सुहाग –
मैंने 5 वर्ष
लखनऊ विश्वविद्यालय में और 31 वर्ष कुमाऊँ विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है
लेकिन मैं कभी भी विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर नहीं बैठा. आज तो विश्वविद्यालयों में
रोटेशनल हेडशिप का चलन है लेकिन मेरे सेवा-काल में एक बार जो विभागाध्यक्ष
बन जाता था वो अवकाश-प्राप्ति तक उस कुर्सी पर जमा रहता था. आमतौर पर विभागाध्यक्ष
अपने अधीनस्थ अध्यापकों पर अपने पद का जम कर रौब गांठा करते थे और अपने अधिकारों
का भरपूर दुरुपयोग भी करते थे. अपनी बेबसी पर मैंने एक शेर कहा था –
‘कौन कहता है,
तबाही का सबब मिलता नहीं,
जो चिपक जाता है,
कुर्सी से, कभी हिलता नहीं.’
मेरे एक
विभागाध्यक्ष मुसोलिनी के चचेरे और हिटलर के सगे भाई थे. मैं एक बार शरदावकाश के
बाद 10.30 पर विभाग पहुंचा. मैंने विभागाध्यक्ष महोदय को नव-वर्ष की शुभकामनाएं
दीं तो उन्होंने अपने दांत निपोर कर मुझसे कहा –
‘मैंने आपका बहुत
देर इंतज़ार किया, आप 10.00 के बजाय 10.20 तक नहीं आए तो मैंने डीन से आप के समय से
न आने की रिपोर्ट कर दी है.’
मेरे एक मित्र के
साथ तो और भी बड़ा हादसा हुआ. वो छुट्टी लेकर अपने घर गए फिर उन्होंने अपने पिताजी
की बीमारी का हवाला देकर अपनी छुट्टी बढ़ाने के लिए विभागाध्यक्ष को टेलीग्राम किया
पर उन्होंने तुरंत जवाबी टेलीग्राम किया –
‘लीव नॉट
ग्रांटेड’
इस जवाबी टेलीग्राम पर भी मित्र जब वापस नहीं आए तो विभागाध्यक्ष ने कुलपति और कुलसचिव को भेजी गई अपनी रिपोर्ट
में केवल इतना लिखा –
‘डॉक्टर --------
इज़ एब्सकोंडिंग.’
एकाद साल तो
मैंने अपने आक़ा के ज़ुल्मो-सितम बर्दाश्त किए पर फिर मैं अंजाम की परवाह किए बगैर
बागी हो गया. माई-बाप की हर घुड़की का बे-अदबी के साथ जवाब देना मैंने
अपना फ़र्ज़ मान लिया.
हम लोगों के झगड़े
हमारे कैंपस में कई बार चर्चा में आए और कई बार कुलपति तक भी पहुंचे पर हम दोनों
योद्धाओं ने अपनी-अपनी तलवारें म्यान में नहीं रक्खीं पर जब विभागाध्यक्ष
महोदय को इस अनवरत विभागीय झगड़े के कारण कुलपति महोदय से झाड़ कहानी पड़ी तो हमारे खूनी चंडाशोक, शांति-पुजारी, धम्माशोक बन गए. उन्होंने अपने
विभाग के सभी अध्यापकों को अपने कक्ष में बुलाया, प्यार से हम सबको बिठाया, जल-पान
कराया फिर बहुत ही मीठे स्वर में वो मुझसे कहने लगे –
‘जैसवाल साहब,
आपका खून बहुत गर्म है, बुरा मत मानिएगा, आप थोड़े इम्प्रैक्टिकल और थोड़े ना-समझ भी
हैं. देखिए, विभागाध्यक्ष से हमेशा बनाए रखने में ही आपका फ़ायदा है. विभागाध्यक्ष,
अपने अधीनस्थ अध्यापकों के लिए वही हैसियत रखता है जो एक पति, अपनी पत्नी के लिए
रखता है.’
मैंने नम्रता से
पूछा –
‘सर, क्या मैं यह
समझूं कि आप हमारे सुहाग हैं?’
सर ने जवाब दिया –
‘यही समझ लीजिए
कि मैं आप सब का सुहाग हूँ. क्या आप अपने सुहाग की सलामती की दुआ नहीं करेंगे?’
मैं अपनी कुर्सी
से खड़ा हो गया और उनसे हाथ जोड़कर बोला –
‘सर, जान-बक्शी
हो तो मैं सच-सच बोलूँ?’
हेड साहब ने
अभयदान दिया तो मैंने कहा -
‘मैं अपने
साथियों की तो नहीं जानता पर खुद मैं तो वो सुहागन हूँ जो कि भगवान से रोज़ ही अपना सुहाग उजड़ने की
प्रार्थना करती है.’
मेरे ह्रदय के
सच्चे बोल सुनकर हमारे सुहाग का पारा फिर आसमान पर चढ़ गया और हमारे विभागीय दाम्पत्य-जीवन
में शांति-स्थापना का उनका यह प्रयास हमेशा-हमेशा के लिए निष्फल हो गया.