बधाई देने वालों और लड्डू मांगने वालों को खदेड़े जाने के स्थान पर उनका खुले दिल से स्वागत-सत्कार होगा.

शनिवार, 19 सितंबर 2015

चश्मे बद्दूर


1960 के दशक का, फिल्म ससुराल का गाना – ‘तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे, चश्मे बद्दूर’ बहुत मकबूल हुआ था. मुहम्मद रफ़ी जब इस गाने में ‘चश्मे बद्दूर’ शब्द को अलग-अलग अंदाज़ में गाते हैं तो आज भी सुनने वाला झूम-झूम जाता है. पर इस ‘चश्मे बद्दूर’ शब्द ने मुझे मेरे बचपन से लेकर मेरे बड़े होने तक बहुत परेशान किया है. आम तौर पर यह माना जाता है कि पहलौटी और आखिरी औलाद को नज़र बहुत लगती है. हमारे माता-पिता की पहली संतान तो जल्दी ही चल बसी थी पर उनकी आख़िरी संतान, अर्थात मैं, आज भी बरक़रार हूँ.

मेरी माँ की नज़रों में, मैं नज़र लगने के लिए सबसे बड़ा सुपात्र था. उनकी दृष्टि में उनके गोलू-मोलू, डबल कान्हा (मेरे नाम के ‘गोपेश’ और ‘मोहन’ दोनों का ही अर्थ कृष्ण होता है) से प्यारा कोई और बच्चा तो हो ही नहीं सकता था. ऊपर से उनकी आख़िरी संतान होने के कारण मुझे किसी की नज़र लगने की और भी अधिक सम्भावना रहती थी. अगर मैं नहा-धोकर, नए कपड़े पहनकर उनके सामने खड़ा हो जाता था तो वो काजल का टीका लेकर मेरी तरफ दौड़ पड़ती थीं और मैं उनसे जान बचाकर इधर-उधर भागता रहता था. मेरे न्यायधीश पिताजी, मेरी माँ की तरह कतई अन्धविश्वासी नहीं थे लेकिन इस मामले को वो अपने ज्यूरिसडिक्शन से बाहर का मानते थे.

मेरे बचपन के तीन साल इटावा में गुज़रे थे. हम अपने घर के पास के एक मैदान में बैडमिंटन खेलते थे. इस मैदान के पास एक कोठी में एक निस्संतान मद्रासी दंपत्ति किराये पर रहता था. मद्रासी आंटी अपने बंगले से हम बच्चों को खेलते हुए देखकर बहुत खुश होती थीं. मद्रासी अंकल जब-तब हमारे साथ बैडमिंटन खेलने आ जाते थे और हमको तमाम शटल काक्स उपहार में दे दिया करते थे. मद्रासी आंटी मुझे अपने घर बुलाती रहती थीं पर मुझे तो अपनी माँ के निर्देशों का पालन करने की हिदायत थी. माँ को लगता था कि मद्रासी आंटी मुझ पर ज़रूर कोई टोटका कर देंगी. फिर मैं उनके घर कैसे जा सकता था? पर एक बार उनके बार-बार बुलाने पर मैं उनके घर चला ही गया. वाह! आंटी ने अपने घर को मंदिर जैसा सजा रक्खा था और वहां मेरी खातिर किसी देवता जैसी हो रही थी. मद्रासी आंटी फिर बिना बुलाये हमारे घर पहुँच गयीं. उन्होंने माँ से बार-बार अनुरोध किया कि वो मुझे उनके घर भेज दिया करें. माँ ने तरह-तरह के बहाने बनाकर उनका अनुरोध ख़ारिज कर दिया. मद्रासी आंटी के जाने के बाद मेरी कान-पकड़ाई हुई और फिर उनके घर जाने पर मेरी जमकर पिटाई किये जाने की धमकी भी दी गयी. इसके बाद बहुत देर तक तरह-तरह के अनुष्ठान करके कोयले, लाल मिर्च और न जाने क्या-क्या की मदद से मेरी नज़र उतारी गयी.

खैर सब की माँओं में मेरी माँ जैसे ये गुण देखे जा सकते हैं पर कुछ सासें भी इसी श्रेणी में आती हैं. मेरी श्रीमतीजी की बड़ी बुआजी मेरी बड़ी प्रशंसक थीं. मेरी बड़ी बेटी गीतिका का जन्म मेरी ससुराल रामपुर में हुआ था. अपनी श्रीमतीजी और बिटिया को अल्मोड़ा ले जाने के लिए मैं वहां पहुंचा तो वहां बड़ी बुआजी भी थीं. बुआजी को नया सफारी सूट पहने हुए अपने दामादजी कुछ ज्यादा ही अच्छे लगे, उन्होंने लोगों से मेरी नज़र उतारने के लिए कहा पर मेरी हल्ला-मचाऊ आपत्ति पर और मेरी घूरती हुए आँखें देखकर किसी ससुराली की ऐसा करने की हिम्मत नहीं हुई. अगले दिन सुबह रामपुर की रज़ा लाइब्रेरी के ग्राउंड में एक्सरसाइज करते हुए मेरी कमर की नस चल गयी और मैं तीन दिन बिस्तर पर लेटने के लिए मजबूर हो गया. इलाज के साथ-साथ बुआजी का नज़र-उतारू अभियान चलता रहा. लकड़ी के कोयले की स्पेशल अंगीठी जलवाकर पता नहीं कितनी बार और कितनी ज्यादा लाल मिर्च वो उसमें झोंकती रहीं. मुझे नज़र लगने के लिए बुआजी खुद को ही दोषी मानती रहीं और मैं बेचारा, अंध-विश्वास पर कई शोध-पत्र प्रस्तुत करने वाला, चुपचाप अपने दांत पीसता हुआ, उनके नाटक का निरीह पात्र बना रहा.


