रविवार, 22 दिसंबर 2024

भारत दर्शन

 

(मेरे अप्रकाशित बाल-कथा संग्रह – कलियों की मुस्कान से ली गयी यह कहानी मेरी बारह साल की बेटी गीतिका सुनाती है. 1996 में लिखी गयी यह कहानी असंख्य मध्यवर्गीय परिवारों के भारत दर्शन के टूटे हुए सपनों को एक दिलचस्प अंदाज़ में पेश करने की कोशिश करती है.)  

          पापा एक चीनी कहावत पर अमल करते हैं जिसमें कहा गया है कि एक हज़ार पुस्तकें पढ़ने से जितना ज्ञान मिलता है, उससे ज़्यादा ज्ञान एक अकेली यात्रा करने  से मिल जाता है.

महात्मा गांधी भी पापा की राय से इत्तिफ़ाक रखते थे. उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटने के बाद सबसे पहले देश-भ्रमण किया था. हमारे परिवार में भी सभी को घूम-घूम कर भारत की खोज करने की बड़ी अभिलाषा है.

तीन साल पहले की बात है. हमारी दशहरे की वैकेशन्स हो चुकी थीं. जब से हमने टीवी पर कर्नाटक पर एक फ़ीचर देखा था, तभी से हमारे सपनों के सेवेन्टी एम० एम० स्क्रीन पर मैसूर और बंगलूरु के लुभावने सीन चल रहे थे. पापा के सामने हम बच्चों के फ़रमाइशी प्रोग्राम का रिकॉर्ड कुछ इस तरह ऑन  हो गया -

पापा हम इन छुट्टियों में मैसूर जाएँगे. सुनते हैं वहाँ का दशहरा पूरे भारत में सबसे शानदार होता है. हम मैसूर पैलेस की लाइट भी देखेंगे. आप हमें वृन्दावन गार्डन तो ज़रूर दिखाइएगा, वहाँ फि़ल्मों की शूटिंग भी होती है.’

          पापा जब तक जवाब देने के लिए अपना मुँह खोलते तब तक मम्मी की वीणा बज उठी -

सुनिएजी,  मेरे पास मैसूर सिल्क की अब एक भी साड़ी बाकी नहीं बची है. मैसूर में तो अच्छी से अच्छी साड़ी दो-तीन हज़ार तक में मिल जाएगी. क्योंजी ! आप का क्या ख़याल है? “

          मम्मी के ‘क्यों जी’ भला उनकी महंगी साड़ी खरीदने की फ़रमाइश को कैसे सही मान सकते थे?

फि़ज़ूलखर्ची पर पापा के आधे घण्टे के भाषण का रिकॉर्ड ऑन हो गया. पापा ने मम्मी के प्रस्ताव को नामन्ज़ूर करते हुए कहा -

सॉरी मैडम ! बच्चों का प्रस्ताव कर्नाटक यात्रा का है,  वो मुझे मन्ज़ूर है पर आपका खरीदारी का प्रोग्राम हमको और हमारी पॉकेट को मन्जूर नहीं.

अरे भई,  मैसूर जाओ तो वहाँ के पैलेस को देखो,  वहाँ के मन्दिरों में मूर्तियों की मनमोहिनी छटा निहारो,  वृन्दावन गार्डन में म्यूजि़कल फ़ाउन्टेन की फुहारों में भीगने का आनन्द लो,  भगवान गोमाटेश्वर के दर्शन का पुण्य लूटो,  श्रीरंगपट्टम, हालीविडु और वेल्लूर की ऐतिहासिक इमारतें देखकर इतिहास का अपना ज्ञान बढ़ाओ. यह क्या कि अपना पूरा समय और सारा पैसा मैसूर सिल्क एम्पोरियम की एक साड़ी के नाम कर दो.’

हम दोनों बहनों ने भी पापा के विचारों पर अपने समर्थन की मुहर लगा दी.

