मैं रौंदूगी तोय -
बीस साल की ख़ूबसूरत और मासूम सी दिखने वाली दिव्या की शादी जब 30 साल के, मोटे कौएनुमा व्यक्तित्व वाले डॉक्टर मनोज कुमार से हुई तो इस जोड़ी को देख कर बहुत से लोगों के दिमाग में एक साथ -
‘कौए की चोंच में अनार की कली’ वाला मुहावरा कौंधने लगता था.
लेकिन इस अनार की कली को अपनी चोंच में दबा कर लाने वाले हमारे डॉक्टर मनोज कुमार कोई मामूली कौए नहीं थे.
विकास नगर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत डॉक्टर मनोज कुमार ने दहेज-मंडी में अपनी ऊंची बोली लगाए जाने के बावजूद सतनाम पुर क़स्बे के एक प्राइमरी स्कूल के गरीब मास्साब की सुन्दर, सलोनी, ठीक-ठाक नंबर ला कर बी० ए० पास और पाक-विद्या में निपुण बेटी, दिव्या को बिना किसी दहेज की मांग के, पहली नज़र में पसंद कर लिया था.
दिव्या को याद आ रहा था कि किस तरह से उसके बाबू जी ने पिछले एक साल से उसके लिए एक सुयोग्य पात्र ढूँढ़ने में अपनी आधा दर्जन जोड़ी चप्पलें घिस डाली थीं लेकिन फिर भी उन्हें हर लड़के वाले के यहाँ से निराश लौटना पड़ा था.
शादी के बाद जब यह जोड़ा विकास नगर पहुंचा तो वहां यह तुरंत टॉक ऑफ़ दि टाउन बन गया.
मनोज कुमार से पहले ‘हाय और हेलो’ तक ही सम्बन्ध रखने वाले और उनकी पीठ-पीछे उन्हें ‘ईदी अमीन’ कहने वाले, अब उनके खासमखास दोस्त बन कर, अपनी-अपनी श्रीमतीजियों के बिना, लेकिन महंगे उपहारों के साथ, उनके घर मंडराने लगे थे.
आए दिन विभाग में मनोज कुमार की खाट खड़ी करने वाले उनके विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर पांडे तो अब रोज़ाना ही दिव्या भाभी जी के हाथ की अदरक वाली चाय पिए बिना यूनिवर्सिटी में क़दम भी नहीं रखना चाहते थे.
प्रोफ़ेसर पांडे फोर्स्ड बैचलर थे. उनके बीबी-बच्चे लखनऊ में रहते थे.
विरह की वेदना में जलते हुए प्रोफ़ेसर साहब को रोज़ाना दिव्या भाभी जी का पल दो पल का रूमानी साथ चाहिए था तो इस में खराबी ही क्या थी?
दिव्या को पढ़ाई-लिखाई से ज़्यादा दिलचस्पी विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाने में थी लेकिन अपने पतिदेव के और प्रोफ़ेसर पांडे के कहने पर मरे मन से उसने एम० ए० हिंदी में एडमिशन ले लिया.
मनोज कुमार और प्रोफ़ेसर पांडे उसे हिंदी की विदुषी बनाने के अभियान में जुट गए.
प्रोफ़ेसर पांडे कभी बिना बुलाए दिव्या को पढ़ाने उसके घर आ जाते थे तो कभी उसे ज़बर्दस्ती अपने घर बुला लेते थे.
दिव्या को पढ़ाते समय प्रोफ़ेसर पांडे, तुलसीदास की भक्ति-रचनाओं की अथवा कवि भूषण के वीर रस के छंदों की, व्याख्या करते हुए भी न जाने कैसे विद्यापति या कविवर बिहारी की सम्भोग श्रृंगार की रसभरी कविताओं का जीवंत वर्णन करने लगते थे.
दिव्या ने मनोज कुमार से रसिया प्रोफ़ेसर पांडे की गुस्ताख़ियों की शिक़ायत की तो उन्होंने फ़र्माया –
‘दिव्या अब तुम्हारी पहचान विकास नगर यूनिवर्सिटी के एक लेक्चरर की पत्नी की है न कि सतनाम पुर क़स्बे के एक स्कूल मास्टर की बेटी की ! ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए तुमको मॉडर्न, प्रोग्रेसिव और प्रैक्टिकल तो बनना ही होगा.
वैसे भी प्रोफ़ेसर पांडे तुम्हारे गुरु हैं अगर वो कभी-कभार तुम से थोड़ी-बहुत लिबर्टी ले लेते हैं तो तुम्हें इस से परेशानी क्यों होती है?’
पतिदेव से ऐसा प्रैक्टिकल ज्ञान प्राप्त करने के बाद दिव्या ने प्रोफ़ेसर पांडे की ही क्या, किसी भी रसिया की, किसी भी ओछी हरक़त की, उन से फिर कभी कोई शिक़ायत नहीं की.
मनोज कुमार पर अब प्रोफ़ेसर पांडे इतने ज़्यादा मेहरबान हो गए थे कि अपने हर शोध-पत्र में उनका नाम को-ऑथर के रूप में डालने लगे थे.
