जैन
परिवारों में आम तौर पर शाकाहार जीवन का एक अभिन्न अंग होता है. जैनों में शाकाहार
का मतलब होता है – बिना
लहसुन-प्याज़ का बना भोजन.
पुराने
ज़माने में हमारे परिवार की ज़्यादा भक्त किस्म की महिलाएं तो अशुद्धता के भय से
बाज़ार से लाया गया कुछ भी पकवान खाती ही नहीं थीं और उन से निचले दर्जे की
भक्तिनें अपनी शुद्धता के लिए प्रतिष्ठित हलवाइयों की दुकानों से लाए गए पकवानों
के अलावा किसी बाहरी व्यंजन को हाथ भी नहीं लगाती थीं. लेकिन हमारे परिवार के
बेचारे मर्द इस तरह के कठोर नियमों का पालन करने में प्रायः असमर्थ हुआ करते थे.
पढ़ाई के सिलसिले में उन्हें घर से बाहर रहना पड़ता था और तब जो भी और जैसा भी
शाकाहारी भोजन उन्हें मिलता था उसे बिना चूं-चपड़ किए ही उन्हें खाना पड़ता था.
हमारे
बाबा गौंडा में डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर और सेक्रेटरी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड थे. अक्सर
उन्हें दौरे पर भी जाना होता था. छोटे दौरों में उनकी कार में एक बड़ा सा टिफ़िन साथ
हुआ करता था और बड़े दौरों में उनके साथ उनका भक्तनुमा रसोइया साथ जाया करता था.
अपने
लिए रसोइए का चयन करने के लिए बाबा की शर्तें बड़ी सख्त हुआ करती थीं. बाबा को एक
बार रसोइए की दरकार थी. उनके मित्र डिप्टी कलेक्टर सक्सेना जी ने उनके लिए एक
महाराज भेजा.
महाराज
से बाबा का पहला सवाल था –
‘बिना
लहसुन-प्याज़ का शाकाहारी खाना बना लेते हो?’
महाराज
का जवाब था –
‘हुजूर, कानपुर में हम एक ठो जैनी
सेठ के यहाँ तीन साल खाना बनाय चुके हैं.’
बाबा
का दूसरा सवाल था –
‘ख़ुद
मांस-अंडा तो नहीं खाते हो?’
महाराज
ने हाथ जोड़कर कहा –
‘हम
तो कंठी लिए हैं साहेब ! अंडा-मांस कबहूँ नहीं खाया और बिना पूजा-पाठ किए अन्न को
भी हम हाथ नाहीं लगात हैं.’
बाबा
ने फ़रमाया –
‘ठीक
है महाराज, तुम
कल से ही काम पर लग जाओ. वैसे तुम सबसे अच्छा क्या पका लेते हो?’
महाराज
ने शेखी बघारते हुए कहा –
‘अब
का, का
बताई अरु का, का
गिनाई ! रोटी, पराठा, पूरी, सब्जी, दाल-बाटी, चूरमा, लड्डू सब बनाय लेत हैं. और
साहेब, पूरे
गौंडा में हमतें नीक माछी-भात कौनों नाहीं बनाय सकत है.’
बाबा
अपना त्रिनेत्र खोलकर दहाड़े –
‘माछी-भात? तू तो ख़ुद को भगत बता रहा
था, अब
ये माछी-भात कहाँ से आ गया?’
महाराज
ने उन्हें समझाया –
‘साहेब, माछी में कौनों दोस नाहीं
होत है. बंगाले में तो माछी को जल- तुरई कहत हैं.’
अगला
दृश्य क़तई अहिंसक नहीं था. जल-तुरई पकाने में निष्णात महाराज आगे-आगे भाग रहे थे
और बेंत लिए हुए हमारे बाबा उनके पीछे-पीछे.
महाराज-प्रेषक बेचारे सक्सेना डिप्टी कलेक्टर को भी काफ़ी दिनों तक हमारे बाबा से अपने लिए जान का खतरा बना रहा.
महाराज-प्रेषक बेचारे सक्सेना डिप्टी कलेक्टर को भी काफ़ी दिनों तक हमारे बाबा से अपने लिए जान का खतरा बना रहा.
