हिंदी साहित्य और उर्दू साहित्य की पाठ्य-पुस्तकों में अनेक बार ऐसे कवि, शायर और लेखकों की रचनाएँ सम्मिलित कर ली जाती हैं जिनको कि केवल मक्खी-मच्छर भगाने के लिए प्रयोग में लाना चाहिए. आम तौर पर ऐसे सतही साहित्यकार किसी सत्ताधारी की विशेष अनुकम्पा के पात्र होने के कारण ही अपनी रचनाओं को पाठ्य-पुस्तकों में सम्मिलित कराने में सफल होते हैं. मैंने आज से पैंतालिस साल पहले तब कानपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध, झाँसी के बुंदेलखंड कॉलेज से बी. ए. किया था. हमारे हिंदी के पाठ्यक्रम में आधुनिक कविता की एक पुस्तक थी –‘आधुनिक काव्य संग्रह’ इस पुस्तक का संपादन किन्हीं ‘शुक्ल’ महानुभाव ने किया था, उनका पूरा नाम मुझे याद नहीं है पर यह याद है कि वो एक स्व-घोषित महा-कवि थे और उनका उपनाम - ‘राष्ट्रीय आत्मा’ था.
भारतेंदु हरिश्चंद्र, जय शंकर प्रसाद, मैथिली शरण गुप्त, निराला, सुमित्रा नंदन पन्त, महादेवी, दिनकर आदि की रचनाएँ हमारे पाठ्यक्रम में थीं. हम सब ‘भारतीय आत्मा’ श्री माखन लाल चतुर्वेदी’ की रचनाओं से परिचित थे और उनकी ‘एक पुष्प की अभिलाषा’ तो बचपन से ही गाया करते थे पर उनकी रचनाएँ हमारे पाठ्यक्रम में जगह बनाने में ना-कामयाब रहीं थीं. हाँ, उनकी रचनाओं में ही थोड़ा हेर-फेर करके उन्हें अपने नाम से छपवाने वाले स्व-घोषित महा-कवि इन्हीं संपादक महोदय ‘राष्ट्रीय आत्मा’ की कुछ बेतुकी सी देशभक्ति-पूर्ण कविताएँ हमारे पाठ्यक्रम में सम्मिलित थीं. हमारे गुरूजी उनकी रचनाओं को पढ़ाते समय खोज-खोज कर माखनलाल चतुर्वेदीजी की उन रचनाओं से भी हमको परिचित कराते थे जिनकी कि ‘राष्ट्रीय आत्मा’ ने निसंकोच नक़ल की थी. हम साहित्य प्रेमी विद्यार्थियों ने सामूहिक रूप से इस नकलची महा-कवि की रचनाओं का बहिष्कार कर दिया था और यह भी निश्चय कर लिया था कि यदि संभव हुआ तो परीक्षा में भी इन की रचनाओं पर पूछे गए सवालों का बहिष्कार करेंगे.
बीसवीं शताब्दी के पांचवें दशक में कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, मजाज़, इस्मत चुगताई, साहिर लुधियानवी आदि ने उर्दू-साहित्य में बहुत नाम कमाया था लेकिन उर्दू साहित्य की पाठ्य-पुस्तकों में उनका नाम और उनका काम नदारद था. पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाली एक कमेटी में एक साहब ने प्रस्ताव रक्खा कि इन नौजवानों की रचनाओं को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाय. इस प्रस्ताव का घोर विरोध हुआ. एक परम्परावादी साहब ने कहा –
‘ये तरक्की-पसंद नौजवान तो नई पीढ़ी को गुमराह कर रहे हैं.’
इन नौजवानों की वकालत कर रहे उन साहब ने अपनी दलीलों से उठाये गए तमाम इल्जामों से इन अदीबों को बरी तो करवा दिया पर तब भी उनकी रचनाओं को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया. जब इसका कारण पूछा गया तो जवाब मिला –
‘हम कोर्स में उन्हीं अदीबों के अफ़साने और शायरी शामिल करते हैं जिनका कि इंतकाल हो चुका है.’
इस पर इन अदीबों के हिमायती ने कुढ़ कर कहा –
‘अगर इन अदीबों को कोर्स में शामिल किये जाने की सिर्फ़ यही शर्त है तो मैं इन सबको गोली मार देता हूँ.’
