बुधवार, 6 जनवरी 2021

डॉक्टर जगन

 पीएच. डी. की डिग्री हासिल करने वाला शख्स समाज में अपना दबदबा कायम करने की तमन्ना रखता है और अगर साथ में किसी विश्वविद्यालय या किसी महाविद्यालय में लेक्चरर की जॉब भी मिल जाय तो फिर सोने में सुहागा वाली कहावत उसके अपने आँगन में सुनाई देने लगती है.

मेरा भक्त छात्र जगन्नाथ उर्फ़ जगन जब बी. ए. में था, तभी से वह मेरे निर्देशन में पीएच. डी. करना चाहता था. पीएच. डी. के लिए विषयों का चुनाव भी वह खुद ही करना चाहता था पर उसके लिए मेरी संस्तुति लेना वह ज़रूरी समझता था. गांधीजी के लाठी-प्रेम पर वह पीएच. डी. और नेहरूजी के जैकेट प्रेम पर वह डी. लिट. करना चाहता था. मैंने उसे जैसे तैसे राजी किया कि वह एम. ए. करने तक अपना पीएच. डी. और डी. लिट. वाला प्लान टाल दे.
जब जगन बी. ए. की परीक्षा में तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ तो मैंने उसे सलाह दी कि वो एम. ए. और पीएच. डी. करने के ख्वाब छोड़कर गाँव जाकर अपने पिताजी के साथ खेती करे पर उसने मेरी बात नहीं मानी और एम. ए. इतिहास में एडमिशन ले ही लिया. इतना ही नहीं दो साल बाद पता नहीं कैसे जोड़तोड़ कर उसने बाकायदा एम. ए. कर भी डाला, वह भी 55 प्रतिशत अंकों के साथ. अब उसका पीएच. डी. गाइड बनना मेरा फ़र्ज़ था पर मैंने अपने ख़राब स्वास्थ्य का बहाना करके उससे पीछा छुड़ा लिया. मेरे उत्साही छात्र जगन ने एक दूसरे गुरूजी की खोज कर ली. ये गुरूजी थोक में पीएच. डी. कराते थे. कराते भी क्या थे बल्कि कोई किसी भी अल्लम गल्लम विषय पर कहीं से भी ढाई-तीन सौ पन्ने भर लाये तो वह थीसिस सबमिट कर सकता था और आवश्यक दान-दक्षिणा चुकाने के बाद डॉक्टर साहब कहलाने का अधिकारी बन सकता था.
हमारे वुड बी डॉक्टर साहब के शोध कार्य की प्रगति की हर जानकारी मुझे मिलती रहती थी. किस तरह दस नाली का खेत बेचकर थीसिस लिखने के लिए एक घोस्ट राइटर का इंतज़ाम हुआ, किस तरह रिकॉर्ड टाइम में थीसिस लेखन का कार्य संपन्न करा थीसिस सबमिट कर दी गयी, ये सब मुझे जुबानी याद हो गया था. अब जगन भैय्या अपने नाम से पहले ‘डॉक्’ लगाने लगे थे. मैंने इसका रहस्य जानना चाहा तो जगन ने मुझे समझाया –
‘गुरूजी, पीएच. डी. थीसिस सबमिट करना आधे पीएच. डी. के बराबर तो है ही इसलिए मैं अपने नाम के साथ कमसे कम ‘डॉक्; तो लगा ही सकता हूँ. मुझे पीएच. डी. अवार्ड होने के बाद तो आप भी मुझे डॉक्टर जगन ही कहोगे.’
पांच नाली का एक और खेत बेचकर ‘डॉक्’ जगन ने अपने पीच. डी. वायवा के सफल आयोजन की व्यवस्था की. वाह्य परीक्षक की उन्होंने वो खातिर की कि वो बेचारे वायवा लेते समय सिर्फ उनकी शान में कसीदे पढ़ते रहे और उन्हें डॉक्टर जगन्नाथ कहकर संबोधित करते रहे.
