रविवार, 25 अक्टूबर 2020

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से कुछ अलग हट कर

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे -

जो झूठे ज़ालिम अहमक हैं
मसनद पे बिठाए जाते हैं
मंसूर कबीर सरीखे सब
सूली पे चढ़ाए जाते हैं
क्यूं दीन-धरम की खिदमत में
नित लाश बिछाई जाती हैं
नफ़रत वहशीपन खूंरेज़ी
घुट्टी में पिलाई जाती हैं
बोली औरत की अस्मत की
हाटों में लगाई जाती है
नारी-पूजन की क़व्वाली
हर रोज़ सुनाई जाती है
बिकता हर दिन ईमान यहाँ
गिरवी ज़मीर हो जाता है
कुर्सी पर जैसे ही बैठे
फिर फ़र्ज़ कहीं सो जाता है
आहें सुनता है कौन यहाँ
फ़रियादों से न पिघलता है
नगरी-अंधेर में सिक्का तो
धोखे-फ़रेब का चलता है
बनवास राम का देखा था
अब रामराज्य का देखेंगे
दोज़ख की आग में जलते हुए
हम हिंदुस्तान को देखेंगे
घुट-घुट कर जी कर देखेंगे
तिल-तिल कर मर कर देखेंगे
फिर अगले जनम भी देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे -----

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2020

बिहार-विलाप

 कोरोना-संकट के बीच बिहार-चुनाव की धूम मची हुई है.

कोई दस लाख युवाओं को रोज़गार देने वाला है तो कोई राम-राज्य की पुनर्स्थापना कर उसकी राजधानी पटना शिफ्ट करने वाला है और कोई अपने दिवंगत पिता के नाम पर सहानुभूति के वोट मांगने वाला है.
लगता है कि अब – ‘ऑल इज़ वेल’ है. बीमारी, बेरोज़गारी, भुखमरी, मंदी और सांप्रदायिक वैमनस्य की समस्याओं का स्थायी समाधान हो गया है.
बिहार क्या था और अब क्या हो गया है इस पर रोने बैठें तो हमारे आंसुओं से गंगाजी समुद्र जितनी विशाल हो जाएंगी.
बिहार में लालू प्रसाद यादव का आगमन एक नए युग का सूचक है. एक अलमस्त, बेफ़िक्र ग्रामीण विदूषक से वो राजनीति में कब चाणक्य और मेकियावेली के भी उस्ताद बन गए, किसी को यह पता भी नहीं चला.
प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के शासनकाल में लालू यादव चारे घोटाले में आरोपित हुए तो उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. फिर जो हुआ वो उस से पहले भारतीय इतिहास में कभी नहीं हुआ. लालू ने अपनी जगह अपनी लगभग अंगूठा-छाप पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया.
लोकतंत्र की इस खुली हत्या से उस दिन मेरे साथ बिहार का गौरवशाली इतिहास भी रोया था.
महाकवि दिनकर की अमर रचना – ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ से प्रेरित होकर तब मैंने एक कविता लिखी थी.
हो सकता है कि यह कविता आप मित्रों को आज भी प्रासंगिक लगे.
बिहार-विलाप -
हे महावीर औ बुद्ध तुम्हारे दिन बीते
प्रियदर्शी धम्माशोक रहे तुम भी रीते
पतिव्रता नारियों की सूची में नाम न पा
लज्जित निराश धरती में समा गईं सीते
नालन्दा वैशाली का गौरव म्लान हुआ
अब चन्द्रगुप्त के वैभव का अवसान हुआ
सदियों से कुचली नारी की क्षमता का पहला भान हुआ
मानवता के कल्याण हेतु माँ रबड़ी का उत्थान हुआ
घर के दौने से निकल आज सत्ता का थाल सजाती है
संकट मोचन बन स्वामी के सब विपदा कष्ट मिटाती है
पद दलित अकल हो गई आज हर भैंस यही पगुराती है
अपमानित मां वीणा धरणी फिर लुप्त कहीं हो जाती है
जन नायक की सम्पूर्ण क्रांति शोणित के अश्रु बहाती है
जब चुने फ़रिश्तों की ग़ैरत बाज़ारों में बिक जाती है
जनतंत्र तुम्हारा श्राद्ध करा श्रद्धा के सुमन चढ़ाती है
बापू के छलनी सीने पर फिर से गोली बरसाती है
क्या हुआ दफ़न है नैतिकता या प्रगति रसातल जाती है
समुदाय-एकता विघटन के दलदल में फंसती जाती है
फलता है केवल मत्स्य न्याय समता की अर्थी जाती है
क्षत-विक्षत आहत आज़ादी खुद कफ़न ओढ़ सो जाती है
पुरवैया झोंको के घर से विप्लव की आंधी आती है
फिर से उजड़ेगी इस भय से बूढ़ी दिल्ली थर्राती है
पुत्रों के पाद प्रहारों से भारत की फटती छाती है
घुटती है दिनकर की वाणी आवाज़ नई इक आती है
गुजराल ! सिंहासन खाली कर पटना से रबड़ी आती है
गुजराल ! सिंहासन खाली कर पटना से रबड़ी आती है

