प्रेमचन्द जयन्ती पर डॉक्टर श्रीमती रमा जैसवाल का आलेख -
प्रेमचंद के साहित्य में विद्रोहिणी नारी –
राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने भारतीय नारी में धैर्य, सहनशीलता, सेवाभाव, त्याग, कर्तव्यपरायणता, ममता और करुणा का सम्मिश्रण देखकर कहा है -
'अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी.'
ममता, कोमलता, सहनशीलता और त्याग की प्रतिमूर्ति भारतीय नारी ज़रूरत पड़ने पर सिंहनी भी बन जाती है और अगर यह सिंहनी कहीं घायल हुई तो उसके प्रतिशोध की ज्वाला में बड़े से बड़ा दमनकारी भी भस्म हो जाता है.
जिस पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों को धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक असमानता को अपनी नियति मानकर स्वीकार करना पड़ता है वहां अन्याय के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करने वाली और विद्रोह का परचम लहराने वाली स्त्रियों को अपनी रचनाओं का केन्द्र बनाने का साहस बहुत कम साहित्यकार ही कर सकते हैं.
प्रेमचंद ने उर्दू व हिन्दी में साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिष्कार का बीड़ा उठाया था.
प्रेमचंद नारी समाज के सच्चे हितैषी थे. उत्तर भारतीय नारी समाज के सुख-दुःख को उन्होंने बहुत करीब से देखा और समझा था.
यूं तो प्रेमचंद का साहित्य बीसवीं शताब्दी के प्रथमार्ध के उत्तर भारतीय सामाजिक जीवन का समग्र और प्रामाणिक चित्रण करता है परन्तु शोषित समाज के चित्रण में यह अद्वितीय है.
शोषिता भारतीय नारी के जीवन की हर त्रासदी और उसके हर संघर्ष को प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से जीवन्त किया है.
नवजागरण काल में मराठी में एच. एन. आप्टे, गुजराती में नर्मद व गोवर्धन राम त्रिपाठी, तेलगू में गुरजाड और मलयालम में चन्दू मेनन ने अपने-अपने क्षेत्र की महिलाओं की सामाजिक स्थिति को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया था.
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, उर्दू में,मिर्ज़ा हादी रुसवा ने लखनऊ की एक तवायफ़ उमराव जान अदा की जि़न्दगी पर एक मार्मिक उपन्यास लिखा था.
बंगला साहित्य में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय और उनके बाद रवीन्द्र नाथ टैगोर व शरत् चन्द्र चट्टोपाध्याय ने बंग महिलाओं की सामाजिक स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है.
हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी रचनाओं में उत्तर भारतीय नारी की दुर्दशा को चित्रित किया था पर प्रेमचन्द से पहले हिंदी के किसी और साहित्यकार ने उत्तर भारतीय नारी के जीवन के हर अच्छे-बुरे पहलू को उजागर करने का न तो बीड़ा उठाया और न ही उसके प्रस्तुतीकरण में वह महारत हासिल की जो कि उन्हें हासिल हुई थी.
प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में उत्तर भारतीय गाँवों और शहरों की मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय स्त्रियों के जीवन का यथार्थवादी रूप प्रस्तुत किया गया है. उनकी रचनाओं में चित्रित नारियां गुणवान भी हैं और इंसानी कमज़ोरियों की शिकार भी.
अशिक्षा, निर्धनता और सामाजिक दमन के कारण स्त्रियों में जिस प्रकार की रूढि़यां और अंधविश्वास पनपते हैं, उन से प्रेमचंद भलीभाँति परिचित हैं.
उनके नारी पात्र स्वयं लिंगभेद के पोषक हैं, कन्या जन्म उनके लिए एक त्रासदी है, पुत्र जन्म के बाद ही माएं अपना जीवन सफल मानती हैं, वैधव्य उनके लिए अभिशाप है और सधवाओं लिए विधवा मनहूस.
आभूषणों के लिए घर-फूंक तमाशा देखने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता.
प्रेमचंद की रचनाओं में अधिकांश सासें बहुओं को सताने में और बहुएं सासों को खिजाने में व्यस्त रहती हैं.
