कहा कहूं छवि आप की -
मार्च, अप्रैल, 1989 में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में
राष्ट्रीय आन्दोलन पर हो रही 15 दिनों की कार्यशाला में सम्मिलित होने का मुझे
सौभाग्य मिला था. मेरे साथ मेरे मित्र डॉक्टर सी. एम. अग्रवाल और डॉक्टर अनिल जोशी
भी थे. हम चालीस अध्यापकों को तीन बड़े फ्लैट्स में टिकाया गया था. मैं, डॉक्टर सी.
एम. अग्रवाल और डॉक्टर अनिल जोशी एक ही कमरे में टिकाए गए थे. कार्यशाला में देश
के प्रतिष्ठित इतिहासकारों से बहुत कुछ सीखने को मिला और साथ ही हम लोगों ने मिलकर
खूब मस्ती भी की. पर एक शाम हम सब पर एक मुसीबत आन खड़ी हुई. हमारे बाथरूम्स में
सवेरे पानी नहीं आया था पर बाल्टियों में पहले से रक्खे पानी से हमारा काम चल गया
था. रात में भोजन कर के लौटे तो देखा कि बाथ रूम में चुल्लू भर पानी नहीं है, पीने
को भी ज़रा सा पानी नहीं है और जलापूर्ति है कि अभी भी स्ट्राइक पर चल रही है. हम
लोगों ने जाकर प्रबंधक महोदय के सामने अपना रोना रोया तो उन्होंने अगली सुबह तक कुछ
भी करने में अपनी मजबूरी ज़ाहिर कर हमसे माफ़ी मांग ली. हम एक दर्ज़न गुरूजी अपने
फ्लैट के आंगन में, अपने-अपने हाथों में खाली बाल्टियाँ लेकर एकत्र हो गए. आदत से
मजबूर हम सभी अपनी बेबसी का रोना रोते हुए प्रबंधक महोदय को कोस रहे थे और एक-दूसरे
को क्रान्तिकारी भाषण सुना रहे थे. सवाल था कि अब क्या किया जाय. फ्लैट के आँगन
में एक स्टूल पड़ा था जिस पर पट्टी वाला कच्छा और बनियान पहने एक शख्स बैठा था. उस
शख्स ने स्टूल पर बैठे-बैठे हम सबको यह सूचना दी कि पास में ही एक मस्जिद है, जिस
में हैण्ड पंप लगा हुआ है, वहां से पानी लाया जा सकता है. यह शुभ सूचना देने वाला शख्स
शायद हमारी सेवा में नियुक्त कर्मचारी था जो कि सुबह हमको बेड टी लाकर देता था और
बक्शीश पाने पर लोगों की सिगरेट वगैरा भी ला दिया करता था. मुझे उस शख्स की ये
गुस्ताखी अच्छी नहीं लगी कि हम सब खड़े हैं और हमारे सामने वो आराम से स्टूल पर
बैठकर हमको डायरेक्शन दे रहा है. मैंने अपने बगल में खड़े, बाल्टीधारी डॉक्टर सी.
एम. अग्रवाल से कहा
‘’लाट साहब के तेवर तो देखो, स्टूल पर बैठे-बैठे हम पर
हुकुम झाड़ रहे हैं.’
पर हमारे मित्र ने मेरी बात पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं
दी.
किसी ने उस शख्स से पूछा कि मस्जिद फ्लैट से कितनी दूर है
तो उसने कहा –
‘बस पचास मीटर ही तो है, उठाइए बाल्टी और चल पड़िए.’
यह सलाह सुनकर मेरे तन-बदन में आग लग गयी पर अपने गुस्से पर
जैसे-तैसे क़ाबू करके मैंने उस से कहा –
‘भैया, हम लोग एक-एक बाल्टी पानी के पांच-पांच रूपये दे
देंगे. अब रात में हमको कहाँ दौड़ाओगे?’
उस शख्स को मेरा ऑफर समझ में ही नहीं आया और वो पहले की ही
तरह स्टूल पर जमा रहा.
मेरे पीछे खड़े डॉक्टर सी. एम. अग्रवाल ने पीछे से मेरे एक
ज़ोरदार चुटकी काटी, फिर प्रकटतः मुझसे कहा –
‘’चलिए जैसवाल साहब, हम लोग मस्जिद जाकर खुद ही एक-एक
बाल्टी पानी ले आते हैं. वैसे भी अल्मोड़ा में ज़रुरत पड़ने पर हमको पानी ढोकर लाना
ही पड़ता है.’
मैं जब तक प्रोटेस्ट करूँ, अग्रवाल साहब मुझे खींचकर मस्जिद
की तरफ़ ले जाने लगे. मस्जिद जाते हुए मैंने अग्रवाल साहब पर अपना बाकी बचा गुस्सा
निकाला –
‘देखो कितना बदतमीज़ चपरासी दिया है, इन यूनिवर्सिटी वालों
ने. कमबख्त स्टूल पर बैठे-बैठे हम पर हुकुम झाड़ रहा है. और तुम महा कंजूस, एक
बाल्टी के पांच रूपये देने में तुम्हारी क्या नानी मर रही थी? मैं उसे पानी लाने
के लिए पटा ही रहा था कि तुम मुझे यहाँ खींच लाये.’
अग्रवाल साहब ने अपना सर पीटते हुए मुझसे कहा –
‘कौन चपरासी और कौन बदतमीज़? बार-बार इशारा करने पर भी आप
समझ ही नहीं रहे हैं. अरे ये कोई चपरासी नहीं, फ़लां, फ़लां -- कॉलेज के डॉक्टर फ़लां-फ़लां
– हैं और आप उन्हें पांच रूपये देकर अपने लिए पानी की बाल्टी मंगवा रहे हैं.’
यह सुनकर मेरा तो सारा खून सूख गया. मैंने हकलाते हुए
कन्फर्म किया –
‘सच में ये कच्छा-बनियानधारी डॉक्टर फ़लां-फ़लां हैं?
मित्रों, उस दिन अग्रवाल साहब ने मेरी निश्चित पिटाई बचवा दी.
मैंने इसके लिए उन्हें दिल से धन्यवाद भी दिया पर साथ में अपने साथियों को आगाह भी
कर दिया कि वो सार्वजनिक स्थलों पर कच्छा-बनयान पहनकर न निकलें और अगर निकलें तो
पांच रूपये प्रति बाल्टी पानी लाने को तैयार रहें.
हा हा शरीफ होगा तभी कच्छे में रहा होगा ।
जवाब देंहटाएंकच्छा और बनियान यदि भारतीय पुरुषों की राष्ट्रीय पोशाक बना दी जाय तो धोबियों का और दर्जियों का तो ज़रूर नुकसान होगा लेकिन भारत की अर्थ-व्यवस्था मज़बूत हो जाएगी. इस पोशाक में दिखावटीपन की और छुपाने की प्रवृत्ति कम हो जायगी तो ज़ाहिर है कि शराफ़त तो बढ़ेगी ही. मेरे बे-नाम मित्र निस्संदेह शरीफ थे पर घर की शराफ़त को बाज़ार में लाने के दोषी थे.
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