वो अगली सेलेक्शन कमेटी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर की पोस्ट पर डॉक्टर मनोज कुमार का ही सेलेक्शन कराने लिए वचनबद्ध हो चुके थे.
मनोज कुमार की दो साल की लगातार अनदेखी, कैसी भी बेहूदगी बर्दाश्त करने की दिव्या की रिकॉर्ड-तोड़ सहनशीलता और प्रोफ़ेसर पांडे की दो साल की अथक तपस्या के अलावा इधर-उधर के जुगाड़ के बाद, दिव्या ने एम० ए० में टॉप कर ही डाला.
एम० ए० में टॉप करने के बाद दिव्या ने प्रोफ़ेसर पांडे के निर्देशन में मोटी फ़ेलोशिप के साथ स्लीपिंग शोधार्थी के रूप में तीन साल के अन्दर ही पीएच० डी० भी कर डाली और उसके ठीक चार महीने बाद विकास नगर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के पद पर उसका चयन भी हो गया.
इसी बीच प्रोफ़ेसर पांडे की कृपा से मनोज कुमार का चयन एसोसिएट प्रोफ़ेसर के लिए भी हो गया.
इन महान उपलब्धियों के लिए गुरु-दक्षिणा के रूप में दिव्या को इन पांच साल, चार महीनों में प्रोफ़ेसर पांडे को क्या-क्या उपलब्ध कराना पड़ा, इसकी ख़बर विकास नगर के बाशिंदों तक ही नहीं, बल्कि वहां के पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों तक भी पहुँच गयी थी –
अब तो बात फैल गयी जानें सब कोई - - -
हमारे डॉक्टर मनोज कुमार का ज़्यादातर वक़्त अब घर में आई डबल तनख्वाह को सँभालने में ही खर्च होने लगा था.
पहले की सी भोली, मासूम सी, सहमी सी और लाज-शर्म से सिमटी सी, दिव्या की जगह अब एक अल्ट्रा-स्मार्ट और बोल्ड डॉक्टर दिव्या ने ले ली थी जो कि विकास नगर की हर सभा की परी थी.
विकास नगर विश्वविद्यालय के नए कुलपति महोदय तो रौनक़-ए-महफ़िल डॉक्टर दिव्या पर जी जान से फ़िदा हो गए थे.
प्रोफ़ेसर पांडे के जाल में फंसी चिड़िया अब स्वेच्छा से और भी मज़बूत जाल में फंसने का फ़ैसला कर चुकी थी.
हमारे डॉक्टर मनोज कुमार अपनी चिड़िया के इस जाल-परिवर्तन की प्रक्रिया को बड़े धैर्य से देख रहे थे.
उनके विभाग में प्रोफ़ेसर की एक पोस्ट मानों उन्हीं के लिए खाली पड़ी थी.
कुलपति महोदय की कृपा रहते इस लाटरी का टिकट उनके हाथों में जाने से भला अब कौन रोक सकता था?
दिव्या जी पर कुलपति महोदय की मेहरबानियाँ बढ़ती ही जा रही थीं.
प्रोफ़ेसर पांडे अब डॉक्टर मनोज कुमार से फिर से खार खाने लगे थे लेकिन उनकी तो अब कुलपति महोदय से डायरेक्ट सेटिंग थी. इस सेटिंग की वजह से उन्होंने कुलपति महोदय से जुगाड़ लगा कर प्रोफ़ेसर के लिए होने वाली चयन समिति की तिथि से ठीक सात दिन पहले विभागीय पुस्तकालय के लिए पुस्तकों की ख़रीदारी में हेरा-फेरी की जांच-पड़ताल के लिए अपने विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर पांडे के विरुद्ध एक जांच-समिति बिठवा दी.
अब चयन समिति में विभागाध्यक्ष के रूप में प्रोफ़ेसर पांडे की जगह प्रोफ़ेसर गोयल शोभायमान हो गए.
आख़िरकार प्रोफ़ेसर के पद हेतु इंटरव्यू हो ही गया.
इंटरव्यू में सब कुछ डॉक्टर मनोज कुमार के मन मुताबिक़ हुआ.
मात्र पांच साल के टीचिंग एक्सपीरिएंस वाली डॉक्टर दिव्या ने भी मज़ाक़-मज़ाक़ में प्रोफ़ेसर की पोस्ट के लिए एप्लाई कर दिया था.
खैर, उनका साक्षात्कार तो तीन मिनट में ही ख़त्म हो गया.
अब प्रोफ़ेसर तो डॉक्टर मनोज कुमार को ही बनना था.
जलने वाले मित्रों में मिष्ठान्न वितरण के लिए और एक भव्य पार्टी के लिए उन्होंने एडवांस में व्यवस्था भी कर ली थी.
लेकिन फिर अचानक एक धमाका हो गया.
विकास नगर यूनिवर्सिटी की एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल की बैठक के बाद हिंदी विभाग की नियुक्ति को लेकर सारे प्रान्त में हंगामा खड़ा हो रहा था.