चुगली, त्रिया-हठ, मिथ्यावादिता, चटोरापन, चंचलता, चपलता और कभी-कभी कामुकता से भी उन्हें परहेज़ नहीं है पर इन कमज़ोरियों के बावजूद प्रेमचन्द के अधिकांश नारी पात्र साहस, धैर्य, सहनशीलता, त्याग और कर्मठता से परिपूर्ण हैं.
अन्याय और दमन को उनके अधिकांश नारी पात्र अपनी नियति समझ कर स्वीकार करते हैं पर यहां चर्चा उनके उन नारी पात्रों की हो रही है जिन्होंने अन्याय और शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द की है और ऐसे पात्रों की प्रेमचंद-साहित्य में कोई कमी नहीं है.
प्रेमचन्द को विद्रोहिणी नारी के चित्रण में बहुत आनन्द आता है, शायद इसके लिए उनकी सुधारवादी प्रकृति उत्तरदायी है. उनकी दिली तमन्ना है कि भारतीय नारी अपने ऊपर ढाए गए ज़ुल्मों के खि़लाफ़ ख़ुद जिहाद छेड़े.
सामाजिक असमानता की शिकार भारतीय नारी पग-पग पर शोषित और अपमानित होती है इसीलिए प्रेमचंद की विद्रोहिणी नारी दमनकारी सामाजिक परम्पराओं को तोड़ने और उनकी अवमानना करने में सबसे आगे रहती है.
प्रेमचंद की अनेक कहानियों और उपन्यासों में स्त्रियां इस प्रथा के विरुद्ध खड़े होने का साहस जुटा पाई हैं. उनकी कहानी - 'कुसुम' की नायिका कुसुम बरसों तक अपने पति द्वारा अपने मायके वालों के शोषण का समर्थन करती है पर अन्त में उसकी आँखे खुल जाती हैं और वह अपने पति की माँगों को कठोरता पूर्वक ठुकरा देती है । अपनी माँ से वह कहती है -
‘यह उसी तरह की डाकाजनी है जैसी बदमाश लोग किया करते हैं. किसी आदमी को पकड़ कर ले गए और उसके घरवालों से उसके मुक्तिधन के तौर पर अच्छी रकम ऐंठ ली.’
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कुसुम की माँ थोड़े से पैसों की खातिर दामाद को नाराज़ करने की बात को अनुचित कहती है तो वह जवाब देती है -
‘ऐसे देवता का रूठे रहना ही अच्छा ! जो आदमी इतना स्वार्थी, इतना दम्भी, इतना नीच है, उसके साथ मेरा निर्वाह नहीं होगा. मैं कहे देती हूं, वहां रुपये गए तो मैं ज़हर खा लूंगी.’
अनमेल विवाह मुख्य रूप से दहेज की प्रथा का ही परिणाम होता है. प्रेमचन्द पुरुषों के बहुविवाह और विधुरों के क्वारी कन्या से विवाह करने के दुराग्रह को इसका कारण मानते हैं.
प्रेमचंद के वो नारी पात्र जिनका कि अनमेल विवाह हुआ है, कभी सुखी नहीं दिखाए जाते.
'निर्मला' उपन्यास की नायिका इसका ज्वलन्त उदाहरण है.
निर्मला की अपने से दुगुनी उम्र के पति के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है. जब उसके अधेड़ पति अपनी जवानी के दम-ख़म और बहादुरी का झूठा राग अलापते हैं तो उसे उनसे घृणा होती है या उन पर उसे तरस आता है.
‘नया विवाह’ कहानी की युवती आशा का विवाह अधेड़ लाला डंगामल से हुआ है. आशा डंगामल के लाए नए-नए कपड़े और आभूषण पहन कर जवान गबरू नौकर जुगल को रिझाती है. जुगल आशा से लाला जी के लिए कहता है कि वह उसके पति नहीं बल्कि उसके बाप लगते हैं तो वह उसे डांटने के बजाय अपने भाग्य का रोना लेकर बैठ जाती है.
कहानी के अंत में आशा अपना आँचल ढरकाते हुए जुगल को लाला जी के जाने बाद अकेले में मिलने के लिए बुलाती है.