रागिनी ने कर्नाटक यात्रा में बैंगलौर के बाज़ार की सैर को शामिल किए जाने की ज़रूरत पर रौशनी डालते हुए पापा से कहा -

पापा ! आपको मालूम है, बंगलुरु में बच्चों के सामान की, दुनिया की सबसे बड़ी दुकान है. वहाँ से डांसिंग डॉल तो मैं ज़रूर खरीदूँगी और एक ड्रेस भी.’

रागिनी नादान थी पर मैं तो समझदार थी. मैंने पापा के दिमाग के पारे को चढ़ता हुआ जो देख लिया था,  मैनें रागिनी को समझाते हुए कहा -

देख रागू तू मम्मी जैसी जि़द मत कर. सारा पैसा हम शॉपिंग में खर्च कर देंगे तो वहाँ घूमेगे कैसे और खाएँगे कहाँ से?

          अब मैसूर यात्रा के दौरान खाने की बात चली तो पापा ने दक्षिण भारतीय व्यन्जनों के प्रति अपनी अरुचि दर्शाते हुए प्रस्ताव रखा कि खाना बनाने का सामान अपने साथ ही ले लिया जाए. पर मम्मी ने पापा का सुझाव पूरा सुने बग़ैर ही विरोध में अपने दाँत पीसने शुरू कर दिए. यात्रा में बावर्चिन का रोल निभाने से उन्होंने साफ़ इन्कार कर दिया.

नारी मुक्ति के इस दौर में मम्मी को नाराज़ करने का रिस्क उठाने की पापा में हिम्मत नहीं थी. आखि़रकार तय हुआ कि जेब हल्की हो तो हो पर यात्रा के दौरान इडली, डोसा, वडा जैसा सात्विक और सस्ता खाना ही खाया जाएगा.   

खाने की व्यवस्था के बाद हमको यात्रा में अपने रहने का बन्दोबस्त भी तो करना था. पर इस मामले में ज़्यादा फि़क्र की ज़रूरत नहीं थी. बैंगलौर में तो राजीव मामा रहते ही थे और मैसूर में ठहरने का इन्तज़ाम यूनीवर्सिटी गैस्टहाउस में होने वाला था.

यात्रा की सारी योजना निर्विघ्न तैयार कर ली गई पर दशहरे की छुट्टियों में मैसूर के लिए ट्रेन में रिज़र्वेशन मिल पाना नामुमकिन था. लाख कोशिश करने पर भी पापा को रिज़र्वेशन नहीं मिला. सारा बना-बनाया प्रोग्राम चौपट हो गया.

पापा ने मम्मी को खुश करने के लिए मैसूर सिल्क की एक साड़ी खरीद कर ला दी और और हम बच्चों को भी एक-एक बढ़िया सी ड्रेस दिलवा दी. रिश्वत में उनको, हमें कुछ खिलौने भी दिलाने पड़े.

 

          मैसूर यात्रा कैंसिल होने का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि हमारे घर में वाशिंग मशीन आ गई.   

अगले साल भ्रमण के ख़याली पुलाव फिर से पकने लगे.

मुम्बई से पापा के रेलवेज़ वाले मामाजी का निमन्त्रण आया था. उनका चर्चगेट पर खूब बड़ा फ़्लैट था जिसमें वो अकेले रहते थे. विन्टर वैकेशन्स में मुम्बई का प्रोग्राम पक्का कर दिया गया.

पापा ने अनाउन्स कर दिया कि मुम्बई में सबसे पहले हम एसेलवर्ड जाएँगे.

हमने पापा से वादा लिया कि वो हमको चौपाटी पर ट्रीट देंगे.

पापा एलीफ़ैन्टा, अजन्ता और एलोरा की गुफ़ाएँ देखने में पूरे तीन दिन खर्च करना चाहते थे. मम्मी को अजंता, ऐलोरा का प्रोग्राम तो मन्ज़ूर था पर ऐलीफ़ैन्टा जाने के लिए हम शरारती लड़कियों के साथ समुद्र में मोटरबोट का सफ़र करने पर उन्हें ऐतराज़ था.

