1980 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के इतिहास विभाग में जब मेरी नियुक्ति हुई थी तब अल्मोड़ा में किराए के मकान के नाम पर आम तौर पर दो-दो कमरों के खोखे हुआ करते थे और उनकी लोकेशन ऐसी हुआ करती थी कि सड़क से उन तक पहुँचने के लिए या तो आपको पर्वतारोहण करना पड़ता था या फिर पाताल लोक तक नीचे उतरना पड़ता था.
अपनी शादी से पहले मैंने स्टेडियम के नीचे, खत्यारी मोहल्ले में जो किराए का मकान लिया था, उसे मेरे मित्र लोग पाताल-लोक का कोल्ड स्टोर कहते थे. उसे पाताल-लोक तो इसलिए कहा जाता था क्यों कि उस तक पहुँचने के लिए अच्छी-ख़ासी नीची जगह पर स्थित स्टेडियम से भी करीब 150 मीटर नीचे उतरना पड़ता था और कोल्ड स्टोर इसलिए क्योंकि सीलन और धूप कम पहुँचने की वजह से वो गर्मी के दो-तीन महीने छोड़ कर बिना बिजली वाले फ्रीज़र का काम किया करता था.
मेरे इंगेजमेंट के बाद एक बार पापा (तब मेरे होने वाले ससुर जी) मेरे उस घर में आए थे और एक रात उन्होंने मेरे साथ बिताई थी. दिसंबर का महीना था, रूम हीटर चल रहा था पर उन्होंने पूरी रात कंपकंपाते हुए गुज़ारी थी. जाते-जाते वो मुझसे ये वादा ले गए कि मैं उनकी बेटी को उस फ्रीज़र में रहने को मजबूर नहीं करूंगा.
खत्यारी, क्या पूरे अल्मोड़ा में पानी मिला दूध बेचने के लिए विख्यात खत्यारी के ही निवासी, ठाकुर दीवान सिंह लटवाल मेरे घर भी दूध पहुँचाया करते थे. ठाकुर दीवान सिंह के ख्त्यारी में ही कई मकान थे. मैंने जब उनको अपनी व्यथा सुनाई तो उन्होंने फ़रमाया –
‘साहब बहादुर, आपकी किस्मत बहुत अच्छी है. आपके कॉलेज के ठीक नीचे मेरा मकान तैयार हो रहा है. आप उसको देख लो. टिपटॉप है. आप जैसे आला अफ़सर के लिए उस से अच्छा मकान तो अल्मोड़ा में कोई हो ही नहीं सकता.’
पहली बार मुझ गुरु जी को किसी ने आला अफ़सर कहा था. दिल तो बहुत खुश हुआ पर फिर ये शक़ भी हुआ कि जैसा आला अफ़सर मैं हूँ कहीं उसी तरह का ठाकुर दीवान सिंह का ये नया टिपटॉप मकान भी न हो.
मैंने मकान देखा तो मेरा सर चकरा गया. नए मकान के नाम पर ठाकुर दीवान सिंह 10-15 साल पुराने मकान की निचली मंज़िल के दो खोखे वाले एक हिस्से का जीर्णोद्धार करा रहे थे. फिर भी पाताल लोक के कोल्ड स्टोर से मुझे ये मकान बेहतर लगा पर इसमें ये कमी थी कि टॉयलेट के लिए आपको घर से बाहर बने टॉयलेट में जाना पड़ता था. मैंने इस शर्त पर मकान लेने के लिए हामी भरी कि ठाकुर मुझको मेरी यूनिट में ही टॉयलेट बनाकर देंगे.
बहुत हाय-हत्या के बाद और मोटा एडवांस लेने के बाद ठाकुर दीवान सिंह मेरी डिमांड के हिसाब से मकान में सुधार करवाने को तैयार हो गए.
अपने वादे के मुताबिक़ दो महीने के अन्दर ठाकुर दीवान सिंह ने अपनी ये तथाकथित नई कोठी मेरे हवाले कर दी.
अब इस आलीशान कोठी (या कोठरी?) में पहली बार अपने चरण रखते हुए हमारी श्रीमतीजी मगन होकर कितना नाचीं होंगी और कितना कूदी होंगी, इसकी चर्चा करना अपनी खुद की सुरक्षा के लिए क़तई मुनासिब नहीं होगा. लेकिन उनकी एक प्रतिक्रिया का उल्लेख तो किया ही जा सकता है –
‘सुनिए जी ! ये मकान तो शुरू होते ही ख़त्म हो जाता है.’