मिठाई का डिब्बा लेकर डॉक्टर जगन मेरे घर पधारे और फिर मुझे अपने साथ गोलू देवता के दरबार भी ले गए. उन्हें पीएच. डी. अवार्ड होने की मन्नत पूरी होने पर वहां घंटा चढ़ाना था. पूजा-अर्चना और घंटा चढाने के बाद डॉक्टर जगन ने गोलू देवता के दरबार में एक और अर्जी लगा दी –
‘हे गोलू देवता ! आप मुझे यूनिवर्सिटी में या किसी कॉलेज में लेक्चरर बनवा देना.’
मैंने डॉक्टर जगन से पूछा –
‘डॉक्टर साहब, गोलू देवता के मंदिर में कुल कितने घंटे-घंटियाँ हैं?’
गोलू देवता के मन्दिर में लगे हुए कुल घंटे और घंटियों की संख्या कर पाना देश की जनगणना करने से कम गुरुतर कार्य नहीं हो सकता. हमारे डॉक्टर जगन इन घंटियों को देखकर अभिभूत हो गए. अपनी तरफ़ से उन्होंने एक घंटा चढ़ाते हुए डॉक्टर जगन ने जवाब दिया –
‘गुरूजी, मेरे विचार से ये कम से कम दस हज़ार तो होंगे ही.’
मैंने कहा –
‘इसमें से आधे आपकी तरह के डॉक्टर साहबों ने ही चढ़ाये होंगे. अगर गोलू देवता आप जैसे सभी डॉक्टर साहबों की अर्जी पर गौर करने लगे तो यूनिवर्सिटियों और कॉलेजो में गुरुजियों की संख्या छात्रों से ज्यादा हो जाएगी.’
डॉक्टर जगन मेरे महा-निराशावादी दृष्टिकोण के कारण मुझसे काफ़ी दिनों तक नाराज़ रहे पर अगले तीन साल तक खेत बेचने की भरपाई करने के लिए उन्हें टैक्सी चलानी पड़ी.
उनकी टैक्सी पर पीछे की ओर ‘डॉक्टर्स टैक्सी’ और ‘डॉक्टर जगन दी गड्डी’ लिखा रहता था. मुझे भी कई बार रियायती दर पर उनकी टैक्सी में घूमने का मौका मिला.
तीन साल तक सफलता पूर्वक टैक्सी ड्राईवर की भूमिका निभाने के बाद एक बार फिर डॉक्टर जगन मिठाई के डिब्बे के साथ मेरे घर पधारे. मैंने मिठाई लाने का उन से कारण पूछा तो वो मुस्कुराते हुए बोले –
‘गुरूजी, गोलू देवता के दरबार में मेरी अरदास कबूल हो गयी. कृष्ण नगर इन्टर कॉलेज में मेरी नियुक्ति हो गयी है.’
मैंने उन्हें बधाई देते हुए पूछा –
‘इस बार कितने नाली खेत बेचा?’
डॉक्टर जगन ने तपाक से जवाब दिया –
'न खेत बेचा है और न ही टैक्सी, भगवान् की कृपा से सब कुछ यूँ ही हो गया.’
मैनें मुक्का तान उन्हें जान से मारने की धमकी दी तो उन्होंने शरमाते हुए जवाब दिया –
‘ कृष्ण नगर इन्टर कॉलेज मैनेजमेंट के सर्वेसर्वा की बेटी जो कि मुझ से पांच साल बड़ी है और थोड़ी ज़्यादा ही तंदुरुस्त है, उस से अगले महीने मेरी शादी होने जा रही है.’
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24 टिप्‍पणियां:

