बुधवार, 29 नवंबर 2017

विरासत



विरासत –
सीमित आय हो और पारिवारिक दायित्व हों तो कार का सपना देखना बेकार होता है फिर भी पिताजी ने कार ख़रीदने के सपने को कभी सोने नहीं दिया. वैसे पिताजी साइकिल की सवारी करते हुए भी बहुत रौबदार लगते थे लेकिन और लोगों को क्या, हमको भी साइकिल चलाकर अपने कोर्ट जाते हुए मजिस्ट्रेट साहब स्वीकार्य नहीं थे. 
पिताजी के बजट में सेकंड हैण्ड कार खरीदना भी हवाई जहाज़ ख़रीदने जैसी बात थी पर हमारे परिवार में अक्सर कारों को लेकर बहस होती रहती थी. उन्नीस सौ साठ के दशक में बाज़ार में तीन गाड़ियाँ – फ़ियट, एम्बेसडर और स्टैण्डर्ड उपलब्ध थीं. इन में से हम सबको एम्बेसडर सबसे ज़्यादा पसंद थी पर जिस कार के नाम में ही ‘डर’ आता हो उसके दाम भी डरावने ही तो हो सकते थे. बाज़ार में सस्ती कारें भी थीं. पुरानी कारों में मॉरिस ऑक्सफ़ोर्ड, प्लाईमथ और लैंडमास्टर वगैरा भी थीं पर ये चलेंगी कब और रुकेंगी कब, यह कोई एक्सपर्ट भी नहीं बता सकता था. 
उन दिनों पिताजी झाँसी में पोस्टेड थे. पिताजी को महीने में दो बार दो-दो दिन के लिए ललितपुर में भी अदालत लगानी पड़ती थी. इस के लिए सरकारी वाहन की उपलब्धता हर बार संभव नहीं थी और ट्रेन या बस से जाना पिताजी के लिए बहुत तकलीफ़देह हो जाता था. डिस्ट्रिक्ट जज साहब ने पिताजी को सलाह दी कि वो कार खरीद लें और साथ में उनको यह आश्वासन भी दिया कि झाँसी से ललितपुर ले जाने और ललितपुर से झाँसी वापस लाने के लिए वो पिताजी को ड्राइवर उपलब्ध करा देंगे. एक इंसेंटिव यह भी था कि यही ड्राइवर पिताजी को झाँसी-ललितपुर यात्रा के दौरान ड्राइविंग भी सिखा देगा. 
1969 तक मेरे अलावा सब भाइयों और बहन की ज़िम्मेदारी से पिताजी मुक्त हो चुके थे. अब वो कार ख़रीदने के बारे में बाकायदा योजना बना सकते थे. झाँसी के छोटे से कार बाज़ार में पुरानी बिकाऊ कार की खोज शुरू कर दी गयी. एक डॉक्टर साहब की 1953 मॉडल की लैंडमास्टर पिताजी को पसंद आ गयी. डॉक्टर साहब का दावा था कि सोलह सालों में उनकी कार ने उनकी भरपूर सेवा की है. साढ़े चार हज़ार रुपयों में यह शानदार कार पिताजी की हो गयी. 
झाँसी-ललितपुर यात्राओं की बदौलत महीने भर में ही पिताजी अपनी दृष्टि में ड्राइविंग में एक्सपर्ट हो गए. वैसे हाई-वे पर उन दिनों आज जैसा रश नहीं होता था और पिताजी की कार हाई-वे पर भी हमेशा अहिंसक गति से चलती थी यानी कि अधिकतम गति 30-35 मील. इस स्पीड में तो ब्रेक लगाते ही कार ‘जो हुक्म मेरे आक़ा’ कह कर तुरंत रुक जाती है. हम लोगों को यह देख कर बहुत बुरा लगता था कि कार, ट्रक, स्कूटर, मोटर साइकिल तो क्या, कभी-कभी साइकिल वाले भी पिताजी की कार को ओवरटेक कर लेते थे. पिताजी इन भगोड़ों को देखकर हमसे सवाल करते थे –
‘इन सबका क्या पुलिस पीछा कर रही है?’ 
पिताजी की कार किसी रणबांकुरे से कम नहीं थी. वो पीछे हटना नहीं जानती थी. पिताजी अक्सर कार को बैक करते हुए उसे पीछे वाली दीवाल या किसी पेड़ से भिड़ा देते थे. पिताजी की कार को पीछे आते देखकर तो हमारी गाय तक वहां से फूट लेती थी. 
शहर में भीड़-भाड़ में कार चलाना भी पिताजी के लिए हमेशा एक चुनौती रहा. ब्रेक, क्लच और एक्सीलरेटर का कोऑर्डिनेशन करना उनको कभी भी समझ में नहीं आया और फिर कार का बार-बार गेयर बदलना तो उनको जी का जंजाल लगता था. बार-बार झटके से रोके जाने पर उनकी पुरानी गाड़ी सेल्फ़ से स्टार्ट होने से इंकार कर देती थी और उसे बीच बाज़ार में धक्के देकर स्टार्ट करने में हम लोगों को काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ता था. इसीलिए पिताजी एहतियातन अपने साथ कार में एक चपरासी ज़रूर बिठाते थे. ये होनहार चपरासी बड़े जुगाडू होते थे. खुद तो कार को धक्का देने में ये एक्सपर्ट होते ही थे और साथ में ये वो जादू भी जानते थे कि पता नहीं कहाँ से कार को धक्का देने के लिए ये दो-तीन बन्दे भी पकड़ लाते थे. 
