गुरुवार, 28 जनवरी 2016

मेरे दो अनमोल रतन

मेरे दो अनमोल रतन –
1987 में अल्मोड़ा में टीवी टावर लगने से पहले, वहां के ठंडी मंद बयार वाले शांत एवं शुद्ध वातावरण में हमको समस्त सुख थे किन्तु टीवी सुख नहीं था. कुछ भाग्यशालियों के यहाँ बड़ा एंटिना और शक्तिशाली बूस्टर लगाकर मसूरी टावर से काम-चलाऊ सिग्नल्स आ जाते थे.
मेरे परम मित्र श्री एस के सिंह तब सीनियर फील्ड ऑफिसर के पद पर अल्मोड़ा में नियुक्त थे. हमारे खत्यारी गाँव में केवल उनके ही घर में टीवी सिग्नल्स आते थे. चित्रहार हो या कोई फिल्म हो तो उन्हें और उनके बच्चों को मेरी सेवाओं की हमेशा आवश्यकता पड़ती थी क्योंकि मैं ही हिलती-डुलती झिलमिल करती तस्वीरों को देखकर नहीं, बल्कि अपनी याददाश्त के आधार पर यह बता सकता था कि टीवी के परदे पर दिलीप कुमार है या राजकपूर, वैजयंती माला है या मधुबाला.
1982 में शादी हो जाने के  बाद मैंने भी अपने घर टीवी लगाने की असफल कोशिश की पर या तो कभी बिना आवाज़ के हिलती-डुलती पिक्चर आई या बिना पिक्चर के सिर्फ आवाज़. 1986 में हमारे मित्र और पड़ोसी डॉक्टर फ़ोतेदार को अपने घर से 200 मीटर दूर पर सिग्नल्स मिल गए और वो अपने यहाँ 14 इंच स्क्रीन वाला टीवी ले आए. पता नहीं क्यों, 20 इंच स्क्रीन वाला टीवी सिग्नल्स नहीं पकड़ रहा था. हमने भी उनकी देखा-देखी 14 इंच स्क्रीन का श्वेत-श्याम टीवी ले डाला. ज़िन्दगी में बहार आ गयी. हिलते-डुलते राजीव गाँधी, खड़े-खड़े भी नाचने का एहसास दिलाते हीरो-हेरोइन और बालिंग या बैटिंग करते हुए कपिल देव के सिर्फ दो चमकते दांत देखकर ही हमारा जीवन धन्य हो जाता था.
हमारे दिन बड़े मज़े से गुज़र रहे थे कि फिर एक हादसा हो गया. 10 सितम्बर, 1987 को स्वर्गीय गोविन्द बल्लभ पन्त की जन्म-शताब्दी पर अल्मोड़ा में टीवी टावर लग गया. अब आप पूछेंगे कि टीवी टावर लगने को मैं हादसा क्यूँ कह रहा हूँ. हादसा इसलिए कि अल्मोड़ा में टीवी टावर लगते ही हमारे तमाम साथियों ने कलर टीवी ले लिए पर मैं डेढ़ साल पुराने अपने मिनी टीवी को डिस्कार्ड करने के मूड में नहीं था. ढाई साल तक कलर टीवी खरीदने की लगभग 50 योजनाएं बनीं पर हर बार मामला टांय-टांय फिस्स हो गया. आख़िरकार जब मेरी श्रीमतीजी और मेरी बेटियों की हर आस टूट गयी तो अप्रैल, 1990 में मैं 20 इंच स्क्रीन वाला कलर टीवी ले ही आया पर वो भी बिना रिमोट वाला. मेरे पुराने और भरोसेमंद छोटू टीवी ने हमसे विदा ली पर जाते-जाते भी वो हमको 1000/ की भेंट दे गया. अलविदा छोटू टीवी.