सवा सात फ़ुट ऊंची छत को देख कर उन्होंने मुझसे ये सवाल भी पूछा था –
‘ये छत, रात में हमारे ऊपर तो नहीं गिर पड़ेगी?’
और ठाकुर दीवान सिंह थे कि पूरे मोहल्ले में इस बात की चर्चा कर रहे थे कि कैसे उन्होंने मेरी फ़रमाइश पर - ‘मनी का भारी मिशयूज’ होते हुए भी मेरे लिए पक्की छत, पक्के फ़र्श और एक निजी टॉयलेट की व्यवस्था कर दी थी. मैंने कृतज्ञ होकर ठाकुर दीवान सिंह से कहा –
‘भला हो तुम्हारा ठाकुर दीवान सिंह ! तुम्हारी वजह से मुझे पक्की छत, पक्के फ़र्श और टॉयलेट वाला मकान नसीब हो गया वरना अब तक तो मैंने पेड़ पर ही ज़िन्दगी गुज़ारी थी.’
ठाकुर दीवान सिंह असली मकान मालिक थे. वो अपने दो भाइयों और अपने भांजे के साथ मिलकर राज, मिस्त्री और मज़दूर का काम करते हुए मकान तैयार करते थे और फिर उसकी पुताई और पेंट का काम भी खुद ही करते थे. पुताई-पेंट करते समय क्या मजाल कि पुताई के मटीरियल या पेंट की एक बूँद भी ज़मीन पर गिरकर बर्बाद हो.
ठाकुर दीवान सिंह जिलाधीश के यहाँ चपरासी थे और उनका काम था - रात में उनके फ़ोन अटेंड करना. इस गुरुतर कार्य को वो बहुत ज़िम्मेदारी से निभाते थे और इसके लिए वो खुद को बहुत अहमियत भी देते थे. रात 8 बजे से सुबह 5 बजे तक टेलीफ़ोन अटेंड करने की ड्यूटी निभाकर वो सुबह 7 बजे से 10-10 लीटर की दो जरीकैन में दूध भरकर उसका वितरण करने के लिए निकल पड़ते थे. हमारे घर में दूध देते समय वो 5-10 मिनट मेरे पास ज़रूर बैठते थे. उन्होंने एक बार मुझे बताया –
‘साहब बहादुर, पूरे जिले में ये एक अकेला ठाकुर दीवान सिंह ही है जिसके एक इशारे पर खुद जिलाधीश आधी रात को भी फ़ोन सुनने के लिए दौड़ा चला आता है.’
मेरा प्रभावित होना तो बनता ही था. मैंने नतमस्तक होकर उन से पूछा –
‘मित्र ठाकुर, रात में जब भी फ़ोन आता है तो क्या डी. एम. तुम्हारे इशारे पर दौड़ा चला आता है?’
ठाकुर दीवान सिंह ने फ़रमाया –
‘ना जी ! रात में आधे से ज़्यादा फ़ोन करने वाले तो लोकल नेता या छोटे-मोटे अफ़सर लोग होते हैं. उन्हें तो मैं ये कहके ख़ुद ही टरका देता हूँ –
‘साहब इज़ बिज़ी, टॉक इन दि मोर्निंग.’
ठाकुर दीवान सिंह, अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग बहुत अच्छा करते थे. अपने दोनों फ़ौजी भाइयों को उन्हें एक नया मकान तैयार करने के लिए बुलवाना था पर उन्होंने बहाना अपने 80 साल के पिता की बीमारी का बनाना था. उन्होंने दोनों भाइयों को टेलीग्राम कर दिया –
‘फ़ादर सीरियस. कम सून, इमीजियेटली.’
मैंने इस सन्देश के बारे में सुना तो उन से कहा –
‘ठाकुर दीवान सिंह, सून या इमीजियेटली में से तुम एक ही शब्द इस्तेमाल करते तो तुम्हारे 50 पैसे बच जाते.’
ठाकुर मुस्कुराकर बोले –
‘साहब बहादुर, टेलीग्राम करने में 50 पैसे तो बच जाते पर शायद तब मेरे दोनों भाइयों के साहब उन्हें छुट्टी नहीं देते.’
