रमा जैसवाल का एक प्रकाशित शोध पत्र
प्रेमचंद के साहित्य में विद्रोहिणी नारी
(मैंने किंचित परिवर्तन कर इस शोध पत्र को दो भागों में विभाजित कर दिया है. आज
प्रस्तुत है इसका द्वितीय और अंतिम भाग.)
बंगला साहित्य में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय और उनके बाद
रवीन्द्र नाथ टैगोर व शरत् चन्द्र चट्टोपाध्याय ने बंग महिलाओं की सामाजिक स्थिति का
मार्मिक चित्रण किया है. नवजागरण काल में
मराठी में एच. एन. आप्टे,
गुजराती में
नर्मद व गोवर्धन राम त्रिपाठी, तेलगू में गुरजाड और मलयालम में चन्दू मेनन ने अपने-अपने
क्षेत्र की महिलाओं की सामाजिक स्थिति को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है.
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, उर्दू में, मिर्ज़ा हादी रुसवा ने लखनऊ की एक तवायफ़ उमराव जान अदा की जि़न्दगी
पर एक मार्मिक उपन्यास लिखा है. अल्ताफ़ हुसेन हाली की नज्मों - 'चुप की दाद' और 'मुनाजात-ए-बेवा' में औरत की त्यागमयी और दुःख भरी कहानी कही गयी है. हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी रचनाओं
में उत्तर भारतीय नारी की दुर्दशा को चित्रित किया है पर प्रेमचंद से पहले किसी और
साहित्यकार ने उत्तर भारतीय नारी के जीवन के हर अच्छे-बुरे पहलू को उजागर करने का
न तो बीड़ा उठाया और न ही उसके प्रस्तुतीकरण में वह महारत हासिल की जो कि प्रेमचंद
को हासिल हुई.
राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने भारतीय
नारी में धैर्य, सहनशीलता, सेवाभाव, त्याग, कर्तव्यपरायणता, ममता और करुणा का सम्मिश्रण देखकर कहा है -
‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी.’
परन्तु प्रेमचंद को अन्यायी के सामने नारी का
दुर्गा का रूप धारण करना अथवा चंडी का रूप धारण करना बहुत भाता है. प्रेमचंद यह
दर्शाते हैं कि ममता, कोमलता, सहनशीलता और त्याग की प्रतिमूर्ति भारतीय नारी आवश्यकता पड़ने पर सिंहनी भी बन
जाती है और अगर यह सिंहनी कहीं घायल हुई तो उसके प्रतिशोध की ज्वाला में बड़े से
बड़ा दमनकारी भी भस्म हो जाता है.
सामाजिक असमानता की शिकार भारतीय नारी पग-पग पर
शोषित और अपमानित होती है इसीलिए प्रेमचंद की विद्रोहिणी नारी दमनकारी सामाजिक
परम्पराओं को तोड़ने और उनकी अवमानना करने में सबसे आगे रहती है.
दहेज की प्रथा भारतीय समाज का कलंक है, इस एक प्रथा के कारण
स्त्री जाति को जितना अपमान और यातना झेलनी पड़ती है, उसका आकलन करना भी असम्भव
है. प्रेमचंद की अनेक कहानियों और उपन्यासों में स्त्रियां इस प्रथा के विरुद्ध
खड़े होने का साहस जुटा पाई हैं. उनकी कहानी ‘कुसुम’ की नायिका कुसुम, बरसों तक
अपने पति द्वारा अपने मायके वालों के शोषण का समर्थन करती है पर अन्त में उसकी
आँखे खुल जाती हैं और वह अपने पति की माँगों को कठोरता पूर्वक ठुकरा देती है. अपनी
माँ से वह कहती है-
‘यह उसी तरह की डाकाजनी है जैसी बदमाश लोग किया
करते हैं. किसी आदमी को पकड़ कर ले गए और उसके घरवालों से उसके मुक्ति-धन के तौर
पर अच्छी रकम ऐंठ ली.’