हमारे कलर टीवी ने हमारी दिन-रात सेवा की पर फिर 1994 में एक और हादसा हो गया. केबल टीवी आते ही चैनलों की संख्या बेशुमार हो गयी और बिना रिमोट वाले टीवी का चलन सिर्फ जैसवाल साहब के घर तक सीमित रह गया. मेरी श्रीमतीजी और मेरी बेटियां रिमोट वाले और बड़े स्क्रीन वाले टीवी के लिए ज़िद पकड़े रहीं पर मैं अपने बिना रिमोट वाले और 8 चैनल वाले, 20 इंच के छोटे स्क्रीन के टीवी का समर्थक बना रहा और वो भी अगले 12 साल तक. 2006 में एक दिन अचानक ही हमारा टीवी बंद हो गया. नए टीवी की प्रत्याशा में मेरी श्रीमतीजी और बेटियों की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं रहा.
हमारी कलीग डॉक्टर इला शाह का देवर, नानू हमारा टीवी देखने के लिए बुलाया गया. टीवी चेक किया गया. नानू ने मुझसे कहा –
‘डॉक्टर साहब, पूरे अल्मोड़ा में 16 साल पुराने टीवी दो-चार ही होंगे. अब इसकी मरम्मत में 1000-1200 तो लग ही जायेंगे. वैसे भी मैडम और बच्चियां कई बार मेरे शो रूम पर आकर नया टीवी पसंद भी कर गयी हैं.’
मैंने रुंधे गले से पूछा –
‘क्या कोई और उपाय नहीं है?’
नानू ने कहा –
‘उपाय तो है. आपके टीवी की पिक्चर ट्यूब तो बढ़िया है. मैं 2500/ में इसमें नयी कोरियन किट लगा देता हूँ. आपका टीवी रिमोट से भी चलेगा और चैनेल्स आयेंगे पूरे 250.’
पत्नी के हाय-हाय करने और बेटियों के शोर मचाने के बावजूद पुराने टीवी में नयी किट लगाकर उसका नवीनीकरण कर दिया गया. अब मेरे रिटायरमेंट में समय ही कितना बचा था, मात्र 5 साल. इसलिए नया टीवी लेना रिटायरमेंट तक स्थगित कर दिया गया.
मित्रों, जैसे-जैसे मेरे रिटायरमेंट के दिन करीब आ रहे थे, मेरी श्रीमतीजी खिलती जा रही थीं. उन्हें अपने साढ़े 22 साल पुराने टीवी से निज़ात जो मिलने वाली थी.
अल्मोड़ा को अलविदा कहने का समय आ चुका था. हमारे दुगालखोला का एक मौलाना मेरे ग्रेटर नॉएडा शिफ्ट होने की तिथि के बारे में बार-बार पूछता रहता था. मैंने इस जिज्ञासा का कारण पूछा तो उसने बताया कि वो मेरा पुराना टीवी खरीदना चाहता है पर इसके लिए वो दो हज़ार रूपये से ज्यादा नहीं दे सकेगा. मुझे और मेरी श्रीमतीजी को तो अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. मैं तो सोच रहा था कि हमारा टीवी पुराने प्लास्टिक के भाव बिकेगा पर यहाँ तो हमारी लाटरी खुल गयी थी. अल्मोड़ा से प्रस्थान करने के दिन हमने अपनी जवानी और बुढ़ापे के साथी से विदा ली
ग्रेटर नॉएडा के अपने मकान में जायंट स्क्रीन वाले एलईडी पर प्रोग्राम्स देखने में मुझे वो मज़ा नहीं आता तो जो कभी 14 इंच स्क्रीन के श्वेत-श्याम टीवी पर या 20 इंच स्क्रीन के बिना रिमोट वाले कलर टीवी पर प्रोग्राम देखने में आता था.