  1. बधाई। शादी के बाद की कहानी अगली किस्त में :)

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    1. मित्र तुम बस, इतना जान लो कि शादी के बाद डॉक्टर जगन कृष्ण नगर इन्टर कॉलेज के प्रिंसिपल बन गए.

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  2. बहुत खूब सर !!पी.एच.डी.करने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं इसकी पूरी कथा बहुत खूबसूरती से बयान की आपने।

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    1. मीना जी, ढंग से गाय पर या 'अस्माकं विद्यालय' पर निबंध भी न लिख पाने वाले और बिना कागज़ की मदद के दो वाक्य भी न बोल पाने वाले पीएच. डी. की डिग्री हासिल कर जब गुरु जी बन जाते हैं तो सोचिए कि माँ शारदे कितनी दर्द भरी और कुंठा भरी वीणा बजाती होंगी.

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  3. येन-केन-प्रकारेण काम होना चाहिए बस, बहुत से लोगों का यही शगल होता है

    बहुत खूब रही, डॉक्टर के साथ गृहस्थी भी बस गई

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    1. कविता जी, इस हैप्पी एंडिंग को देख कर रोई तो केवल माँ शारदा होंगी.

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ जनवरी २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  5. 'पांच लिंकों का आनंद' के 8 जनवरी, 2021 के अंक में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद श्वेता !

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    1. डॉक्टर साहब, आप जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार की प्रशंसा मेरे लिए अनमोल है.

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  7. गोपेश भाई, आज पी एच डी जैसी उच्च डिग्री की जो दशा हो गई है उसका बहुत ही बढ़िया चित्रण किया है आपने। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। मेरे पतिदेव ने तो शोध कार्य के लिए गांव गांव की धूल छानी थी तब जाकर डिग्री मिली थी।

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    1. ज्योति, चाहे नया ज़माना हो या फिर पुराना ज़माना रहा हो, शोध के नाम पर चोरी-चकारी और उठाईगीरी थोक में होती आई है.
      यह सही है कि तुम्हारे पतिदेव की तरह बहुत से शोधार्थी जान की बाज़ी लगा कर पीएच. डी. की डिग्री हासिल करते हैं लेकिन इनकी तुलना में उसे जुगाड़ लगा कर हासिल करने वालों की संख्या कहीं अधिक है.
      मैं अपने अनुभव के आधार पर तो यही कहूँगा कि शोध के नाम पर इस झूठ के मकड़-जाल को ख़त्म ही कर दिया जाए तो अच्छा है.

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  8. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(०९-०१-२०२१) को 'कुछ देर ठहर के देखेंगे ' (चर्चा अंक-३९४१) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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    1. 'कुछ देर ठहर कर देखेंगे' (चर्चा अंक - 3941) में मेरी व्यंग्य-रचना को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता.

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  9. ये भी शग़ल है। बहुत कुछ बता रहा व्यंग्य रचना।
    बहुत बढ़िया

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद पम्मी सिंह 'तृप्ति' जी.
      हम सबको अन्याय का, अराजकता का, भ्रष्टाचार का, निडर होकर खुलासा करते रहना चाहिए.
      ऐसे गुनाहगारों को अगर यूँ ही बेनकाब किया जाता रहा तो कभी न कभी उनकी गतिविधियों पर कोई न कोई तो नियंत्रण लगा ही देगा.

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  10. भ्रष्टाचार बेनकाब होकर भी फलफूल ही रहा है....डॉक्टर जगन जैसे प्राध्यापक अवसर मिलते ही अपने जैसों की व्यथा समझकर उन्हे इसी तरह अवसर देकर भ्रष्टाचार की वंशबेल को खूब फलीभूत कर रहे हैं पुराने से नये जमाने तक....
    सिलसिला जारी रहेगा....मेहनती किस्मत कोसते रह जाते हैं...
    इस तरह के सिस्टम की ढोल की पोल खोलती लेखनी को एवं आपको सादर नमन🙏🙏🙏🙏

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    1. सुधा जी, विश्वविद्यालय में पढ़ते-पढ़ाते करीब-करीब 43 साल गुज़ार दिए. मुझे सरस्वती माँ के मन्दिरों में भ्रष्टाचार का चलन लोकतंत्र के मकबरों से कम नहीं लगा.
      सभी कुओं में भांग की मात्रा लगभग बराबर ही है.

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  11. ‘ कृष्ण नगर इन्टर कॉलेज मैनेजमेंट के सर्वेसर्वा की बेटी जो कि मुझ से पांच साल बड़ी है और थोड़ी ज़्यादा ही तंदुरुस्त है, उस से अगले महीने मेरी शादी होने जा रही है.’
    जानदार रचना।

    भाग-2 के इंतज़ार में...।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद सधुचंद्र जी.
      इस कहानी का दूसरा भाग तो नहीं, लेकिन जल्द ही 'सेलेक्शन कमेटी' के नाम पर हो रहे अंधेर पर कुछ रौशनी डालूगा.

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  12. शिक्षण व्यवस्था में मौजूद भ्रष्टाचार का क्या खूब चित्रण किया है। दुःख की बात है देश का भविष्य ऐसे ही मास्टरों के हाथ में हैं।

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    1. प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद विकास नैनवाल 'अंजान' जी.
      हमारे देश के अध्यापक स्वर्ग-लोक से तो उतरे नहीं हैं. जो कमियां और बुराइयाँ दूसरो में हैं, वो उन में भी हैं.
      ज़रुरत तो इस भ्रष्ट व्यवस्था को पूरी तरह से बदलने की है.

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