हम अपने बचपन से ही गुरु-वंदना सम्बंधित श्लोक, दोहे और कविताएं सुनते आए हैं. आज की भागदौड़ वाली और गला-काट प्रतियोगिता वाली ज़िंदगी में हमको सुकरात और चाणक्य सदृश गुरुजन तो मिलने से रहे लेकिन आज भी अपने काम के प्रति समर्पित और निष्ठा के साथ ज्ञान की ज्योति का चहुँ-ओर प्रसार करने वाले गुरुजन के दर्शन होना दुर्लभ नहीं हैं. इस संस्मरण में मैं ऐसे गुरुजन का उल्लेख करना चाहता हूँ जिन्होंने हमारे परिवार के सदस्यों के दिलों में एक ख़ास और कभी न मिटने वाली जगह बनाई है.
सबसे पहले मैं अपने बड़े भाई साहब और हमारी पीढ़ी के गुरु श्री कमल कांत का ज़िक्र करूंगा.
हमारे कमल भाई साहब की ज्ञान-पिपासा असीमित है. आज भी वो अपने ज्ञान-कोष को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने में संलग्न रहते हैं और फिर इस संचित ज्ञान को - दोऊ हाथ उलीचने का आनंद लेते हैं.
भाई साहब भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित होने से पहले भूगर्भ शास्त्र के प्रवक्ता रहे हैं और अवकाश-प्राप्ति के बाद वो 'कॉमन कॉज़' जैसी समाज-सेवी संस्था से सम्बद्ध हैं लेकिन वो एक अध्यापक के रूप में ही मेरे लिए सबसे आदरणीय हैं.
हमारे घर के सदस्यों की भाषा को सुधारने में कमल भाई साहब की प्रमुख भूमिका रही है. हम सब में साहित्य-प्रेम भी उन्होंने ही जागृत किया है. मुझे कक्षा दो तक संयुक्ताक्षर पढ़ना नहीं आता था जिसके कारण मेरी क्लास में खूब कान-खिंचाई होती थी. कमल भाई साहब ने मुझे कक्षा तीन से पहले इतना आलिम फ़ाज़िल बना दिया कि मैं अपनी पाठ्य-पुस्तकें ही नहीं, बल्कि साहित्यिक रचनाएं भी पढ़ने लगा.
हमारे बचपन में हमारे दो रूपये महीने के जेब खर्च में से भाई साहब हम से महीने में एक रुपया होम-लाइब्रेरी के लिए झटक लेते थे. उन दिनों मैं इसे अपना शोषण समझता था लेकिन छोटी उम्र में ही होम-लाइब्रेरी की बदौलत प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन, डेनियल डिफ़ो, चार्ल्स डिकेंस, लुइस कैरोल और न जाने किन-किन के ग्रंथों से उन्होंने मेरा परिचय करा दिया था.
आज मैं सत्तरवें साल में चल रहा हूँ लेकिन कमल भाई साहब आज भी मेरे विश्वकोश हैं, मेरे गूगल-गुरु हैं. आज भी मेरी तथ्यात्मक और भाषागत कमियों को वो खुलकर बताते हैं ,उनको दूर करते हैं. मुझे कमल भाई साहब से सिर्फ़ दो शिकायतें हैं -
पहली शिकायत यह है कि वो हमारे सवाल का जवाब कभी सीधा नहीं देते और सवाल के जवाब में सुकरात की तरह हमसे सवालों की झड़ी लगा कर हमारे सवाल का जवाब हम से ही उगलवाना चाहते हैं. बाद में जब हम थक कर चूर हो जाते हैं और अपने ही सवाल का खुद जवाब नहीं दे पाते तो फिर विस्तार से वो उसका जवाब देते हैं.
भाई साहब से मुझे दूसरी शिकायत यह है कि उनका इतिहास विषयक ज्ञान मुझ से अधिक है जिसके कारण मुझ जैसे भोले किन्तु आराम-तलब इंसान को कई बार मुश्किलों का सामना करना पड़ जाता है.
अब एक क़िस्सा कमल भाई साहब के जोशी सर का -
1956 में पिताजी का तबादला बिजनौर से लखनऊ हो गया. कमल भाई साहब ने बिजनौर से 9 वीं कक्षा उत्तीर्ण की थी और अब 10 वीं कक्षा के लिए उन्हें लखनऊ के 'बॉयज़ एंग्लो-बंगाली इन्टर कॉलेज में प्रवेश दिला दिया गया था.
