उपवास –
मेरे परम मित्र, मेरे हॉस्टल के साथी, अविनाश माथुर इतने
शर्मीले थे कि अगर वो लड़की होते तो यक़ीनन उनका नाम शर्मिला माथुर होता. हमारे
मित्र संकोची तो इतने थे कि बैडमिंटन खेलते समय शटलकॉक को रैकेट से मारने तक में
संकोच करते थे. लखनऊ में पढ़ते हुए उनकी पर्सनैलिटी में लखनवी तकल्लुफ थोक के भाव
और जुड़ गया था. घर वालों को और ख़ास दोस्तों को छोड़कर वो कभी भी किसी से ‘एक्सक्यूज़
मी’ कहे बगैर अपनी बात तक शुरू नहीं करते थे. उनकी ‘पहले आप’ वाली लखनवी अदा
उन्हें हर पार्टी में फिसड्डी बनाकर उन्हें सिर्फ सलाद और पापड़ खाकर पेट भरने का
नाटक करने के लिए मजबूर कर देती थी. अगर वो और मैं एक साथ किसी पार्टी में जाते थे
तो अपनी प्लेट की ही तरह उनकी प्लेट भी पकवानों से सजा कर लाना मेरी ज़िम्मेदारी
होती थी.
वैसे अविनाश और मैं चैंपियन चटोरे थे. छात्र जीवन में लखनऊ
का कोई भी मशहूर चाट का ठेला हमने छोड़ा
नहीं था. फिल्म देखने के बाद चाट खाना और मेस के भोजन का त्याग हमारा साप्ताहिक
कार्यक्रम था. हमारा फेवरिट, लालबाग का शर्मा चाट हाउस वाला तो हमें देखते ही हमारे
लिए आलू की टिक्कियाँ और गोलगप्पों की प्लेटें तैयार करवाने लगता था. खैर, फिर हम
बड़े हो गए, अपने पैरों पर खड़े हो गए, लेकिन अविनाश का शर्मीलापन, हमारा पेटूपना और
हमारा याराना पहले की ही तरह बरकरार रहा.
अविनाश के पापा सिविल सर्जन के पद से रिटायर होने के बाद कुछ
वर्षों तक लखनऊ में ही रहे थे. माथुर अंकल, आंटी से मेरी गहरी दोस्ती हो गयी थी. आये-दिन
कभी मैं उनके यहाँ कोई स्पेशल पकवान लेकर पहुँच जाता था तो कभी उनके बनाये स्वादिष्ट
व्यंजनों का आनंद लेता था. अविनाश की छोटी बहन दीपा जो कि लखनऊ विश्विद्यालय में
मेरी छात्रा रही थी, वो भी मुझे भांति-भांति के पकवान खिलाकर अपनी गुरु-दाक्षिणा
की किश्तें चुकाया करती थी.
कुछ ही समय पहले दीपा की शादी कानपुर के एक प्रतिष्ठित
परिवार में हो गयी. दीपा के पति मुकेश से तो दो-तीन मुलाकातों में ही मेरी दोस्ती भी
हो गयी थी. एक बार मुझे और अविनाश को अलग-अलग कामों से एक साथ दिल्ली जाना था. माथुर
आंटी ने हमको दीपा के लिए कुछ उपहार दिए जो कि हमको दिल्ली से लौटते हुए उसके पास
कानपुर पहुँचाने थे. हम दोनों शाम को दिल्ली से कानपुर पहुंचकर सीधे दीपा की
ससुराल चले गए. दीपा और उसकी ससुराल वालों ने हमारी खातिर का भव्य प्रबंध किया था.
सुबह से हम लोगों ने कुछ खास खाया भी नहीं था, ऊपर से दीपा और उसकी सासू माँ का
आग्रह करके खिलाने का प्यार भरा अंदाज़. मैं तो निसंकोच पकवानों पर टूट पड़ा पर
तकल्लुफ़ के बेताज बादशाह जनाब अविनाश माथुर ने मीठे और चटपटे पकवानों से सजी एक
दर्जन प्लेटों में से किसी को हाथ भी नहीं लगाया. दीपा की सासू माँ ने इसका कारण
पूछा तो हमारे मित्र ने उन्हें बताया कि उनका हर सोमवार शिवजी का उपवास रहता है.
यह समाचार दीपा के लिए और मेरे लिए भी एकदम नया था लेकिन अब और क्या किया जा सकता
था? शिव-भक्त अविनाशजी की भक्ति के सामने हम सब नत-मस्तक हो गए पर मेरे समझ में यह
नहीं आ रहा था कि सुबह 9 बजे ब्रेड पकोड़ा खाने के बाद हमारे मित्र दिन
में कौन सा उपवास कर रहे थे.
दीपा ने अपने भैया के हिस्से के पकवान भी मुझे ही खिलाने का
निश्चय कर लिया और मैंने अपने दोस्त की भी ज़िम्मेदारी ओढ़कर पकवानों की प्लेटों के साथ
पूरा-पूरा इंसाफ़ किया. मुकेश कहीं बाहर गए थे, उनसे बिना मिले ही हम रिक्शा करके लखनऊ
की ट्रेन पकड़ने के लिए चल दिए.
