आज फ़िल्म – ‘मणिकर्णिका दि क्वीन ऑफ़
झाँसी’ देखी. बहुत दिनों बाद फ़िल्म
देखते हुए जोश भी आया, गला भी रुंधा और आँखों में आंसू भी
आए.
कंगना रानाउत ने जिस तरह रानी लक्ष्मी बाई के
चरित्र को जीवंत किया है वैसा करने की कोई और अभिनेत्री सोच भी नहीं सकती है. इस
फ़िल्म के बाद निश्चित रूप से कंगना एक बेमिसाल अभिनेत्री के रूप में प्रतिष्ठित
होगी. एक योद्धा रानी के रूप में कंगना ने कमाल किया है. वह सुन्दर भी बहुत लगी है
और जुझारू योद्धा के रूप में भी छा गयी है.
रानी लक्ष्मी बाई को जिस प्रकार वीरगति
प्राप्त करते हुए दिखाया गया है वह फ़िल्म का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा है. इस दृश्य को
देखते समय मेरे तो लगातार आंसू बह रहे थे और मुझे यह बताने में किसी तरह की कोई
शर्म भी नहीं आ रही है.
इस फ़िल्म में काफ़ी कमियां हैं. अगर फ़िल्म के
निर्देशकों ने वृन्दावन लाल वर्मा का उपन्यास – ‘झाँसी की रानी’ पढ़ा होता और उसी के अनुरूप इस फ़िल्म की कहानी को ढालने का प्रयास किया
होता तो यह फ़िल्म लाजवाब हो सकती थी. रानी लक्ष्मी बाई का नाम आते ही सुभद्रा
कुमारी चौहान की कविता – ‘झाँसी की रानी’ की याद आ जाती है. फ़िल्म के प्रारंभ में सूत्रधार के रूप में कोई बुंदेला
हरबोला इस ओजस्वी कविता को आल्हा की शैली में गा सकता था.
कंगना के संवाद अच्छे हैं किन्तु उनको और
अधिक ओजस्वी बनाया जा सकता था.
कई फ़िल्म आलोचकों ने इस बात को उठाया है कि
इस फ़िल्म में लक्ष्मी बाई के अतिरिक्त सभी पात्रों को बहुत ही कम महत्व दिया गया
है. बालिका मनु के बचपन के साथी और बाद के नाना साहब पेशवा का तो कहानी में सिर्फ़
ज़िक्र होता है. तांतिया टोपे की भूमिका में सुनील कुलकर्णी, गुलाम गौस
की भूमिका में डैनी और झलकारी बाई की भूमिका में अंकिता लोखंडे ने अपनी प्रतिभा का
परिचय तो दिया लेकिन उनकी भूमिकाएं अनावश्यक रूप से छोटी कर दी गईं हैं. खल-पात्र
सदाशिव राव की भूमिका में ज़ीशान अयूब ने प्रभावित किया है.
इस फ़िल्म के अंग्रेज़ पात्रों को अंग्रेज़ी में
ही बोलते हुए और पृष्ठभूमि में उनके संवादों को हिंदी में प्रस्तुत किया जाता तो
बेहतर होता.
इस फ़िल्म में ग्वालियर के सिंधिया का रानी लक्ष्मी
बाई द्वारा अपमानित किया जाना बहुत रोचक है. लेकिन रानी लक्ष्मी बाई का एक प्रकार
से 1857 के बाकी सभी स्वतंत्रता सेनानियों से अलग-थलग दिखाया जाना, कहानी के
प्रभाव को कम करता है.
इस फ़िल्म में देशभक्तिपूर्ण गीत – ‘हम रहें या
ना रहें, भारत को रहना चाहिए’ बहुत ही
ख़ूबसूरत है.
फ़िल्म - ‘मणिकर्णिका -दि क्वीन ऑफ़ झाँसी’ शायद सुपर हिट फ़िल्म साबित न हो
लेकिन इस में कोई शक नहीं कि अपनी कमियों के बावजूद यह एक यादगार फ़िल्म है. कंगन
रानाउत के अभिनय के लिए तो इस फ़िल्म को एक बार तो ज़रूर देखा जा सकता है.