ठाकुर दीवान सिंह की बिटिया की शादी थी. हम सपरिवार शादी में शामिल हुए. शादी में जितना दूल्हे का स्वागत हो रहा था, उस से कहीं ज़्यादा स्वागत, वर-वधू को आशीर्वाद देने आए जिलाधीश महोदय का हो रहा था. भला हो ठाकुर दीवान सिंह का, उनकी कृपा से एक ग्रुप फोटोग्राफ़ में हम भी जिलाधीश महोदय और वर-वधू के साथ आ गए.
हमारे मकानों में पाइप लाइन पुरानी होने की वजह पानी की ज़बर्दस्त किल्लत रहती थी और अक्सर पानी की सप्लाई 10-10 दिन के लिए ठप्प हो जाती थी. हम किरायेदार लोग ठाकुर दीवान सिंह से नई पाइप लाइन डलवाने के लिए कहते थे तो वो कहते थे –
‘साहब लोगों ! आप लोगों के घर से बस, दो सौ गज़ नीचे नौला (प्राकृतिक जल-श्रोत) है जिसके पानी में तमाम विटामिन हैं. आप बढ़िया पानी के लिए थोड़ी मेहनत-मशक्क़त कर लीजिए. दस-पांच दिन में तो पाइप लाइन दुरुस्त हो ही जाएगी.’
एक बरस तक जल-संकट झेलकर मैंने दुगुने किराए पर दुगालखोला में एक बेहतर मकान में जाने का फ़ैसला कर लिया. ठाकुर दीवान सिंह ने मुझे अपने घर में रोकने की कोशिश में मुझसे वादा किया कि वो साल-दो साल में पाइप लाइन बदलवा कर मेरी शिक़ायत दूर कर देंगे. पर मैं नहीं माना और दुगालखोला के मकान में शिफ्ट हो गया. लेकिन मकान बदलने के बावजूद मेरी ठाकुर दीवान सिंह से दोस्ती बनी रही.
वो अक्सर घर के खेत की दो-चार मूली, कुछ टमाटर, थोड़ा हरा धनिया और चार-पांच हरी मिर्च लेकर हमारे घर आ जाते थे और फिर चाय पर हमारी दीर्घकालीन चर्चा हुआ करती थी.
एक गरीब परिवार के, मामूली पढ़े-लिखे, अदना सी नौकरी करने वाले शख्स ने अपनी मेहनत से कुल मिलाकर एक दर्जन मकान खड़े कर लिए थे और अपने आधा-दर्जन बेटे-बेटियों को और अपने बिना माँ-बाप के दो भांजे-भांजियों को भी अच्छा खासा सेटल कर दिया था.
ठाकुर दीवान सिंह सरकारी सेवा से रिटायर हो गए पर उनकी व्यस्तता में कोई कमी नहीं आई. मैंने अपनी ज़िन्दगी में 24 घंटों में 16-17 घंटे काम करने वाला उनके जैसा आदमी नहीं देखा था.
मैं उनसे मज़ाक़ में कहता था –
‘ठाकुर दीवान सिंह, अगर तुम दूध में इतना पानी नहीं मिलाते तो मैं तुम्हारे जैसे कर्मठ आदमी को ‘भारत रत्न’ दिलवा देता.’
ठाकुर दीवान सिंह मुस्कुराकर जवाब देते –
‘साहब बहादुर, दूध में पानी मिलाने का बिज़निस तो इस दूध की थैली आने से चौपट हो गया है. अब आप मुझको ‘भारत रत्न’ दिलवा ही दो.’
मैं ठाकुर दीवान सिंह को भारत रत्न तो नहीं दिलवा पाया पर मेरी नज़रों में वो ‘कर्मठ-रत्न’ हमेशा बने ही रहे. मेरे अल्मोड़ा प्रवास में ही ठाकुर दीवान सिंह स्वर्ग सिधार गए पर गए तो आखरी दिन भी काम करते-करते.
अलविदा ठाकुर दीवान सिंह ! तुम इस दुनिया से तो चले गए हो पर मेरे दिल से अभी भी नहीं गए हो. कौन जाने कब दूध से भरी दो जरीकैन लेकर मेरे घर का दरवाज़ा खटखटा कर, सुबह का अलार्म बनकर, मुझे आवाज़ देकर, तुम कहो –
‘साहब बहादुर, सुबह सात बजने को आए. क्या दूध नहीं लेना है? घोड़े बेच कर क्या सोते ही रहोगे?’