कुसुम की माँ थोड़े से पैसों की खातिर दामाद को नाराज़ करने की बात को अनुचित
कहती है तो वह जवाब देती है-
‘ऐसे देवता का रूठे रहना ही अच्छा ! जो आदमी
इतना स्वार्थी, इतना दम्भी, इतना नीच है, उसके साथ मेरा निर्वाह नहीं होगा. मैं कहे देती हूं, वहां रुपये गए तो मैं ज़हर खा लूंगी.’
अनमेल विवाह मुख्य रूप से दहेज की प्रथा का ही
परिणाम होता है. प्रेमचंद पुरुषों के बहु-विवाह और विधुरों के क्वारी कन्या से
विवाह करने के दुराग्रह को इसका कारण मानते हैं. प्रेमचंद के वे नारी पात्र जिनका
कि अनमेल विवाह हुआ है, कभी सुखी नहीं दिखाए जाते.
‘निर्मला’ उपन्यास की नायिका इसका ज्वलन्त उदाहरण है. निर्मला की अपने से दुगुनी
उम्र के पति के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है. जब अधेड़ पति अपनी जवानी के दम-ख़म और
बहादुरी का झूठा राग अलापते हैं तो उसे या तो उनसे घृणा होती है या उन पर उसे तरस
आता है.
‘नया विवाह’ कहानी की युवती आशा का विवाह अधेड़
लाला डंगामल से होता है. आशा, डंगामल के लाए नए-नए कपड़े और आभूषण पहन कर जवान
गबरू नौकर जुगल को रिझाती है. जुगल आशा से लाला जी के लिए कहता है कि वह उसके पति
नहीं बल्कि उसके बाप लगते हैं तो वह उसे डांटने के बजाय अपने भाग्य का रोना लेकर
बैठ जाती है और फिर उससे मज़ाक में कहती है कि वह उसकी शादी एक बुढि़या से करा
देगी क्योंकि वह उसको जवान लड़की से कहीं ज़्यादा प्यार देगी और उसे सीधे रस्ते पर
लाएगी. इस प्रसंग के बाद जुगल और आशा के संवाद दृष्टव्य हैं-
जुगल- यह सब माँ का काम है. बीबी जिस काम के लिए है, उसी काम के लिए है.
आशा- आखि़र बीबी किस काम के लिए है?
जुगल- आप मालकिन हैं, नहीं तो बता देता कि बीबी
किस काम के लिए है.
कहानी के अंत में आशा, अपना आँचल ढरकाते हुए जुगल को लाला जी के जाने बाद
अकेले में मिलने के लिए बुलाती है.
प्रेमचंद आशा के व्यवहार को सर्वथा स्वाभाविक मानते हैं, उनकी दृष्टि में आशा का
ऐसा करना कोई पाप नहीं है बल्कि अपने ऊपर हुए सामाजिक अन्याय के प्रति एक विद्रोह
मात्र है.
‘गबन’ उपन्यास की
नायिका जालपा मध्यवर्गीय परिवार की गहनों की शौकीन, ऐसी युवती है जिसे भौतिकवादी सुखों की खातिर पति का रिश्वत लेना भी गलत नहीं
लगता है परन्तु जब उसका पति रमानाथ खुद को जेल जाने से बचाने के लिए और रुपयों व
ओहदे के लालच में, पुलिसवालों के साथ मिलकर क्रान्तिकारियों के विरुद्ध झूठी
गवाही देता है तो वह उसके उपहारों को ठुकराते हुए उसे अपना पति मानने से इंकार कर
देती है-
‘ईश्वर करे तुम्हें मुंह में कालिख लगा कर भी
कुछ न मिले. --- लेकिन नहीं, तुम जैसे मोम के पुतलों को पुलिसवाले कभी नाराज़ नहीं करेंगे. ---- झूठी गवाही, झूठे मुकदमें बनाना और
पाप के व्यापार करना ही तुम्हारे भाग्य में लिखा गया. जाओ शौक से जि़न्दगी के सुख
लूटो.------ मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है मैंने समझ लिया कि तुम मर गए. तुम भी समझ
लो कि मैं मर गई.’
