ई मां हमरा का दोस है –
आज से 50 साल पहले पिताजी की पोस्टिंग
बाराबंकी में हुई थी. मैंने हाई स्कूल और इन्टर वहीँ से किया है. एक मजिस्ट्रेट के
रूप में अपने उसूलों के लिए पिताजी की बड़ी ख्याति थी लेकिन चपरासियों से घर का काम
कराने की ब्रिटिश कालीन अफ़सरी परंपरा से उन्हें कोई परहेज़ नहीं था. पिताजी के
कोर्ट से जुड़े हुए दोनों चपरासी कचहरी के दायित्वों का निर्वाहन करने के अतिरिक्त
हमारे घर में आकर छोटे-मोटे काम भी किया करते थे. पिताजी का एक चपरासी, क़ुतुब अली
बहुत स्मार्ट था, वो बातें करने में बहुत उस्ताद था और अपनी बातों में दूसरे
चपरासी को ऐसा फांसता था कि वो बेचारा दोनों चपरासियों के ज़िम्मे का काम अकेला
करता था और हमारे जनाब क़ुतुब अली स्टूल पर बैठे-बैठे उस पर हुक्म चलाते रहते थे. अपनी
लच्छेदार बातों के बल पर वो हम सबका चहेता बन गया था. अपने जोड़ीदार के रूप में
क़ुतुब अली को हमेशा किसी ऐसे बौड़म की तलाश रहती थी जो कि उसके इशारों पर नाच सके.
क़ुतुब अली के आतंक से उसके जोड़ीदार भयभीत रहते थे इसलिए उनमें से कोई भी उसके साथ
ज़्यादा देर टिक नहीं पाता था.
एक बार एक लड़का नुमा बिना दाढ़ी-मूछ वाला शख्स
क़ुतुब अली का जोड़ीदार बनकर आया. मेरी माँ को कद-काठी से वो बहुत कमज़ोर लगा.
उन्होंने नाज़िर के इस चपरासी-चयन पर अपनी नाराज़गी जताते हुए क़ुतुब अली से कहा –
‘ये सींकिया पहलवान, बित्ते भर का लड़का घर
का क्या काम कर पायेगा? नाज़िर से कह कर कोई ठीक-ठाक सा आदमी लाओ.’
सींकिया पहलवान और बित्ते भर के लड़के ने
माँ को संबोधित करते हुए अपनी तुतलाती हुई सी ज़ुबान में कहा –
‘माता राम हम बित्ता भर का लड़का नाहीं
हैं, अट्ठाईस साल के पूरे पट्ठा हैं. तुम्हरे मुल्ला क़ुतुब अली से चार गुना काम कर
सकत हैं. तुम हमसे गोमाता की सेवा कराय सकत हो. हम उन्निस
बिसवां के बाजपेयी बाम्हन हैं, हमसे तुम पूजा-पाठ भी कराय सकत हो.’
क़ुतुब अली ने चुटकी लेते हुए हामी भरी –
‘माताजी! ये पंडित सही कह रहा है, ये घर
का सब काम-काज जानता है. इसकी इत्तरी माता घर का सारा काम इसी से तो कराती है.’
माँ ने हैरानी से पूछा –
‘ये इत्तरी माता कौन है? या तो स्त्री बोलो
या फिर माता बोलो.’
इसका जवाब क़ुतुब अली के बजाय पंडितजी ने
दिया –
‘ई मुल्लाजी की बात पर ध्यान मत देओ माता राम. हम अपनी मेहरारू
की बहुत इज्जत करते हैं याही खातिर लोग उनका हमरी इत्तरी माता कहत हैं.’
क़ुतुब अली ने हँसते हुए कहा –
‘हाँ, रोज उनके चरन दबावत हो, खाना पकावत
हो, कपरा-लत्ता धोवत हो और गाहे-बगाहे लात भी खावत हो.’
माँ को इत्तरी माता के इस प्रसंग में दाल
में कुछ काला लगा पर उस वक़्त बात आई-गयी हो गयी.
पंडित हमारी गाय की बहुत सेवा करता था पर
उसका दूध दुहते समय अच्छा-ख़ासा कच्चा दूध, सीधे -सीधे गाय के थनों से ही गटक जाता
था. घर में चूल्हे-चौके के काम में वो ज़रुरत से ज्यादा दिलचस्पी लेता था. शाम को हमारी
माँ यानी अपनी माता राम के हाथ से चकला-बेलन छीन के वो कभी पराठे बनाने बैठ जाता
तो कभी कोई भरवां सब्ज़ी बनाने लगता. माता राम से पुरस्कार में अपनी ही बनाई डिश को
प्रसाद के रूप में पाकर पंडित धन्य-धन्य हो जाता था. पंडित ने हमारा शाम का खाना
बनाने की ज़िम्मेदारी ज़बरदस्ती खुद ही ओढ़ ली थी और उसकी एवज़ में वो हमारे यहाँ
भरपेट भोजन किया करता था.