‘चश्मे बद्दूर’ का सबसे मज़ेदार किस्सा मेरे बड़े चाचाजी के साथ हुआ. हमारे चाचाजी लखनऊ विश्व विद्यालय में गणित विभाग में रीडर थे. पचास साल की उम्र तक चाचाजी भीष्म पितामह की तरह ब्रह्मचारी रहे फिर दादाजी बनने (मेरे बड़े भाई साहब का बेटा तब तक छह महीने का हो चुका था.) और अपने सर की खेती पूरी तरह सूखने के बाद उन्होंने शादी करने का इरादा किया. मेरी माँ अपने देवर की शादी के अवसर पर बहुत मगन थीं. उन्होंने विवाह का मंगल-गीत गाते हुए चाचाजी के काजल लगाया, उनके कान के नीचे नज़र न लगने के लिए एक टीका भी लगा दिया. चाचाजी विरोध में हल्ला मचाते रहे पर माँ का हुक्म उन्हें मानना ही पड़ा. वर-माला के समय चाची जब चाचाजी को माला पहना रही थीं तो माला उनकी पगड़ी में ऐसी फँसी कि वह अचानक खुल गयी. दसियों कैमरों के फ़्लैश एक-साथ चमक उठे और इस दूधिया रौशनी में चाचाजी की गंजी चाँद भी सौ वाट के बल्ब की तरह चमक उठी. ठहाकों के बीच चाची के परिवार की एक मोहतरमा बोल उठीं – ‘चश्मे बद्दूर’.

हम नाराज़ बाराती इन धृष्ट मोहतरमा का खून करने की योजना बना ही रहे थे कि हँसते हुए हमारे चाचाजी ने माँ को संबोधित करते हुए कहा –

‘भाभी, लगता है कि मुझे तुम्हारी ही बुरी नज़र लग गयी. तुमने मेरे कान के नीचे क्या मंतर पढ़ा था कि माला छूते ही मेरी पगड़ी और मेरी कलई एक साथ खुल गयी?’

इस ‘चश्मे बद्दूर’ कार्यक्रम ने मुझे बहुत परेशान किया है और मेरी ही तरह इसने और हजारों-लाखों की नींदें भी उड़ाई होगी. अब मैं अपने सह-पीड़ितों के साथ मिलकर यह प्रयास कर रहा हूँ कि ‘चश्मे बद्दूर’ वाला गाना बैन कर दिया जाय और नज़र लगने पर विश्वास करने वालों को और नज़र उतारने वालों को एक साल की क़ैद-ए-बा-मशक्क़त या कम से कम 10000/ का जुर्माना लगाए जाने का कानून तो बना ही दिया जाय.

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

गुरु और शिष्य

राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त एक आदर्श शिष्य और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उनके आदर्श गुरु थे. वास्तव में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीसवीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों में हिंदी साहित्यकारों की एक पूरी पीढ़ी को खड़ी बोली में शुद्ध, प्रांजल और सोद्देश्यपूर्ण काव्य-सृजन और गद्य-लेखन का प्रशिक्षण दिया था. मैथिली शरण गुप्त को अपने बचपन में ही झाँसी में आचार्य द्विवेदी से भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था किन्तु तब तक उन्होंने अपना काव्य-सृजन प्रारम्भ नहीं किया था. गुप्तजी ने ब्रज भाषा में कविता करना प्रारंभ किया था और फिर उन्होंने हिंदी की खड़ी बोली में भी कवितायेँ लिखीं परन्तु उनमें ग्राम्यत्व दोष के साथ-साथ व्याकरण की और वर्तनी की अशुद्धियाँ भी होती थीं. एक बार युवा मैथिली शरण गुप्त ने खड़ी बोली में रचित अपनी एक कविता आचार्य द्विवेदी के संपादन में प्रकाशित प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ भेजी. कुछ दिनों बाद आचार्य द्विवेदी ने गुप्तजी को पत्र लिखा कि उनकी कविता ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ स्वीकृत कर ली गयी है. गुप्तजी ने सरस्वती के अगले कई अंक देख डाले किन्तु उनमें उन्हें अपनी कविता नहीं मिली. दुखी होकर उन्होंने आचार्य द्विवेदी से अपनी कविता के प्रकाशित न किये जाने का कारण पूछा. द्विवेदीजी ने उत्तर में लिखा कि उनकी कविता ‘सरस्वती’ के अमुक अंक में व्याकरण और भाषा के दोषों को दूर करके प्रकाशित कर दी गयी है. गुप्तजी की अपनी इस संशोधित कविता पर दृष्टि तो पडी थी किन्तु वह स्वयं ही उसे पहचान नहीं पाए थे. इस महान आचार्य ने अपने इस दूरस्थ शिष्य की भाषा को शुद्ध और परिमार्जित किया. आचार्य द्विवेदी ने गुप्तजी को सोद्देश्यपूर्ण कविताओं की रचना के लिए प्रेरित किया. अपने खंड काव्य ‘जयद्रथ वध’ को अपने गुरूजी को समर्पित करते हुए गुप्तजी कहते हैं-