सोमवार, 19 अक्टूबर 2020

दुरुस्त किए गए अशआर

 

फ़क़त ज़ंजीर बदली जा रही थी

मैं समझा था रिहाई हो गयी है

विकास शर्मा राज़

नई सरकार से उम्मीदें –

फ़क़त ठग-गैंग बदला जा रहा था

मैं समझा दिन सुहाने आ गए हैं

 

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है

जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

मीर तक़ी मीर

इंदिरा-युग से आज तक -

क्या घर के क्या बाहर वाले सभी हक़ीक़त जानें हैं

फ़ौरेन हैण्ड विपक्षी साज़िश बस दो यही बहाने हैं  

सोमवार, 12 अक्टूबर 2020

मुनाजात-ए-बेवा (एक विधवा की विनती)

दीर्घ काल से विधवाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाना भारतीय इतिहास का एक कलंकपूर्ण अध्याय है. सती प्रथा को एक विधवा का धार्मिक कर्तव्य माना जाना तो पुरुष-प्रधान समाज की पाशविकता का सबसे बड़ा प्रमाण है.
ब्रिटिश शासन में स्त्री-जीवन से जुड़ी हमारी सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों के उन्मूलन के अनेक प्रयास किए गए.
1829 में राजा राममोहन रॉय और उदार ब्रिटिश अधिकारियों के प्रयास से सती प्रथा का उन्मूलन हुआ और 1856 में मुख्यतः ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से विडो रिेमैरिज एक्ट पारित हुआ किन्तु समाज में विधवाएं अभी भी अभिशप्त जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य की जाती रहीं.
एक विधवा का उल्लेख - मनहूस, अभागी. पापन, 'खसमा नूं खानी' जैसी पीड़ादायक गालियों के साथ किया जाता रहा और अभाव, अपमान के साथ एकाकी जीवन बिताने के लिए उसे विवश किया जाता रहा.
घुटन भरी ज़िंदगी बिताने के अलावा एक विधवा के कोई अधिकार नहीं थे.
विधवाओं के साथ किया जाने वाला अमानुषिक व्यवहार किसी भी सहृदय और संवेदनशील व्यक्ति को व्यथित कर सकता था और साथ ही ऐसी अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए उसे प्रेरित कर सकता था.
‘मुनाजात-ए-बेवा’ (एक विधवा की विनती) विधवाओं के प्रति मानवीय व्यवहार किए जाने की आवश्यकता पर बल देती है.
1884 में अल्ताफ़ हुसेन हाली द्वारा कही गयी इस नज़्म का नारी उत्थान के क्षेत्र में ऐतिहासिक महत्व है.
इस नज़्म की उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें शायर ने हिन्दू समाज की सबसे दुखियारी, विपदा की मारी, बाल-विधवाओं की दुर्दशा का ऐसा जीवंत और मार्मिक चित्रण किया है कि किसी भी संवेदनशील-सहृदय पाठक की आँखों से बर्बस ही आंसुओं की बरसात होने लगती है.
हाली अपनी इस नज़्म में विधवाओं के पुनर्वास की या विधवा-विवाह की कोई बात नहीं करते हैं किन्तु समाज से वो यह प्रार्थना अवश्य करते हैं कि उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाए, उन्हें अपनी सभी इच्छाओं, कामनाओं को कुचलने लिए विवश न किया जाए, उन्हें दुनिया भर के सुखों से सर्वथा वंचित न रखा जाए, उनके अपने सगे एकदम से उनके पराए न हो जाएं, उन्हें दाने-दाने के लिए किसी दूसरे का मोहताज न बनाया जाए और उन्हें मनहूस अथवा अभागी कह कर एक निर्वासिनी का जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य न किया जाए.
इस नज़्म में हाली बाल-विवाह की प्रथा से उत्पन्न होने वाली अनेक बुराइयों पर भी विस्तार से प्रकाश डालते हैं.
हाली की यह नज़्म अपने अंतिम चरण में मैके और ससुराल, दोनों से ही ठुकराई हुई विधवाओं की स्थिति को नैराश्यपूर्ण और दुखद बताते हुए विधवाओं के एकमात्र सहारे के रूप में ईश्वर-भक्ति की महत्ता दर्शाती है.
