आज तक हमारे देश में किसी ने कभी किसी के भी मुख से किसी महिला के लिए ‘पुत्रीवती भव’ का आशीर्वचन देते हुए सुना है? खैर, मैंने तो कभी नहीं सुना. मैंने अपने जीवन में ऐसे सैकड़ों पंडितों, मौलवियों, दरवेशों, ओझाओं, बाबाजियों, नीम-हकीमों और नीम-हकीमनियों को देखा है जो अपना वंश चलाने के लिए, पुत्र की आस में सूखे जा रहे बेवकूफ़ अकबरों और जोधा बाईयों को एक जांनशीन होने की शर्तिया गारंटी दिलाकर उन्हें चूना लगाते हैं.
मेरी दोनों बेटियां, मेरी बेटियां कम और मेरी मित्र ज्यादा हैं. वो दोनों ही स्त्री-पुरुष की समानता में नहीं बल्कि पुरुष की तुलना में स्त्री की श्रेष्ठता में विश्वास करती हैं और मैं भी उनसे किंचित मत-भेदों के साथ ऐसा ही सोचता हूँ पर आमतौर पर बेटा कुनबा-तार और बिटिया, परिवार के लिए बोझ मानी जाती है. हमारे घर पहली बिटिया आई तो हमारे हितैषियों ने हमको ढाढस बंधाया कि यह बिटिया अपने लिए घर में भैया ही लाएगी पर उनकी भविष्यवाणी के विपरीत हमारे यहाँ दूसरी बिटिया आ गयी. मेरी श्रीमतीजी ने अपने मायके, रामपुर में बिटिया को जन्म दिया था. तब अल्मोड़ा में, हमारे घर में फ़ोन नहीं था लेकिन मेरे एक मित्र का फ़ोन नंबर ससुराल वालों को पता था जहाँ से कि आवश्यक सूचना मुझ तक पहुंचाई जा सकती थी. अब चूँकि हमारे दूसरी बिटिया पैदा हुई इसलिए मेरी ससुराल वालों को मुझे फ़ोन करके सूचना भिजवाने का साहस ही नहीं हुआ, बस मुझे बिटिया के जन्म की सूचना का टेलीग्राम कर दिया गया जो कि दुर्भाग्य से मेरे विभाग के पते पर 5 दिन बाद पहुंचा. यह खुशखबरी लेकर मेरे एक मित्र (खुद दो बेटियों के पिता) आये और मुझसे डरते-डरते बोले –
‘जैसवाल साहब एक खबर दें, आप नाराज़ तो नहीं होंगे?’
मैंने उन्हें अभयदान दिया तो उन्होंने मेरी दूसरी बिटिया के जन्म की सूचना वाला टेलीग्राम मुझे पकड़ा दिया.
इस सूचना मिलने के छह घंटे बाद ही मैं रामपुर में अपनी प्यारी सी गुड़िया के पास था. पर वहां सब यही सोच रहे थे कि दूसरी बिटिया के जन्म की खबर सुनकर मैं नाराज़ हो गया हूँ, इसलिए अब तक उसे देखने भी नहीं आया हूँ. अल्मोड़ा पहुंचकर जब मैंने अपने मित्रों में लड्डू बांटे तो वो मुझे बधाई कम और सांत्वना ज्यादा दे रहे थे. ये बेटी-विरोधी रवैया तो समाज के सबसे पढ़े-लिखे तबके का था. बाकी आम लोगों की मानसिकता के बारे में तो सोचकर भी मुझे डर लग रहा था.
दो बेटियों के शुभागमन के बाद हमने तो अपना परिवार सम्पूर्ण मान लिया पर लोगों का तो यही कहना था कि परिवार तो तभी सम्पूर्ण होगा जब एक बेटा भी हो जाय. मेरी माँ, ससुराल पक्ष और दर्जनों तथाकथित हितैषियों के निशुल्क और बिन-मांगे परामर्श के बावजूद हमने दो बेटियों तक ही अपने परिवार को सीमित रखने का निर्णय लिया.
