गुरुवार, 30 दिसंबर 2021
नाम में क्या रखा है
मंगलवार, 28 दिसंबर 2021
आज दुष्यंत कुमार होते तो यही कहते
इस चुनावी माहौल में आप कहाँ हैं दुष्यंत
कुमार? –
1.
हो गयी है भीड़,
नेताओं की,
छटनी चाहिए,
बन गए जो ख़ुद, ख़ुदा,
औक़ात, घटनी चाहिए.
2.
कुम्हार (नेता) ! अब माटी (जनता) की बारी –
ज़ुल्म की काली, अँधेरी, रात,
ढलनी चाहिए,
मुझको अब छाती पे तेरी,
दाल दलनी चाहिए.
3.
भैंस मौसी की उपयोगिता -
अक्ल के पीछे पड़े हैं,
लट्ठ ले कर देशभक्त.
इन के घर में गाय क्या,
बस, भैंस पलनी चाहिए.
शनिवार, 25 दिसंबर 2021
अक़ील
(यह संस्मरण मेरे दिल के बहुत क़रीब है. एक किशोर की अपरिपक्व मानसिकता और उसकी भावुकता उस से बहुत सी नादानियाँ करा देती है. अकील-प्रसंग ने मेरी ज़िन्दगी में तूफ़ान ला दिया था लेकिन आज उस भटके हुए किशोर के अपने रूप पर मुझे बहुत प्यार आता है.)
बाराबंकी की बात है. उन दिनों मैं इंटर फर्स्ट ईयर में पढ़ता था. जाड़े का
मौसम था और इतवार का दिन था. पिताजी धूप खाने के लिए बाहर लॉन में बैठे थे. मैं
अपने कमरे में बैठा था. तभी हम सबका सर चढ़ा चपरासी क़ुतुब अली आया और मुझसे बोला – ‘भैया, पगलैट देखोगे?’
मैंने पूछा – ‘पगलैट? कोई पागल हमारे
यहाँ कैसे आ सकता है?’
क़ुतुब अली ने कहा – ‘साहब से मिलने आया
है. खिड़की से देखो. उनके पैर पकड़े हुए है और उनसे न जाने क्या-क्या कह रहा है?’
मैंने खिड़की से झाँका तो देखा कि एक हट्टा-कट्टा, लहीम-शहीम 30-32 साल के करीब का
बदहवास सा आदमी पिताजी के पैर पकड़ कर उनसे कुछ कह रहा है. कुछ देर बाद वो शख्स
पिताजी को फर्शी सलाम करके और उन्हें एक पर्ची थमाकर चला गया. पिताजी अन्दर आए तो
मैंने उस आदमी के बारे में उनसे पूछा तो उन्होंने सिर्फ़ इतना जवाब दिया–
‘अरे ये तो अक़ील था. इसका दिमाग चल गया है.’
मैंने पूछा - ‘दिमाग चल गया है? तो फिर वो आपके पास
क्यों आया था? उसने आपको एक कागज़ भी तो दिया था, उसमें क्या था?’
पिताजी ने हंसकर जवाब दिया – ‘प्रधानमंत्री
इंदिरा गाँधी के नाम एक दरख्वास्त थी.’
मैंने और सवाल पूछे तो पिताजी ने मुझे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने की बात कह
कर मेरे सवाल हवा में उड़ा दिए. पर क़ुतुब अली मेरी जिज्ञासा शांत करने के लिए हाज़िर
था. क़ुतुब अली से पता चला कि अक़ील चुंगी नाके का एक मुंशी था जिसने कि पिताजी के
कोर्ट में नगर पालिका के चेयरमैन के खिलाफ़ मारपीट और लूटमार का मुकद्दमा दर्ज किया
था. बिना गवाह के फ़ौजदारी का मुक़द्दमा पहले दिन ही ख़ारिज हो गया लेकिन अक़ील मियां
को पिताजी के इंसाफ़ पर पूरा यक़ीन था. अक़ील का मानना था – ‘अदालत में कोई
सुनवाई नहीं हुई, मुकद्दमा ख़ारिज हो गया तो क्या हुआ? घर में माई-बाप
मजिस्ट्रेट साहब को अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाकर तो फ़ैसला बदलवाया जा सकता है.’