मुनाजात-ए-बेवा (एक विधवा की विनती)
ऐ मेरे ज़ोर और क़ुदरत वाले ( हे शक्तिदाता ! हे सृष्टिकर्ता !)
हिक़मत और हुकूमत वाले (हे ज्ञानी ! हे हम पर शासन करने वाले !)
मैं लौंडी तेरी दुखियारी
दरवाज़े की तेरी भिखारी
अपने-पराए की दुतकारी
मैके और ससुराल की मारी
रो नहीं सकती तंग हूँ यां तक (मैं यहाँ तक परेशान हूँ कि रो भी नहीं सकतीँ)
और रोऊं तो रोऊं कहाँ तक
लेटिये गर सोने के बहाने
पायंते कल हैं और न सिरहाने
अब कल हमको पड़ेगी भरकर
गोर (कब्र) है सूनी सेज से बेहतर
आबादी जंगल का नमूना
दुनिया सूनी और घर सूना
आठ पहर का है ये जलापा
काटूँगी किस तरह रंडापा
थक गयी मैं दुःख सहते-सहते
आंसू थम गए बहते-बहते
दबी थी भूमी में चिंगारी
ली न किसी ने खबर हमारी
वो चैत और फागुन की हवाएं
वो गर्मी की चांदनी रातें
वो अरमान भरी बरसातें
किस से कहूं किस तौर से काटीं
रही अकेली भरी सभा में
प्यासी रही भरी गंगा में
खाया तो कुछ मज़ा न आया
सोई तो कुछ चैन न पाया
बाप और भाई चचा भतीजे
सब रखती हूँ तेरे करम से
पर नहीं पाती एक भी ऐसा
जिसको हो मेरी जान की परवा
घर का इक हैरत का नमूना
सौ घर वाले और घर सूना
इसमें शिकायत क्या है पराई
अपनी क़िस्मत की है बुराई
चैन गर अपने बांटे में आता
क्यूं तू औरत जात बनाता
क्यूं पड़ते हम गैर के पाले
होते क्यूं औरों के हवाले
मैं ही अकेली नहीं हूँ दुखिया
पड़ी है लाखों पर यह बिपदा
जली करोड़ों इसी लपट में
पद्मों फुकीं इसी मरघट में
बालियाँ इक इक जात की लाखों
ब्याहियाँ इक इक रात की लाखों
ब्याह से अंजान और मंगनी से
बने से वाकिफ़ और न बनी से (दूल्हा-दुल्हन, दोनों, एक-दूसरे से अनभिज्ञ)
माओं से मुंह धुलवाती थी
रो रो मांग के जो खाती थी
थपक थपक के जिमको सुलाते
घुड़क घुड़क कर जिनको रुलाते
जिनको न थी शादी की तमन्ना
और न मंगनी का था तक़ाज़ा
जिनको न आपे की थी खबर कुछ
और न रंडापे की थी खबर कुछ
भली से वाकिफ़ थीं न बुरी से
बद से मतलब और न बदी से
रुखसत पा ले और चौथी को
खेल तमाशा जानती थीं जो
होश जिन्हें था रात न दिन का
गुड़ियों का सा ब्याह था जिनका
दो दो दिन रह कर के सुहागन
जनम जनम को हुई बैरागन
दूल्हा ने जाना न दुल्हन को
दुल्हन ने न पहचाना सजन को
दिल न तबीयत शौक़ न चाहत
मुफ़्त लगा ली ब्याह की तोहमत
शर्त से पहले बाज़ी हारी
ब्याह हुआ और रही कुंवारी
होश से पहले हुई हैं बेवा
कब पहुंचेगा पार ये खेवा
खर (धूल-मिट्टी) सा बचपन का ये रंडापा
दूर पड़ा है अभी बुढ़ापा
उमर है मंजिल तक पहुंचानी
काटनी है भरपूर जवानी
शाम के मुर्दे का यह रोना
सारी रात नहीं अब सोना
आयी बिलखती गयी सिसकती
रही तरसती और फड़कती
कोई नहीं जो गौर करे अब
नब्ज़ पे उनकी हाथ धरे अब
दुःख उनका आए और पूछे
रोग उनका समझे और बूझे
चोट न जिनके दिल को लगी हो
वो क्या जानें दिल की लगी को
तेरे सिवा यां मेरे मौला
कोई रहा है और न रहेगा
अब न मुझे कुछ रंज की परवा
और न आसाइश (सुख) की तमन्ना
चाहती हूँ इक तेरी मुहब्बत
और न रखती कोई हाजत (अभिलाषा)
घूँट इक ऐसा मुझको पिला दे
तेरे सिवा जो सबको भुला दे
आए किसी ध्यान न जी में
फ़िक़र नहीं कुछ अच्छे बुरे की
तेरे सिवा धुन हो न किसी की
वां (वहां) से अकेली आई हूँ जैसे
वैसे ही यां (यहाँ) से जाऊं अकेली
जी से निशाँ प्यारों का मिटा दूं
प्यार के मुंह को आग लगा दूं
तू ही हो दिल में तू ही ज़ुबां पर
मार के जाऊं लात जहाँ पर