पिताजी की लैंडमास्टर कार ने मुझ से भी बहुत धक्के लगवाए थे. मैं उन दिनों बुन्देलखंड कॉलेज से बी. ए. कर रहा था जो कि ठीक हमारे बंगले के ठीक सामने था. मुझे कार में धक्का देते देख मेरे दोस्त भी कॉलेज से हमारी कार को धक्का देने के लिए आ जाते थे. 
पिताजी को निर्दिष्ट स्थान पर कार रोकना ज़रा कम ही आता था. एक बार वो पेट्रोल पम्प पर पेट्रोल लेने पहुँचे तो पता नहीं कैसे पेट्रोल पम्प ही उखड़ते-उखड़ते बचा. इसके बाद से पिताजी ने कभी भी पेट्रोल पम्प जाकर पेट्रोल नहीं भरवाया. जब कार में पेट्रोल भरवाना होता था तो पेट्रोल पम्प से कुछ दूर पिताजी अपनी कार रोक लेते थे और उनका चपरासी दौड़ कर पेट्रोल पम्प जाकर जरीकैन में पेट्रोल भरवा लाता था. इमरजेंसी के लिए हमारे घर में भी दो जरीकैन पेट्रोल से भरे रक्खे रहते थे. 
पिताजी ने डेड़ साल बाद ही अपनी लैंडमास्टर को विदा दे दी और इस बार उन्होंने अच्छी खासी हालत वाली एक सेकंड हैण्ड एम्बेसडर कार खरीद ली. हम लोग धक्का-श्रमदान से मुक्ति पा गए. उन्हीं दिनों पिताजी के एक चपरासी के घर में बेटा हुआ. वह हमारे लिए मिठाई लाया था. उसने बड़े अदब से पिताजी के सामने लड्डू का डिब्बा बढ़ाया तो पिताजी ने उस से हंसकर पूछा– 
‘क्यों भाई, ये मिठाई लड़का होने की खुशी में खिला रहे हो या इस खुशी में कि अब तुम्हें हमारी कार में धक्के नहीं लगाने पड़ेंगे?’
आम तौर पर पिताजी की कार घर से कोर्ट और फिर कोर्ट से घर तक की ही यात्रा करती थी, कभी-कभार मंदिर तो कभी बाज़ार भी घूम आती थी. लेकिन अब पिताजी का आत्म-विश्वास इतना बढ़ गया था कि वो लम्बी यात्रा के लिए भी अपने दम पर कार ले जाने का इरादा करने लगे थे. पिताजी का तबादला जब मैनपुरी से आजमगढ़ हुआ तो उन्होंने अपनी कार खुद ड्राइव करने का निश्चय किया. रास्ते में कानपुर में हमको अपनी बुआ जी के यहाँ रुकना था पर वहां पहुँचने से पहले ही शाम हो गयी. सामान से भरी कार वैसे ही परेशान कर रही थी और ऊपर से ये शाम का धुंधलका ! पिताजी ने डिवाइडर पर कार चढ़ा दी. जैसे-तैसे आठ दस लोगों की मदद से कार को सड़क पर उतारा गया. बड़े दुःख की वेला थी पर पिताजी की यह बात सुनकर मेरी हंसी छूट गयी – 
‘ये कमबख्त डिवाइडर बीच सड़क पर कहाँ से आ गया?’ 
रिटायरमेंट के बाद पिताजी लखनऊ में सेटल हो गए पर ऐसे बड़े शहर में कार चलाना उनके लिए बड़ा सरदर्द था और अब तो उनकी कार की सेवा करने के लिए चपरासी भी नहीं थे. इधर मेरी भी लखनऊ यूनिवर्सिटी की नौकरी डगमगा रही थी. जैसे ही मेरी लखनऊ यूनिवर्सिटी से विदाई हुई पिताजी ने अपनी प्यारी एम्बेसडर भी विदा कर दी.
छः साल के अंतराल के बाद हम बच्चों के अनुरोध पर पिताजी ने फिर एक कार ली पर वो उसको इस्तेमाल करना लगभग भूल ही गए. डेड़ साल में मात्र एक हज़ार किलोमीटर की सैर कराकर उनकी अंतिम कार ने भी हमसे विदा ले ली. 
अब विरासत की कहानी शुरू होती है -
मैंने विरासत में पिताजी की ही तरह अपनी कार रखने का सपना देखना हासिल किया था. लखनऊ यूनिवर्सिटी की नौकरी के दौरान मेरा स्कूटर ही मेरे लिए कार था पर अल्मोड़ा में 11 नंबर की बस ही मेरा सस्ता और टिकाऊ वाहन थी. हमारी 11 नंबर की बस की ख़ासियत यह थी कि यह बिना किसी परेशानी के सीढियां चढ़ना और उतरना भी जानती थी पर मेरे लिए सरदर्द यह था कि बगल में साड़ी पहने जो 11 नंबर की बस चलती थी वो सीढियां चढ़ते – उतरते मुझे ताने ज़रूर मारती थी. 
पहाड़ में टू व्हीलर चलाना मुझे बहुत खतरनाक लगता था और कार रखने की मेरी हैसियत नहीं थी फिर भी हम कार के बारे में लगातार बातें करते थे. नई मारुति 800 से लेकर 10 साल पुरानी कारों के दाम मुझे ज़ुबानी याद थे.
बच्चों के सेटल हो जाने के बाद कार ख़रीदने की हैसियत हुई भी तो अल्मोड़ा में कार रखने के लिए जगह मिलना नामुमकिन हो गया. यानी फिर वही ढाक के तीन पात और 11 नंबर की बस ज़िन्दाबाद !
अवकाश-प्राप्ति के बाद हम ग्रेटर नॉएडा में सेटल हो गए. अब कार ख़रीदने से हमको कोई नहीं रोक सकता था. वैसे भी ग्रेटर नॉएडा में कार चलाना कोई मुश्किल काम नहीं था. चौड़ी-चौड़ी सड़कें और बहुत ही हल्का ट्रैफिक. और ग्रेटर नॉएडा से नॉएडा तक जाने के लिए शानदार एक्सप्रेस-वे. पर यहाँ के नौजवानों को रॉंग साइड पर कार चलाना बहुत भाता है. कभी-कभी गलत दिशाओं में जाते हुए आपको इतनी कारें दिख जाएंगी कि आपको सही दिशा में जाते हुए भी यह लगेगा कि आप ही रॉंग साइड जा रहे हैं. और नॉएडा या दिल्ली का ट्रैफिक ! बाप रे ! उसमें कार चलाना तो चक्रव्यूह में से निकलने से भी दुष्कर है. 
मेरी श्रीमती जी और हमारी बेटियां जोर दे रही थीं कि मैं कार तो लूं पर उसके लिए ड्राइवर भी रक्खूं. हाय ! फिर फँस गयी न गोट ! अब ड्राइवर रखने के लिए थैलियाँ कहाँ से लाऊँ? 
साल भर तक यह वाद-विवाद प्रतियोगिता चलती रही पर अब तक मैं बागी हो चुका था. मैंने घोषणा कर दी कि कार तो खरीदी ही जाएगी और उसे मैं चलाऊंगा भी खुद ही.
मैंने और मेरी श्रीमती जी ने ड्राइविंग स्कूल ज्वाइन कर लिया. लेकिन पिताजी की ही तरह हम लोग महीनों तक क्लच, ब्रेक और एक्सीलरेटर का कोऑर्डिनेशन करना नहीं सीख पाए. सबसे दुखदायी बात यह थी कि मुझ जैसे अवकाश प्राप्त-कमसिन को ड्राइविंग सीखते हुए देख चंद दुष्ट मुझ पर फब्तियां भी कसते थे.
पिताजी की पुरानी गाड़ियों की श्रम-साध्य धक्का-मार प्रतियोगिताओं के अनुभव से मैंने यह तो निश्चय कर ही लिया था कि खरीदूंगा तो नई कार ही खरीदूंगा. आखिरकार दुनिया में सबसे छोटी कार आल्टो 800 हमारे घर आ ही गयी पर घर में कार आते ही पिताजी के ड्राइविंग वाले गुण भी मुझ में आ गए. मैंने भी पिताजी की ही तरह कार की गति को कभी 50-60 किलोमीटर से ऊपर ले जाना उचित नहीं समझा. पिताजी की ही तरह मैंने भी एक बार पेट्रोल पम्प की मशीन उखाड़ने की पूरी-पूरी कोशिश की थी. 
पिताजी का ज़माना तो पुराना ज़माना था. वो तो कई बार खुद कार ड्राइव करके एक शहर से दूसरे शहर भी गए थे पर मैं पिछले साढ़े चार सालों में कभी अपने ग्रेटर नॉएडा से निकल कर नॉएडा से आगे नहीं गया हूँ. कई बार मैंने सोचा है कि मैं बच्चों को एअरपोर्ट तक छोड़ आऊँ पर उन दुष्टों को तो ऐसे कामों के लिए टैक्सी करना ही पसंद है.
पिताजी की ही तरह कार बैक करना मुझको आइन्स्टीन की थ्योरम जैसा कठिन लगता है. हमारे घर के गेट के बगल में एक पेड़ है. उस दुष्ट को पता नहीं क्यों मेरी बैक होती हुई कार से गले मिलना बहुत भाता है. अब तक कार और पेड़ की प्रेम लीला की वजह से मेरी चार बार बैक लाइट बदल चुकी हैं. डेंट पड़ने पर तो मैंने उन्हें ठीक करवाना भी छोड़ दिया है.
एट लेन वाले एक्सप्रेस-वे में अच्छाई यह होती है कि आपके सामने से कोई कार नहीं आती और अँधेरे में सामने से आ रही हेड लाइट की रौशनी आपको सूरदास नहीं बना देती है. इस सुविधा के कारण मैं कभी-कभार रात में भी नॉएडा तक कार चला लेता हूँ पर इसके लिए मुझे अपनी श्रीमती जी के दिशा निर्देश की हमेशा आवश्यकता पड़ती है – 
‘राह बताता जाता हूँ तुम आगे बढ़ते जाओ.’ 
नॉएडा वासी मेरे भाई लोग और जीजाजी मेरी ड्राइविंग स्किल देखकर मुझसे कहते हैं कि मैं जब भी नॉएडा आऊँ तो रात में वहां रुकने का प्रोग्राम बनाकर आऊँ. 
कबीरदास कहते हैं – ‘निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय.’
पर मैं क्या करूँ? मेरे तो आस-पास और दूर-दूर तक निंदक ही भरे पड़े हैं. इस निंदा पुराण के चक्कर में मेरी कार आम तौर पर घर में ही खड़ी रहती है. हाँ, हर रविवार को हम घर से डेड़ किलोमीटर दूर स्थित जैन मंदिर ज़रूर जाते हैं. 
लोगबाग मेरी जितनी भी आलोचना करें चाहें मेरी जितनी भी हंसी उडाएं पर अपनी दृष्टि में मैं पिताजी जैसा एक्सपर्ट ड्राइवर हो गया हूँ. अब तो बहुत दिनों से मैंने अपनी कार से किसी को टक्कर भी नहीं मारी है. 
मेरे दिमाग में एक आइडिया कुनमुना रहा है. अवकाश प्राप्ति के बाद मुझसे कोई इतिहास पढ़ने तो आ नहीं रहा है, सोचना हूँ कि एक ड्राइविंग स्कूल ही खोल लूं. पर मेरी श्रीमती जी कहती हैं कि इस से तो वकीलों, डॉक्टरों और कार मेकेनिकों को ही लाभ होगा, मुझे नहीं.

शनिवार, 11 नवंबर 2017

अनार की कली



अनार की कली -
कौए की चोंच में अनार की कली वाली मसल हमने सुनी तो थी पर उसका साक्षात्कार करने का अवसर बहुत बाद में मिला था.
लखनऊ की एक पौश कॉलोनी में एक शानदार बंगले में किराएदार के रूप में शर्मा दंपत्ति रहता था. हमारे डॉक्टर शर्मा शक्ल सूरत के ठीक ठाक से किन्तु वज्र देहाती किस्म के प्राणी थे और श्रीमती शर्मा फ़ेमिना मिस इंडिया टाइप होश उड़ाऊ शक्शियत थीं. डॉक्टर शर्मा थे तो एक गरीब ब्राह्मण परिवार के पर पढ़ने में बहुत अच्छे थे. एम. एससी. में टॉप करते ही वो लखनऊ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हो गए थे. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जाने माने वकील सुकुल साहब को हमारे डॉक्टर शर्मा अपनी स्मार्ट बिटिया के लिए पसंद आ गए.
सुकुल साहब का मानना था कि इन्सान को अपनी जड़ और ज़मीन से हमेशा जुड़ा रहना चाहिए. उन्होंने इलाहाबाद में रहते हुए भी अपने गाँव के लोगों से और अपनी पुश्तैनी जागीर से खुद को जोड़कर रक्खा था. अपनी श्रीमती जी से सुकुल साहब पुरबिया बोली में ही संभाषण करते थे. ये बात दूसरी है कि उनकी अमेरिका रिटर्न बिटिया अगर हिंदी भी बोलती थीं तो उसमें आधे से ज़्यादा शब्द अंग्रेज़ी के होते थे.
सुकुल जी की बिटिया को डॉक्टर शर्मा बिलकुल पसंद नहीं आए थे किन्तु पिताश्री की दलीलों ने उन पर जादू का असर किया और फिर इस बेमेल विवाह के संपन्न होने में कोई बाधा नहीं रह गयी.
सुकुल साहब लम्बी चौड़ी हवाई जहाजनुमा गाड़ी में सवार होकर जब रिश्ता पक्का करने के लिए डॉक्टर शर्मा के गाँव पहुँचे तो उनके पिताजी अपने होने वाले समधी की शानो-शौकत देखकर सकते में आ गए. पिताश्री के साथ परम घाघ फूफाश्री भी थे जो कि सुकुल जी के वैभव से उतने प्रभावित नहीं लग रहे थे उन्होंने सुकुल जी के कान में कहा -
'वकील साहब आपसे शिमला के नर्सिंग होम के बारे में कुछ प्राइवेट में बात करनी है. ज़रा बाहर आइएगा.’
सुकुल जी इत्मीनान से बाहर आए फिर फूफाश्री को संबोधित करके कहने लगे –
‘हमारे होने वाले जमाई राजा के फूफाजी, आपकी बात सुनने से पहले हम अपनी एक बात कहेंगे. हमारे यहाँ लड़के के बाद सबसे ज़्यादा इज़्ज़त लड़के के फूफा को दी जाती है. आइए पहले गले मिलते हैं.’
इतना कहकर सुकुल जी ने अपने गले में पड़ी सोने की मोटी चेन फूफाश्री के गले में डाल दी फिर मुस्कुराते हुए बोले –
‘हाँ तो आप किसी नर्सिंग होम के बारे में कुछ प्राइवेट में बात करना चाह रहे थे. फ़रमाइए क्या कहना चाहते हैं?’
फूफाश्री अपने गले में पड़ी सोने की चेन को घुमाते हुए बोले –
‘समधी जी, छोडिए ये सब इधर-उधर की बातें. अब तो आपकी बिटिया हमारी हुई. हाँ, जैसे आपने लड़के के फूफा को सम्मान दिया है वैसा ही सम्मान आप लड़के की बुआ को दीजिएगा. बस, मुझे यही कहना है.’
सुकुल जी ने जवाब दिया -
‘अब लड़के की बुआ तो आई नहीं हैं. आप से प्रार्थना है कि नेग के ये इक्कीस हज़ार रूपये मेरी ओर से आप उनकी सेवा में प्रस्तुत कर दें.’
फूफाश्री ने अपनी ओर से रिश्ता पक्का होने पर अपनी मुहर लगा दी और अपने साले साहब को इशारा कर दिया कि वो मुंह खोल कर सुकुल जी से दहेज मांग लें.
अपने जीजा जी के इशारे पर पिताश्री ने अपनी समझ से दहेज की एक अकल्पनीय डिमांड सुकुल जी के सामने रख दी. सुकुल जी होने वाले समधी जी की डिमांड सुनकर कुछ देर तक सोचते रहे फिर मुस्कुराकर बोले –
‘पंडित जी, आप जितनी रकम दहेज में मांग रहे हैं उस से ज़्यादा तो मैं आपको टीके की रस्म में ही दे दूंगा.’
शाही अंदाज़ में हमारे शर्मा बन्धु की शादी हुई और एक ट्रक भर के दहेज का सामान लेकर शर्मा दंपत्ति ने लखनऊ के अपने किराये के बंगले में प्रवेश किया.
डॉक्टर शर्मा के बंगले का किराया ठीक उतना था जितनी कि उनकी तनख्वाह. दहेज में श्रीमती शर्मा अपने साथ अपनी वो नौकरानी भी लाई थीं जो कि उनके बचपन से ही उनकी सेवा करती आई थी. घर खर्च कैसे चलेगा, इसकी चिंता डॉक्टर शर्मा को नहीं करनी थी. सुकुल साहब ने बिटिया के नाम इतना पैसा फिक्स्ड डिपाजिट में डाल दिया था कि उसके मासिक ब्याज से ही उसके सारे शौक़ और ज़रूरतें पूरी हो सकती थीं.
हालांकि डॉक्टर शर्मा ने उच्च शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय से और श्रीमती शर्मा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी लेकिन डॉक्टर शर्मा के दुष्ट विद्यार्थी उन दोनों को क्रमशः ‘गुरुकुल कांगड़ी’ और ‘मिरांडा हाउस’ कहकर पुकारते थे.
श्रीमती शर्मा पंद्रह दिन में एक बार इलाहाबाद का चक्कर ज़रूर लगाती थीं और इस यात्रा के लिए वो हर बार टैक्सी बुलवा लेती थीं. डॉक्टर शर्मा जी टैक्सी का बिल तो नहीं भरना होता था पर अपनी श्रीमती जी की ऐसी यात्राओं का खर्चा सुनकर ही उनको चक्कर आ जाता था. श्रीमती शर्मा अपने भतीजे पर जान छिड़कती थीं. दो-चार बार डॉक्टर शर्मा भी उनके साथ इलाहाबाद गए थे. उन्होंने नोटिस किया कि उनकी सलहज अपने बेटे से उखड़ी-उखड़ी रहती थीं जब कि उनकी श्रीमती जी उसे अपने कलेजे से लगाए रखती थीं.
श्रीमती शर्मा को अब डॉक्टर शर्मा के मग्घेपन की आदत पड़ गयी थी और डॉक्टर शर्मा ने भी अपनी मेमनुमा श्रीमती जी के नखडों के साथ एडजस्ट करना सीख लिया था. डॉक्टर शर्मा को अपने फूहड़पन पर अपनी श्रीमती जी की झिड़की खाने का अभ्यास हो गया था और दूसरी तरफ पतिदेव के सुड़-सुड़ कर के चाय पीने पर और हाथ से सड़प-सड़प कर दाल-भात खाने पर अब श्रीमती शर्मा को भी कोई ख़ास आपत्ति नहीं होती थी.
अब उनके घर में नन्हा मेहमान आने वाला था. कुछ समय बाद श्रीमती शर्मा ने एक सुन्दर से नौनिहाल को जन्म दिया. शर्मा दंपत्ति का बंगला एक बार फिर उपहारों से भर गया और बंगले के गैरेज में एक कार भी खड़ी हो गयी. फूफाश्री और बुआ जी को इस बार भी भरपूर नेग मिले.
अपनी कार के आते ही श्रीमती शर्मा के इलाहाबाद के चक्कर और बढ़ गए. अब वो अपने नौनिहाल और अपनी नौकरानी को साथ लेकर ख़ुद कार ड्राइव करती हुई इलाहाबाद तक की यात्रा करने लगी थीं.
दिन चैन से गुज़र रहे थे. एक बार श्रीमती शर्मा फिर इलाहाबाद गईं थीं कि इलाहाबाद से ही उनकी भाभी यानी कि डॉक्टर शर्मा की सलहज का फ़ोन आया. फ़ोन पर बड़े रूखे से अंदाज़ में उन्होंने अपने नन्दोई जी को इलाहाबाद पहुँचने का आदेश दे डाला. डॉक्टर शर्मा को जब सलहज साहिबा ने यह बताया कि उन्होंने उनके पिताश्री और उनके फूफाश्री को भी इलाहाबाद तलब किया है तो उनके पांवों तले ज़मीन ही खिसक गयी.
डॉक्टर शर्मा बेचारे अगली ट्रेन पकड़कर इलाहाबाद पहुँचे. उनके पिताश्री और उनके फूफाश्री पहले ही सुकुल जी के बंगले में मौजूद थे. पिताश्री ने सपूत को देखा तो वो उन पर टूट पड़े.
‘जोरू के गुलाम डुबो दिया हमारे कुल का नाम? ऐसी कलंकिनी बहू लेकर आया है जो शादी से पहले ही एक बच्चे की माँ थी.’
फूफाश्री भी डॉक्टर शर्मा से ताना मारते हुए बोले -
‘बर्खुरदार, शिमला के नर्सिंग होम का किस्सा हमने पहले भी सुना था पर आज उस पर तुम्हारी सलहज ने सच की मुहर लगा दी.’
डॉक्टर शर्मा जब तक मुंह खोलें तब तक उनकी सलहज साहिबा आ धमकीं और गरज कर बोलीं -
‘जीजाजी, अब मैं किसी के पाप को अपना बेटा नहीं कहूँगी.
अपनी मेम साहब का पहला बेटा आपको मुबारक हो. अब इस बच्चे को भी आप अपने साथ लखनऊ ले जाइए.’
पिताश्री और फूफाश्री की गालियाँ खाकर डॉक्टर शर्मा पहले ही आहत हो चुके थे और उस पर सलहज साहिबा के तानों ने उनकी बेईज्ज़ती की रही सही कसर भी पूरी कर दी.
सबसे अचरज की बात यह थी कि अपने ही घर में सुकुल जी पूर्णतया निर्विकार होकर इस नौटंकी को देख रहे थे पर फिर वो एकदम से पिताश्री और फूफाश्री की तरफ़ मुख़ातिब हुए और बड़ी सख्ती से उन से बोले -
‘समधी साहिबान, आप सबकी बकवास मैंने सुन ली. अब चुपचाप बैठकर आप मेरी बात सुनिए.
आपको क्या लगता था कि आपके कौए जैसे सपूत की चोंच में अपनी अनार की कली जैसी बिटिया मैंने यूँ ही पकड़ा दी थी? आप लोगों के कच्चे घरों में इतना पक्का दहेज क्या मैंने यूँ ही भर दिया था? अगर शिमला के नर्सिंग होम वाली बात नहीं होती तो रिश्तेदारी की बात तो दूर, आप लोगों को मैं अपने बंगले में घुसने भी नहीं देता.’