हर कोई पूछ रहा था कि अपने दस सीनियर्स को सुपरसीड कर के कल की लड़की ये डॉक्टर दिव्या, लेक्चरर से सीधे प्रोफ़ेसर कैसे हो गयी?
और तो और, कैरियर में अपने से सात साल सीनियर अपने पति को भी इस दौड़ में उसने पछाड़ दिया था.
त्रासदी इतने पर ही ख़त्म हो जाती तो गनीमत थी पर अभी तो यूनिवर्सिटी में और भी गुल खिलाए जाने बाक़ी थे.
प्रोफ़ेसर पांडे और डॉक्टर मनोज कुमार, दोनों का ही तबादला विकास नगर यूनिवर्सिटी के दूसरे कैंपस, कीर्ति नगर कैंपस के लिए कर दिया गया था.
कुलपति महोदय चाहते थे कि प्रोफ़ेसर पांडे और डॉक्टर मनोज कुमार जैसे अनुभवी व्यक्ति, काला पानी के नाम से कुख्यात कीर्ति नगर जाएं और वहां के मृतप्राय हिंदी विभाग को पुनर्जीवित करें.
इस कथा के अंत में तीन दृश्यों का उल्लेख करना आवश्यक है –
पहले दृश्य में प्रोफ़ेसर पांडे कुलपति महोदय के ऑफ़िस के सामने रोते हुए अपने सर के बाल नोच रहे थे और कुलपति महोदय को खुलेआम कोस रहे थे.
दूसरे दृश्य में कीर्ति नगर जाने की तैयारी में जुटे डॉक्टर मनोज कुमार मातमी चेहरे के साथ, अपनी खिसियानी सी मुस्कान ले कर, घर आए अपने साथियों से, अपनी श्रीमती जी के प्रोफ़ेसर होने की सच्ची-झूठी बधाइयाँ स्वीकार कर रहे थे.
तीसरे दृश्य में कुलपति के बंगले के एक नितांत निजी कक्ष में उन के साथ जाम से जाम टकराते हुए हमारी नई-नई प्रोफ़ेसर बनी नायिका, न्यूयॉर्क में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में विकास नगर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने से पहले उन से आवश्यक दिशा-निर्देश ले रही थीं.
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(28-11-21) को वृद्धावस्था" ( चर्चा अंक 4262) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
मेरी कहानी को 'वृद्धावस्था' (चर्चा अंक - 4262) में सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद कामिनी सिन्हा जी.
हटाएंआधी नहीं पूरी है :)
जवाब देंहटाएंसही कहते हो मित्र ! यह कहानी पूरी हक़ीक़त है, बस पात्रों के, विश्वविद्यालय और स्थान के नाम बदल दिए गए हैं.
हटाएंबिलकुल सत्य घटना पर आधारित रोचक प्रसंग का आलेख रूपांतरण बेहद रोचक भरा है, पर कहानी काफी कुछ समझ आ रही है,को अक्सर परेशान भी करती है और आंख खोलने का काम भी करती है, समाज में मौजूद इन भिन्न भिन्न प्राणियों का कोई इलाज नहीं आपकी दिव्यदृष्टि को मेरा नमन 🙏😀
जवाब देंहटाएंमेरी कहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा.
हटाएंविद्या-मन्दिरों में घटित सच्ची कहानियां तो मेरी इस कहानी से भी ख़तरनाक हैं पर उनको कागज़ पर उतारने में मुझे जयदेव, विद्यापति और बिहारी की शैली अपनानी पड़ती जो कि मेरी सामर्थ्य में नहीं है.
सच घटना पर आधारित बहुत ही बेहतरीन प्रसंग
जवाब देंहटाएंहुनर,पैसे सभी पर भारी सुंदर नारी 😂
क्योंकि आज भी बड़ी तादाद में खड़े हैं जिस्म के पुजारी!
प्रश्न के लिए धन्यवाद मनीषा !
हटाएंहम-तुम-सब, अपने आसपास आए दिन ऐसे काण्ड देखते हैं.
कभी-कभी कुओं में पड़ी भांग को कूओं से निकाल कर जनता के दर्शनार्थ बाहर भी लाना चाहिए.
बहुत शानदार...
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद संदीप कुमार शर्मा जी.
हटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी.
हटाएंआधी नहीं पूरी हकीकत है ये तो....यहाँ मेहनती और सीधे रास्ते चलने वाले रिटायरमेंट की उम्र तक नौकरी में नाम आने के इंतजार में धरने पर बैठते रह गये और ऐसे लोग कहाँ से कहाँ पहुंच जाते हैं
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब एवं इस तरह की बखिया उधेड़ने वाली हिम्मत को सादर नमन।
प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुधा जी !
हटाएंआँखिन देखी कहने में खतरा तो बहुत है लेकिन ऐसा खतरा उठाए बिना केंचुए जैसे ज़िंदगी जीने में मुझे मज़ा नहीं आता.