किसी मुवक्किल या किसी वक़ील की हमारे घर पर आने की सख्त मनाही थी पर अक़ील
मियां के लिए पिताजी ने ये बंदिश पता नहीं क्यूँ हटा दी थी. हर इतवार को वो पिताजी
के पास आकर अपना दुखड़ा रोता था. अब वो उन्हें साहब नहीं बल्कि पिता हुज़ूर कहता था.
मैं चोरी-छुपे पिताजी और अक़ील के बीच हुई बातचीत सुनता था.
अक़ील : ‘पिता हुज़ूर, सुन्दर पानवाले ने
देखा था कि चेयरमैन के आदमियों ने मुझको लाठियों से मारा था और मेरे पास जमा नाके
की वसूल की रक़म छीन ली थी. सुन्दर पानवाला गवाही देने को राज़ी हो गया है. अब तो
चेयरमैन को फांसी हो जाएगी? फांसी हो जाएगी न पिता हुज़ूर?’
पिताजी: अक़ील, फांसी की सज़ा तो ऊँची अदालत में सुनाई जा सकती है, लोअर कोर्ट में
नहीं.’
अक़ील: ‘पिता हुज़ूर, हमारे हाई कोरट तो
आप ही हो. मैं सुन्दर पानवाले को आपके पास ले आऊँ?’
पिताजी: नहीं उसे मेरे पास मत लाओ, अब तुम्हारा
मुक़द्दमा मेरी अदालत में नहीं है. तुम अब मुक़द्दमें को भूल जाओ. अपने बीबी-बच्चों
की फ़िक्र करो.’
अक़ील: ‘पिता हुज़ूर, वो इंदिरा गाँधी
वाली अर्ज़ी जो मैंने आपको दी थी, उसका क्या कोई जवाब आया?’
पिताजी: ‘उनको और भी बहुत काम हैं. इतनी जल्दी जवाब कैसे दे
पाएंगी?’
मेरी तरह मेरी माँ भी इस अक़ील प्रसंग में गहरी दिलचस्पी लेने लगी थीं.
क़ुतुब अली ने उन्हें बताया कि अब अक़ील को खाने के भी लाले पड़ने लगे थे तो उन्होंने
तरस खाकर मेरे हाथों उसके लिए कुछ नाश्ता भिजवा दिया. अक़ील नाश्ते पर टूट पड़ा और
साथ में मुझे और माँ को दुआएं देने लगा. पर था वो शख्स बड़ी गैरत वाला. उसने मुझे
रोक कर कहा – भैया जी, अम्मी हुज़ूर ने
मुझे नमक खिलाया है पर मैं खैरात में किसी से कुछ लेता नहीं हूँ. मैं अम्मी हुज़ूर
का कोई भी काम करने को तैयार हूँ.’
अम्मी हुज़ूर उस पागल से क्या काम लेतीं, तो उन्होंने उस से
कोई भी काम लेने से मना करवा दिया. अब अक़ील मियां ने नमक खाने का एहसान उतारने के
लिए एक गाना शुरू किया.
हे भगवान ! ऐसा लगा कि हमारे सामने बैठकर मुहम्मद रफ़ी गा रहे हैं. मैं और
माँ तो उसी दिन से उसकी आवाज़ के दीवाने हो गए. यह मेरी अक़ील से पहली विधिवत
मुलाक़ात थी.
मेरे घर का नाम ‘बौनी’ है तो मैं पहली
मुलाक़ात के बाद ही अक़ील के लिए ‘विन्नी भैया’ बन गया.
अक़ील के पिता हुज़ूर यानी कि हमारे पिताजी ने उनसे दूरियां बना ली थीं पर
इस से अक़ील मियां का हमारे यहाँ आना कम नहीं हुआ. उन्होंने हमारी माँ में अपनी ‘अम्मी हुज़ूर’ और मुझमें अपना
छोटा भाई ‘विन्नी भैया’ जो खोज लिए थे. अब अक़ील मियां अम्मी हुज़ूर के
दरबार में आए दिन हाज़री देने लगे. माँ अक़ील से अपनी पसंद का गाना सुनाने की फ़रमाइश
करती थीं और उनके नए साहबज़ादे अपनी फ़रमाइश के पकवान की.
मुझ विन्नी भैया को और अक़ील की अम्मी हुज़ूर को उसकी दर्द भरी दास्तान
बार-बार सुननी पड़ती थी. अक़ील की एक निहायत ही खूबसूरत बीबी थी जिसका कि नाम सक़ीना
था. उसकी एक चार साल की प्यारी सी बेटी थी जिसका नाम था फ़ातिमा. छोटी सी तनख्वाह
और मोटी सी ऊपरी आमदनी में यह छोटा सा परिवार चैन की ज़िन्दगी गुज़ार रहा था कि
नगरपालिका के ऐय्याश चेयरमैन की बुरी नज़र सक़ीना पर पड़ गयी. चेयरमैन ने
इशारों-इशारों में अपनी ख्वाहिश अक़ील पर ज़ाहिर की तो उसने चेयरमैन के दो झापड़ रसीद
कर दिए. बस, उस मनहूस दिन के बाद अक़ील के घर से खुशियाँ मानो
हमेशा के लिए रूठ गईं.
चेयरमैन के आदमियों ने अक़ील के अपने नाके पर सबके सामने उसे लाठियों से
जमकर पीटा और उस से चुंगी-नाके की जमा रकम भी छीन ली. अक़ील ने पुलिस में रिपोर्ट
दर्ज कराई, अदालत में चेयरमैन के खिलाफ़ मुक़द्दमा चलाया पर सब
कुछ बेकार में ही. पूरे बाराबंकी में चेयरमैन के खिलाफ़ कोई भी गवाही देने को तैयार
नहीं हुआ. पिताजी की अदालत में आया हुआ मुक़द्दमा पहले ही दिन ख़ारिज हो गया.
चेयरमैन के साथ बदतमीज़ी से पेश आने के जुर्म में उसे मुअत्तिल कर दिया गया. इधर
चुंगी-नाके की वसूली हुई रकम जमा न करने की वजह से उस पर गबन का मुक़द्दमा भी दर्ज
हो गया. मुक़द्दमे में, इधर-उधर दौड़-भाग में घर की जमा-पूँजी भी धीरे-धीरे
ख़त्म होने लगी. अब तो घर में दो वक़्त का खाना नसीब होना भी मुश्किल हो रहा था. ऊपर
से जान-पहचान वाले तो क्या, अब तो अनजाने भी उसे ‘पगलैट’ कहकर बुलाने लगे
थे.
सक़ीना से अक़ील को तलाक़ दिलाकर खुद उस से शादी रचाने की ख्वाहिश रखने वाला
सक़ीना का चचेरा भाई उसे उसके मायके ले जाने के लिए बार-बार चक्कर लगा रहा था. अब
अक़ील रोज़ आकर अपनी नयी-नयी मुसीबतों की खबर अपने विन्नी भैया को देता था और उसके
विन्नी भैया थे कि फिज़िक्स, केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स के दांव-पेच भुलाकर उसकी
मुसीबतों का हल खोजने में लगे रहते थे.
एक दिन अक़ील सक़ीना को अपनी अम्मी हुज़ूर और अपने विन्नी भैया से मिलवाने
के लिए हमारे घर ले आया. अपने छोटे देवर विन्नी भैया से इस सक़ीना भाभी ने कोई
पर्दा भी नहीं किया. मैं तो सक़ीना की खूबसूरती को देखकर हैरान रह गया. पर सक़ीना की
यही खूबसूरती अक़ील की बदकिस्मती का सबसे बड़ा सबब बन गयी थी.
मैंने पिताजी से अक़ील की मदद करने के लिए कहा. मेरे हिसाब से अगर पिताजी
चाहते तो अक़ील को फिर से बहाल करा सकते थे और चेयरमैन को थोड़ी-बहुत सज़ा भी दिलवा
सकते थे. मैंने अपनी बातें जब पिताजी के सामने रक्खीं तो वो बोले –
‘तुमने क्या मुझे राजा विक्रमादित्य या बादशाह अकबर समझ लिया है? मैं उस चेयरमैन को
सज़ा देने वाला कौन होता हूँ? मैं देख रहा हूँ कि तुम अपनी पढ़ाई-लिखाई
छोड़कर रोज़ उस पागल से मिल रहे हो. ये अक़ील तुम्हें भी अपने साथ ले डूबेगा.’
अपना मुंह फुलाए मैं सोच रहा था – ‘मेरे सवालों का, मेरी गुज़ारिश का, ये तो कोई जवाब
नहीं हुआ. पिताजी इतने बेरहम कैसे हो गए? और ये उस चोर
चेयरमैन का साथ क्यों दे रहे हैं?’
सक़ीना का चचेरा भाई उसे उसके मायके ले जाने में कामयाब रहा. अब सक़ीना के
मायके वाले सकीना और अक़ील के तलाक़ की कोशिश में थे. चारों तरफ़ से मुसीबतों का पहाड़
टूटने से अक़ील की बदहवासी बढ़ती जा रही थी. अब ‘पगलैट’ कहने पर वो लोगों
पर हाथ भी उठा देता था. पिताजी को जब अक़ील की इन हरक़तों का पता चला तो उन्होंने
उसका हमारे घर आना ही बंद करवा दिया पर अक़ील था कि अपने विन्नी भैया से मिलने के
लिए उनके कॉलेज जाने लगा. छुट्टी होने के वक़्त वो कॉलेज के गेट पर मुझसे मिलकर
अपने सारे दुखड़े सुनाता था और फिर मेरी साइकिल के बगल में दौड़ता हुआ मुझे मेरे घर
की सीमा तक छोड़ कर आता था.
मैं बेबस, लाचार उस बेचारे अक़ील की कोई मदद नहीं कर सकता था, उस कमबख्त चेयरमैन
का भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता था. पर अपना कबाड़ा तो कर ही सकता था. और मैंने अपना
कबाड़ा कर ही लिया. हाईस्कूल में कॉलेज में सेकंड पोजीशन लाने वाले गोपेश बाबू उर्फ़
अक़ील के विन्नी भैया, फर्स्ट ईयर की अर्धवार्षिक परीक्षा में फिज़िक्स, केमिस्ट्री और
मैथमेटिक्स में फ़ेल हो गए.
पिताजी को जब मेरी इस उपलब्धि का पता चला तो न तो उन्होंने मुझे मारा न
मुझे डांट लगाई, उल्टे प्यार से अपने पास बिठाया और मुझसे कहा –
‘बेटे ! ये दुनिया न तो तुम्हारी मर्ज़ी से चलती है और न ही अक़ील की. तुम
अब ख़ुद अक़ील के रास्ते पर जा रहे हो. इस हादसे के बाद भी क्या तुम अक़ील से मिलोगे?’
पिछले दो महीने से मेरी दृष्टि में खलनायक बने हुए पिताजी मुझे फिर अपने
से लगने लगे. उनके गले लगकर मैं खूब रोया. पिताजी ने मुझसे कोई वचन नहीं लिया पर
मैंने खुद ही अक़ील को अपनी ज़िन्दगी से हमेशा-हमेशा के लिए निकाल दिया.
अक़ील पिताजी के पीछे चोरी-छिपे मुझसे और माँ से मिलने के लिए हमारे घर
आता था पर अब हम दोनों में से कोई भी उस से मिलता नहीं था. अक़ील चिल्ला-चिल्ला कर
हम दोनों को बुलाता था और हमारे नहीं आने पर घर के बाहर ही बैठकर अपनी सुरीली आवाज़
में एकाद गाने गाकर चला जाता था. अक्सर वो हमारी तरफ़ इशारा करके गाता था –
‘बेवफ़ा ये तेरा मुस्कुराना, याद आने के क़ाबिल
नहीं है.’
या
–
‘परदेसियों से न अँखियाँ मिलाना.’
इतवार के दिन ‘पगलैट’ कहने पर किसी का सर
फोड़कर अक़ील हमारे बंगले में आ गया. पीछ-पीछे चार पुलिस वाले भी आ गए. पिताजी ने
अक़ील को हुक्म दिया कि वो चुपचाप सिपाहियों के साथ चला जाय. अक़ील बोला –
‘पिता हुज़ूर, एक बार विन्नी भैया से मिलवा दीजिए. आप कहेंगे तो
फिर मैं फांसी पर भी चढ़ जाऊँगा.’
पिताजी ने कहा – ‘तुम्हारा विन्नी भैया तुमसे नहीं मिलेगा.
यह मेरा नहीं, उसका फ़ैसला है.’
अक़ील ‘विन्नी भैया, विन्नी भैया’ का शोर मचाता रहा.
उसे पकड़ने की कोशिश करने वाले दो सिपाहियों को वह ज़मीन पर पटक चुका था. अब उस पर
डंडों के वार होने लगे. उसके सर से खून बहने लगा. सिपाहियों ने उसे हथकड़ी पहना दी.
डंडों की दनादन मार खाते हुए भी वो ‘विन्नी भैया, विन्नी भैया’ चिल्लाता रहा पर
पत्थर बना मैं ये नज़ारा अपने कमरे की खिड़की से ही देखता रहा, बाहर निकला तक
नहीं.
तीन महीने अक़ील जेल में रहा. पिताजी के प्रयास से जेल में उसके साथ बहुत
नरमी बरती गयी. क़ुतुब अली ने हमको बताया कि जेल-प्रवास में अक़ील का दिमाग बहुत कुछ
दुरुस्त हो गया था. अब वह इधर-उधर गाने गाकर अपना गुज़ारा करने के भी क़ाबिल हो गया
था. जेल से छूटने के कुछ दिन बाद ही अक़ील अपने पिता हुज़ूर के दरबार में हाज़िर हो
गया. आश्चर्य कि पिताजी उस से बड़े प्यार से मिले और उन्होंने उसे उसकी अम्मी हुज़ूर
से भी मिलवा दिया. पर उसका विन्नी भैया तो उस से रूठा था तो रूठा ही रहा.
अक़ील मियां पिता हुज़ूर और अम्मी हुज़ूर को गाना सुनाते थे, उनके लिए क़व्वाली
गाते थे,
अम्मी
हुज़ूर का लाया नाश्ता खाते थे और अपने विन्नी भैया से मिलने की नाकाम कोशिश के बाद
उन्हें बेरहम बादशाह औरंगज़ेब कहके फिर उनके घर पर कभी पैर न रखने की क़सम खाकर एकाद
दिन बाद फिर हाज़िर हो जाते थे.
मेरा इंटर फाइनल था. फर्स्ट ईयर में अक़ील की वजह से मेरी पढ़ाई का बहुत
नुकसान हुआ था. डैमेज कंट्रोल की मेरी हर कोशिश बेकार गयी और मैं फर्स्ट क्लास
लाने के बजाय 59% पर अटक गया. मैंने अपनी नाकामी का ठीकरा अक़ील पर
ठोक दिया. बात निहायत ग़लत थी पर उस समय मुझे अपनी नाकामी के लिए यह जस्टिफिकेशन
बिल्कुल सही लग रहा था.
पिताजी का ट्रांसफ़र झाँसी हो गया था. हम झाँसी के लिए रवाना हो रहे थे तो
अक़ील भी हमको छोड़ने स्टेशन पर आया था. उसने अपने पिता हुज़ूर और अपनी अम्मी हुज़ूर
के पैर छुए, उनका आशीर्वाद प्राप्त किया पर अपने विन्नी भैया
की नज़रे-इनायत से वह महरूम ही रहा. हमारी ट्रेन चली तो मैंने कनखियों से देखा कि
अक़ील अपनी आँखें पोंछते हुए हमारी ट्रेन के साथ भाग रहा है और कहता जा रहा है -
'बाय, बाय विन्नी भैया, बाय बाय विन्नी
भैया!'
. फिर पता नहीं क्या हुआ कि मैंने अक़ील की तरफ़
मुखातिब होकर उस से 'बाय, बाय' कह कर बाक़ायदा विदा
ली. अक़ील के चेहरे पे खुशी देखने लायक़ थी. साल भर से भी ज़्यादा अरसे के बाद उस से
रूठे हुए विन्नी भैया ने उसे फिर से पहचाना था.
करीब आठ साल बाद अपने एक दोस्त की शादी में शामिल होने के लिए मैं
बाराबंकी गया. पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरी अक़ील से वहां मुलाक़ात हो
सकती है. मैं अपने दोस्त के साथ बाज़ार में घूम रहा था कि एक चिर-परिचित आवाज़ आई – ‘विन्नी भैया !’
मैं मुड़ा तो देखा कि कव्वालों वाली टोपी,शेरवानी और चूड़ीदार
पाजामे में सजे अक़ील मियां खड़े हैं. बहुत देर तक हमारा भरत-मिलाप हुआ. बिना
गिले-शिक़वे के तमाम बातें हुईं. ‘अक़ील पगला’ अब बाराबंकी के एक
मशहूर क़व्वाल थे. उनकी बीबी सक़ीना और उनकी बेटी फ़ातिमा उनके पास वापस आ चुकी थीं
और वह दुष्ट चेयरमैन दोज़खनशीन हो चुका था.
इस कहानी का अंत बहुत नाटकीय था पर इसकी वजह से जो खुशी मुझे हुई थी उसको
मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता. सबसे अच्छी बात तो यह थी कि अब इस बात का कोई
अंदेशा नहीं था कि अक़ील मियां मुझे देख कर गा उठें –
‘बेवफ़ा ये तेरा मुस्कराना, याद आने के क़ाबिल नहीं है.’
सोमवार, 20 दिसंबर 2021
लेडीज़ फ़र्स्ट
फ़ेसबुक पर मेरे
मित्र प्रोफ़ेसर हितेंद्र पटेल ने पिछले साल की अपनी एक पोस्ट में हर जगह
महिलाओं-लड़कियों को प्राथमिकता दिए जाने पर आपत्ति की थी.
मैं भी उनके
इस विचार से सहमत हूँ कि हर जगह ‘लेडीज़ फ़र्स्ट’ का नारा बुलंद किये जाने की ज़रुरत नहीं है.
यह सही है कि
स्त्री-दमन और स्त्री-शोषण, विश्व-इतिहास का, ख़ास कर भारतीय इतिहास का, सबसे कलुषित अध्याय है लेकिन इसके खिलाफ़ हम
पूरी तरह से उल्टी गंगा बहा कर एक स्त्री-प्रधान समाज को स्थापित कर न तो
स्त्रियों को समाज में यथोचित अधिकार दिला सकेंगे और न ही उन्हें निर्बाध उन्नति
करने का अवसर प्रदान करा पाएंगे.
मध्यकालीन
यूरोप में नाइट्स की शौर्य-गाथाओं में उनकी शिवैलरी (नारी-रक्षण की भावना) की
अनगिनत कहानियां प्रचलित थीं.
इन्ही नाइट्स
की तरह हमारे आज के बॉलीवुड के हीरोज़ भी खलनायकों के चंगुल में फंसी नायिका का
उद्धार करने के लिए कहीं से भी अवतरित हो जाते हैं.
बस में या
ट्रेन में किसी महिला को खड़ा देख कर किसी पुरुष द्वारा अपनी सीट उसे देना सभ्यता
की निशानी मानी जाती है.
किसी टिकट
विंडो पर भले ही महिलाओं के लिए अलग पंक्ति की व्यवस्था न हो पर उनको आउट ऑफ़ टर्न
टिकट तो मिल ही जाता है.
औरत को मोम की
गुड़िया समझना या उसे रुई के फाहे में महफ़ूज़ रखने की कोई कोशिश करना मूर्खता है.
बिना किसी के
सहारे चुनौतियों का सामना करने की क्षमता पुरुष का एकाधिकार नहीं है.
स्त्रियाँ भी
स्वयं-सिद्धा बन कर कठिन से कठिन मुश्किलों का सफलतापूर्वक सामना कर सकती हैं और
उन पर जीत हासिल कर सकती हैं.
आजकल
नारी-उत्थान के स्व-घोषित मसीहा हर क्षेत्र में स्त्रियों को आरक्षण दिए जाने की
सिफ़ारिश करते हैं.
बकौल लालू
प्रसाद यादव, नारी-उत्थान की एक अभूतपूर्व मिसाल उन्होंने तब क़ायम की थी जब बिहार के
मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी छिन जाने की स्थिति में उन्होंने अपनी लगभग काला अक्षर
भैंस बराबर श्रीमती जी, राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दिया था.
मेरी दृष्टि
में नारी-उत्थान के नाम पर इतना फूहड़ और वीभत्स मज़ाक कोई दूसरा नहीं हो सकता था.
बिना किसी की
योग्यता जांचे, बिना उसकी सामर्थ्य का समुचित आकलन किये, किसी की थाली में कोई महत्वपूर्ण पद परोस
देना तो अन्याय है.
यह अन्याय
सिर्फ़ दूसरों के साथ ही नहीं है, बल्कि उसके साथ भी है जिस पर कि ऐसी कृपा
बरसाई गयी है.
बहुत से
अभिभावक अपनी बेटियों को कोई भी दुष्कर कार्य नहीं सौंपते हैं. अगर बेटियों को
कहीं बाहर जाना हो तो उसके साथ घर के किसी पुरुष का जाना ज़रूरी समझा जाता है.
मेरे
अल्मोड़ा-प्रवास में मेरी बड़ी बेटी गीतिका ने दिल्ली में रह कर बीएस० सी० और एमएस० सी०
किया और छोटी बेटी रागिनी ने पन्त नगर से बी० टेक० और फिर आईएमआई दिल्ली से एम० बी०
ए० किया.
मेरी दोनों
बेटियां अपने दम पर अल्मोड़ा से दिल्ली तक का सफ़र अकेले ही करती रहीं. उनके पापा को
या उनकी मम्मी को कभी भी उनका बॉडी गार्ड बनने की ज़रुरत नहीं पड़ी. एक मज़े की बात बताऊँ – एम० बी० ए०
में टॉप करने वाली रागिनी के एम० बी० ए० करने के दौरान मैंने एक बार भी आईएमआई दिल्ली में क़दम नहीं रखा था.
मेरी दोनों
बेटियों को पता था कि उन्हें ख़ुद को किस तरह सुरक्षित रखना है और इसके लिए
क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी हैं.
अपने पैरों पर
खड़े होने के बाद अपने रहने की व्यवस्था भी हमेशा उन्होंने ख़ुद ही की. यहाँ तक कि
उनकी शादियाँ भी हम पति-पत्नी की टांग अड़ाए बिना ही सफलतापूर्वक संपन्न हो गईं.
पुरुषों का, लड़कों का, चरित्र बड़ा
दो-रंगा होता है.
अपने घर के
किसी बच्चे को दो मिनट के लिए भी गोदी में न उठाने वाला कोई मर्द अक्सर किसी सूरतक़ुबूल
अपरिचित महिला का पचास किलो बोझा उठाने को भी तैयार मिल सकता है.
इस बोझा उठाने
वाली बात पर एक सच्चा किस्सा –
1994 में मैं अपने
विद्याथियों का एजुकेशनल टूर लेकर अल्मोड़ा से राजस्थान जा रहा था. टूर में
विद्यार्थियों के पास पैसे की किल्लत को देख कर मैंने यह घोषणा कर दी कि हम कहीं
भी कुली नहीं करेंगे और हर कोई अपना-अपना सामान ख़ुद उठाएगा.
हमारे कुछ
उत्साही लड़के लपक कर लड़कियों का सामान उठाने लगते थे जब कि अपने
गुरु जी को ख़ुद का सूटकेस और बैग उठाते देख उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी.
मेरे इस
हिटलरी फ़रमान –
‘हर कोई अपना सामान ख़ुद उठाएगा और कोई भी किसी दूसरे का सामान क़तई नहीं उठाएगा.
मेरा यह हुक्म न मानने वाले को टूर से बाहर कर दिया जाएगा.’
सभी लड़कियों
ने तो रास्ते भर आराम से अपना सामान ख़ुद उठाया लेकिन हमारे उत्साही स्वयंसेवक
बालकों की शिवैलरी दिल की दिल में ही रह गयी.
मेट्रोज़ में, बसों में, वरिष्ठ
नागरिकों के लिए कुछ सीट्स आरक्षित होती हैं. एक वरिष्ठ नागरिक होने के नाते मैं
ऐसी किसी सीट पर बैठना अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझता हूँ.
खचाखच भरी
मेट्रो या बस में वरिष्ठ नागरिक के लिए आरक्षित सीट पर अगर कोई लड़का बैठा हो या
कोई लड़की भी बैठी हो तो उसे हटा कर उस सीट पर बैठने में मैं कभी संकोच नहीं करता.
अगर हम सच्चे
अर्थ में नारी-हितैषी हैं तो हमको स्त्रियों को विशेष अधिकार और अतिरिक्त सुविधाएँ
देने के स्थान पर उनकी उन्नति के मार्ग में अनादि काल से डाले जा रहे रोड़े हटाने
चाहिए और सभी क्षेत्रों में उन्हें पुरुषों के समान अपनी योग्यता सिद्ध करने का
अवसर दिलाना चाहिए.
हमारे देश का
यह दुर्भाग्य है कि आज भी समाज में उन पोंगापंथियों का और पुरातनपंथियों का
बाहुल्य है जिन्हें अपने समाज की पुरानी सड़ी-गली स्त्री-विरोधी परम्पराओं के अंध-निर्वहन
में ही सबका कल्याण दिखाई देता है.
किन्तु
प्रगतिशीलता के नाम पर इस सामाजिक रोग का निदान स्त्रियों पर अनावश्यक और
अप्रत्याशित सुविधाएँ लुटा कर नहीं किया जा सकता.
सबको उन्नति
का एक समान अवसर प्रदान करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए.
एक बात स्त्रियों-लड़कियों
के पैत्रिक संपत्ति पर अपने भाइयों के बराबर अधिकार पर !
माँ-बाप की
संपत्ति में बेटे-बेटी के समान अधिकार की प्रगतिशील विचारधारा स्वागत किये जाने के
योग्य है लेकिन ऐसा करते समय बूढ़े और असमर्थ माँ-बाप के प्रति बेटे और बेटी के
कर्तव्य भी एक समान ही निर्धारित होने चाहिए.
किसी भी
व्यवस्था में, चाहे वह धार्मिक हो, सामाजिक हो, आर्थिक हो, शैक्षिक हो अथवा राजनीतिक हो, भेद-भाव और असमानता का लेशमात्र अंश भी नहीं
होना चाहिए और न ही किसी को जाति-धर्म के आधार पर, न ही किसी को क्षेत्र के नाम पर, न ही किसी को
स्त्री होने के आधार पर आरक्षण का, या विशेष सुविधाओं का या फिर कैसी भी
रियायतों का तोहफ़ा मिलना चाहिए.