खैर यह तो मज़ाक़ था लेकिन सन 2000 के आसपास दिल्ली सरकार द्वारा कक्षा 7 अथवा कक्षा 8 की हिंदी-पाठ्य पुस्तक के साथ किया गया मज़ाक़ बर्दाश्त कर पाना शायद हम सब के लिए असह्य था. गोवा की वर्तमान राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा एक प्रतिष्ठित हिंदी कहानीकार हैं. उनकी एक कहानी को पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए पाठ्यक्रम में पहले से शामिल एक कहानी को हटाया गया. इस हटाई गयी कहानी के लेखक थे – प्रेमचंद.
जब इस निर्णय का घोर विरोध हुआ तो मृदुलाजी को न केवल प्रेमचंद के समान महान कहानीकार बताया गया बल्कि प्रेमचंद की रचनाओं को बासी और नए ज़माने के हिसाब से मिसफ़िट भी बताया गया.
सत्तासीन महानुभाव अनादि काल से पाठ्य-पुस्तकों, पाठ्यक्रमों के साथ और बच्चों के वर्तमान व भविष्य के साथ खिलवाड़ करते आ रहे हैं. हमारी विद्वान मानव-संसाधन मंत्री के नेतृत्व में इतिहास और साहित्य के बाद अब विज्ञानं को भी तोड़-मरोड़कर पढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है. ऐसी सूरत में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की तरह स्वाध्याय का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर लगता है. उसमें कम से कम गले पडी पाठ्य-सामग्री और ज़बरदस्ती थोपे गए पाठ्यक्रमों से तो हमको निज़ात मिल सकेगी.
भारतेंदु हरिश्चंद्र, जय शंकर प्रसाद, मैथिली शरण गुप्त, निराला, सुमित्रा नंदन पन्त, महादेवी, दिनकर आदि की रचनाएँ हमारे पाठ्यक्रम में थीं. हम सब ‘भारतीय आत्मा’ श्री माखन लाल चतुर्वेदी’ की रचनाओं से परिचित थे और उनकी ‘एक पुष्प की अभिलाषा’ तो बचपन से ही गाया करते थे पर उनकी रचनाएँ हमारे पाठ्यक्रम में जगह बनाने में ना-कामयाब रहीं थीं. हाँ, उनकी रचनाओं में ही थोड़ा हेर-फेर करके उन्हें अपने नाम से छपवाने वाले स्व-घोषित महा-कवि इन्हीं संपादक महोदय ‘राष्ट्रीय आत्मा’ की कुछ बेतुकी सी देशभक्ति-पूर्ण कविताएँ हमारे पाठ्यक्रम में सम्मिलित थीं. हमारे गुरूजी उनकी रचनाओं को पढ़ाते समय खोज-खोज कर माखनलाल चतुर्वेदीजी की उन रचनाओं से भी हमको परिचित कराते थे जिनकी कि ‘राष्ट्रीय आत्मा’ ने निसंकोच नक़ल की थी. हम साहित्य प्रेमी विद्यार्थियों ने सामूहिक रूप से इस नकलची महा-कवि की रचनाओं का बहिष्कार कर दिया था और यह भी निश्चय कर लिया था कि यदि संभव हुआ तो परीक्षा में भी इन की रचनाओं पर पूछे गए सवालों का बहिष्कार करेंगे.
बीसवीं शताब्दी के पांचवें दशक में कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, मजाज़, इस्मत चुगताई, साहिर लुधियानवी आदि ने उर्दू-साहित्य में बहुत नाम कमाया था लेकिन उर्दू साहित्य की पाठ्य-पुस्तकों में उनका नाम और उनका काम नदारद था. पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाली एक कमेटी में एक साहब ने प्रस्ताव रक्खा कि इन नौजवानों की रचनाओं को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिया जाय. इस प्रस्ताव का घोर विरोध हुआ. एक परम्परावादी साहब ने कहा –
‘ये तरक्की-पसंद नौजवान तो नई पीढ़ी को गुमराह कर रहे हैं.’
इन नौजवानों की वकालत कर रहे उन साहब ने अपनी दलीलों से उठाये गए तमाम इल्जामों से इन अदीबों को बरी तो करवा दिया पर तब भी उनकी रचनाओं को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया. जब इसका कारण पूछा गया तो जवाब मिला –
‘हम कोर्स में उन्हीं अदीबों के अफ़साने और शायरी शामिल करते हैं जिनका कि इंतकाल हो चुका है.’