उन दिनों उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में हाईस्कूल स्तर पर अलग-अलग पाठ्य-पुस्तकें प्रचलित थीं जिन में कक्षा 9 और कक्षा 10 में पाठ्यक्रम के अध्यायों में भी अंतर हुआ करता था. कमल भाई साहब को अब लखनऊ में बहुत से अध्याय ऐसे पढ़ने थे जिनको उन्हें बिजनौर में ही पढ़ा दिया गया था और बहुत से ऐसे थे जिन को उन्हें अपने स्तर पर ही पढ़ना था.
हिंदी और अंग्रेज़ी, इन दोनों विषयों में तो भाई साहब अपने स्तर पर कुछ भी तैयार कर सकते थे लेकिन बायोलॉजी में उन्हें ऐसी कठिन परिस्थिति का अपने स्तर पर समाधान करने में बहुत कठिनाई हो रही थी. भाई साहब के बायोलॉजी के गुरु जी, जोशी सर ने उनकी इस कठिनाई का अनुभव किया.
यह नया विद्यार्थी उन्हें बहुत मेधावी तो लगा लेकिन विषय के कई अध्याय समझने में उसे बहुत कठिनाई हो रही थी. जोशी सर ने अपने इस नए विद्यार्थी की समस्या को विस्तार से जाना और फिर उन्होंने उसका निदान भी खोज लिया.
जोशी सर अपनी साइकिल से हमारे घर पहुंचे और फिर उन्होंने पिताजी के साथ इस समस्या के समाधान के विषय में चर्चा की. उन्होंने भाई साहब को बायोलॉजी में ट्यूशन देने का सुझाव दिया जिसको पिताजी ने तुरंत स्वीकार कर लिया. पिताजी ट्यूशन के लिए भाई साहब को बाहर नहीं भेजना चाहते थे इसलिए जोशी सर ने सप्ताह में तीन दिन हमारे घर आकर उन्हें पढ़ाने का ज़िम्मा ले लिया.
एक अध्यापक का किसी विद्यार्थी के घर आकर उसे ट्यूशन देना कोई अचरज की बात नहीं थी लेकिन जो बात जोशी सर की महानता की द्योतक थी , वह यह थी कि उन्होंने इस सेवा के लिए किसी भी प्रकार का पारश्रमिक लेने से इंकार कर दिया. एक प्राइवेट इन्टर कॉलेज के अध्यापक को तब क्या वेतन मिलता होगा? अपनी सीमित आय को अतिरिक्त श्रम कर के कौन नहीं बढ़ाना चाहता है? लेकिन जोशी सर दूसरी मिट्टी के ही बने थे. उन्होंने भाई साहब को नियमित रूप से घर आ कर पढ़ाया और गुरु-शिष्य की मेहनत रंग लाई. भाई साहब ने प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल उत्तीर्ण किया.
एक ऐसा ही क़िस्सा मेरे छोटे भाई साहब कानन विहारी का है.
कानन भाई साहब ने कक्षा 9 इटावा से उत्तीर्ण की और कक्षा 10 में उनका प्रवेश रायबरेली में हुआ. उनकी समस्याएं भी बड़े भाई साहब की सी ही थीं लेकिन गणित विषय में तो यह समस्या भयावह थी क्योंकि काफ़ी दिनों तक उनके कॉलेज में गणित का कोई अध्यापक ही नहीं था.
सत्र प्रारम्भ होने के लगभग तीन महीने बाद नक़वी साहब गणित के अध्यापक नियुक्त होकर वहां आए. नक़वी साहब को आदि से अंत तक गणित का पाठ्यक्रम पढ़ाना था. नक़वी साहब ने पहले दिन से ही दो-दो घंटे के एक्स्ट्रा क्लासेज़ लेकर विद्यार्थियों के जीवन को गणितमय बना दिया. छह महीनों में ही नक़वी साहब ने गणित में हाईस्कूल का पूरा कोर्स विद्यार्थियों को पढ़ा दिया.