मेरी श्रीमतीजी की इच्छा है कि वो एक बार अल्मोड़ा जाकर अपनी मित्रों से मिलें. मेरी भी हार्दिक इच्छा है कि मैं वहां जाकर अपने पुराने साथियों से मिलूँ और उन मेहरबान खरीदारों के घर जाकर अपने 14 इंची और 20 इंची दो अनमोल रत्नों को भी एक बार देख आऊँ. अगर वो चलती हालत में होंगे तो गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में उनका नाम दर्ज हो चुका होगा और अगर उनके दिल की धड़कन रुक भी गयी होगी तो वो किसी पुरातात्विक संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहे होंगे.                                                 

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

पद्म एवं रत्न सम्मान सूची - बूझो तो जानें

पद्म एवं रत्न सम्मान सूची – बूझो तो जानें
शेखचिल्ली रत्न (अता-पता – नाक के सुर बोल-बोल कर ये सबकी नाक में दम कर देते हैं)
ऊल-जलूल बकवास रत्न (अता-पता – माँ का लाड़ला अब बिना डायपर पहने भी घर के बाहर जाने लगा है)
शिक्षा-तरु जड़ से उखाडू रत्न (अता-पता – ये बिन डिग्री ही सभी विद्वानों की जबरन नानी बन बैठी हैं)
चाटुकार भूषण (अता-पता – सर रूपी छत पर बच्चों के फिसलने के लिए अत्यंत चिकना स्लाइडर लगा हुआ है)
अंगद सीमेंट रत्न (अता-पता – ये बरसों से टी-ट्वेंटी और वन डे में स्लो मोशन में 10 का एवरेज दे रहे हैं पर टीम में अंगद के पाँव समान जमे हुए हैं)
सेना कुल-कलंक भूषण एवं मंत्रिमंडल-कलंक भूषण (अता-पता - इन मितभाषी, मृदु-भाषी और महा-सत्यवादी की अगली जन्मकुंडली इन्हें सोलह बरस का बना देगी)
दंगा रत्न (अता- पता – दिलीप कुमार जैसी लच्छेदार उर्दू में लफ्फाज़ी करने में ये लाजवाब हैं और इनकी भैसों की खोज ‘भारत की खोज’ से भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो चुकी है)         
ग्रैंड कम बैक रत्न (अता-पता - अपने घर में ही पूरी क्रिकेट टीम तैयार करने वाला यह महारथी और चीज़ें खाने के अलावा, बिना चुनाव लड़ें भी इतने वोट खा जाता है कि विरोधी बे-चारा हो जाता है)  
धरना रत्न (अता-पता – खुल्ल-खुल्ल, खों-खों)     