‘श्रीमान पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी की सेवा में –

आर्य!
पाई तुम्ही से वस्तु जो, कैसे तुम्हें अर्पण करूँ?
पर क्या परीक्षा-रूप में, पुस्तक न ये आगे धरूँ?
अतएव मेरी धृष्टता यह, ध्यान में मत दीजिये,
कृपया इसे स्वीकार कर कृत-कृत्य मुझको कीजिये.’

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी विभिन्न भाषाओँ के साहित्य में गहरी अभिरुचि रखते थे, उन्हें ज्ञात था कि नवोदित हिंदी की खड़ी बोली के भाषा और साहित्य को अन्य भाषाओँ के साहित्य से बहुत कुछ सीखना है. उन्होंने गुप्तजी को बंगला और उर्दू साहित्य का गहन अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया. गुरु देव रबिन्द्रनाथ टैगोर ने अपने एक लेख में भारतीय साहित्यकारों से यह आग्रह किया था कि वे पौराणिक एवं ऐतिहासिक उपेक्षित नारी पात्रों को अपनी साहित्यिक रचनाओं में मुख्य पात्र बनाये. आचार्य द्विवेदी को गुरु देव टैगोर की यह बात बहुत अच्छे लगी. उन्होंने गुप्तजी को प्रेरित किया कि वह रामायण काल की नितांत उपेक्षित किन्तु महान पात्र, लक्ष्मण की पत्नी, उर्मिला को नायिका बनाकर एक महाकाव्य लिखें. गुप्तजी ने अपने महाकाव्य ‘साकेत’ में उर्मिला को नायिका बनाया. साकेत’ की भूमिका में गुप्तजी ने स्वयं को तुलसीदास और अपने गुरु को महावीर हनुमानजी (जिन्होंने तुलसीदास को ‘रामचरित मानस’ की रचना करने के लिए प्रेरित किया था) के रूप में प्रस्तुत किया है –

‘आचार्य पूज्य द्विवेदीजी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करना मानो उनकी कृपा का मूल्य निर्धारित करने की ढिठाई करना है. वे मुझे न अपनाते तो मैं आज इस प्रकार आप लोगों के सामने खड़े होने में भी समर्थ होता या नहीं, कौन कह सकता है –

करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद?
महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद.’

गुप्तजी ‘साकेत’ के प्रकाशन के बाद एक सुविक्यत कवि की रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे. उन्हें स्वयं अपनी काव्य प्रतिभा पर अहंकार होने लगा था, एक मित्र को लिखे गए पत्र में उन्होंने स्वयं की तुलना गोस्वामी तुलसीदास से कर दी थी. आचार्य द्विवेदी ने बिना कोई संकोच करते हुए गुप्तजी को सावधान किया कि वो स्वयं को गोस्वामी तुलसीदास जैसा महा कवि समझने की भूल न करें. गुप्तजी ने अपनी भूल के लिए अपने आचार्य से तुरंत क्षमा मांगी और फिर आगे से उन्होंने आत्म-प्रशस्ति से स्वयं को दूर रक्खा. हिंदी साहित्य के इतिहास में गुरु और शिष्य की ऐसी महान जोड़ी अन्यत्र नहीं मिलती. इन गुरु और शिष्य दोनों को कृतज्ञ हिंदी प्रेमियों का शतशः नमन.

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

अलंकार शिक्षा (मेरी व्यंग्य कथा फिल्माचार्य का एक अंश)


आचार्यों की कई किस्में होती हैं। कुछ आचार्य पठन-पाठन में ही अपना सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं। ऐसे महापुरुषों को इल्मी आचार्य कहा जाता है। कुछ ऐसे होते हैं जो घरों, विद्यालयों और बाज़ारों में झूमते हुए देखे जा सकते हैं। दम मारो दम मन्त्र का जाप करते हुए, दुनिया वालों की परवाह न करते हुए अपने सारे ग़म मिटाने वालों को हम चिल्माचार्य कहते हैं पर कुछ ऐसे भी होते हैं जो ऐसा कुछ भी नहीं करते पर फिर भी ज़ालिम ज़माना उनकी हंसी उड़ाता है। ऐसे आचार्यों के लिए फि़ल्में जीवन का परम सत्य होती हैं। उनके लिए फि़ल्में ही गीता, कुरान और बाइबिल होती हैं, फि़ल्में ही उनका भोजन होती हैं और फिल्में ही उनकी निकट सम्बन्धी होती हैं। आप उनसे दोस्ती करना चाहते हैं तो आपको फि़ल्मों की ही चर्चा करने की और उसे सुनने की आदत डालनी होगी। ऐसे फि़ल्म-मय आचार्यों को हम फि़ल्माचार्य कहते हैं।