फूफाश्री ने विनम्रता से कहा –
‘समधी जी, नाराज़ मत होइए. आइए प्राइवेट में कुछ बात करते हैं.’
सुकुल जी दहाड़े –
‘अब प्राइवेट में बात करने के दिन लद गए. आज से तुम लालची फटीचरों से मेरी रिश्तेदारी भी ख़तम. आज जब कि मेरे नाती की बात खुलकर सामने आ चुकी है तो फिर आज से तुम लोगों को हड्डी डालना भी बंद.’
पिताश्री ने सुकुल जी से हाथ जोड़कर कहा –
‘समधी जी इतना नाराज़ होना अच्छी बात नहीं है. हमारे जीजाजी ठीक कह रहे हैं. हम सब प्राइवेट में बैठकर मामला निबटा लेते हैं.’
सुकुल जी ने फिर सख्ती से कहा –
‘मेरे बहुत से मुवक्किल पेशेवर क़ातिल हैं. मेरे एक इशारे पर वो किसी का पूरा खानदान साफ़ कर सकते हैं. अब आप लोगों ने मेरी बिटिया के बारे में दुबारा अपनी चोंच खोली तो अपने अंजाम के बारे में सोच लीजिएगा. मैं अपनी बहू को भी उसकी गुस्ताखी सज़ा देता पर क्या करूँ? वो हमारे घर के चिराग को जन्म देने वाली है.
और हाँ, जाते जाते यह भी सुन लीजिए, अब आप लोग मेरे जमाई से भी मिलने की कोशिश मत कीजिएगा. मैंने उसे पूरी तरह ख़रीदने का पक्का इंतज़ाम कर लिया है.’
अगले क्षण पिताश्री और फूफाश्री सुकुल जी के बंगले से बाहर जा चुके थे.
जमाई राजा अपने पिताश्री और अपने फूफाश्री की बेईज्ज़ती होते हुए देख रहे थे पर ख़ुद को कौआ कहे जाने पर और अपने खरीदे जाने की बात सुनकर उनका खून खौल गया था लेकिन ससुरजी से अकड़कर बात करने की उनकी फिर भी हिम्मत नहीं हुई. उन्होंने मिमियाते हुए सुकुल जी से कहा -
‘पापा, आपने पिताजी और फूफाजी की इतनी बेईज्ज़ती की, मैंने चुपचाप सह लिया आपकी बेटी की नर्सिंग होम वाली बात भी मुझे बर्दाश्त हो गयी पर आपने मुझे जो कौआ कहा है और मुझे जो ख़रीदने की बात कही है उस से मेरा दिल बहुत दुखा है.’
सुकुल जी ने शांत होकर डॉक्टर शर्मा से कहा -
‘तुम्हारे बाप, फूफा और तुम्हारी इज़्ज़त तो टका सेर बिकती है. मेरी बात सुनकर तुम्हारा दिल कभी नहीं दुखेगा, इसकी गारंटी है. पहले ज़रा अपने ख़रीदे जाने की कीमत तो सुन लो.
मैंने लखनऊ में एक आलीशान बंगला बिटिया के लिए खरीद लिया है और तुम्हारे लिए हर महीने पच्चीस हज़ार का पॉकेट मनी फ़िक्स कर दिया है. अपनी तनख्वाह भी तुम अपने पास ही रखना. घर का खर्च चलाने की न तो तुम्हारी औक़ात है और न ही उसकी तुम्हें कोई ज़रुरत है. पर इन सब मेहरबानियों की शर्त ये है कि तुम मेरे बड़े नाती को अपना बेटा बना कर अपने साथ रक्खोगे, मेरे दोनों नातियों को एक सा प्यार दोगे और मेरी बिटिया को ख़ुश रक्खोगे. और हाँ, अपने घर वालों से अब तुम कोई सम्बन्ध नहीं रक्खोगे. अगर मेरी शर्तें तुम्हें मंज़ूर नहीं हैं तो रास्ता नापो.’
सुकुल जी के इस बेहूदे प्रस्ताव को सुनकर डॉक्टर शर्मा को इतना गुस्सा आया, इतना गुस्सा आया कि उन्होंने लपक कर उनके चरण पकड़ लिए.
उसी दिन शर्मा परिवार ने ढेरों उपहार के साथ लखनऊ के लिए प्रस्थान किया.
शर्मा दंपत्ति अपने लखनऊ वाले नए बंगले में अब अपने दोनों बेटों के साथ सुख और शांति से रह रहा है. डॉक्टर शर्मा की अपनी एक खुद की कार भी उनके नए बंगले में आ गयी है और सबसे सुखद समाचार यह है कि उन्होंने बिना सुड़-सुड़ कर के चाय पीना और बिना सपड़-सपड़ कर दाल-भात खाना भी सीख लिया है. 

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

मकबरो ऐ

मकबरो ऐ -
ये किस्सा मेरे जन्म से पहले का है. हमारी एक चाची ताजमहल के निकट ताजगंज की रहने वाली थीं. जब चाचाजी और चाची का रिश्ता तय हुआ तब पिताजी की पोस्टिंग आगरा में ही थी.
एक बार माँ, पिताजी, मेरे भाइयों और बहन के साथ चाची के मायके ताजगंज गए. नानी जी अर्थात चाची की माताजी ने अतिथियों का भव्य स्वागत किया. बातचीत के दौरान माँ ने उनसे पूछा -
'मौसी, आपके घर से तो ताजमहल साफ़ दिखाई देता है. आपलोग तो रोज़ाना घूमते-घूमते ताजमहल चले जाते होंगे?'