इस पर इन अदीबों के हिमायती ने कुढ़ कर कहा –
‘अगर इन अदीबों को कोर्स में शामिल किये जाने की सिर्फ़ यही शर्त है तो मैं इन सबको गोली मार देता हूँ.’
खैर यह तो मज़ाक़ था लेकिन सन 2000 के आसपास दिल्ली सरकार द्वारा कक्षा 7 अथवा कक्षा 8 की हिंदी-पाठ्य पुस्तक के साथ किया गया मज़ाक़ बर्दाश्त कर पाना शायद हम सब के लिए असह्य था. गोवा की वर्तमान राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा एक प्रतिष्ठित हिंदी कहानीकार हैं. उनकी एक कहानी को पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए पाठ्यक्रम में पहले से शामिल एक कहानी को हटाया गया. इस हटाई गयी कहानी के लेखक थे – प्रेमचंद.
जब इस निर्णय का घोर विरोध हुआ तो मृदुलाजी को न केवल प्रेमचंद के समान महान कहानीकार बताया गया बल्कि प्रेमचंद की रचनाओं को बासी और नए ज़माने के हिसाब से मिसफ़िट भी बताया गया.
सत्तासीन महानुभाव अनादि काल से पाठ्य-पुस्तकों, पाठ्यक्रमों के साथ और बच्चों के वर्तमान व भविष्य के साथ खिलवाड़ करते आ रहे हैं. हमारी विद्वान मानव-संसाधन मंत्री के नेतृत्व में इतिहास और साहित्य के बाद अब विज्ञानं को भी तोड़-मरोड़कर पढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है. ऐसी सूरत में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की तरह स्वाध्याय का मार्ग अपनाना ही श्रेयस्कर लगता है. उसमें कम से कम गले पडी पाठ्य-सामग्री और ज़बरदस्ती थोपे गए पाठ्यक्रमों से तो हमको निज़ात मिल सकेगी.
बीसवीं शताब्दी के पांचवें दशक में कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, मजाज़, इस्मत चुगताई, साहिर लुधियानवी आदि ने उर्दू-साहित्य में बहुत नाम कमाया था की सी बी आई जाँच होनी चाहिये ।
जवाब देंहटाएंसी बी आई ने जांच तो की पर इन साहित्यकारों का लिखा किसी के पल्ले नहीं पड़ा इसलिए उस जांच पर अभी फाइनल रिपोर्ट आना बाक़ी है.
जवाब देंहटाएंगोपेश जी आपने बहुत ही संवेदनशील विषय को उठाया है और इसे उठाना आवश्यक भी है। हमारे देश में आज भी भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला, राजगुरू जैसेे क्रांंतिकारियों के बारे में पाठयपुस्तकों में आतंकवादी शब्द लिखा जाता है। मैं तथाकथित गांधीवादियों और राष्ट्रवादियों को सीधे सीधे इसके लिए जिम्मेदार ठहराता हूं। पाठय पुस्तकों से सभी राजनैतिक दल छेड़छाड़ करते हैं। राजस्थान का ही मामला लीजिए। प्राइमरी की पुस्तक में दुश्कर्म का आरोपी आशाराम बापू को हीरों बना दिया। प्रेमचंद्र जैसे लोगों के लिए जगह ही कहां बची है।
जवाब देंहटाएंसुभद्रा कुमारी चौहान 'झाँसी की रानी' में अंग्रेज़ों के पक्षधर सिन्धिया पर लक्ष्मी बाई की विजय का उल्लेख करती हैं. अंग्रेजों ने उस कविता पर प्रतिबन्ध लगाया क्योंकि उसमें अंग्रेजों के खिलाफ कहा गया था, अब वसुंधरा राजे उसे राजस्थान की पाठ्य-पुस्तकों से हटा रही हैं क्योंकि उसमें सिन्धिया के खिलाफ कहा गया था. कुर्सी पर जैसे ही कोई नया दल अधिकार करता है, वह सबसे पहले इतिहास की पुस्तकों को मनमाना मोड़ देता है. भारतीय क्रांतिकारियों को 'राष्ट्रवादी आतंकवाद' के अध्याय के अंतर्गत मैंने भी पढ़ा है.सभी सत्ताधारी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं.
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