सन् उन्नीस सौ सत्तर में मैं झांसी के बुन्देलखण्ड कॉलेज में बी. ए. फ़ाइनल का विद्यार्थी था। वहां हमको हिन्दी साहित्य पढ़ाने के लिए एक नए गुरूजी की नियुक्ति हुई थी। इन नए गुरूजी का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था पर उससे ज़्यादा उनका गैटअप जानलेवा था। गुरूजी के लम्बे-लम्बे नखों से लेकर उनकी रेशमी ज़ुल्फ़ों के वर्णन के साथ पूरा न्याय करने के लिए तो एक उपन्यास लिखने की ज़रूरत होगी पर यहां इतना कहना काफ़ी होगा कि उनकी रूप सज्जा के सामने बौलीवुडी हीरो तो क्या, हौलीवुडी हीरो भी पानी भरने वाले नज़र आते थे। इन्द्रधनुष के सभी रंग उनकी पोशाक में देखे जा सकते थे, उनके इम्पोर्टेड गौगल्स में पूरा क्लास एक साथ नज़र आता था, उनके चमकते हुए जूतों में हम अपना चेहरा देख सकते थे। उनके शरीर पर उड़ेले गए सेंट की महक से पूरा क्लास चमन बन जाता था, ख़ासकर हमारे क्लास की तितलियां तो अपनी सीट पर बैठे-बैठे ही थिरकने लगती थीं। हमको अपने गुरुदेव पहली रील से ही भा गए थे। वाह क्या ज़ुल्फ़ें थीं, क्या अदाएं थीं, डायलाग डिलीवरी भी कैसी दिलकश थी।


पहले हिन्दी की जटिल कविताएं और लम्बे उबाऊ निबन्ध हमारे लिए लोरी का काम करते थे पर अब तो हिन्दी की कक्षा का हम बेसब्री से इन्तज़ार किया करते थे और गुरुदेव की हर अदा पर गौर करने के लिए अपनी आंखें खुली रखते थे साथ ही साथ उनके हर डायलाग को ध्यान से सुनने के लिए हम क्लास में पिन ड्रॉप साइलेन्स रखने की पूरी कोशिश भी करते थे।


उन दिनों सभी लोगों पर फि़ल्मी बुख़ार चढ़ा रहता था । सारे ज़माने पर फि़ल्मी जादू छाया था । फिल्मी मैग्ज़ीन्स की अहमियत धर्मग्रन्थों से कम नहीं होती थी। हमारे घर के बुज़ुर्ग हम पर ज़ुल्म ढाते वक्त मुगलेआज़म के अन्दाज़ में और उनके ही जैसी रौबीली आवाज़ में हम पर दहाड़ा करते थे। आम घरों में माँयें अपने बच्चों पर ममता उड़ेलते वक्त सिल्वर स्क्रीन की सुलोचना, लीला चिटनिस और निरूपा राय का रोल अदा करती हुई देखी जा सकती थीं और सासों के लिए ललिता पवार के फि़ल्मी पर्दे पर उतारे गए किरदार हमेशा प्रेरणा स्रोत का काम किया करते थे। लड़कियां, भाभीजियां और यहां तक कि आण्टियां भी अपनी अदाओं में नरगिस, वैजयन्ती माला और हेलेन की नकल करती थीं। रोते वक्त हर लड़की हमको मीनाकुमारी लगती थी और मुस्कुराते वक्त मधुबाला।


हम लड़के इस फि़ल्मी माहौल में पलकर फि़ल्मी बातों के अलावा और क्या सोच सकते थे। हम धर्म के बारे में जो भी जानकारी रखते थे उसका आधार पौराणिक फिल़्में हुआ करती थीं। इतिहास की जानकारी हमको सोहराब मोदी की फिल्मों से मिली थी और देशभक्ति का जज़्बा हमने मनोज कुमार की फि़ल्मों से सीखा था। हमारी निजी जि़न्दगी में भी हीरो-हीरोइन्स छाए रहते थे। हम नौजवान वृक्षारोपण कार्यक्रम में बहुत दिलचस्पी लेते थे क्योंकि हम जानते थे कि यही पेड़ जब बड़े होंगे तो हम इनके इर्द-गिर्द घूम-घूम कर अपनी-अपनी हीरोइनों के साथ गाने गाएंगे। तमाम नौजवान शीशे के सामने खड़े होकर, बोतल में शराब की जगह पानी भरकर, चेहरे पर मायूसी का भाव लाकर, जु़ल्फ़ें बिखराकर, देवदास के दिलीप कुमार की तरह होठों ही में बुदबुदाते हुए लम्बे-लम्बे मोनोलाग्स बोला करते थे। हमारी शरारतों में शम्मी कपूर की उछलकूद की झलक साफ़-साफ देखी जा सकती थी। अपने भोलेपन में हम राज कपूर तक को मात करते थे। पर अपने मां-बाप की डाँट की परवाह न करते हुए जब हम बागी सलीम की तरह मनमानी किया करते थे और उसकी वजह से जब हम बेभाव पीटे जाते थे तो अकेले में मोहम्मद रफ़ी के ‘ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले’ जैसे दर्द भरे गाने गा-गा कर, भगवान को, ज़ालिम ज़माने के जु़ल्मों की दास्तान सुनाया करते थे।


