विरासत –
सीमित आय हो और पारिवारिक दायित्व हों तो कार का सपना देखना बेकार होता है फिर भी पिताजी ने कार ख़रीदने के सपने को कभी सोने नहीं दिया. वैसे पिताजी साइकिल की सवारी करते हुए भी बहुत रौबदार लगते थे लेकिन और लोगों को क्या, हमको भी साइकिल चलाकर अपने कोर्ट जाते हुए मजिस्ट्रेट साहब स्वीकार्य नहीं थे.
पिताजी के बजट में सेकंड हैण्ड कार खरीदना भी हवाई जहाज़ ख़रीदने जैसी बात थी पर हमारे परिवार में अक्सर कारों को लेकर बहस होती रहती थी. उन्नीस सौ साठ के दशक में बाज़ार में तीन गाड़ियाँ – फ़ियट, एम्बेसडर और स्टैण्डर्ड उपलब्ध थीं. इन में से हम सबको एम्बेसडर सबसे ज़्यादा पसंद थी पर जिस कार के नाम में ही ‘डर’ आता हो उसके दाम भी डरावने ही तो हो सकते थे. बाज़ार में सस्ती कारें भी थीं. पुरानी कारों में मॉरिस ऑक्सफ़ोर्ड, प्लाईमथ और लैंडमास्टर वगैरा भी थीं पर ये चलेंगी कब और रुकेंगी कब, यह कोई एक्सपर्ट भी नहीं बता सकता था.
उन दिनों पिताजी झाँसी में पोस्टेड थे. पिताजी को महीने में दो बार दो-दो दिन के लिए ललितपुर में भी अदालत लगानी पड़ती थी. इस के लिए सरकारी वाहन की उपलब्धता हर बार संभव नहीं थी और ट्रेन या बस से जाना पिताजी के लिए बहुत तकलीफ़देह हो जाता था. डिस्ट्रिक्ट जज साहब ने पिताजी को सलाह दी कि वो कार खरीद लें और साथ में उनको यह आश्वासन भी दिया कि झाँसी से ललितपुर ले जाने और ललितपुर से झाँसी वापस लाने के लिए वो पिताजी को ड्राइवर उपलब्ध करा देंगे. एक इंसेंटिव यह भी था कि यही ड्राइवर पिताजी को झाँसी-ललितपुर यात्रा के दौरान ड्राइविंग भी सिखा देगा.
1969 तक मेरे अलावा सब भाइयों और बहन की ज़िम्मेदारी से पिताजी मुक्त हो चुके थे. अब वो कार ख़रीदने के बारे में बाकायदा योजना बना सकते थे. झाँसी के छोटे से कार बाज़ार में पुरानी बिकाऊ कार की खोज शुरू कर दी गयी. एक डॉक्टर साहब की 1953 मॉडल की लैंडमास्टर पिताजी को पसंद आ गयी. डॉक्टर साहब का दावा था कि सोलह सालों में उनकी कार ने उनकी भरपूर सेवा की है. साढ़े चार हज़ार रुपयों में यह शानदार कार पिताजी की हो गयी.
झाँसी-ललितपुर यात्राओं की बदौलत महीने भर में ही पिताजी अपनी दृष्टि में ड्राइविंग में एक्सपर्ट हो गए. वैसे हाई-वे पर उन दिनों आज जैसा रश नहीं होता था और पिताजी की कार हाई-वे पर भी हमेशा अहिंसक गति से चलती थी यानी कि अधिकतम गति 30-35 मील. इस स्पीड में तो ब्रेक लगाते ही कार ‘जो हुक्म मेरे आक़ा’ कह कर तुरंत रुक जाती है. हम लोगों को यह देख कर बहुत बुरा लगता था कि कार, ट्रक, स्कूटर, मोटर साइकिल तो क्या, कभी-कभी साइकिल वाले भी पिताजी की कार को ओवरटेक कर लेते थे. पिताजी इन भगोड़ों को देखकर हमसे सवाल करते थे –
‘इन सबका क्या पुलिस पीछा कर रही है?’
पिताजी की कार किसी रणबांकुरे से कम नहीं थी. वो पीछे हटना नहीं जानती थी. पिताजी अक्सर कार को बैक करते हुए उसे पीछे वाली दीवाल या किसी पेड़ से भिड़ा देते थे. पिताजी की कार को पीछे आते देखकर तो हमारी गाय तक वहां से फूट लेती थी.
शहर में भीड़-भाड़ में कार चलाना भी पिताजी के लिए हमेशा एक चुनौती रहा. ब्रेक, क्लच और एक्सीलरेटर का कोऑर्डिनेशन करना उनको कभी भी समझ में नहीं आया और फिर कार का बार-बार गेयर बदलना तो उनको जी का जंजाल लगता था. बार-बार झटके से रोके जाने पर उनकी पुरानी गाड़ी सेल्फ़ से स्टार्ट होने से इंकार कर देती थी और उसे बीच बाज़ार में धक्के देकर स्टार्ट करने में हम लोगों को काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ता था. इसीलिए पिताजी एहतियातन अपने साथ कार में एक चपरासी ज़रूर बिठाते थे. ये होनहार चपरासी बड़े जुगाडू होते थे. खुद तो कार को धक्का देने में ये एक्सपर्ट होते ही थे और साथ में ये वो जादू भी जानते थे कि पता नहीं कहाँ से कार को धक्का देने के लिए ये दो-तीन बन्दे भी पकड़ लाते थे.
पिताजी की लैंडमास्टर कार ने मुझ से भी बहुत धक्के लगवाए थे. मैं उन दिनों बुन्देलखंड कॉलेज से बी. ए. कर रहा था जो कि ठीक हमारे बंगले के ठीक सामने था. मुझे कार में धक्का देते देख मेरे दोस्त भी कॉलेज से हमारी कार को धक्का देने के लिए आ जाते थे.
पिताजी को निर्दिष्ट स्थान पर कार रोकना ज़रा कम ही आता था. एक बार वो पेट्रोल पम्प पर पेट्रोल लेने पहुँचे तो पता नहीं कैसे पेट्रोल पम्प ही उखड़ते-उखड़ते बचा. इसके बाद से पिताजी ने कभी भी पेट्रोल पम्प जाकर पेट्रोल नहीं भरवाया. जब कार में पेट्रोल भरवाना होता था तो पेट्रोल पम्प से कुछ दूर पिताजी अपनी कार रोक लेते थे और उनका चपरासी दौड़ कर पेट्रोल पम्प जाकर जरीकैन में पेट्रोल भरवा लाता था. इमरजेंसी के लिए हमारे घर में भी दो जरीकैन पेट्रोल से भरे रक्खे रहते थे.
पिताजी ने डेड़ साल बाद ही अपनी लैंडमास्टर को विदा दे दी और इस बार उन्होंने अच्छी खासी हालत वाली एक सेकंड हैण्ड एम्बेसडर कार खरीद ली. हम लोग धक्का-श्रमदान से मुक्ति पा गए. उन्हीं दिनों पिताजी के एक चपरासी के घर में बेटा हुआ. वह हमारे लिए मिठाई लाया था. उसने बड़े अदब से पिताजी के सामने लड्डू का डिब्बा बढ़ाया तो पिताजी ने उस से हंसकर पूछा–
‘क्यों भाई, ये मिठाई लड़का होने की खुशी में खिला रहे हो या इस खुशी में कि अब तुम्हें हमारी कार में धक्के नहीं लगाने पड़ेंगे?’
आम तौर पर पिताजी की कार घर से कोर्ट और फिर कोर्ट से घर तक की ही यात्रा करती थी, कभी-कभार मंदिर तो कभी बाज़ार भी घूम आती थी. लेकिन अब पिताजी का आत्म-विश्वास इतना बढ़ गया था कि वो लम्बी यात्रा के लिए भी अपने दम पर कार ले जाने का इरादा करने लगे थे. पिताजी का तबादला जब मैनपुरी से आजमगढ़ हुआ तो उन्होंने अपनी कार खुद ड्राइव करने का निश्चय किया. रास्ते में कानपुर में हमको अपनी बुआ जी के यहाँ रुकना था पर वहां पहुँचने से पहले ही शाम हो गयी. सामान से भरी कार वैसे ही परेशान कर रही थी और ऊपर से ये शाम का धुंधलका ! पिताजी ने डिवाइडर पर कार चढ़ा दी. जैसे-तैसे आठ दस लोगों की मदद से कार को सड़क पर उतारा गया. बड़े दुःख की वेला थी पर पिताजी की यह बात सुनकर मेरी हंसी छूट गयी –
‘ये कमबख्त डिवाइडर बीच सड़क पर कहाँ से आ गया?’
रिटायरमेंट के बाद पिताजी लखनऊ में सेटल हो गए पर ऐसे बड़े शहर में कार चलाना उनके लिए बड़ा सरदर्द था और अब तो उनकी कार की सेवा करने के लिए चपरासी भी नहीं थे. इधर मेरी भी लखनऊ यूनिवर्सिटी की नौकरी डगमगा रही थी. जैसे ही मेरी लखनऊ यूनिवर्सिटी से विदाई हुई पिताजी ने अपनी प्यारी एम्बेसडर भी विदा कर दी.
छः साल के अंतराल के बाद हम बच्चों के अनुरोध पर पिताजी ने फिर एक कार ली पर वो उसको इस्तेमाल करना लगभग भूल ही गए. डेड़ साल में मात्र एक हज़ार किलोमीटर की सैर कराकर उनकी अंतिम कार ने भी हमसे विदा ले ली.
अब विरासत की कहानी शुरू होती है -
मैंने विरासत में पिताजी की ही तरह अपनी कार रखने का सपना देखना हासिल किया था. लखनऊ यूनिवर्सिटी की नौकरी के दौरान मेरा स्कूटर ही मेरे लिए कार था पर अल्मोड़ा में 11 नंबर की बस ही मेरा सस्ता और टिकाऊ वाहन थी. हमारी 11 नंबर की बस की ख़ासियत यह थी कि यह बिना किसी परेशानी के सीढियां चढ़ना और उतरना भी जानती थी पर मेरे लिए सरदर्द यह था कि बगल में साड़ी पहने जो 11 नंबर की बस चलती थी वो सीढियां चढ़ते – उतरते मुझे ताने ज़रूर मारती थी.
पहाड़ में टू व्हीलर चलाना मुझे बहुत खतरनाक लगता था और कार रखने की मेरी हैसियत नहीं थी फिर भी हम कार के बारे में लगातार बातें करते थे. नई मारुति 800 से लेकर 10 साल पुरानी कारों के दाम मुझे ज़ुबानी याद थे.
बच्चों के सेटल हो जाने के बाद कार ख़रीदने की हैसियत हुई भी तो अल्मोड़ा में कार रखने के लिए जगह मिलना नामुमकिन हो गया. यानी फिर वही ढाक के तीन पात और 11 नंबर की बस ज़िन्दाबाद !
अवकाश-प्राप्ति के बाद हम ग्रेटर नॉएडा में सेटल हो गए. अब कार ख़रीदने से हमको कोई नहीं रोक सकता था. वैसे भी ग्रेटर नॉएडा में कार चलाना कोई मुश्किल काम नहीं था. चौड़ी-चौड़ी सड़कें और बहुत ही हल्का ट्रैफिक. और ग्रेटर नॉएडा से नॉएडा तक जाने के लिए शानदार एक्सप्रेस-वे. पर यहाँ के नौजवानों को रॉंग साइड पर कार चलाना बहुत भाता है. कभी-कभी गलत दिशाओं में जाते हुए आपको इतनी कारें दिख जाएंगी कि आपको सही दिशा में जाते हुए भी यह लगेगा कि आप ही रॉंग साइड जा रहे हैं. और नॉएडा या दिल्ली का ट्रैफिक ! बाप रे ! उसमें कार चलाना तो चक्रव्यूह में से निकलने से भी दुष्कर है.
मेरी श्रीमती जी और हमारी बेटियां जोर दे रही थीं कि मैं कार तो लूं पर उसके लिए ड्राइवर भी रक्खूं. हाय ! फिर फँस गयी न गोट ! अब ड्राइवर रखने के लिए थैलियाँ कहाँ से लाऊँ?
साल भर तक यह वाद-विवाद प्रतियोगिता चलती रही पर अब तक मैं बागी हो चुका था. मैंने घोषणा कर दी कि कार तो खरीदी ही जाएगी और उसे मैं चलाऊंगा भी खुद ही.