प्रेमचन्द
की प्रसिद्ध कहानी ‘जुलूस’ की मिठ्ठन अपने दरोगा पति बीरबल सिंह द्वारा निहत्थे
देशभक्त इब्राहीम अली पर कातिलाना हमला करने के लिए उसे धिक्कारती है. बीरबल सिंह
जब उसे अपनी तरक्की होने की सम्भावना बताता है तो वह कहती है-
‘शायद तुम्हें जल्द तरक्की भी मिल जाय. मगर
बेगुनाहों के खून से हाथ रंगकर तरक्की पाई तो क्या पाई! यह तुम्हारी कारगुज़ारी का
इनाम नहीं, तुम्हारे देशद्रोह की
कीमत है.’
शहीद इब्राहीम के जनाज़े में शामिल होने के बाद
मिट्ठन अपने अंग्रेज़ समर्थक पति बीरबल सिंह से अलग रहने का फ़ैसला भी कर लेती है पर
जब वह शहीद इब्राहीम अली की बेवा के सामने माफ़ी मांगने के लिए आए हुए बीरबल सिंह
को देखती है तो फिर वह उसे क्षमा भी कर देती है.
प्रेमचंद की कहानी ‘जेल’ की आन्दोलनकारी मृदुला,
किसान आन्दोलन में अपनी सास, अपने पति और अपने पुत्र को गंवाकर स्वयं भी आन्दोलन में कूद पड़ती है. वह
शहीदों के सम्मान में आयोजित जुलूस का नेतृत्व करती है और जेल जाती है.
प्रेमचंद के अनेक नारी पात्र साहस और वीरता में
पुरुषों से आगे हैं. ओरछा के राजा चम्पत राय की धर्मपत्नी और छत्रसाल की माँ, रानी सारंधा और वज़ीर हबीब का रूप धारण किए हुए तैमूर की बेग़म हमीदा इसका
प्रमाण हैं. सत्य के मार्ग पर चलते हुए जब ऐसे नारी पात्र अन्याय का सामना करते
हैं तो पाठक उनके चरित्र के प्रति श्रद्धानत हो जाता है.
प्रेमचंद अपनी रचनाओं के माध्यम से दो सन्देश
देना चाहते हैं - एक तो यह कि पुरुष स्त्री को अपने से कमज़ोर और अयोग्य समझकर उस
पर अत्याचार करने का पाप न करे और दूसरा यह कि यदि नारी जाति पर अत्याचार का
सिलसिला यूं ही जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब वह विद्रोहिणी बनकर अपने ऊपर ज़ुल्म
ढाने वाले पुरुष-प्रधान समाज को ही मिटा देगी.
‘कर्मभूमि’ उपन्यास में सुखदा व नैना हरिजनों
के मन्दिर पवेश के अधिकारों की खातिर जेल जाती हैं. उनके इस सामाजिक विद्रोह को
सफलता भी मिलती है. इसी उपन्यास में मुन्नी का चरित्र एक विद्राहिणी का चरित्र है.
दो गोरे सिपाही मुन्नी का बलात्कार करते हैं. मौका पाकर मुन्नी बीच बाज़ार में
बलात्कारी की हत्या कर देती है. अदालत में दोषमुक्त होने के बाद मुन्नी समाजसेवा
के कार्य में लग जाती है. अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेमचंद बार-बार विद्रोहिणी
नारी के साहस और क्रोध को सृजन का मोड़ देना चाहते हैं. समाज सुधार के प्रति
समर्पित एक साहित्यकार की नारी उत्थान के प्रति यह एक ईमानदार कोशिश है.
प्रेमचंद ने विद्रोहिणी नारी के उचित कार्यों
की स्तुति तो की ही है, साथ ही उन्होंने उसके
सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध व्यवहार का दायित्व भी नारी शोषक पुरुष समाज की लिंग-भेदी
सामाजिक मान्यताओं पर रख दिया है. पुरुष प्रधान समाज को प्रेमचंद का सन्देश है कि
जब तक लिंग-भेदी अन्याय समाप्त नहीं होगा, नारी विद्रोह करती रहेगी और जब तक उस पर अनाचार
होता रहेगा, समाज उन्नति नहीं कर सकेगा. और भारतीय स्त्रियों को उनका सन्देश वही है जो कि उनके
प्रिय शायर अल्लामा इकबाल ने किसी और प्रसंग में कहा है –
‘ख़ुदी को कर बुलंद इतना, कि हर तकदीर से पहले,
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है.’