सूरदास का श्रृंगार वर्णन तो हमको हैरान कर देता था। लगता था कि सूरदास और आनन्द बक्शी एक ही गांव के रहने वाले थे। एकबार गुरुदेव सूर के पद- ‘बूझत स्याम कौन तू गोरी’ की व्याख्या कर रहे थे। अपनी शरारत से कान्हा ने पहली मुलाकात में ही राधा का दिल जीत लिया था। गुरुदेव ने हमसे पूछा-
”बताओ फिर क्या हुआ होगा?“


मैंने तपाक से उत्तर दिया-
”जिस का डर था बेदर्दी, वही बात हो गई।“

अलंकारशास्त्र पढ़ने में पहले हमारी जान निकलती थी, उनकी परिभाषाएं याद करने में हमको अपनी नानी याद आती थीं पर उनके उदाहरण याद करने में तो नानीजी बाकायदा स्वर्गलोक सिधार जाती थीं। पर फि़ल्माचार्य ने हमारे सामने अलंकारों के इतने सटीक फि़ल्मी उदाहरण पेश किए कि हमारे लिए उनको समझना बाएं हाथ का खेल हो गया। अब हम धड़ल्ले से अलंकारों के उदाहरण दे सकते थे। हाथ में बोतल लिए किसी महबूबा के आने की आशा कर रहे शराबी देवानंद की भावनाओं को व्यक्त करने वाले अनुप्रास अलंकार के इस उदाहरण को कौन भूल सकता है-

”कभी न कभी, कहीं न कहीं, कोई न कोई तो आएगा।“

फिल्म ‘राज कुमार’ में साधना के रूठ कर चले जाने पर शम्मी कपूर की व्यथा यमक अलंकार का उदाहरण बन जाती है-

”तुमने किसी की जान को जाते हुए देखा है?
वो देखो मुझसे रूठ कर मेरी जान जा रही है।“


शम्मी कपूर हमारे फिल्माचार्य के प्रिय नायक थे. श्लेष अलंकार का उदहारण भी वो उन्हीं की लीलाओं से देते थे. शम्मी कपूर फिल्म ‘जानवर’ में एक लाल छड़ी को संबोधित करके एक गाना गाते हैं जबकि उनका इशारा उनसे झगड़ा कर रही, लाल कपड़ों में सजी राजश्री से है –


‘लाल छड़ी मैदान खड़ी, क्या खूब लड़ी, क्या खूब लड़ी.’


वैसे तो गुरुदेव ने फि़ल्मी अलंकार शास्त्र पर पूरा ग्रंथ तैयार कर डाला था, इसको याद कर पाना हम साधारण मानवों के बस में नहीं था। हां! मुमताज़ और राजेश खन्ना के चुलबुले प्यार की कहानी कह रहा यह गीत रूपाक्तिशयोक्ति अलंकार (इसमें किसी के रूप का बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया जाता है) का सुन्दर उदाहरण है जिसे कि मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ -

”छुप गए सारे नज़ारे, ओये क्या बात हो गयी?
तूने काजल लगाया, दिन में रात हो गई।“

रविवार, 6 सितंबर 2015

शिक्षक हड़ताल


1986 में फोर्थ पे कमीशन लागू होना था. हम यूनिवर्सिटी और डिग्री कॉलेज टीचर्स की मांग थी कि हमको सम्मानजनक वेतनमान के साथ-साथ केन्द्रीय कर्मचारियों की भाँति चिकित्सा व्यय, एलटीसी, एचआरए, एचडीए, हाउसिंग लोन आदि भी मिले किन्तु हमारी इन जायज़ मांगो को सुनने के लिए न तो केंद्र सरकार तैयार थी और न ही प्रदेश सरकार. बहुत दिनों तक हमारी मांगों पर जब कोई ध्यान नहीं दिया गया तो फिर हमने अगस्त, 1987 में अपनी मांगे पूरी करवाने के लिए देश-व्यापी हड़ताल की. कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के हम शिक्षकगण रोज़ एक हॉल में एकत्र होकर हड़ताल से जुड़े नवीनतम समाचारों से एक-दूसरे को अवगत कराते थे और आगे की अपनी रणनीति तैयार करते थे. मैं पूरे जोशो-खरोश से इस हड़ताल में भाग ले रहा था. शिक्षक हड़ताल के दौरान मेरा कवि-रूप बहुत मुखर हो चला था. रोज़ हॉल के ब्लैक बोर्ड पर मैं शिक्षक हड़ताल से सम्बंधित कोई नयी कविता लिखता था, फिर साथियों की फरमाइश पर उसे, उन्हें सुनाता भी था. हमारी स्थिति तो शापग्रस्त देवी अहल्या की दुर्दशा से भी कहीं बढ़कर थी –

‘जो रस था वह निचुड़ गया है, बस हड्डी है, मांस नहीं है,

गुरु, सालों हड़ताल करें पर, शासक का रिसपौन्स नहीं है.

शिलाखंड हो गए गुरूजी, जीवन में रोमांस नहीं है,

किसी राम की चरण-धूलि से तरने का भी चांस नहीं है.’

उन दिनों देश में बोफोर्स तोप कमीशन काण्ड, पनडुब्बी काण्ड और स्विस बैंकों में काले धन को लेकर बहुत हंगामा हो रहा था. मैंने अपनी एक कविता में माँ शारदा की हत्या करने के अपराध की तुलना में इन घपलों को बहुत छोटा बताया था –

‘आप तोपें खाइए, पन्डूब्बियाँ भी खाइए,
खोलकर खाते विदेशी, देश का धन खाइए.
खाइए जनतंत्र भी, पर कीजिये इतनी कृपा,
ज्ञान का दीपक बुझा, माँ शारदा मत खाइए.’

शिक्षक दिवस से पहले उत्तर प्रदेश के तमाम अध्यापकों ने लखनऊ में विधान सभा के सामने धरना देकर खुद को गिरफ्तार कराने का फैसला किया. अल्मोड़ा के मेरे दोस्त चाहते थे कि मैं लखनऊ में अपने काव्य-पाठ से समस्त हड़ताली अध्यापकों का जोश बढ़ाऊँ. अल्मोड़ा से लखनऊ जाने वाले दल में मुझे भी शामिल कर लिया गया. मेरे घर में यह समाचार सुनकर कोहराम मच गया. मेरी श्रीमतीजी संभावित लाठी चार्ज में मेरी निश्चित पिटाई की सोचकर बाकायदा हल्ला मचा रही थीं और मेरी बड़ी बेटी, चार साल की गीतिका, को डर था कि वीरू दादा (वीर बहादुर सिंह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के प्रति उसके मन में इतना सम्मान क्यूँ था, इसका पता मुझे अब तक नहीं चला है) मुझको जेल में डालकर खुद मेरी पिटाई करेगा. खैर परिवारजन के हर विरोध को अनसुना और अनदेखा कर मैं मिशन शिक्षक हड़ताल के लिए लखनऊ कूच कर गया.

लखनऊ में अलीगंज हाउसिंग स्कीम में हमारा मकान था. दरवाज़ा पिताजी ने खोला. उन्होंने मुझे घूरते हुए मेरा स्वागत किया और फिर मुझसे पूछा –‘नेताजी, टीचर्स’ स्ट्राइक में गिरफ़्तारी देने आये हो?'

मेरे हाँ कहने पर पिताजी नाराज़ होकर चले गए. माँ को मेरे इरादे पता चला तो उन्होंने हाय-हाय करना शुरू कर दिया पर मैं बहादुरी से हर बाधा को पार कर विधान सभा जाने के लिए तैयार होने लगा. डायनिंग टेबल पर नाश्ता करते समय माँ ने पूछा कि वो शाम को मेरे लिए क्या बनायें तो पिताजी अपने कमरे से ही बोले –
‘इनका शाम का खाना जेल में होगा.’

सर पर कफ़न बांधकर क्रांतिकारियों के अंदाज़ में हम अल्मोड़ा के हड़ताली अध्यापक बाकी हड़ताली साथियों से मिले. जुलूस निकाले जाने से पहले शिक्षक नेताओं के भाषण पर भाषण हो रहे थे पर हमारे दल के मुखिया के बार-बार अनुरोध करने पर भी मेरे काव्य-पाठ का नंबर ही नहीं आया. धरना देने के लिए हम विधान सभा की ओर बढ़े तो हम सबको शालीनता के साथ गिरफ्तार करके बसों में बिठा दिया गया और फिर नारे लगाते हुए सैकड़ों अध्यापकों को पुलिस लाइन ले जाया गया. किसी मंत्री ने तो क्या, किसी ऑफिसर ने भी हम लोगों से बात तक नहीं की. हम पुलिस लाइन में आशा कर रहे थे कि मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह हमको संबोधित कर कोई खुशखबरी सुनायेंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हम गिरफ्तार थे पर कहीं भी आ-जा सकते थे, चाहें तो अपने घर भी जा सकते थे. तीन-चार घंटे बीत गए, हमको जब किसी ने पानी तक को नहीं पूछा तो हम लोग आई. टी. चौराहे पर एक हलवाई की दुकान पर जाकर चाय-समोसा खा आये. छह बजे हमको रिहा कर दिया गया. हमारे लुटे-पिटे खिसियाये हुए साथियों के लिए रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड लौटने की व्यवस्था भी की गयी. मुझे तो पुलिस लाइन से तीन किलोमीटर दूर अलीगंज हाउसिंग स्कीम जाना था. मैंने इन्तज़ाम करने वाले इंस्पेक्टर से घर छोड़ने की व्यवस्था करने को कहा तो वो मुस्कुराकर बोला –
‘गुरूजी, खुद मुख्यमंत्री आपको घर तक छोड़ आते पर वो तो आ नहीं पाए हैं. अलीगंज तक का टेम्पो वाला एक रूपया लेता है, अब आपको एक रूपया देना तो बदतमीज़ी होगी, आप ऐसा करिए, मेरे कंधे पर चढ़ जाइए, मैं हनुमानजी बनकर आपको आपके घर तक पहुंचा दूंगा.’

मुझे इंस्पेक्टर की बात पर इतना गुस्सा आया, इतना गुस्सा आया कि मैं हंस पड़ा और उससे हाथ मिलाकर पैदल ही घर के लिए चल पड़ा. रास्ते में मैं शिक्षक आन्दोलन पर लिखी हुई अपनी कवितायेँ खुद को ही सुनाता जा रहा था. फिर जो हुआ उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. सफ़ेद सरकारी गाड़ियों के काफिले में से एक गाडी मेरे पास रुकी, उसमें हमारे मुख्यमंत्री श्री वीर बहादुर सिंह और केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री श्री नरसिंह राव बैठे हुए थे. दोनों ने प्यार से मुझे अपनी गाडी में बिठाया, मेरी बातें सुनीं, मेरी कवितायेँ सुनीं, उन्हें सराहा भी और हम अध्यापकों की हर मांग पूरी करने का आश्वासन भी दिया. मुझे तो लगा कि मैं सपना देख रहा हूँ पर यह तो सब सच था. पर फिर एक दम से मुझे एक ज़ोर का धक्का लगा, मुड़कर देखा तो गाडी में बैठे एक सज्जन बड़े प्यार से मुझसे पूछ रहे थे –
‘भाई साहब, ख़ुदकुशी करने के लिए आपको मेरी ही कार मिली थी? बीच सड़क पर आप अंधे-बहरे होकर कहाँ जा रहे हैं?’
‘हाय! मेरे सपने टूट गए, जैसे भुना हुआ पापड़. खिसियाकर खम्बे नोचने अब मैं कहाँ जाऊं? अल्मोड़ा जाकर साथियों को क्या जवाब दूंगा? अपनी श्रीमतीजी का सामना कैसे करूँगा? मेरे जेल जाने की सम्भावना को सोचकर माँ ने तो मेरा खाना भी नहीं बनाया होगा. अब मैं शिक्षक हड़ताल को लेकर और कवितायेँ नहीं लिखूंगा. पर घोर निराशा के बीच अपनी बेटी गीतिका की आशंका को निर्मूल होते देख मैं खुश भी था. उसके पापा को वीरू दादा ने न तो मारा था और न ही जेल में डाला था. क्या यह अपने आप में एक बड़ी खुशखबरी नहीं थी कि श्री बुद्धू लौटकर सकुशल अपने घर वापस आ रहे थे?’





शनिवार, 5 सितंबर 2015

आपा - मिशन 50 प्रतिशत

लखनऊ विश्वविद्यालय में मध्यकालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास में एम. ए. करना मेरे लिए एक सुखद अनुभव था. इतिहास पढना मुझे बेहद अच्छा लग रहा था. हमारे विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर नागर मुझे हमेशा बढ़ावा देते थे. प्रोफ़ेसर नागर के प्रोत्साहन ने ही मुझमें अपने ही साथियों को पढ़ाने की हिम्मत दिलाई थी. पांच-छह साथियों को तो मैं अब बाकायदा पढाने भी लगा था.

हमारे क्लास में एक बुजुर्गवार मोहतरमा थीं. उनका असली नाम न बताकर उन्हें सिर्फ आपा कह लेते हैं. मामूली शक्लो-सूरत की आपा के चेहरे से सिर्फ मायूसी और बेबसी बरसती थी. इतिहास ज्ञान के मामले में वो पूरी तरह पैदल थीं. आपा मुगले आज़म वाली भारी-भरकम उर्दू बोला करती थीं और हिंदी लिखने में उन्हें हमेशा दिक्कत होती थी, अंग्रेजी से तो उनका छत्तीस का आंकड़ा था. उनका रिकॉर्ड था कि उन्होंने कभी प्रथम या द्वितीय श्रेणी के दर्शन नहीं किये थे. आपा मेरे सहपाठियों में मेरी सबसे बड़ी प्रशंसक थीं और उनके लिए मैं सुपर हीरो हुआ करता था. आपा को मुझे रोजाना एक घंटा अलग से पढ़ाना पड़ता था. मेरे क्लास की लड़कियां इस बात को लेकर मुझ पर खूब ताने कसती रहती थीं. उनके समझ में नहीं आता था कि इस निरूपा राय किस्म की आपा पर मैं अपना इतना वक़्त कैसे बर्बाद कर लेता हूँ. लड़कियों ने मुझसे इस रहस्य का उदघाटन किया कि आपा को उनके शौहर ने शादी के सात साल तक औलाद न होने की वजह से तलाक दे दिया था. अब आपा ने बी. एड. करने के दस साल बाद पढाई फिर से शुरू की थी. पर इन जानकारियों के बाद मेरे दिल में आपा के लिए इज्ज़त और बढ़ गयी और उनको पढ़ाने में मैं अब और भी ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा था.