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

कहा कहूं छवि आपकी

कहा कहूं छवि आप की -
मार्च, अप्रैल, 1989 में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय आन्दोलन पर हो रही 15 दिनों की कार्यशाला में सम्मिलित होने का मुझे सौभाग्य मिला था. मेरे साथ मेरे मित्र डॉक्टर सी. एम. अग्रवाल और डॉक्टर अनिल जोशी भी थे. हम चालीस अध्यापकों को तीन बड़े फ्लैट्स में टिकाया गया था. मैं, डॉक्टर सी. एम. अग्रवाल और डॉक्टर अनिल जोशी एक ही कमरे में टिकाए गए थे. कार्यशाला में देश के प्रतिष्ठित इतिहासकारों से बहुत कुछ सीखने को मिला और साथ ही हम लोगों ने मिलकर खूब मस्ती भी की. पर एक शाम हम सब पर एक मुसीबत आन खड़ी हुई. हमारे बाथरूम्स में सवेरे पानी नहीं आया था पर बाल्टियों में पहले से रक्खे पानी से हमारा काम चल गया था. रात में भोजन कर के लौटे तो देखा कि बाथ रूम में चुल्लू भर पानी नहीं है, पीने को भी ज़रा सा पानी नहीं है और जलापूर्ति है कि अभी भी स्ट्राइक पर चल रही है. हम लोगों ने जाकर प्रबंधक महोदय के सामने अपना रोना रोया तो उन्होंने अगली सुबह तक कुछ भी करने में अपनी मजबूरी ज़ाहिर कर हमसे माफ़ी मांग ली. हम एक दर्ज़न गुरूजी अपने फ्लैट के आंगन में, अपने-अपने हाथों में खाली बाल्टियाँ लेकर एकत्र हो गए. आदत से मजबूर हम सभी अपनी बेबसी का रोना रोते हुए प्रबंधक महोदय को कोस रहे थे और एक-दूसरे को क्रान्तिकारी भाषण सुना रहे थे. सवाल था कि अब क्या किया जाय. फ्लैट के आँगन में एक स्टूल पड़ा था जिस पर पट्टी वाला कच्छा और बनियान पहने एक शख्स बैठा था. उस शख्स ने स्टूल पर बैठे-बैठे हम सबको यह सूचना दी कि पास में ही एक मस्जिद है, जिस में हैण्ड पंप लगा हुआ है, वहां से पानी लाया जा सकता है. यह शुभ सूचना देने वाला शख्स शायद हमारी सेवा में नियुक्त कर्मचारी था जो कि सुबह हमको बेड टी लाकर देता था और बक्शीश पाने पर लोगों की सिगरेट वगैरा भी ला दिया करता था. मुझे उस शख्स की ये गुस्ताखी अच्छी नहीं लगी कि हम सब खड़े हैं और हमारे सामने वो आराम से स्टूल पर बैठकर हमको डायरेक्शन दे रहा है. मैंने अपने बगल में खड़े, बाल्टीधारी डॉक्टर सी. एम. अग्रवाल से कहा
‘’लाट साहब के तेवर तो देखो, स्टूल पर बैठे-बैठे हम पर हुकुम झाड़ रहे हैं.’
पर हमारे मित्र ने मेरी बात पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.
किसी ने उस शख्स से पूछा कि मस्जिद फ्लैट से कितनी दूर है तो उसने कहा –
‘बस पचास मीटर ही तो है, उठाइए बाल्टी और चल पड़िए.’
यह सलाह सुनकर मेरे तन-बदन में आग लग गयी पर अपने गुस्से पर जैसे-तैसे क़ाबू करके मैंने उस से कहा –
‘भैया, हम लोग एक-एक बाल्टी पानी के पांच-पांच रूपये दे देंगे. अब रात में हमको कहाँ दौड़ाओगे?’
उस शख्स को मेरा ऑफर समझ में ही नहीं आया और वो पहले की ही तरह स्टूल पर जमा रहा.  
मेरे पीछे खड़े डॉक्टर सी. एम. अग्रवाल ने पीछे से मेरे एक ज़ोरदार चुटकी काटी, फिर प्रकटतः मुझसे कहा –
‘’चलिए जैसवाल साहब, हम लोग मस्जिद जाकर खुद ही एक-एक बाल्टी पानी ले आते हैं. वैसे भी अल्मोड़ा में ज़रुरत पड़ने पर हमको पानी ढोकर लाना ही पड़ता है.’
मैं जब तक प्रोटेस्ट करूँ, अग्रवाल साहब मुझे खींचकर मस्जिद की तरफ़ ले जाने लगे. मस्जिद जाते हुए मैंने अग्रवाल साहब पर अपना बाकी बचा गुस्सा निकाला –
‘देखो कितना बदतमीज़ चपरासी दिया है, इन यूनिवर्सिटी वालों ने. कमबख्त स्टूल पर बैठे-बैठे हम पर हुकुम झाड़ रहा है. और तुम महा कंजूस, एक बाल्टी के पांच रूपये देने में तुम्हारी क्या नानी मर रही थी? मैं उसे पानी लाने के लिए पटा ही रहा था कि तुम मुझे यहाँ खींच लाये.’
अग्रवाल साहब ने अपना सर पीटते हुए मुझसे कहा –
‘कौन चपरासी और कौन बदतमीज़? बार-बार इशारा करने पर भी आप समझ ही नहीं रहे हैं. अरे ये कोई चपरासी नहीं, फ़लां, फ़लां -- कॉलेज के डॉक्टर फ़लां-फ़लां – हैं और आप उन्हें पांच रूपये देकर अपने लिए पानी की बाल्टी मंगवा रहे हैं.’
यह सुनकर मेरा तो सारा खून सूख गया. मैंने हकलाते हुए कन्फर्म किया –
‘सच में ये कच्छा-बनियानधारी डॉक्टर फ़लां-फ़लां हैं?