हमको मुम्बई से गोवा भी जाना था. अब सवाल यह था कि वहाँ तक शिप से जाएँ कि ट्रेन से?  शिप से जाने का आइडिया तो बड़ा थ्रिलिंग था पर इतनी लम्बी समुद्री-यात्रा की कल्पना से ही मम्मी को चक्कर आने लगे थे. यही तय हुआ कि, ट्रेन से ही गोवा चला जाय.

          गोवा के सी बीचेज़ का क्या कहना ! पर मम्मी वहाँ न तो हम लड़कियों को ले जाने देना चाहती थीं और न ही पापा को. बच्चियों के समुद्र में डूब जाने का खतरा था लेकिन इस से भी बड़ा खतरा था कि गोवा के सी बीच पर पापा विदेशी सुन्दरियों को निहारा करेंगे.

विन्टर वैकेशन्स शुरू होने से दो महीने पहले से ही से रोज़ाना यात्रा के नए-नए प्लान्स बनते,  बिगड़ते और बदलते रहे. टूर में फ़ोटोग्राफ़ी करने के लिए कई रील्स भी ले ली गईं.

सुबह हमारी चर्चा का विषय होता था मुम्बई यात्रा तो शाम को गोवा की सैर डिस्कस की जाती थी.

पापा हर रोज़ कैलकुलेटर,  कागज़, पेन लेकर न जाने क्या जोड़ते-घटाते रहते थे. नतीजा यह हुआ कि क्लास फोर्थ के हाफ़-ईयरली एक्ज़ाम्स में मेरे मार्क्स बिलकुल ही एवरेज आए.

पापा ने फ़ैसला लिया कि मुम्बई और गोवा की ट्रिप  कैंसिल.

मेरी पढ़ाई की खातिर मुम्बई, गोवा का रिज़र्वेशन कैंसिल करा दिया गया. इस बार पापा ने मम्मी की माइक्रो अवन की ख़्वाहिश पूरी कर दी.

 

पिछला साल मम्मी की पीएच0 डी0 सबमिशन के लिए समर्पित कर दिया गया. इस बार यात्रा-कार्यक्रम स्थगित होने से मम्मी को किचिन में एक्वागार्ड का उपहार मिल गया.

पापा से अगले साल की यात्रा की योजना सुन कर मम्मी अचानक ही बेगम अख़्तर की गाई हुई यह ग़ज़ल गुनगुनाने लगीं -

ग़ज़ब किया तेरे वादे का ऐतबार किया ---’

मम्मी के मीठे स्वर में हमको तो यह ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी पर पता नहीं क्यूँ पापा इसे सुन कर अपने पाँव पटकते हुए घर से बाहर निकल गए.

मैं अब फिफ्थ क्लास में आ गई हूँ और रागिनी क्लास थर्ड में.

हम दोनो बहनों ने कड़ी मेहनत कर हाफ़-ईयरली एक्ज़ाम्स में अच्छे मार्क्स सीक्योर किए हैं. बच्चों की परफॉरमेंस से खुश होकर पापा ने इन विन्टर वैकेशन्स में राजस्थान यात्रा का प्रस्ताव रखा है.

जयपुर,  उदयपुर,  रणकपुर,  जोधपुर, चित्तौड़गढ़ और लौटते में फ़तेहपुर सीकरी और आगरा.

वाह क्या कार्यक्रम है ! हवा महल से लेकर ताजमहल तक आनन्द ही आनन्द !

मम्मी को गिफ़्ट की जाने वाली जयपुरी साड़ी का रंग भी पापा ने पहले से तय कर लिया है. हम दोनों बहनों को जयपुरी जूतियाँ,  उदयपुरी लहँगे और साँगानेरी सूट्स भेंट किए जाएँगे.