नानीजी ने जवाब दिया -
'जे ताजमहल मरो इत्तो ऊँचो ऐ कि जा पे नजर तो पड़ई जात ऐ.'
(ये कमबख्त ताजमहल इतना ऊंचा है कि इसपर नज़र तो पड़ ही जाती है.)
माँ ने नानी से पूछा - 'आप कितनी बार ताजमहल गयी हैं?'
नानी ने जवाब दिया - 'ए लली, जे तो मकबरो ऐ, बा में जाय के कौन अपबित्तर होय?'
(बिटिया, ये तो मकबरा है, उसमें जाकर कौन अपवित्र हो?)
फिर नानी ने माँ-पिताजी से पूछा -
तुम लोग का मंदिरजी होयके आय रए ओ?
(तुम लोग क्या मंदिर जी होकर आ रहे हो?)
पिताजी ने जवाब दिया -'नहीं मंदिरजी होकर नहीं, हम तो ताजमहल घूमकर आ रहे हैं.'
नानी जी ने माँ-पिताजी का लिहाज़ किए बिना दहाड़ कर अपनी बहू को आवाज़ लगाई - 'बऊ ! महरी ते कै कि मेहमानन के बर्तन आग में डाल के मांजे'
(बहू, मेहरी से कह कि मेहमानों के बर्तन आग में डाल कर मांजे)

इतना कहकर नानी जी भनभनाती हुई दुबारा स्नान करने को चली गईं.
काश कि नानी जी ने पी. एन. ओक साहब और आज के देशभक्तों के विचारों को पढ़ा होता तो फिर वो ताजमहल को मकबरा नहीं, बल्कि मंदिर मानतीं और माँ-पिताजी पर वो इतना गुस्सा भी नहीं करतीं.

रविवार, 5 नवंबर 2017

आज़ादी का मोल



आज़ादी का मोल

                नेहा एक नन्हीं सी, प्यारी सी पर बड़ी जि़द्दी लड़की थी। उसकी रोज़ाना की फ़रमाइशों को पूरा करते-करते उसके मम्मी-पापा थक गए थे मगर उसकी फ़रमाइशें तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं। अगर मम्मी-पापा फ़ौरन उसकी फ़रमाइश पूरी नहीं करते तो वह आसमान सर पर उठा लेती थी। पचासों तरह के खिलौनों,  गुडियों,  कम्प्यूटर गेम्स और न जाने क्या-क्या अटरम-शटरम चीज़ों से भरा उसका कमरा पूरा अजायबघर मालूम पड़ता था। किसी की क्या मजाल जो उसके किसी भी सामान को हाथ लगा सके। हाँ, अगर खुद उसका मन किसी चीज़ से भर जाए तो उसे कूड़े के ढेर में फेंकते हुए उसे एक सेकिण्ड भी नहीं लगता था।
                एक रविवार की सुबह नेहा अपने पापा के साथ बोटैनिकल गार्डेन में घूम रही थी। पेड़-पौधों के बीच पत्थर की पगडंडियों पर दौड़ लगाना उसे बहुत अच्छा लग रहा था। फूलों पर मँडराती तितलियाँ और पेड़ों पर चहकती चिड़िया उसे बहुत भा रही थीं । हरे-हरे तोते और काली-काली मैनाओं की इंसान जैसी बोलियों ने तो उसका दिल ही जीत लिया था । उसने अपने पापा से पूछा- 
पापा! क्या यह सच है कि तोते और मैना हमारी बोली बोल सकते हैं?“
उसके पापा ने जवाब दिया-
बिलकुल हमारी तरह से तो नहीं पर अगर उन्हें सिखाया जाय तो उनकी काफ़ी बातें हमारी समझ में आ सकती हैं।
                नेहा के पापा ने ऐसा कह कर अपनी जान आफ़त में डाल ली। अब नेहा जि़द पकड़ कर बैठ गई कि उसे एक तोता और एक मैना अपने घर में चाहिए ही चाहिए। उसके पापा ने उसे लाख समझाया पर वह अपनी जि़द से टस से मस नहीं हुई। नेहा की मम्मी ने उससे कहा-
नेहा! पंछी तो खुले आकाश में ही अच्छे लगते हैं। तोते और मैना को पिंजड़े में कैद करके तुम क्यों उनकी आज़ादी छीनना चाहती हो?“
नेहा के पास मम्मी के सवाल का जवाब तैयार था-
मम्मी! मैंने पढ़ा है कि सुबह से शाम तक मेहनत करने बाद भी दो-चार दाने ही जुटा पाते हैं ये बेचारे पंछी। मैं इनको पालूंगी तो इनको अच्छे से अच्छा खाने को दूंगी,  इनको बढि़या पिंजड़े में रक्खूंगी। इन्हें किसी चील-कौए या किसी बिल्ली से खतरा भी नहीं होगा। इन्हें गर्मी लगेगी तो ए. सी. चला दूँगी और अगर सर्दी लगी तो हीटर ऑन कर दूंगी।
                नेहा की मम्मी ने कहा-
बेटी ! इन पंछियों को तुम्हारे पकवानों और ए. सी.-हीटर की कोई ज़रूरत नहीं है। इनको तो बस खुले आकाश में अपने साथियों का साथ और पेड़ों पर अपना बसेरा चाहिए।