मित्रों, उस दिन अग्रवाल साहब ने मेरी निश्चित पिटाई बचवा दी. मैंने इसके लिए उन्हें दिल से धन्यवाद भी दिया पर साथ में अपने साथियों को आगाह भी कर दिया कि वो सार्वजनिक स्थलों पर कच्छा-बनयान पहनकर न निकलें और अगर निकलें तो पांच रूपये प्रति बाल्टी पानी लाने को तैयार रहें.      

शनिवार, 16 जनवरी 2016

एंड येट इट स्टिल मूव्ज़

‘एंड येट इट स्टिल मूव्ज़’
महान गणितज्ञ, खगोल-शास्त्री और दार्शनिक गैलीलियो ने चर्च की इस मान्यता कि ‘पृथ्वी अपनी जगह पर स्थिर है और सूर्य सहित सभी ग्रह एवं नक्षत्र उसकी परिक्रमा करते हैं’ को खुलेआम चुनौती देते हुए कहा था कि – ‘पृथ्वी अपनी जगह पर स्थिर न होकर सतत गतिशील है और वह सूर्य की परिक्रमा करती है.’ 1633 में धर्म-अदालत द्वारा गैलीलियो पर मुकद्दमा चलाया गया. उसे केवल दो विकल्प दिए गए –
1.       वह अपने वक्तव्य को वापस ले और यह माने कि पृथ्वी अपनी जगह पर स्थिर है तथा सभी ग्रह-नक्षत्र उसकी परिक्रमा करते हैं.
अथवा
2.       वह अपने धर्म-विरुद्ध वक्तव्य के लिए कठोर दंड का भागी बने.
बूढ़े और लगभग अंधे हो चुके गैलीलियो ने अपनी जान बचाने के लिए अपनी गलती मानते हुए अपना वक्तव्य वापस ले लिया. थका-हारा, निराश गैलीलियो जब धर्म-अदालत से वापस आ रहा था तो उसका रास्ता रोक कर उसके एक प्रबल विरोधी पादरी ने उसका उपहास उड़ाते हुए उससे पूछा –
‘क्यों महान विद्वान गैलीलियो, अब तो तुमने भरी अदालत में सबके सामने यह स्वीकार किया है कि पृथ्वी स्थिर है. अब तुम्हें अपने पूर्व वक्तव्य के विषय में क्या कहना है?’
गैलीलियो ने उस पादरी के समक्ष यह स्वीकार किया कि उसे यह मानना पड़ा है कि पृथ्वी अपनी जगह पर स्थिर है. लेकिन मुस्कुराते हुए उसने पादरी से कहा –
‘एंड येट इट स्टिल मूव्ज़’ (और फिर भी यह गतिशील है) 
इस किस्से को पृष्ठभूमि में रखकर मेरी आप-बीती पढ़िए.
हमारे एक कुलपति के प्रशंसक उनकी गणना विश्व के महानतम वैज्ञानिकों में करते थे. उनके कथनानुसार कितनी बार तो उन्हें नोबल पुरस्कार मिलते-मिलते रह गया था. महान वैज्ञानिक होने के साथ-साथ हमारे ये कुलपति इतिहास के भी परम विद्वान थे. अपने भक्तों की बेहद मांग पर कुलपति महोदय ने हमारे परिसर में ‘प्राचीन भारत में वैज्ञानिक और तकनीकी विकास’ पर दो दिन तक धारावाहिक के रूप में चलने वाला चार घंटे का भाषण दिया.
इस भाषण का सार यह था कि आज की अनेक वैज्ञानिक खोजें प्राचीन भारत में हो चुकी थीं. मसलन –
1.       रावण का पुष्पक विमान यह सिद्ध करता है कि राईट बंधुओं से हजारों साल पहले भारत में विमान अर्थात वायुयान का आविष्कार हो चुका था.
2.       भारत और श्री लंका के बीच समुद्र पर पुल बनाकर नल और नील ने अपनी बेमिसाल इंजीनियरिंग स्किल का प्रदर्शन किया था.  
3.       प्लास्टिक सर्जरी तथा ऑर्गन ट्रांसप्लांट का अनुपम उदाहरण था – भगवान शंकर द्वारा गणेशजी का सर काटकर उसके स्थान पर हाथी का सर लगाना या दक्ष प्रजापति की सर-कटी गर्दन पर बकरे का सर लगाना.
4.       मार्कोनी द्वारा रेडियो के अविष्कार से 5000 साल पहले संजय द्वारा अंधे धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र के मैदान में हो रहे युद्ध का आँखों-देखा वृतांत सुनाना भी प्राचीन वैज्ञानिक उपलब्धि का एक उदाहरण था.
5.       सगर के साठ हज़ार पुत्र थे जो कि ज़ाहिर है कि कृत्रिम गर्भाधान से हुए होंगे.