आजकल पापा मम्मी से कभी चूरमा,  कभी पापड़ की सब्ज़ी तो कभी दाल-बाटी बनाने की फ़रमाइश करते रहते हैं.

हमको जेम्स टॉड की ‘एनल्स ऑफ़ राजस्थान’ ,श्याम नारायण पाण्डेजी की ‘हल्दीघाटी’ और ‘जौहर’ से रोज़ाना कुछ न कुछ सुनाया जाता है. कैमरे में रील लोड कर ली गई है.

राजस्थान में ठहरने की पक्की व्यवस्था भी कर ली गई है. रेलवे रिज़र्वेशन का भी इस बार पक्का इन्तजाम हो गया है. पर मम्मी हैं कि पापा की बात पर यकीन करने की जगह बेवजह गुनगुना रही हैं –

झूठ बोले कौआ काटे

काले कौए से डरियो’

          मम्मी ने पापा को टाइटिल दिया है - प्रोफ़ेसर टालमटोल.

मम्मी ने तो यह भी डिसाइड कर लिया है कि इस बार ट्रिप कैंसिल होने पर वह पापा से बतौर कम्पेन्सेशन बड़ा वाला फ़्लैट टीवी लेंगी.

मम्मी पापा को छेड़ते हुए कहतीं हैं  -

अगर झूठ-मूठ की ट्रिप ही करानी है तो हम सबको आप लन्दन,  पेरिस घुमाने क्यों नहीं ले जाते?’

          मम्मी पापा की बातें सुन कर अपना मुँह फेर कर हँसें या खुलेआम पर हमको अपने पापा पर और उनके वादों पर पूरा भरोसा है.

पापा को इस बार काला कौआ नहीं काटेगा और हमारे पापा कोई प्रोफ़ेसर टालमटोल भी नहीं हैं पर अगर किसी मक्खी ने ऐन वक़्त पर छींक दिया या किसी काली बिल्ली ने उनका रास्ता काट दिया तो वो बेचारे प्रोग्राम कैंसिल करने के सिवा और क्या कर सकते हैं?

रविवार, 1 दिसंबर 2024

कभी शेर तो कभी भीगी बिल्ली

 

नवम्बर, 1980 में मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा कांसटीच्युयेंट कॉलेज के इतिहास विभाग में प्रवक्ता के पद पर कार्यभार सम्हाला था. अपने अकडू स्वभाव के कारण मैंने हेड ऑफ़ दि इंस्टीट्यूशन (एचओआई) के घर जा कर उनको सजदा करने की ज़रुरत ही नहीं समझी थी.

कॉलेज ज्वाइन करने के सात दिन बाद ही एचओआई महोदय का चपरासी मेरे पास उनका बुलावा ले कर आ गया.

जब मैं हुज़ूरेवाला के दौलतखाने पर पहुंचा तो वहां वो मेरी तरह के ही चार नव-नियुक्त प्रवक्ताओं के समक्ष आत्मश्लाघा पुराण बांच रहे थे.

मुझे भी आत्मश्लाघा-पुराण बांचने की उस पीड़ा को उन चार निरीह प्राणियों के साथ सहन करना पड़ा.

खैर, पुराण बांचने का कार्यक्रम समाप्त हुआ और उन चारों शिकारों ने हुज़ूरेवाला को फ़र्शी सलाम कर के उन से विदा ली.

अब दरबार में बचा अकेला मैं !

हुज़ूरेवाला ने मुझे घूरते हुए मुझसे पूछा –

 

क्यों जनाब ! आपके पांवों में क्या मेहंदी लगी हुई थी कि आप कहीं आने जाने क़ाबिल नहीं रह गए थे?’

 

मैंने विनयपूर्वक उत्तर दिया –

 

सर, आपने जैसे ही अपना क़ासिद भेजा, मैं दौड़ा-दौड़ा चला आया हूँ. फिर भला मेरे पांवों में मेहंदी कैसे लगी हो सकती थी?’

 

हुज़ूरेवाला ने मेरी यह दलील सुन कर भी मुझे माफ़ नहीं किया.

अगले आधे घंटे तक मुझे समझाया गया कि एचओआई ही हम बेबस

मुदर्रिसों का माई-बाप होता है और अपने वर्तमान को सुरक्षित रखने तथा अपने भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए उसकी सेवा-सुश्रूसा-मुसाहिबी करना हमारे जैसों के लिए सांस लेने के जितना ही ज़रूरी होता है.

 

आदरणीय के धमकी भरे इस प्रवचन के बीच ही हमारे कॉलेज की चपरासी यूनियन के अध्यक्ष का आगमन हुआ.  

आदरणीय ने चपरासी-नेता का गर्मजोशी से स्वागत किया, उसे प्यार से सोफ़े पर बिठाया, उसके लिए तुरंत चाय मंगवाई (मुझ बेचारे को उन्होंने पानी तक के लिए नहीं पूछा था) लेकिन उस नेता ने उन्हें निकम्मा, वादा-खिलाफू और कॉलेज-कलंक के तीन ख़िताब एक साथ दे डाले.    

मेरे सामने शेर बन कर गरजने वाले आदरणीय अब उस चपरासी-नेता के सामने भीगी बिल्ली बने म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए अपनी सफ़ाई देने की नाकाम कोशिश में लगे हुए थे.

आदरणीय की यह दुर्दशा देख कर उनसे विदा लेते समय मेरा खौफ़-एचओआई पूरी तरह से ख़त्म हो गया था.

मेरे खुराफ़ाती दिमाग ने कबीर के एक दोहे को उलट कर तुरंत एक नया दोहा कहने के लिए मजबूर कर दिया - 

दुर्बल ही को सताइए, बिना सींग की गाय,

अगर प्रबल हो सामने, तुरतहिं सीस नवाय.’     

 

हमारे आदरणीय इन चपरासी नेताओं से दस गुना ज़्यादा खौफ़ छात्र नेताओं से खाते थे.

छात्र नेतागण मंच से चिल्ला-चिल्ला कर उन पर मनगढ़ंत आरोप लगाते समय एक से एक हिंसक अपशब्दों का प्रयोग करते थे.

हमारे आदरणीय छात्रों की गालियां और तोहमतें ऐसा रस ले कर सुनते थे,

जैसे सेंचुरी लगाते हुए सुनील गावस्कर के करिश्माई खेल की कमेंट्री हो रही हो.         

 

हमारी चौथी मुलाक़ात में आदरणीय को पता चला कि मैं उनके अल्मा मैटर लखनऊ विश्वविद्यालय में पांच साल पढ़ा चुका हूँ. इस ख़बर से उनके दिल में मेरी इज्ज़त आने-दो आने बढ़ गयी थी.

लेकिन फिर कमाल हो गया.

हमारी अगली मुलाक़ात में आदरणीय को यह भी पता चला कि मेरे बड़े भाई साहब श्री कमल कान्त जैसवाल आई०ए०एस० में सेलेक्ट होने से पहले दो साल लखनऊ यूनिवर्सिटी के जियोलॉजी डिपार्टमेंट में लेक्चरर रह चुके थे.

अपने छात्र-जीवन में आदरणीय के लखनऊ यूनिवर्सिटी के जियोलॉजी डिपार्टमेंट में कई मित्र थे. हमारे कमल भाई साहब से भी उनकी थोड़ी-बहुत जान-पहचान थी लेकिन भाई साहब के आई०ए०एस० में सेलेक्ट होने के बाद हमारे आदरणीय उन्हें अपना अभिन्न मित्र मानने लगे थे.

मेरे इस नए परिचय के बाद आदरणीय की दृष्टि में मेरा स्टेटस काफ़ी ख़ास हो गया था. उन्होंने मुझ से कहा –

 

तुम अगर हमारे अज़ीज़ दोस्त के० के० जैसवाल के छोटे भाई हो तो आज से हमारे भी छोटे भाई हो.