                नेहा की मम्मी की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि मेन गेट पर एक बहेलिया पंछी बेचता हुआ आ गया। नेहा की तो मानो लाटरी खुल गई। बहेलिये के पास एक से एक सुन्दर तोते और मैनाएं थीं। अब तो हर हाल में नेहा को पंछी चाहिए ही थे। रोने-धोने से काम नहीं बना तो भूख-हड़ताल का सहारा लेकर उसने अपनी जि़द पूरी करवा ही ली। बहेलिये को दो सौ रुपये देकर नेहा की मम्मी ने उसके लिए एक तोता और एक मैना खरीद ही लिए। बड़े ज़ोर-शोर के साथ दोनों पंछियों के लिए एक-एक सुन्दर पिंजड़ा  खरीदा गया,  उनमें अच्छा सा बिछौना बिछाया गया और खाने-पीने का सब इंतज़ाम भी किया गया। नेहा तो अपना सारा खाली समय इन दोनों पंछियों की सेवा में लगाने लगी थी। उसने तोते का नाम मिठ्ठू और मैना का नाम मिन्नी रक्खा था। उसको इन दोनों पंछियों के बोलने का इंतज़ार था। वह रोज़ाना सुबह-शाम उन्हें छोटे-छोटे शब्द सिखाने की कोशिश करती थी। दस दिनों की लगातार कोशिश के बाद भी दोनों पंछी अपना नाम दोहराना नहीं सीख पाए तो नेहा को गुस्सा आने लगा। उसने अपने पापा से कहा-
पापा ! उस चिड़िये वाले से दूसरे पंछी खरीद कर लाइए। ये पंछी तो हमारी जैसी बोली नहीं सीख पा रहे हैं,  न गाना गाना,  बस, टें-टें करते रहते हैं। ये दिन-भर बैठे-बैठे खाते रहते हैं,  बढ़िया बिछौनों पर सोते हैं,  कूलर की हवा के मज़े लूटते हैं पर फिर भी हमेशा उदास-उदास रहते हैं।
                नेहा के पापा ने कहा-
तुमने उनकी आज़ादी छीन ली और अब मुठ्ठी भर दानों और थोड़े आराम के बदले तुम उनका गाना सुनना चाहती हो। क्या तुम एक दिन के लिए भी अपने घर में ही कैद रहकर खुशी से गाना गा सकती हो?“
                नेहा ने कहा-
क्यों नहीं? आप मेरे लिए अच्छा-अच्छा खाना और मेरे सारे खिलौने मेरे पास छोड़ दीजिए फिर देखिए मैं खुश रहती हूं कि नहीं?“
                नेहा के पापा ने कहा-
ठीक है! मैं और तुम्हारी मम्मी कल दोपहर एक शादी में जा रहे हैं। तुम्हारे लिए तरह-तरह के पकवान होंगे,  तुम्हारे खिलौने होंगे,  देखने के लिए टीवी होगा और कम्पनी के लिए तुम्हारे ये प्यारे पंछी भी तुम्हारे पास होंगे। बस! तुमको आठ घण्टों के लिए अकेले घर में कैद रहना होगा। अगर तुम खुश-खुश रह लोगी तो इन पंछियों के बदले तुम्हारे लिए दूसरे पंछी ले आएंगे।
                नेहा ने पापा की चुनौती स्वीकार कर ली। मम्मी-पापा उसे अकेला छोड़कर चले गए। नेहा ने मज़े ले-लेकर कार्टून चैनल पर मिकी-डोनाल्ड की फि़ल्म देखी। फि़ल्म देखने से मन भर गया तो फिर उसने कुछ देर कंप्यूटर गेम्स से मन बहलाया। कुछ देर तक मम्मी के बनाए पकवानों का भी मज़ा लिया। न कोई टोकने वाला था न कोई उपदेश देने वाला फिर भी न जाने क्यों उसे आनन्द नहीं आ रहा था। आज उसका मन पंछियों को अपनी बोली और गाना सिखाने का भी नहीं हो रहा था। खिलौनों को तो देखने का भी मन नहीं हो रहा था। सांय-सांय करता हुआ खाली घर उसे बड़ा डरावना लग रहा था। इतने बड़े घर में अकेली लड़की छोड़कर मम्मी-पापा ने अच्छा नहीं किया था। नेहा ने मम्मी-पापा को जितनी बार भी फ़ोन लगाया तो वो स्विच ऑफ़ निकला. चार घंटे अकेले रहकर नेहा रानी को अपना ही घर कैदखाना लगने लगा। आठ घण्टे की कैद का समय पूरा होते-होते तो नेहा रानी घबरा कर रोने लगीं। उनके रुदनगान के साथ-साथ उनके पालतू पंछियों की टें-टें बड़ी मीठी लग रही थी। मम्मी-पापा जब घर लौटे तो नेहा दौड़कर उनके पैरों से लिपट गई। वह रोते हुए उनसे बोली-
मम्मी-पापा! आप दोनों बहुत गन्दे हैं। आपने अपनी इत्ती सी नेहा गुडि़या को इतने बड़े घर में अकेले कैद कर दिया।
नेहा के पापा ने उससे पूछा-
क्यों बेटी! तुम्हारे पास तो तुम्हारी आज़ादी के अलावा सब कुछ था। तुम्हें तो खुशी से गाने गाने चाहिए थे फिर तुम रो क्यों रही हो?“
                नेहा ने नाराज़ होकर कहा-
कैद में रहकर भला कोई खुशी से गाना गा सकता है?“
नेहा के पापा ने मुस्कुरा कर कहा-
क्यों नहीं? तुम भी तो अपने पंछियों को कैद करके उन्हें खाना-पीना और तरह-तरह के आराम देकर उनसे गाना गवाना चाहती हो। हमने भी तो तुम्हारे साथ यही किया था फिर तुमने खुश होकर गाना क्यों नहीं गाया?“
नेहा अपने पापा का इशारा समझ गई। उसने चुपचाप आगे बढकर पंछियों के पिंजड़े खोलकर उन्हें आज़ाद कर दिया। नेहा को आज़ादी का मोल समझ में आ गया था।