6.       नील आर्म्सस्ट्रोंग से बहुत पहले हमारे ऋषि-मुनि चन्द्रमा तक ही क्या, सूर्य पर भी पहुँच गए थे.
कुलपतिजी की हर बात पर पूरा लेक्चर थिएटर तालियों से गूंज रहा था.
अपना भाषण समाप्त करके महान वैज्ञानिक ने दंभ भरे स्वर में सबको ललकारा –
‘कोई सवाल हो पूछिए, कोई आपत्ति हो तो बेख़ौफ़ होकर कहिये.’
भक्तगणों ने हाथ जोड़कर उन्हें बतलाया कि ऐसा मौलिक, ज्ञानवर्धक और चमत्कारी भाषण उन्होंने न तो अब तक सुना था और न ही भविष्य में इस प्रकार अपने ज्ञान-चक्षु खुलने की उन्हें कोई आशा थी.
इसी लेक्चर थिएटर में एक अदना सा मूढ़मति मैं भी बैठा था. प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्द्धियों पर इस तरह के सैकड़ों मौलिक भाषणों को हम बरसों से सुनते आ रहे थे और ऐसी क्रांतिकारी जानकारियां देने वाली तमाम पुस्तिकाएं एक ख़ास विचारधारा के नेकर-लाठी धारी, उत्साही स्वयंसेवकों द्वारा हम बेचारों को बिन मांगे निशुल्क ही प्राप्त होती रहती थीं.
मैंने हाथ उठाया तो मुझे अपनी बात कहने की अनुमति मिल गयी. मैंने झूठ-मूठ कुलपति के विद्वत्तापूर्ण भाषण की प्रशंसा करते हुए अपनी आपत्ति रक्खी –
‘सर, मेरा निवेदन है कि सभी धर्मों, संस्कृतियों और सभ्यताओं की पौराणिक कथाओं में ऐसी काल्पनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है किन्तु उन्हें हम ऐतिहासिक तथ्य नहीं मान सकते.’
मेरी बात पूरी हो उससे पहले ही आयोजक महोदय ने मुझसे बैठ जाने का अनुरोध किया और मेरी धृष्टता के लिए कुलपतिजी से सबकी ओर से माफ़ी भी मांग ली.
कुलपतिजी ने आयोजक महोदय को रोकते हुए मुझसे कहा –
आप की टिप्पणी पर मेरा आप से एक सवाल है –
‘आपने मेरे द्वारा कही गयी बातों को पौराणिक कथाएं और काल्पनिक वैज्ञानिक उपलब्धियां कहा है. क्या आप अपनी बात को और इतिहास की पुस्तकों में लिखी गयी सभी बातों को वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध कर सकते हैं?’
मैंने जवाब दिया – ‘सर बातों को सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी तो यहाँ आपकी होनी चाहिए.’
कुलपतिजी ने तिरस्कार भरी दृष्टि मुझ पर डालते हुए कहा –
‘मैंने अपनी हर बात को साइंटिफ़िकली प्रूव कर दिया है, आप नहीं कर पाए, बैठ जाइए.’
पूरा लेक्चर थिएटर फिर से तालियों से गूंज उठा. विजयी कुलपतिजी ने हाथ हिलाकर प्रशंसकों से विदा ली.
कुलपतिजी के एक अंध भक्त ने मेरा रास्ता रोक कर कहा –
‘यार जैसवाल, तुमसे साइंस की जानकारी की तो हमको कोई आशा नहीं थी पर तुम्हारी हिस्ट्री इतनी कमज़ोर है यह आज पता चला. तुमको छोड़कर जब सब लोग कुलपतिजी के साथ हैं तो तुम ही तो गलत हुए.’
मैंने उनसे निवेदन किया –
‘महोदय, मार्क ट्वेन ने कहा है कि अगर बहुमत तुम्हारे साथ है तो समझ लो कि तुम्हें खुद को सुधारने की ज़रुरत है.’                                      
मेरी बात समझे बिना भक्त महोदय बोले –
‘हाँ, अब तुम खुद को सुधार ही लो. कुलपतिजी की हर बात प्रामाणिक है, यह मान लो. हर बार बखेड़ा करते हो फिर मात खाते हो.’
सत्यघाती दस्ते के आधे दर्जन सदस्यों ने कुलपति-भक्त का समवेत स्वरों में साथ देकर कुलपति महोदय की मौलिक खोजों को प्रामाणिक बताते हुए मुझे अपनी गलती स्वीकार करने के लिए एक प्रकार से बाध्य किया.
मरता क्या न करता? मैंने कुलपति महोदय की खोजों को प्रामाणिक मान लिया लेकिन उसी के साथ गैलीलियो की बात भी दोहरा दी –