‘गोदान’ उपन्यास की धनिया समाज के नियमों से बंधी एक कृषक महिला है. उसकी दृष्टि में दातादीन ब्राह्मण देवता हैं, भले ही उनका लड़का मातादीन सिलिया चमारन को अपनी रखैल बनाए हुए है. पर जब यही देवता उसे सामाजिक प्रतिष्ठा की खातिर अपने पुत्र गोबर की गर्भवती विधवा प्रेमिका झुनिया को घर से निकालने को कहते हैं तो वह बिफ़र कर जवाब देती है -
‘हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते. ब्याहता न सही, पर उसकी बांह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही. किस मुंह से निकाल देती?’
गरीब और वह भी अछूत औरत अगर सुन्दर हो तो उसका यौन शोषण करना रईस सवर्ण अपना अधिकार समझते हैं.
‘घासवाली’ कहानी में मुलिया चमारन ऐसी सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द करती है. उसके सौन्दर्य पर ठाकुर चैनसिंह लट्टू हो जाता है और उससे अपने प्रेम का प्रदर्शन करता है तो मुलिया उसे झिड़कते हुए उससे पूछती है -
‘मेरा आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने को तैयार हो जाते कि नहीं ? बोलो ! क्या समझते हो कि महावीर (मुलिया का पति) चमार है तो उसकी देह में लहू नहीं है, उसे लज्जा नहीं है !----- मुझसे दया मांगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूं, नीच जाति हूं और नीच जाति की औरत जरा सी घुड़की-धमकी या जरा से लालच से तुम्हारी मुठ्ठी में आ जाएगी. कितना सस्ता सौदा है. ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे?’
‘गबन’ उपन्यास की नायिका जालपा मध्यवर्गीय परिवार की गहनों की शौकीन, ऐसी युवती है जिसे भौतिकवादी सुखों की खातिर पति का रिश्वत लेना भी गलत नहीं लगता है परन्तु जब उसका पति रमानाथ खुद को जेल जाने से बचाने के लिए और रुपयों व ओहदे के लालच में पुलिसवालों के साथ मिल कर क्रान्तिकारियों के विरुद्ध झूठी गवाही देता है तो वह उसके उपहारों को ठुकराते हुए उसे अपना पति मानने से इंकार कर देती है -
‘ईश्वर करे तुम्हें मुंह में कालिख लगा कर भी कुछ न मिले । --- लेकिन नहीं, तुम जैसे मोम के पुतलों को पुलिसवाले कभी नाराज़ नहीं करेंगे ।--- झूठी गवाही, झूठे मुकदमें बनाना और पाप के व्यापार करना ही तुम्हारे भाग्य में लिखा गया. जाओ शौक से जि़न्दगी के सुख लूटो.---- मेरा तुमसे कोई नाता नहीं है. मैंने समझ लिया कि तुम मर गए. तुम भी समझ लो कि मैं मर गई.’
प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानी – ‘जुलूस’ की मिठ्ठन अपने दरोगा पति बीरबल सिंह द्वारा निहत्थे देशभक्त इब्राहीम अली पर कातिलाना हमला करने के लिए उसे धिक्कारती है. बीरबल सिंह जब उसे अपनी तरक्की होने की सम्भावना बताता है तो वह कहती है -
‘शायद तुम्हें जल्द तरक्की भी मिल जाय. मगर बेगुनहों के खून से हाथ रंग कर तरक्की पाई तो क्या पाई ! यह तुम्हारी कारगुज़ारी का इनाम नहीं, तुम्हारे देशद्रोह की कीमत है.’
मिठ्ठन इब्राहीम अली की शवयात्रा में शामिल होने के बाद अपने पति से अलग रहने का निश्चय भी कर लेती है.
प्रेमचन्द मैक्सिम गोर्की के अमर उपन्यास – ‘द मदर’ की बूढ़ी माँ के चरित्र से बहुत प्रभावित लगते हैं.