पिताजी
ने कानपूर के डी. ए. वी. कॉलेज से बी. ए. किया था. उनके हॉस्टल में शुद्ध शाकाहारी
भोजन की उत्तम व्यवस्था थी. लखनऊ विश्वविद्यालय में उन्होंने एम. ए. इंग्लिश और
एलएल. बी. में एक साथ प्रवेश लिया और हमारे बड़े चाचाजी ने बीएस. सी. में. उन दोनों
के हीवेट हॉस्टल में शुद्ध शाकाहारी भोजन की व्यवस्था नहीं थी. इसके लिए हमारे
बाबा ने उन दोनों के लिए अलग से एक महाराज की व्यवस्था करा दी.
द्वितीय
विश्वयुद्ध के दौरान बेकारी ने सुरसा जैसा मुंह फाड़ लिया था. पिताजी जैसे इंग्लिश
में एम. ए. और साथ में एलएल. बी. के टॉपर को भी मन-पसंद नौकरी नहीं मिल रही थी.
आख़िरकार अम्मा और माँ की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने आर्मी में जाने का फ़ैसला कर
लिया. शॉर्ट सर्विस कमीशन के लिए उनका तुरंत बुलावा भी आ गया. पिताजी ने इंटरव्यू
में अधिकारियों का दिल जीत लिया. जल्द ही पिताजी को नियुक्ति पत्र भेजे जाने की
बात भी हो गयी. लेकिन अब पिताजी ने सैनिक अधिकारियों पर एक सवाल दाग दिया –
‘सर, आर्मी मेस में हमारे जैसे
वेजीटेरियंस के लिए क्या इंतज़ाम होता है?’
एक अधिकारी ने जवाब दिया –
एक अधिकारी ने जवाब दिया –
‘आर्मी
मेस में भी वेजीटेरियन फ़ूड बनता है. तुमको इस मामले में फ़िक्र करने की ज़रुरत नहीं
है.’
अब
पिताजी का दूसरा सवाल था –
‘सर, क्या कोई ऐसा मेस भी होता
है जिसमें एक्सक्लूसिवली वेजीटेरियन फ़ूड बनता हो? मैं ऐसे मेस में तो खाना खा
ही नहीं सकता जहाँ नॉन-वेज बनता हो.’
उस
ऑफ़िसर ने मुस्कुराते हुए पूछा –
‘नौजवान
! हम तुम्हारा इंटरव्यू ले रहे हैं या तुम हमारा इंटरव्यू ले रहे हो? अगर तुम ऐसे पक्के
वेजीटेरियन हो तो फिर आर्मी को अभी से गुड बाय कर दो.’
और
पिताजी आर्मी को गुड बाय करके खाली हाथ लौट आए.
माँ
और पिताजी ने अपनी ज़िंदगी में कभी किसी ऐसी दावत का लुत्फ़ नहीं उठाया जहाँ कि अंडा, मांस, मछली आदि परोसे भी गए हों.
पिताजी
जब दौरे पर जाते थे तो घर से मोइन पड़ी ढेर सारी पूड़ियाँ, बेड़मी और अचार साथ ले जाते
थे और फिर कहीं भी किसी हलवाई के यहाँ से दही खरीद कर मज़े से सात्विक भोजन कर लिया
करते थे.
रायबरेली
के जिलाधीश मुर्तज़ा साहब का पिताजी के प्रति बड़ा स्नेह था. होली पर मुर्तज़ा साहब
सपत्नीक हमारे घर पधारे और उन्होंने माँ के हाथों बने पकवान का आनंद उठाया. अब जब
ईद आई तो माँ-पिताजी को मुबारकबाद देने मुर्तज़ा साहब के यहाँ जाना पड़ा. मुर्तज़ा
साहब माँ-पिताजी की मुश्किल समझते थे. उन्होंने उनका स्वागत सिर्फ़ केले, संतरे और अंगूर खिलाकर किया
ताकि उन्हें छीलने के लिए उनके घर के चाकू-छुरी का भी इस्तेमाल न हो.
हमारे
विद्यार्थी जीवन में हॉस्टल मेस में इतवार के लंच में सामिष भोजन की परंपरा थी. हम
लोग उस दिन हॉस्टल मेस का खाना खाते ही नहीं थे. मैं तो इतवार के दिन अमीनाबाद
जाकर नेतराम हलवाई की पूरियां खाता था और फिर उन्हें हज़म करने के लिए फ़िल्म देखता
था.
माँ-पिताजी
लहसुन-प्याज़ पड़े भोजन को सामिष भोजन से कम खतरनाक नहीं समझते थे. हॉस्टल के मेस
में हम लोगों को मजबूरन लहसुन-प्याज़ पड़े खाने से ही अपना पेट भरना पड़ता था. माँ तो
चाहती थीं कि हम लोग रोज़ अमीनाबाद जाकर नेतराम हलवाई की पूरियां ही उड़ाएं. अब
चूंकि हम ऐसा नहीं करते थे तो उनकी दृष्टि में हमारा भ्रष्ट होना तो तय ही था.