क़ुतुब अली ने हमको बताया कि पंडित की इत्तरी
माता उसे खाना नहीं देती है और उसके पिताजी यानी बड़े पंडितजी उसकी तनख्वाह, उसे
बक्शीश में मिले पैसे वगैरा भी उससे छीन लेते हैं. इसी लिए भूखा पंडित खाने के
इर्द-गिर्द मंडराता रहता है और काम के बदले हमेशा पेट भरने की जुगाड़ में रहता है. मज़े
की बात यह थी कि हमारी माँ को आसमान से टपकी भोजन के बदले खाना बनाने की यह
व्यवस्था रास आ रही थी.
एक बार पंडित बड़ा खुश होकर हमारे यहाँ
लड्डू लाया. माँ ने कारण पूछा तो पंडित चहचहा कर बोला-
‘माता राम हमारे यहाँ बालरूप भगवान पधारे
हैं.’
क़ुतुब अली ने पंडित को टोकते हुए कहा –
‘माता राम ऐसे नहीं समझेंगी. ये बताओ कि
तुम्हारे घर भैया ने जनम लिया है.’
ये पूर्ण अहिंसक बात सुनकर आग-बबूला होकर
पंडित लम्बे-चौड़े क़ुतुब अली पर टूट पड़ा. हम लोगों ने जैसे-तैसे दोनों को अलग किया.
पंडित ने क़ुतुब अली की बांह में जोर से काट खाया था पर हमारे समझ में यह नहीं आ
रहा था कि अच्छी –खासी चोट खाने के बाद भी क़ुतुब अली बिना रुके हंसे क्यों चला जा रहा था.
उस दिन के बाद से पंडित बिलकुल बुझा-बुझा
सा रहने लगा. क़ुतुब अली ने भी इत्तरी माता को लेकर या बाल रूप भगवान के जनम को
लेकर उससे फिर कोई मज़ाक़ नहीं किया. एक दिन पंडित आया तो उसका सूजा मुंह देखकर माँ
हैरान रह गयीं. बहुत टटोलने पर भी पंडित ने अपनी बदहाली का राज़ नहीं खोला पर इस
घटना के अगले ही दिन वो हमारी गाय की कोठरी में खुद को फांसी लगाने की नाकाम कोशिश
करते हुए पकड़ा गया. पिताजी के दो तमाचे खाकर ही पंडित ने अपनी पूरी दास्तान उन्हें
सुना डाली.
पंडित नपुंसक था. उसके विधुर बाप ने उसकी
शादी सिर्फ इसलिए कराई थी कि वो उसकी पत्नी को अपनी अंकशायनी बनाकर रख सके. बेचारा
पंडित जब भी इस व्यवस्था का विरोध करता था तो उसकी पत्नी और उसका बाप दोनों उसकी पिटाई
करते थे. उसके घर में पधारे बाल रूप भगवान दर-असल उसके बेटे नहीं बल्कि भाई थे और
इसी लिए क़ुतुब अली का ताना सुनकर वह उसके खून का प्यासा हो गया था.
पंडित ने पिताजी के पैर पकड़कर रोते हुए कहा
–
साहेब, अगर हम नामरद हैं तो ईमां हमरा का
कसूर है? काहे हम रोज आपन बाप और आपन मेहरारू के जूता खांय? काहे उनकी गाली खांय?
काहे लोग रोज हमरा मखौल उड़ायं? आप हमका फांसी लगाए से काहे रोके? हम अबके आपके
कोठे पे नाहीं, आपन घर में फांसी लगाय लेब.’
पिताजी ने पुचकार कर बड़ी मुश्किल से
पंडित को शांत किया और फिर अगले दिन उन्होंने बड़े पंडितजी यानी पंडित के पिताजी को
घर बुलाकर उनकी वो आवभगत की कि वो अपने बेटे को मारना, उसके पैसे छीनना या उसे परेशान
करना हमेशा के लिए भूल गए. पंडित की इत्तरी माता बाल-गोपाल सहित मायके चली गयीं जहाँ
से वो कुछ दिनों बाद ही अपने बच्चे के साथ किसी नए मित्र के साथ भाग गयीं.
पंडित ने बड़े पंडितजी के सुधरने की खुशी
में और अपनी इत्तरी माता व बाल रूप भगवान के अंतर्ध्यान होने पर हमको जमकर लड्डू
खिलाये. हमारे बाराबंकी प्रवास के अंत तक पंडित पिताजी की सेवा में रहा. पिताजी के
हस्तक्षेप से पंडित के दिन तो फिर गए लेकिन ऐसे हजारों-लाखों और पंडित अभी भी रोज़ाना
अपमान, शोषण और प्रतारणा का कड़वा घूँट
पीने के लिए मजबूर हैं.
हमको पर-पीड़ा में इतना आनंद क्यूँ आता
है? किसी के घाव कुरेदने में हमको इतनी संतुष्टि क्यूँ मिलती है? किसी के अभाव का या
उसकी विकलांगता का, उसके अधूरेपन का, कैसे हम मज़ाक़ उड़ा लेते हैं? इन हालात के
मारों के दिल से ये आवाज़ ज़रूर उठती होगी –
‘ईमां हमरा का दोस है?’
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