 

मैंने कहा –

 

मेरा बड़ा भाई बनने से पहले आप यह जान लीजिए कि कमल भाई साहब न तो आपकी तरह मुझे धौंसियाते हैं और न ही वो मुझ पर अपने ओहदे का कोई रौब गांठते हैं.

 

आदरणीय ने ही ही ही करते हुए कहा –

 

अपनी किस्मत में अगर एक गुस्ताख़ छोटा भाई लिखा है तो हमको वो भी कुबूल है.

 

अब इस गुस्ताख़ छोटे भाई ने अपने ऊपर थोपे गए बड़े भाई की भीगी बिल्ली जैसी डरपोक हरक़तों की उनके मुंह पर ही आलोचना कर के और एक से एक भर्त्सनापूर्ण सवाल दाग-दाग कर, उनका जीना हराम कर दिया.

मसलन –

 

1.    उस गुंडे स्टूडेंट लीडर की गालियाँ खा कर भी आपने उसको चाय क्यों पिलाई?

 

2.    एस० पी०, डी० एस० पी० की तो छोड़िए. आप तो सब-इंस्पेक्टर तक को सर कहते हैं. क्या आपका ओहदा हेड कांस्टेबल के बराबर का है?

 

  

3.    नक़ल करते हुए स्टूडेंट्स को देख कर भी आप उन्हें अनदेखा क्यों करते हैं?’

 

4.    रोज़ाना गालियाँ खा-खा कर भी आप एचओआई की पोस्ट से रिज़ाइन करने की क्यों नहीं सोचते?’   

 

आदरणीय के पास मेरे ऐसे सभी सवालों का हमेशा एक ही जवाब होता था –

 

इसको चाणक्य-नीति कहते हैं नादान बालक !

 

कॉलेज में जिस किसी की तोला-माशा-रत्ती भर भी न्यूसेन्स वैल्यू होती थी, उसके सामने नतमस्तक होने में हमारे आदरणीय ज़रा भी तक़ल्लुफ़ नहीं करते थे.  

 

दुर्बल को सताने वाली और प्रबल के सामने दुम हिलाने वाली अपनी चाणक्य-नीति का पालन करते हुए भी आदरणीय मात्र तीन साल में एचओआई के पद से हटा दिए गए और उन से उनका बंगला-ए-ख़ास भी छीन कर उन्हें एक घुचकुल्ली सा फ्लैट उपलब्ध करा दिया गया.

मैंने इसे मुगलिया इतिहास के शहज़ादों की तर्ज़ पर उनका तख़्त से तख्ते तक का सफ़र (तख़्त यानी कि सिंहासन से ले कर फांसी के तख्ते तक का सफ़र) कहा.

आदरणीय के इस डिमोशन के वक़्त उनके हमदर्दों में केवल उनकी श्रीमती जी थीं और पूरे कॉलेज में सिर्फ़ एक मैं था जिनके कि कंधे पर वो बारी-बारी से अपना सर रख कर धाड़ मार-मार कर रो सकते थे.

 

मुझे उम्मीद थी कि अब आदरणीय अपनी कुर्सी छिनने के डर से आज़ाद

होने के बाद निर्भीक शेर बन जाएंगे फिर वो सब दबंगों-हेकड़ीबाज़ों पर दहाड़ेंगे और दुर्बलों के सहायक बन कर उभरेंगे.

लेकिन हुआ इसका उल्टा.

इस डिमोशन के बाद भी हमारे आदरणीय कुलपति की चाकरी करने से और अफ़सरान की खुशामद करने से बाज़ नहीं आए.

वो अब भी किसी लठैत, किसी मुस्टंडे, के सामने भीगी बिल्ली बन जाते थे और किसी बकरी जैसे निरीह प्राणी पर शेर बन कर टूट पड़ते थे.