मुझे
छोड़कर मेरे सभी भाई और मेरी बहन कई साल सपरिवार विदेश में रहे थे. पिताजी को हमेशा
यही फ़िक्र रहती थी कि कहीं उनके बच्चे विलायत जाकर खान-पान में भ्रष्ट न हो जाएं.
उनके लिए अच्छी बात यह थी कि उनके सभी बच्चे विदेश में भी महा-शाकाहारी बने रहे.
हमारे
एक चाचाजी शाकाहारी तो थे लेकिन केक, पेस्ट्री और आइसक्रीम खाते
समय ये कभी नहीं पूछते थे कि उनमें अंडा पड़ा है कि नहीं. पिताजी उन्हें खुलेआम
भ्रष्ट चटोरा कहा करते थे.
हमारे
एक और चाचाजी थे जिन्हें उनके एक दोस्त ने आलू की टिक्की बताकर कबाब खिला दिए थे.
खैर, धोखे
से कुछ भी खा लेना क्षम्य था लेकिन जब उन कबाब-खोर चाचा जी ने पिताजी के सामने
स्वादिष्ट कबाब की शान में कसीदे पढ़ने शुरू किए तो पिताजी ने उनके कान पकड़ कर
उन्हें घर से बाहर निकाल दिया.
घर
का सबसे छोटा और सबसे उत्पाती सदस्य होने के कारण मैं पिताजी से भी बहुत लिबर्टी
ले लिया करता था. मेरी शादी से पहले माँ-पिताजी अल्मोड़ा आए थे. हम लोग बाहर घूम कर
अल्मोड़ा वापस आ रहे थे. रास्ते में गरम पानी पर हमको लंच लेना था. वहां हर भोजनालय
में सब्जी-दाल में लहसुन प्याज़ था. एक हलवाई पूरी बना रहा था. साथ में थे आलू के
गुटके और ककड़ी का रायता. रायता तो ठीक पर आलू के गुटके में प्याज़-लहसुन पड़ा था.
मैंने आलू के गुटकों को पानी से धुलवाकर और उन्हें दुबारा छुंकवा कर, काम-चलाऊ शुद्ध करवा लिया.
पिताजी ने अपने मुंह में पहला कौर रखते ही आलू के गुटके रिजेक्ट कर दिए लेकिन माँ
ने मेरी बात का भरोसा कर के उन्हें शुद्ध मानकर खा लिया.
बाद
में मेरी मक्कारी पकड़ी गयी. पिताजी को बड़ा अफ़सोस हुआ था कि वो तीन साल पहले ही सी.
जे. एम. के पद से रिटायर क्यों हो गए. अगर वो उन दिनों भी सी. जे. एम. होते तो
उनका और माँ का धर्म भ्रष्ट करने के इल्ज़ाम में मुझे 2-3 साल के लिए तो वो अन्दर
करवा ही देते.
2016 में हम पति-पत्नी 12 दिन के पैकेज टूर पर यूरोप गए थे. हमको इंग्लैंड, फ़्रांस, स्विटज़रलैंड
और इटली, सब जगह भारतीय भोजनालयों में बिना
लहसुन-प्याज़ वाली स्वादिष्ट जैन थाली सर्व की गयी. लेकिन रोम से दिल्ली आते समय
वायुयान में हमको जैन-मील के नाम पर एक पाव के साथ उबला पालक, उबली बीन्स और उबले छोले दिए गए. इस से बुरा खाना
हमने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं खाया था.
आज
खान-पान के मूल्य बदल गए हैं हमारे परिवार के सभी मूल-सदस्य आज भी शाकाहारी हैं
लेकिन परिवार में शामिल बहुओं और दामादों के विषय में इस नियम का लागू रह पाना
पूरी तरह संभव नहीं है.
मैं
यह कल्पना कर के भी काँप जाता हूँ कि हमारे बाबा, पिताजी या माँ आज खान-पान
का बदला माहौल देखते तो वो क्या करते?
किस-किसको वो भ्रष्ट कहते, किस-किस चटोरे कबाबखोरे को, उसके कान पकड़ कर, वो उसे अपने घर से बाहर
निकालते और किस-किस धोखेबाज़ को अपना धर्म भ्रष्ट करने के इल्ज़ाम में वो जेल
भिजवाते?