‘गबन’ उपन्यास की जग्गो, असहयोग आन्दोलन में अपने दो जवान बेटों की कुर्बानी देकर गर्व का अनुभव करती है, वह रमानाथ की पाप की कमाई से खरीदे गए कंगनों के उपहार को ठुकरा देती है.
प्रेमचंद की कहानी –‘जेल’ की क्षमादेवी जलियांवाला हत्याकांड में अपने पति और पुत्र को खो चुकी हैं.
एक और आन्दोलनकारी मृदुला किसान आन्दोलन में अपनी सास, अपने पति और अपने पुत्र को गंवाकर स्वयं भी आन्दोलन में कूद पड़ती है. वह शहीदों के सम्मान में आयोजित जुलूस का नेतृत्व करती है और जेल जाती है.
प्रेमचन्द के अनेक नारी पात्र साहस और वीरता में पुरुषों से आगे हैं.
ओरछा के राजा चम्पत राय की धर्मपत्नी और छत्रसाल की माँ, रानी सारंधा और वज़ीर हबीब का रूप धारण किए हुए तैमूर की बेग़म हमीदा इसका प्रमाण हैं.
सत्य के मार्ग पर चलते हुए जब ऐसे नारी पात्र अन्याय का सामना करते हैं तो पाठक उनके चरित्र के प्रति श्रद्धानत हो जाता है.
प्रेमचन्द अपनी रचनाओं के माध्यम से दो सन्देश देना चाहते हैं –
एक तो यह कि पुरुष स्त्री को अपने से कमज़ोर और अयोग्य समझ कर उस पर अत्याचार करने का पाप न करे और दूसरा यह कि यदि नारी जाति पर अत्याचार का सिलसिला यूं ही जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब वह विद्रोहिणी बन कर अपने ऊपर जु़ल्म ढाने वाले पुरुष-प्रधान समाज को ही मिटा देगी.
‘सेवासदन’ उपन्यास की सुमन और ‘गबन’ उपन्यास की ज़ोहरा वेश्या हो कर पुरुषों को गुमराह करने में या उनका घर उजाड़ने में संकोच नहीं करतीं क्योंकि समाज को वह वही लौटा रही हैं जो कि उन्हें समाज से मिला है. पर ऐसी ही विद्रोहिणी नारी जब किसी सुधारक या हमदर्द के सम्पर्क में आती है तो वह ममता और सेवा की मूर्ति बनकर समाज के लिए उपयोगी बन जाती है.
सुमन और ज़ोहरा के हृदय परिवर्तन से हमको यही सन्देश मिलता है.
प्रेमचन्द इस शक्ति स्वरूपा विद्रोहिणी नारी की शक्ति को विनाश के स्थान पर सृजन के लिए प्रयुक्त होते हुए देखना चाहते हैं.
‘कर्मभूमि’ उपन्यास में सुखदा व नैना हरिजनों के मन्दिर पवेश के अधिकारों की खातिर जेल जाती हैं.
इसी उपन्यास में मुन्नी का चरित्र एक विद्राहिणी का चरित्र है. दो गोरे सिपाही मुन्नी का बलात्कार करते हैं. मौका पाकर मुन्नी बीच बाज़ार में बलात्कारी की हत्या कर देती है.
अदालत में दोषमुक्त होने के बाद मुन्नी समाजसेवा के कार्य में लग जाती है.
प्रेमचन्द, विद्रोहिणी नारी के साहस और क्रोध को सृजन का मोड़ देना चाहते हैं.
समाज सुधार के प्रति समर्पित एक साहित्यकार की नारी उत्थान के प्रति यह एक ईमानदार कोशिश है.
प्रेमचंद ने विद्रोहिणी नारी के उचित कार्यों की स्तुति तो की ही है, साथ ही उन्होंने उसके सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध व्यवहार का दायित्व भी नारी शोषक पुरुष समाज की लिंगभेदी सामाजिक मान्यताओं पर रख दिया है.
प्रेमचंद का सन्देश है कि जब तक लिंगभेदी अन्याय समाप्त नहीं होगा, नारी विद्रोह करती रहेगी और जब तक उस पर अनाचार होता रहेगा, समाज उन्नति नहीं कर सकेगा.