मैंने और मेरी श्रीमती जी ने ड्राइविंग स्कूल ज्वाइन कर लिया. लेकिन पिताजी की ही तरह हम लोग महीनों तक क्लच, ब्रेक और एक्सीलरेटर का कोऑर्डिनेशन करना नहीं सीख पाए. सबसे दुखदायी बात यह थी कि मुझ जैसे अवकाश प्राप्त-कमसिन को ड्राइविंग सीखते हुए देख चंद दुष्ट मुझ पर फब्तियां भी कसते थे.
पिताजी की पुरानी गाड़ियों की श्रम-साध्य धक्का-मार प्रतियोगिताओं के अनुभव से मैंने यह तो निश्चय कर ही लिया था कि खरीदूंगा तो नई कार ही खरीदूंगा. आखिरकार दुनिया में सबसे छोटी कार आल्टो 800 हमारे घर आ ही गयी पर घर में कार आते ही पिताजी के ड्राइविंग वाले गुण भी मुझ में आ गए. मैंने भी पिताजी की ही तरह कार की गति को कभी 50-60 किलोमीटर से ऊपर ले जाना उचित नहीं समझा. पिताजी की ही तरह मैंने भी एक बार पेट्रोल पम्प की मशीन उखाड़ने की पूरी-पूरी कोशिश की थी.
पिताजी का ज़माना तो पुराना ज़माना था. वो तो कई बार खुद कार ड्राइव करके एक शहर से दूसरे शहर भी गए थे पर मैं पिछले साढ़े चार सालों में कभी अपने ग्रेटर नॉएडा से निकल कर नॉएडा से आगे नहीं गया हूँ. कई बार मैंने सोचा है कि मैं बच्चों को एअरपोर्ट तक छोड़ आऊँ पर उन दुष्टों को तो ऐसे कामों के लिए टैक्सी करना ही पसंद है.
पिताजी की ही तरह कार बैक करना मुझको आइन्स्टीन की थ्योरम जैसा कठिन लगता है. हमारे घर के गेट के बगल में एक पेड़ है. उस दुष्ट को पता नहीं क्यों मेरी बैक होती हुई कार से गले मिलना बहुत भाता है. अब तक कार और पेड़ की प्रेम लीला की वजह से मेरी चार बार बैक लाइट बदल चुकी हैं. डेंट पड़ने पर तो मैंने उन्हें ठीक करवाना भी छोड़ दिया है.
एट लेन वाले एक्सप्रेस-वे में अच्छाई यह होती है कि आपके सामने से कोई कार नहीं आती और अँधेरे में सामने से आ रही हेड लाइट की रौशनी आपको सूरदास नहीं बना देती है. इस सुविधा के कारण मैं कभी-कभार रात में भी नॉएडा तक कार चला लेता हूँ पर इसके लिए मुझे अपनी श्रीमती जी के दिशा निर्देश की हमेशा आवश्यकता पड़ती है –
‘राह बताता जाता हूँ तुम आगे बढ़ते जाओ.’
नॉएडा वासी मेरे भाई लोग और जीजाजी मेरी ड्राइविंग स्किल देखकर मुझसे कहते हैं कि मैं जब भी नॉएडा आऊँ तो रात में वहां रुकने का प्रोग्राम बनाकर आऊँ.
कबीरदास कहते हैं – ‘निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय.’
पर मैं क्या करूँ? मेरे तो आस-पास और दूर-दूर तक निंदक ही भरे पड़े हैं. इस निंदा पुराण के चक्कर में मेरी कार आम तौर पर घर में ही खड़ी रहती है. हाँ, हर रविवार को हम घर से डेड़ किलोमीटर दूर स्थित जैन मंदिर ज़रूर जाते हैं.
लोगबाग मेरी जितनी भी आलोचना करें चाहें मेरी जितनी भी हंसी उडाएं पर अपनी दृष्टि में मैं पिताजी जैसा एक्सपर्ट ड्राइवर हो गया हूँ. अब तो बहुत दिनों से मैंने अपनी कार से किसी को टक्कर भी नहीं मारी है.
मेरे दिमाग में एक आइडिया कुनमुना रहा है. अवकाश प्राप्ति के बाद मुझसे कोई इतिहास पढ़ने तो आ नहीं रहा है, सोचना हूँ कि एक ड्राइविंग स्कूल ही खोल लूं. पर मेरी श्रीमती जी कहती हैं कि इस से तो वकीलों, डॉक्टरों और कार मेकेनिकों को ही लाभ होगा, मुझे नहीं.