रास्ते में मैंने अविनाश से कहा – ‘क्या यार, तुझे आज ही उपवास
रखना था. क्या-क्या मिठाइयाँ थीं, चाट तो बस कमाल की थी और फिर खिलाया भी तो कितने
प्यार और इसरार से. रसखान ने अगर आज ये पकवान खाए होते तो वो कहते –
‘आठहु सिद्धि,
नवौ निधि के सुख, इन पकवान के ऊपर वारों.’
इस पर अविनाश बाबू
ने दाद देते हुए कहा – ‘शटअप.’
मैंने हैरान होकर
पूछा – ‘दाद देने का ये क्या तरीका हुआ बन्धु?’
बन्धु ने अपना
पेट पकड़ कर और अपने दांत पीसते हुए कहा – ‘यहाँ भूख के मारे आंते कुलबुला रही हैं
और तू पकवानों की बात करके मुझे जला रहा है?’
मैंने कहा – ‘अब उपवास
रक्खा है तो सब्र भी कर बेटा, वरना पाप लगेगा’
मित्र ने अपना सर
धुनते हुए आर्तनाद किया – ‘किस गधे ने उपवास रक्खा है?’
मैंने पूछा – ‘अगर
इस गधे ने उपवास नहीं रक्खा है तो फिर इसने वहां कुछ खाया क्यूँ नहीं?’
दुखियारे मित्र ने
एक आह भरकर मुझ पर ताना मारा – ‘तो क्या छोटी बहन की ससुराल में तेरी तरह
बेतकुल्लिफ़ी से पकवानों पर टूट पड़ता?’
मैंने उत्तर दिया
– ‘सयानों ने कहा है – जिसने की शरम, उसके फूटे करम.’
मित्र ने व्याकुल
होकर मेरा हाथ पकड़ कर कहा – ‘यार कुछ खिलवा दे नहीं तो लखनऊ पहुँचने तक तो मैं
भूखा मर जाऊंगा.’
मैंने उन्हें
दिलासा देते हुए कहा – ‘कानपुर रेलवे स्टेशन के भोजनालय में तुम्हारे इंजिन में
ईधन डलवा देते हैं.’
रेलवे स्टेशन पर भोजनालय में लम्बी कतार लगी हुई थी. निराश
होकर हम प्लेटफार्म पर खड़े एक पूड़ी-सब्ज़ी के ठेले पर पहुंचे. महा भूखे भाई अविनाश बाबू
ने दनादन पूड़ी-सब्ज़ी पर हाथ मारना शुरू ही किया था कि पीछे से एक मीठी सी आवाज़ आयी
– ‘भैया !’
हमने पीछे मुड़कर देखा तो दीपा और मुकेश खड़े थे. मुकेश हमारे
जाने के कुछ समय बाद ही अपने घर पहुँच गए थे और हम दोनों से भेंट करने के लिए दीपा
को अपने साथ लेकर स्टेशन के लिए चल पड़े थे. दीपा के चेहरे पर हैरानी थी और अपने
भैया की हरक़त को देख कर शर्मिंदगी भी, पर ये दिलचस्प नज़ारा देखकर मुकेश शरारत भरी मुस्कान बिखेर रहे
थे. अपने साले साहब के मुंह में पूड़ी और हाथ में सब्ज़ी-पूड़ी का दौना देखकर
उन्होंने कहा –
‘भाई साहब, दीपा बता रही थी कि आज आपका उपवास था. आपको अगर तेल
की पूड़ियों से ही अपना उपवास तोड़ना था तो हम उन्हें घर पर ही बनवा देते.’
बेचारे भाई साहब मन
ही मन धरती फटने और उसमें समाने की प्रार्थना कर रहे थे पर प्रकटतः उन्होंने कहा –
‘ये गोपेश मुझे
ज़बरदस्ती खिलाने ले आया है. कह रहा है कि सफ़र के दौरान उपवास न करने की छूट होती
है.’
मैंने अपने शिव-भक्त मित्र का उपवास तुड़वाने का पाप तुरंत
स्वीकार भी कर लिया पर तब तक रायता फैल चुका था. मुकेश थे कि बस, पेट पकड़ कर हँसे
ही चले जा रहे थे और दीपा बेचारी थी कि बस, शर्म से ज़मीन में गड़ी ही चली जा रही
थी. खैर, इस दुखद अध्याय का सुखद अंत हुआ. हमको ट्रेन में रवाना करते हुए मुकेश ने
अपनी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए एक बड़ा सा पैकेट अविनाश के हाथ में देते हुए कहा –
‘भाई साहब, ट्रेन में पूड़ी-सब्ज़ी वाले का ठेला नहीं मिलेगा.
इस पैकेट में थोड़ी कचौड़ियाँ और लड्डू हैं, अगर उपवास तोड़ने की आपको फिर ज़रुरत पड़े
तो इन्हीं से तोड़ियेगा.’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें