मंगलवार, 16 जुलाई 2019

शाकाहार



जैन परिवारों में आम तौर पर शाकाहार जीवन का एक अभिन्न अंग होता है. जैनों में शाकाहार का मतलब होता है बिना लहसुन-प्याज़ का बना भोजन.
पुराने ज़माने में हमारे परिवार की ज़्यादा भक्त किस्म की महिलाएं तो अशुद्धता के भय से बाज़ार से लाया गया कुछ भी पकवान खाती ही नहीं थीं और उन से निचले दर्जे की भक्तिनें अपनी शुद्धता के लिए प्रतिष्ठित हलवाइयों की दुकानों से लाए गए पकवानों के अलावा किसी बाहरी व्यंजन को हाथ भी नहीं लगाती थीं. लेकिन हमारे परिवार के बेचारे मर्द इस तरह के कठोर नियमों का पालन करने में प्रायः असमर्थ हुआ करते थे. पढ़ाई के सिलसिले में उन्हें घर से बाहर रहना पड़ता था और तब जो भी और जैसा भी शाकाहारी भोजन उन्हें मिलता था उसे बिना चूं-चपड़ किए ही उन्हें खाना पड़ता था.
हमारे बाबा गौंडा में डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर और सेक्रेटरी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड थे. अक्सर उन्हें दौरे पर भी जाना होता था. छोटे दौरों में उनकी कार में एक बड़ा सा टिफ़िन साथ हुआ करता था और बड़े दौरों में उनके साथ उनका भक्तनुमा रसोइया साथ जाया करता था.
अपने लिए रसोइए का चयन करने के लिए बाबा की शर्तें बड़ी सख्त हुआ करती थीं. बाबा को एक बार रसोइए की दरकार थी. उनके मित्र डिप्टी कलेक्टर सक्सेना जी ने उनके लिए एक महाराज भेजा.
महाराज से बाबा का पहला सवाल था
बिना लहसुन-प्याज़ का शाकाहारी खाना बना लेते हो?’
महाराज का जवाब था
हुजूर, कानपुर में हम एक ठो जैनी सेठ के यहाँ तीन साल खाना बनाय चुके हैं.
बाबा का दूसरा सवाल था
ख़ुद मांस-अंडा तो नहीं खाते हो?’
महाराज ने हाथ जोड़कर कहा
हम तो कंठी लिए हैं साहेब ! अंडा-मांस कबहूँ नहीं खाया और बिना पूजा-पाठ किए अन्न को भी हम हाथ नाहीं लगात हैं.
बाबा ने फ़रमाया
ठीक है महाराज, तुम कल से ही काम पर लग जाओ. वैसे तुम सबसे अच्छा क्या पका लेते हो?’
महाराज ने शेखी बघारते हुए कहा
अब का, का बताई अरु का, का गिनाई ! रोटी, पराठा, पूरी, सब्जी, दाल-बाटी, चूरमा, लड्डू सब बनाय लेत हैं. और साहेब, पूरे गौंडा में हमतें नीक माछी-भात कौनों नाहीं बनाय सकत है.
बाबा अपना त्रिनेत्र खोलकर दहाड़े
माछी-भात? तू तो ख़ुद को भगत बता रहा था, अब ये माछी-भात कहाँ से आ गया?’
महाराज ने उन्हें समझाया
साहेब, माछी में कौनों दोस नाहीं होत है. बंगाले में तो माछी को जल- तुरई कहत हैं.
अगला दृश्य क़तई अहिंसक नहीं था. जल-तुरई पकाने में निष्णात महाराज आगे-आगे भाग रहे थे और बेंत लिए हुए हमारे बाबा उनके पीछे-पीछे.
महाराज-प्रेषक बेचारे सक्सेना डिप्टी कलेक्टर को भी काफ़ी दिनों तक हमारे बाबा से अपने लिए जान का खतरा बना रहा.