आपा गाती बहुत अच्छा थीं, खासकर पुराने दर्द भरे नगमे गाने में तो उनका कोई जवाब ही नहीं था. खाली पीरियड्स में आयोजित संगीत गोष्ठियों में हमारी फरमाइश पर उन्होंने पता नहीं कितने गाने गाए होंगे. कोई न कोई पकवान बनाकर लाना और उसे सबसे बचा कर सिर्फ मुझे खिलाने की आपा की आदत, मुझ जैसे हॉस्टल का बेस्वाद खाना खाने वाले को बहुत पसंद थी. मेरे हॉस्टल और क्लास के भी साथी, महा बेशरम जनाब खान साहब की नाक बहुत तेज़ थी, वो आपा के पास बैठकर सिर्फ खुशबू से यह जान लेते थे कि आपा आज क्या माल लेकर आई हैं. खान साहब आपा पर ताने कसते हुए कहते थे-


‘गोपू बनिए की आये दिन खातिर और अपने खान भैया को सिर्फ ठेंगा? आपा, कुछ तो शर्म करो.’

आपा भी ज़ोरदार जवाब देने में माहिर थीं –

‘गोपू मेरा उस्ताद है उसकी खातिर तो मैं ऐसे ही करुँगी और तेरी खातिर तो सिर्फ डंडों से ही करुँगी. मैंने अब तक तीन-तीन डंडे ही देखें हैं पर चार कभी नहीं, मुझ पर तेरा साया भी पड़ गया तो एम. ए. में मेरे चार डंडे आयेंगे. गुरु-दाक्षिणा में वो चारो डंडे तेरे सर पर ही तो फोडूंगी.’


आपा को आंसर शीट में क्या लिखना है, इससे ज्यादा मैंने यह सिखाया कि उन्हें उसमें क्या नहीं लिखना है और यह भी सिखाया कि उन्हें हर सवाल के जवाब को बराबर तवज्जो देनी है. आपा की गाढ़ी उर्दू की जगह अब सरल हिंदी ने ले ली थी. मेरी और आपा की मेहनत रंग लाई. मेरे एम. ए. पार्ट वन में उच्चतम अंक आये और आपा के आये 49 प्रतिशत. आपा ने हम दोनों की सफलता की पहली किश्त की क्लास भर में मिठाई बांटी फिर एम. ए. फाइनल में हम आपा-मिशन 50 प्रतिशत में जुट गए. एम. ए. फाइनल में मैंने टॉप किया और आपा के कुल 52 प्रतिशत अंक आये.

आपा के वालिद का एक मुस्लिम कन्या विद्यालय के मैनेजमेंट में काफी दबदबा था. एम. ए. में 50 प्रतिशत अंक लाने पर आपा की वहां नौकरी पक्की हो जानी थी. आपा को एम. ए. की सफलता पर नौकरी मिल भी गयी. आपा-मिशन 50 प्रतिशत की सफलता, उनको नौकरी मिलने, मेरे टॉप करने और यूजीसी फ़ेलोशिप मिलने की मिली-जुली खुशी में आपा के घर पर दावत रखी गयी. उनके वालिद, उनकी वालिदा, सभी मेरे नाम से अच्छी तरह वाकिफ थे. मुझे ज़िन्दगी में कभी एक साथ इतनी दुआएं नहीं मिलीं, एक साथ कभी इतना प्यार नहीं मिला. मेरे सामने तोहफों का अम्बार लगा था लेकिन खुश होने की जगह मेरी आँखें आंसुओं से भरी हुई थीं.

इसके बाद आपा की ज़िन्दगी में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हुआ. कुछ साल बाद दो बच्चों के बाप, खाते-पीते परिवार के एक विधुर से उनकी शादी हो गयी. आपा का माँ बनने का सपना भी पूरा हो गया. आपा लखनऊ से बाहर चली गयीं. मेरी लखनऊ यूनिवर्सिटी की जॉब छूटी तो फिर मैंने कुमाऊँ यूनिवर्सिटी जॉइन कर ली. आपा से फिर मुलाक़ात नहीं हुई पर मुझे आज भी याद आता है बड़े प्यार और अधिकार से उनका मुझे गोपू कहकर बुलाना, याद आते हैं उनके गाए हुए खूबसूरत नगमे, याद आते हैं उनके बनाए हुए स्वादिष्ट पकवान, पर सबसे ज्यादा याद आती हैं – बे-इन्तहा दुलार बरसाती हुई उनकी ममता भरी आँखें.