एक बार अल्मोड़ा में मेरे एक आत्मीय मुस्लिम परिवार में मुझे सपरिवार शादी में बुलाया गया. मैं मर्दों की टोली में, और मेरी 10 और 8 साल की बेटियां अपनी मम्मी के साथ महिलाओं की टोली में शामिल हो गईं. महिला-मंडली ने मेरी श्रीमतीजी और बच्चियों का स्वागत किया. दो बुजुर्गवार खालाओं ने शरबत, मिठाई वगैरा सर्व किये जाने से पहले ही मेरी श्रीमतीजी पर सवालों की झड़ी लगा दी –
‘कहाँ रहती हो?’ ‘खाविंद क्या करते हैं?’ ‘कितने बच्चे हैं?’
मेरी श्रीमतीजी के और जवाब तो उन्हें ठीक लगे पर उनका- ‘हमारे दो बच्चे हैं.’ वाला जवाब खालाओं के समझ में नहीं आया. एक खाला ने पूछा – तुम्हारे दो बच्चे हैं तो उनको साथ क्यूँ नहीं लाईं?’
मेरी श्रीमतीजी ने मुस्कुराकर बेटियों की तरफ इशारा करते हुए कहा –‘लाई तो हूँ, यही तो हैं हमारे दोनों बच्चे.’
दोनों खालाओं के तो मानों पैरों तले ज़मीन सरक गयी. दोनों हैरत से एक साथ बोलीं – ‘हाय, हाय, कोई बेटा नहीं है तुम्हारे?’
मेरी पत्नी ने इस पर हामी भरी तो एक खाला ने आह भरकर कहा – ‘बच्चियां तो तुम्हारी काफी बड़ी हो गयी हैं, अब तो तुमको सब्र करके बेटियों से ही काम चलाना पड़ेगा.’
मेरी छोटी बेटी रागिनी- ‘बेटियों से ही काम चलाना पड़ेगा’ वाला जुमला सुनकर आग बबूला हो गयी. वह अपनी मम्मी और अपनी दीदी, दोनों को खींचते हुए महिला-मंडली की क़ैद से छुड़ाकर मेरे पास ले आई. रागिनी की ज़िद पर बकौल उसके, उन बदतमीजों की महफ़िल छोड़कर हम बिना शादी अटेंड किये हुए, फ़ौरन बाहर निकल आये और मुझ बेचारे को पूरे परिवार को एक रेस्त्राँ में ले जाकर, पेट पूजा करानी पड़ी.
अंतिम किस्सा मेरे मित्र स्व-घोषित- धन्वन्तरि (महानतम आयुर्वेदाचार्य) का है. इन मित्र का नाम बताने की मुझमें हिम्मत नहीं है, बस इतना बता सकता हूँ कि वो हमारे विश्वविद्यालय के विज्ञान संकाय के एक विभाग के चमकते हुए वरिष्ठ सितारे थे. हमारे धन्वन्तरि अपने वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा पुत्र होने की शर्तिया दवा खोज लेने का दावा करते थे. मुझे वो बार-बार समझाते थे कि मैं उनकी दवा को आज़माकर अपनी बेटियों को एक भाई का उपहार दूं पर मैं हर बार उनकी बात मान लेने के स्थान पर उनकी पीठ पर दो-चार धौल जमाकर उनकी बात हवा में उड़ा देता था. पर धन्वन्तरिजी तो मेरा कल्याण करने के लिए कटिबद्ध थे. एक बार उन्होंने बाज़ार जा रही मेरी धर्मपत्नी का रास्ता रोक कर उनके सामने अपनी बात रक्खी –
‘भाभीजी, आप से जैसवाल साहब की एक शिकायत करनी है. मेरे लाख समझाने पर भी वो बेटा होने की हमारी शर्तिया दवा आज़माने को तैयार नहीं हैं. आप उन्हें समझाइए और वो अगर न भी मानें तो आप हमारी दवा का खुद सेवन कीजिये. आपके घर चाँद सा बेटा होने की गारंटी हमारी.’
इस बेशर्मी के ऑफर को सुन कर मेरी श्रीमतीजी का खून खौल उठा पर उन्होंने बड़ी शांति से जवाब दिया – ‘भाई साहब, हम लोग अपनी दो बेटियों के साथ खुश हैं. हमको किसी बेटे की चाहत नहीं है. आपको मुझसे ऐसी इंडीसेंट बात नहीं करनी चाहिए.’
मुझको जब इस काण्ड का पता चला तो मैं गुस्से से तमतमाता हुआ धन्वन्तरिजी का विधिवत क्रिया-कर्म करने के लिए उनकी खोज में निकल पड़ा. वो तो मुझे कहीं नहीं मिले किन्तु उनके विभाग में सभी मित्रों को मैं यह ज़रूर बता आया कि मेरा इरादा किसी सार्वजनिक स्थल पर उनकी जमकर धुनाई करने का है.
अपने मित्र, धन्वंतरि की धुनाई करने के मेरे इरादे धूल में मिल गए. इधर मैं उनको खोज रहा था और उधर वो खुद मुझे ढूंढ़ते हुए मेरे विभागीय कक्ष में पहुँच गए. मैं जब तक उन्हें खरी-खोटी सुनाना शुरू करूँ, उन्होंने मेरी श्रीमतीजी से बेहूदी बात करने की गुस्ताखी के लिए मुझसे हाथ जोड़कर माफ़ी मांगी. मैंने उन्हें गालियों भरा प्रवचन दिया और आगे से कभी किसी महिला से ऐसी बदतमीजी न करने की हिदायत देकर किस्से को ख़त्म किया.
मित्र धन्वन्तरि ने हमारी मित्रता की पुन-र्स्थापना की खुशी में मुझसे चाय पिलाने की फरमाइश कर डाली. चाय पीते हुए उन्होंने बड़े प्यार से पूछा – ‘यार जैसवाल, तुमने मुझे दिल से माफ़ किया या नहीं?
मैंने जवाब दिया – ‘अब तुम मुझसे इतने बड़े होकर भी माफ़ी मांग रहे हो तो तुम्हें माफ़ करने के सिवा मैं और क्या कर सकता हूँ?
मित्र ने फिर कन्फ़र्म किया – ‘पक्का माफ़ कर दिया?’
मैंने कहा – हाँ, हाँ, अब क्या स्टाम्प पेपर लिखकर दूँ?’
धम-धम कूटे जाने से पहले हमारे धन्वन्तरि का भोला सा सवाल था– “फिर हमारी सलाह पर हमारा अचूक नुस्खा ट्राई क्यूँ नहीं कर लेते?’
इस किस्से का क्लाइमेक्स अप्रत्याशित है. धन्वन्तरिजी के परिवार में तीन बेटियां और एक बेटा था. एक और बेटे की चाहत में उन्होंने अपनी ईजाद की गयी चमत्कारी दवा का प्रयोग अपनी श्रीमतीजी पर कर डाला. शीघ्र ही उनके प्रयोग का सु-फल सामने आ गया. पैंतालिस साल की उम्र में धन्वन्तरिजी चौथी बिटिया के पिता बन गए. उनके घर जाकर बधाई देकर हम मित्रों ने उनसे जब लड्डुओं की डिमांड की तो वो गुस्से में हमारे पीछे मच्छरदानी का बांस लेकर दौड़ पड़े. धन्वन्तरिजी ने बरसों की तपस्या से तैयार की गयी अपनी चमत्कारी दवा को नाली में बहा दिया.
बेटियों के साथ सेल्फी लेने से, ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ गाने से, या दो-चार नारी-कल्याण विषयक खोखले कानून बनाने से बात बनने वाली नहीं है, समाज में हमारे धन्वन्तरिजी की मानसिकता वालों का ही बहुमत हैं. मुझे उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब ‘पुत्रीवती भव’ के आशीर्वचन के फलीभूत होने पर जश्न मनाया जायेगा. पुत्रो की चाह में, अपने घर में जनानी पलटन तैयार करने वाले लालू प्रसादों के दर्शन दुर्लभ हो जायेंगे और कन्या जन्म पर बधाई देने वालों और लड्डू मांगने वालों को खदेड़े जाने के स्थान पर उनका खुले दिल से स्वागत-सत्कार होगा.