‘एंड येट इट स्टिल मूव्ज़’

रविवार, 10 जनवरी 2016

अकबर इलाहाबादी और नया ज़माना

अकबर इलाहाबादी और नया ज़माना
अकबर इलाहाबादी उन्नीसवीं सदी की पुरातनपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते थे. प्रगति के नाम पर सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक अथवा वैचारिक परिवर्तन उन्हें स्वीकार्य नहीं था. उनकी दृष्टि में रस्मो-रिवाज, तहज़ीब, मज़हबी तालीम, खवातीनों की खानादारी अर्थात स्त्रियों का कुशल गृह-संचालन, बड़ों का अदब आदि पौर्वात्य संस्कृति का अभिन्न अंग थे पर हमारे अग्रेज़ आक़ा हिन्दोस्तानियों की तरक्की के नाम पर इन सबको मिटाने पर और उनको मनसा, वाचा, कर्मणा काला अंग्रेज़ बनाने पर तुले हुए थे. अकबर इलाहाबादी ने जोशो-ख़रोश के साथ अपने अशआर के ज़रिये इसकी मुखालफ़त (विरोध) की थी.  अकबर इलाहाबादी यह जानते थे कि उनके जैसे परम्परावादी कौम को आगे नहीं ले जा सकते लेकिन उन्हें इस बात का भी इल्म था कि मुल्क को तरक्की की राह पर ले जाने का दावा करने वाले खुद दिशा हीन थे –
‘पुरानी रौशनी में, और नयी में, फ़र्क इतना है,
उन्हें कश्ती नहीं मिलती, इन्हें साहिल नहीं मिलता.’
(कश्ती – नाव, साहिल –किनारा)  
अंगेज़ी तालीम हमको अपने धर्म, संस्कृति और अपनी ख़ास पहचान से दूर कर रही थी. ये वो तालीम थी जो कि  प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हमको अपने से बड़ों के साथ बे-अदबी से पेश आना सिखा रही थी –
‘हम ऐसी कुल किताबें, क़ाबिले ज़ब्ती समझते हैं,
जिन्हें पढ़कर के बेटे, बाप को खब्ती समझते हैं.’
(क़ाबिले ज़ब्ती – ज़ब्त किये जाने योग्य)
इस नयी तालीम ने भारतीय युवा पीढ़ी को सिखाया था तो बस, सूट-बूट पहनना, टेबल मैनर्स, बालरूम डांस करना और अपनों के ही बीच बेगाना बन कर रहना –
हुए इस क़दर मुहज्ज़ब, कभी घर का मुंह न देखा,
कटी उम्र होटलों में, मरे अस्पताल जाकर.’
(मुहज्ज़ब – सभ्य)                            
अकबर इलाहाबादी स्त्री-शिक्षा के विरोधी नहीं थे लेकिन वो चाहते थे कि पढ़-लिखकर लड़की मज़हब-परस्त बने, सु-गृहिणी बने, एक अच्छी बीबी बने, एक अच्छी माँ साबित हो न कि फैशन की पुतली और महफ़िलों की रौनक बने –
‘तालीम लड़कियों की, लाज़िम तो है मगर,
खातून-ए-खाना हो, वो सभा की परी न हो.’
(लाज़िम – आवश्यक, खातून-ए-खाना – सु-गृहिणी)
आज से सौ-सवा सौ साल पहले कोई सोच नहीं सकता था कि सभ्य घरों की महिलाएं और लड़कियां बारात में जाएँगी और सार्वजनिक स्थानों पर खुले-आम नाचेंगी पर नयी तालीम ने हमको यह मंज़र (दृश्य) भी दिखा दिया था –
‘तालीम-ए-दुख्तरां से, ये उम्मीद है ज़रूर,
नाचे खुशी से दुल्हन, खुद अपनी बरात में.’
(तालीम-ए-दुख्तरां – शिक्षित बेटी)         
अकबर इलाहाबादी पर्दा प्रथा के बड़े हिमायती थे लेकिन उन्हें मालूम था कि एक न एक दिन हिंदुस्तान से ये रस्म ज़रूर उठ जाएगी –
गरीब अकबर ने बहस परदे की, बहुत ही खूब की, लेकिन हुआ क्या?
नकाब उलट ही दी उसने कहकर, कि कर लेगा मुआ क्या?’

मैं और मेरे साथ ही तमाम तरक्की पसंद आज अकबर इलाहाबादी को अप्रगतिशील, परम्परावादी, दकियानूसी, स्त्री-स्वातंत्र्य तथा नारी-उत्थान का विरोधी कह सकते हैं लेकिन उनके अशआर को पढ़कर ऐसा हो ही नहीं सकता कि हमको गुदगुदी न हो, हमारे होठों पर मुस्कराहट न आये या हम खिलखिलाकर हंस न पड़ें.                        

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

विनाश-प्रशस्ति

मंडल कमीशन के विरोध में हो रहे आन्दोलन के दौरान मैंने यह कविता लिखी थी. सिद्धांततः मैं आरक्षण के विरुद्ध हूँ. पिछले 68 सालों में इस प्रतिभा-भंजक व्यवस्था का अंत नहीं हुआ बल्कि इसका और विस्तार हो गया है. आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में निगेटिव मार्क्स प्राप्त करने वाले होनहार अब विश्वेशरैया जैसे इंजीनियर बनेंगे और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में शून्य प्रतिशत अर्जित करने वाले एम्स की शोभा बढ़ाएंगे. गरीब दलित अथवा गरीब पिछड़े वर्ग से सम्बद्ध गुदड़ी का लाल इस आरक्षण की नीति का लाभ नहीं उठा पा रहा है. आमतौर पर कोठियों और बंगलों में रहने वालों, कारों और हवाई जहाजों में घूमने वालों की संतानें ही इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था का फायदा उठा रही हैं. वोटों की राजनीति ने आरक्षण की व्यवस्था को अमरत्व प्रदान कर दिया है पर मुझे उम्मीद है कि एक न एक दिन यह पाप का घड़ा अवश्य फूटेगा.              
आरक्षण के पक्षधरों की स्तुति -
हे विप्लव के रास रचैया,  प्रतिभा भन्जक, शान्ति मिटैया,
जाति भेद के भाव बढ़ैया,  रोज़ी,रोटी के छिनवैया.
प्रगति मार्ग अवरुद्ध करैया,  नीरो सम बंसी के बजैया,
ताण्डव नर्तक, आग लगैया,  अब तो बक्शो चैन लुटैया.
मानवता के खून पिवैया,  आत्मदाह के पुनर्चलैया,
नैतिकता के ताक धरैया,  न्याय धर्म के हजम करैया.
युवा मध्य हिंसा भड़कैया,  शिक्षा तरु, जड़ से उखड़ैया,
भंवर ग्रस्त हो तुम्हरी नैया,  जल समाधि लो देश डुबैया.

जल समाधि लो देश डुबैया --------------