लहीम-शहीम व्यक्तित्व वाले नक़वी साहब का डंडा उन से से भी ज़्यादा मोटा-तगड़ा हुआ करता था और उसका इस्तेमाल हर असावधान-लापरवाह विद्यार्थी पर करना वो अपना अधिकार समझते थे. ऐसे कर्तव्य-निष्ठ और प्रतिबद्ध किन्तु सख्त अध्यापक को आम विद्यार्थी एक जल्लाद के रूप में ही याद करता था.
हमारे कानन भाई साहब की बुद्धिमत्ता देख कर नक़वी साहब ने उनके सामने यह लक्ष्य रख दिया कि उन्हें ज़िला रायबरेली में हाईस्कूल में टॉप करना है. भाई साहब ने अपने गुरु की अपेक्षाओं पर खरा उतरते हुए हाईस्कूल में रायबरेली में टॉप किया और उत्तर प्रदेश में मेरिट में 20 वां स्थान प्राप्त किया.
अंत में मैं अपने पूज्य गुरु जी डॉक्टर भगवानदास माहौर का उल्लेख करूंगा.
बुंदेलखंड कॉलेज झांसी में बी. ए. में मुझे हिंदी-काव्य पढ़ाने वाले डॉक्टर भगवान दास माहौर एक आदर्श अध्यापक थे.
चंद्रशेखर आज़ाद , भगत सिंह के इस क्रांतिकारी साथी ने सोलह साल की उम्र में एक सरकारी मुखबिर पर अदालत के प्रांगण में गोली चलाई थी. बरसों जेल की सज़ा काटने के बाद जेल से निकल कर इस किशोर ने अपनी छूटी हुई पढ़ाई पूरी की और फिर बुंदेलखंड कॉलेज के हिंदी विभाग को एक अध्यापक के रूप में सुशोभित किया.
माहौर गुरु जी का पढ़ाने का तरीक़ा ऐसा था कि वो खुद कविता में डूब जाते थे और जागरूक विद्यार्थियों को भी उसमें डुबा-डुबा देते थे.
गुरु जी कविता की व्याख्या और उसके सन्दर्भ को रटने-रटाने के सख्त ख़िलाफ़ थे इसलिए रट्टू तोते उनकी कक्षा में ऊँघते रहते थे लेकिन मेरे जैसे साहित्य-प्रेमी विद्यार्थी मन्त्र-मुग्ध होकर उनके व्याख्यान सुनते थे.
मेरे लिए तो कॉलेज में गुरुजी के व्याख्यान बहुत कम पड़ते थे. मैं फिर स्टाफ़ रूम में जाकर उनका सर खाता था. स्टाफ़ रूम में मेरे घुसते ही अन्य अध्यापक मुझे वहां से भगाने की कोशिश में लग जाते थे. माहौर गुरु जी ने स्टाफ़ रूम में मेरा ऐसा विरोध देख कर मुझे अपने घर आने की इजाज़त दे दी.
छुट्टियों के दिनों में मैं गुरु जी के घर जाकर घंटों हिंदी-साहित्य की बारीकियां समझता था और इसके बदले में मुझे उनकी श्रीमती जी की यानी कि हमारी ताईजी के हाथों की बनी मठरियां और लड्डू खाने को मिलते थे.
हिंदी साहित्य में मेरी अभिरुचि जागृत करने में कमल भाई साहब के बाद अगर किसी का हाथ है तो माहौर गुरु जी का है.
माहौर गुरु जी का समस्त जीवन अनुकरणीय है. वो एक महान देशभक्त थे किन्तु मेरे लिए वो सबसे पहले एक आदर्श अध्यापक थे.
मैंने अपने जीवन में बहुत से पैसे कमाने वाले गुरुजन देखे हैं और आज के ज़माने में उन जैसों को ही अपने पेशे में सफल माना जाता है लेकिन ऐसे गुरुजन हमारे दिलों में कभी जगह नहीं बना पाते.
हमारे दिल में अपना स्थायी निवास बनाने वाले गुरुजन तो वही होते हैं जो कि सादा-जीवन, उच्च विचार में विश्वास करते हुए निरंतर निस्वार्थ भाव से ज्ञान का प्रसार करते हैं. हमको ज्ञान का दीपक दिखाकर सन्मार्ग की ओर ले जाने वाले ऐसे महानुभावों को हम अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए कहते हैं -
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