ब्राह्मण विरोधी प्रेमचंद
लोभी, मूर्ख और ढोंगी मोटेराम शास्त्री तथा धूर्त,व्यावहारिक, एवं अवसरवादी चिंतामणि, ये दो ब्राह्मण, प्रेमचंद की कहानी के पात्र हैं.
'सवा सेर गेहूं' कहानी का शाइलौक एक ब्राह्मण ही है.
'गोदान' में ब्राह्मण-खल पात्रों की भरमार है. स्वार्थी, कामुक पंडित मातादीन सिलिया चमारन का हर प्रकार से शोषण और अपमान करता है. उसके परिवार वाले पंडित मातादीन के गले में जबरन गाय की हड्डी डालकर उसका धर्म भ्रष्ट कर देते हैं. किन्तु ब्राह्मण देवता की अमानवीयता का सबसे भयानक चित्रण 'सदगति' कहानी में मिलता है.
'कर्मभूमि' उपन्यास में पंडितों द्वारा दलितों के मंदिर प्रवेश और फिर दलितों द्वारा बलात मंदिर-प्रवेश के प्रसंग को भी ब्राह्मण-विरोधी कहा जाता है.
प्रेमचंद पर बार-बार ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है. मुझे उनकी कहानी 'मन्त्र' याद आ रही है जिसमें कि छुआछूत मानने वाले एक ब्राह्मण देवता जब गंभीर रूप से बीमार पड़ते हैं तो उनके अपने उन्हें छोड़ जाते हैं किन्तु दलित समुदाय उनकी सेवा कर उन को स्वस्थ कर देता है. ब्राह्मण देवता का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वो फिर आजीवन दलितोद्धार के लिए समर्पित हो जाते हैं. शायद प्रेमचंद ब्राह्मण देवताओं के ऐसे ही ह्रदय परिवर्तन की आस लगाए बैठे थे.
खरी-खरी कहने वाले चाहे कबीर हों चाहे प्रेमचंद, उन्हें आलोचकों और निंदकों की कभी कमी नहीं रही.
प्रेमचंद ने 'ठाकुर का कुआँ' और 'घासवाली' कहानी में ठाकुरों की हेकड़ी और दमनकारी प्रवृत्ति को उजागर किया है पर किसी ने उन्हें कभी क्षत्रिय विरोधी नहीं कहा,
एक बड़ा रोचक प्रसंग याद आ गया. आकाशवाणी अल्मोड़ा के लिए मैंने श्री भगवती चरण वर्मा की अमर व्यंग्य-रचना 'प्रायिश्चित' का नाट्य-रूपांतरण किया था पर दुर्भाग्य से उसका प्रसारण नहीं हो सका. एक ब्राह्मण देवता प्रोफ़ेसर साहब को मेरी कहानियों में अभिरुचि थी. मैंने उन्हें 'प्रायिश्चित' का 'नाट्य-रूपांतरण दिखाया तो उन्होंने प्रेमचंद से लेकर भगवतीचरण वर्मा तक सभी ब्राह्मण विरोधी लेखकों को कोसना शुरू कर दिया और उनके ब्राह्मण-विरोधी होने का कारण उनका ब्राह्मण न होना बताया.
प्रोफ़ेसर साहब को नमन करते हुए मैंने उच्चकुलीन ब्राह्मण निराला की एक पंक्ति सुना दी -
'ये कान्यकुब्ज, कुल, कुलांगार, खाकर पत्तल में छेद करें--'
क्रुद्ध प्रोफ़ेसर साहब ने फिर कई महीनों तक मेरा मुंह भी नहीं देखा.
अपने समाज, अपनी जाति पर अगर कोई प्रहार करे तो हमको दुर्वासा का रूप धारण नहीं करना चाहिए बल्कि अपने समाज की बुराइयों को स्वीकार करने का साहस दिखाना चाहिए और उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए.
सिराज-उद-दौला का नगर सेठ, कुख्यात अमीचंद भारतेंदु हरिश्चंद का पुरखा था. इस देशद्रोही की भर्त्सना करने में भारतेंदु सबसे आगे रहते थे.
मित्रों, कल प्रेमचंद जयंती है. उन्हें ब्राह्मण-विरोधी कहने वालों से मेरा केवल इतना अनुरोध है उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों पर स्वयं विचार करें और देखें कि वो सही कहते थे या गलत कहते थे.
प्रेमचंद ब्राह्मण विरोधी नहीं थे. वो सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक विषमता तथा अन्याय के विरोधी थे, समता और मानवीयता के पक्षधर थे.
लोभी, मूर्ख और ढोंगी मोटेराम शास्त्री तथा धूर्त,व्यावहारिक, एवं अवसरवादी चिंतामणि, ये दो ब्राह्मण, प्रेमचंद की कहानी के पात्र हैं.
'सवा सेर गेहूं' कहानी का शाइलौक एक ब्राह्मण ही है.
'गोदान' में ब्राह्मण-खल पात्रों की भरमार है. स्वार्थी, कामुक पंडित मातादीन सिलिया चमारन का हर प्रकार से शोषण और अपमान करता है. उसके परिवार वाले पंडित मातादीन के गले में जबरन गाय की हड्डी डालकर उसका धर्म भ्रष्ट कर देते हैं. किन्तु ब्राह्मण देवता की अमानवीयता का सबसे भयानक चित्रण 'सदगति' कहानी में मिलता है.
'कर्मभूमि' उपन्यास में पंडितों द्वारा दलितों के मंदिर प्रवेश और फिर दलितों द्वारा बलात मंदिर-प्रवेश के प्रसंग को भी ब्राह्मण-विरोधी कहा जाता है.
प्रेमचंद पर बार-बार ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगाया जाता है. मुझे उनकी कहानी 'मन्त्र' याद आ रही है जिसमें कि छुआछूत मानने वाले एक ब्राह्मण देवता जब गंभीर रूप से बीमार पड़ते हैं तो उनके अपने उन्हें छोड़ जाते हैं किन्तु दलित समुदाय उनकी सेवा कर उन को स्वस्थ कर देता है. ब्राह्मण देवता का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वो फिर आजीवन दलितोद्धार के लिए समर्पित हो जाते हैं. शायद प्रेमचंद ब्राह्मण देवताओं के ऐसे ही ह्रदय परिवर्तन की आस लगाए बैठे थे.
खरी-खरी कहने वाले चाहे कबीर हों चाहे प्रेमचंद, उन्हें आलोचकों और निंदकों की कभी कमी नहीं रही.
प्रेमचंद ने 'ठाकुर का कुआँ' और 'घासवाली' कहानी में ठाकुरों की हेकड़ी और दमनकारी प्रवृत्ति को उजागर किया है पर किसी ने उन्हें कभी क्षत्रिय विरोधी नहीं कहा,
एक बड़ा रोचक प्रसंग याद आ गया. आकाशवाणी अल्मोड़ा के लिए मैंने श्री भगवती चरण वर्मा की अमर व्यंग्य-रचना 'प्रायिश्चित' का नाट्य-रूपांतरण किया था पर दुर्भाग्य से उसका प्रसारण नहीं हो सका. एक ब्राह्मण देवता प्रोफ़ेसर साहब को मेरी कहानियों में अभिरुचि थी. मैंने उन्हें 'प्रायिश्चित' का 'नाट्य-रूपांतरण दिखाया तो उन्होंने प्रेमचंद से लेकर भगवतीचरण वर्मा तक सभी ब्राह्मण विरोधी लेखकों को कोसना शुरू कर दिया और उनके ब्राह्मण-विरोधी होने का कारण उनका ब्राह्मण न होना बताया.
प्रोफ़ेसर साहब को नमन करते हुए मैंने उच्चकुलीन ब्राह्मण निराला की एक पंक्ति सुना दी -
'ये कान्यकुब्ज, कुल, कुलांगार, खाकर पत्तल में छेद करें--'
क्रुद्ध प्रोफ़ेसर साहब ने फिर कई महीनों तक मेरा मुंह भी नहीं देखा.
अपने समाज, अपनी जाति पर अगर कोई प्रहार करे तो हमको दुर्वासा का रूप धारण नहीं करना चाहिए बल्कि अपने समाज की बुराइयों को स्वीकार करने का साहस दिखाना चाहिए और उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए.
सिराज-उद-दौला का नगर सेठ, कुख्यात अमीचंद भारतेंदु हरिश्चंद का पुरखा था. इस देशद्रोही की भर्त्सना करने में भारतेंदु सबसे आगे रहते थे.
मित्रों, कल प्रेमचंद जयंती है. उन्हें ब्राह्मण-विरोधी कहने वालों से मेरा केवल इतना अनुरोध है उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों पर स्वयं विचार करें और देखें कि वो सही कहते थे या गलत कहते थे.
प्रेमचंद ब्राह्मण विरोधी नहीं थे. वो सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक विषमता तथा अन्याय के विरोधी थे, समता और मानवीयता के पक्षधर थे.