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

संशोधित दोहे

 कबीर -

पानी केरा बुलबुला, अस मानस की जात,
देखत ही छुप जाएंगे, ज्यों तारा परभात.
संशोधित दोहा
पानी केरा बुलबुला, अस भक्तन की जात,
प्रभु हारे, छुप जाएंगे, ज्यों तारा परभात.
रहीम -
बड़े बड़ाई नहिं करें, बड़े न बोलें बोल,
हीरा मुख ते कब कहे, लाख टका मेरो मोल.
संशोधित दोहा
बड़े तभी तक हैं बड़े, खुले न जब तक पोल,
पोल खुले तो फिर बिकें, दो कौड़ी के मोल.
एक बार फिर कबीर -
माली आवत देखि के, कलियाँ करीं पुकारि,
फूलन-फूलन चुन लिए, काल्हि हमारी बारि.
चुनाव की वेला -
नेता आवत देखि के, वोटर करी पुकार,
पांच साल सुधि भूलि के, अब लौटा मक्कार.

अंत में एक बार फिर रहीम -
रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गयी सुरग-पताल,
आप तो कहि के घुस गयी, जूता खाय कपाल,
संशोधित दोहा -
अर्नब जिह्वा बावरी, धन बटोर कर लाय,
गाली के अनुपात में, टीआरपी बढ़ि जाय.

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

गाँधी-जयंती

 गांधी न याद आए -

सौ ऊपर इक्यावन साल
बापू का अब नहीं कमाल
दलित बेचारे हैं बदहाल
कृषक हो गए हैं कंगाल
छोड़ स्वदेशी का जंजाल
मंगवाते आयातित माल
गुत्थम-गुत्था हिन्दू-मुस्लिम
इक-दूजे की खींचे खाल
अमन-शांती समझ बवाल
हथियारों का बढ़ा जलाल
नाथू-मन्दिर में सर झुकता
गांधी दिल से दिया निकाल

ग्राम-स्वराज्य पर मेरी एक पुरानी कविता -

गाँधी के जाँनशीन -
जब भी रुकती है मेरी कार किसी गाँव के बीच
मुझको गाँधी के ख़यालों पे हंसी आती है
न यहाँ बार न होटल न सिनेमा कोई
इनमें इन्सान को रहने में शरम आती है
मुल्क की रूह बसा करती है इन गाँवों में
सिर्फ़ दीवानों को ये बात समझ आती है
यूँ इलैक्शन में चला जाता हूं मजबूरी में
गाँव में याद तो पेरिस की गली आती है