लोग कहें मीरा भई बावरी –
भगवान् श्री कृष्ण की अनन्य भक्त तथा महान
कवियित्री के रूप में मीराबाई की ख्याति है. आमेर के राज-परिवार की कन्या मीरा,
जिसका कि विवाह भारत के सबसे प्रतिष्ठित क्षत्रिय राज-कुल मेवाड़ के सिसोदिया वंश
में किया जाता है, वह अपने पति को नहीं अपितु अपने आराध्य कान्हा को ही अपना
स्वामी मानती है. वह अपने ससुराल की शैव और शाक्त धार्मिक मान्यताओं का अनुकरण
नहीं करती है. उसकी वैष्णव विचारधारा उसमें
बलि-प्रथा का विरोध करने का साहस उत्पन्न कर देती है.
मीरा के पति की मृत्यु हो जाती है, चूंकि वह
कान्हाजी को ही अपना पति मानती है इसलिए एक राजपरिवार की विधवा के जीवन से जुड़े
हुए कठोर धार्मिक एवं सामाजिक प्रतिबंधों को वह स्वीकार नहीं करती है. मध्यकालीन
भारत में एक राजपरिवार की युवा और सुंदरी विधवा को या तो सती हो जाना होता था अथवा उदास, निष्क्रिय तथा नितांत
एकाकी जीवन व्यतीत करने के किये विवश होना पड़ता था किन्तु मीरा बाई भक्ति-पूर्ण,
बंधन-मुक्त वैष्णव संतों की जीवन शैली अपनाती है. वह राज-परिवार की कुल-मर्यादा, लोक-लाज,
सब कुछ अपने गिरधर गोपाल पर न्योछावर कर देती है. इस क्रांतिकारी कदम उठाने पर उसे
बावरी और कुल-नासी कहा जाता है पर वो हर लांछन से बे-परवाह, हर दंड से अप्रभावित,
एक पहाड़ी नदी की तरह हर बाधा को लांघते हुए अपने गंतव्य की ओर, अपने सांवरे से
मिलन की आस में नाचते-गाते चलती चली जाती है.
मीरा बाई भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली के
दर्शन हेतु मथुरा, वृन्दावन से लेकर द्वारिका तक का भ्रमण करती है. वृन्दावन में
वह बिना अपना परिचय दिए चैतन्य महाप्रभु के शिष्य रूप गोस्वामी से मिलना चाहती है
पर उनके शिष्य उसे यह बताते हैं कि उनके ब्रह्मचारी गुरूजी स्त्रियों से नहीं
मिलते, केवल पुरुषों से मिलते हैं. मीरा यह कहते हुए लौट जाती है –
‘मैं तो समझती थी कि अखिल ब्रह्माण्ड में मेरा
कान्हा ही एक पुरुष है पर तुम्हारे गुरूजी भी पुरुष हैं, यह तो मुझे पता ही नहीं
था.’
रूप
गोस्वामीजी को जब उस अपरिचिता साध्वी के इस कथन के विषय में पता चलता है तो वो कह
उठते हैं –‘ऐसा तो केवल मीरा कह सकती हैं.’
रूप गोस्वामी अपने पुरुष होने का दंभ त्याग कर
मीरा माँ का आदर-सत्कार करने के लिए दौड़ पड़ते हैं.
मीरा बाई के आचार-विचार की तुलना हम 8 वीं
शताब्दी की अरब निवासिनी रहस्यवादी सूफी राबिया-अल-अदाविया से कर सकते हैं. अपने
मेहबूब यानी खुदा के प्रेम में निमग्न राबिया को न तो अपनी सुध रहती है और न ही
अपने कपड़ों की. लोग उसे पागल समझ उस पर पत्थर बरसाते हैं. एक बार उससे कोई पूछता
है कि वह अपने ऊपर पत्थर बरसाने वालों के साथ कैसा व्यवहार करेगी. राबिया जवाब देती
है –
‘मैं सिर्फ प्रेम करना जानती हूँ इसलिए अपने ऊपर
पत्थर बरसाने वालों को भी प्रेम ही करुँगी.’
राबिया तो शैतान पर भी अपना प्रेम लुटाने को
तत्पर रहती है. मीरा बाई भी राबिया की तरह ही केवल प्रेम से ओतप्रोत है, बस अंतर
यह है कि राबिया जिसे खुदा कहती है, मीरा बाई उसे कान्हा कहती है. राबिया और मीरा
दोनों के लिए पिया की सेज सूली-ऊपर है. दोनों ही जीते जी अपने मेहबूब, अपने प्रेमी
में समाहित हो जाती हैं.
मीरा सामाजिक असमानता के सभी बंधन तोड़कर शूद्र
कहे जाने वाले भक्त रैदास की निश्छल भक्ति से प्रभावित होकर उनको को अपना गुरु
मानती है. जनश्रुति के अनुसार वह रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास से यह पूछती है कि वह अपने
प्रेम-भक्ति मार्ग में बाधक श्वसुर-कुल के साथ किस प्रकार का व्यवहार करे.
तुलसीदास उससे कहते हैं –
‘जाके प्रिय न राम, बैदेही, तजिये ताहि कोटि
बैरी सम, जद्यपि परम सनेही.’
(जो तुम्हारे आराध्य का विरोधी है, उसका तुम
तुरंत परित्याग करो, भले ही वह तुम्हें कितना भी प्रिय क्यों न हो).
मीरा बाई धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टि से नितांत
अप्रगतिशील सोलहवीं शताब्दी के भारत में भक्ति और प्रेम के आकाश में न केवल उन्मुक्त
होकर उड़ती है अपितु अपने साथ हजारों-लाखों भक्तों को भी बंधन-मुक्त निश्छल भक्ति
की आनंदानुभूति कराने में सफल होती है. मीरा नारी-उत्थान की जीवंत प्रतीक है. मेरी
दृष्टि में मीरा न केवल भगवान् श्री कृष्ण की अनन्य भक्त है, एक महान कवियित्री है
बल्कि इसके साथ-साथ वह एक ऐसी क्रान्तिकारी है जो कि अपने समय में प्रचलित अनेक
धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ती है. वह संकुचित लिंग-भेदी, जाति-भेदी - धार्मिक,
नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण को खुलेआम चुनौती देती है. आने वाली पीढ़ियों के लिए,
विशेषकर कन्यायों तथा स्त्रियों के लिए, मीरा नारी-स्वातंत्र्य की उद्घोषिका है और
भक्तजन के लिए आडम्बर रहित उन्मुक्त प्रेम एवं निश्छल भक्ति का पाठ पढ़ाने वाली अभूतपूर्व
शिक्षिका है.