पिताजी ने कानपूर के डी. ए. वी. कॉलेज से बी. ए. किया था. उनके हॉस्टल में शुद्ध शाकाहारी भोजन की उत्तम व्यवस्था थी. लखनऊ विश्वविद्यालय में उन्होंने एम. ए. इंग्लिश और एलएल. बी. में एक साथ प्रवेश लिया और हमारे बड़े चाचाजी ने बीएस. सी. में. उन दोनों के हीवेट हॉस्टल में शुद्ध शाकाहारी भोजन की व्यवस्था नहीं थी. इसके लिए हमारे बाबा ने उन दोनों के लिए अलग से एक महाराज की व्यवस्था करा दी.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बेकारी ने सुरसा जैसा मुंह फाड़ लिया था. पिताजी जैसे इंग्लिश में एम. ए. और साथ में एलएल. बी. के टॉपर को भी मन-पसंद नौकरी नहीं मिल रही थी. आख़िरकार अम्मा और माँ की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने आर्मी में जाने का फ़ैसला कर लिया. शॉर्ट सर्विस कमीशन के लिए उनका तुरंत बुलावा भी आ गया. पिताजी ने इंटरव्यू में अधिकारियों का दिल जीत लिया. जल्द ही पिताजी को नियुक्ति पत्र भेजे जाने की बात भी हो गयी. लेकिन अब पिताजी ने सैनिक अधिकारियों पर एक सवाल दाग दिया
सर, आर्मी मेस में हमारे जैसे वेजीटेरियंस के लिए क्या इंतज़ाम होता है?’
एक अधिकारी ने जवाब दिया
आर्मी मेस में भी वेजीटेरियन फ़ूड बनता है. तुमको इस मामले में फ़िक्र करने की ज़रुरत नहीं है.
अब पिताजी का दूसरा सवाल था
सर, क्या कोई ऐसा मेस भी होता है जिसमें एक्सक्लूसिवली वेजीटेरियन फ़ूड बनता हो? मैं ऐसे मेस में तो खाना खा ही नहीं सकता जहाँ नॉन-वेज बनता हो.
उस ऑफ़िसर ने मुस्कुराते हुए पूछा
नौजवान ! हम तुम्हारा इंटरव्यू ले रहे हैं या तुम हमारा इंटरव्यू ले रहे हो? अगर तुम ऐसे पक्के वेजीटेरियन हो तो फिर आर्मी को अभी से गुड बाय कर दो.
और पिताजी आर्मी को गुड बाय करके खाली हाथ लौट आए.
माँ और पिताजी ने अपनी ज़िंदगी में कभी किसी ऐसी दावत का लुत्फ़ नहीं उठाया जहाँ कि अंडा, मांस, मछली आदि परोसे भी गए हों.
पिताजी जब दौरे पर जाते थे तो घर से मोइन पड़ी ढेर सारी पूड़ियाँ, बेड़मी और अचार साथ ले जाते थे और फिर कहीं भी किसी हलवाई के यहाँ से दही खरीद कर मज़े से सात्विक भोजन कर लिया करते थे.
रायबरेली के जिलाधीश मुर्तज़ा साहब का पिताजी के प्रति बड़ा स्नेह था. होली पर मुर्तज़ा साहब सपत्नीक हमारे घर पधारे और उन्होंने माँ के हाथों बने पकवान का आनंद उठाया. अब जब ईद आई तो माँ-पिताजी को मुबारकबाद देने मुर्तज़ा साहब के यहाँ जाना पड़ा. मुर्तज़ा साहब माँ-पिताजी की मुश्किल समझते थे. उन्होंने उनका स्वागत सिर्फ़ केले, संतरे और अंगूर खिलाकर किया ताकि उन्हें छीलने के लिए उनके घर के चाकू-छुरी का भी इस्तेमाल न हो.
हमारे विद्यार्थी जीवन में हॉस्टल मेस में इतवार के लंच में सामिष भोजन की परंपरा थी. हम लोग उस दिन हॉस्टल मेस का खाना खाते ही नहीं थे. मैं तो इतवार के दिन अमीनाबाद जाकर नेतराम हलवाई की पूरियां खाता था और फिर उन्हें हज़म करने के लिए फ़िल्म देखता था.
माँ-पिताजी लहसुन-प्याज़ पड़े भोजन को सामिष भोजन से कम खतरनाक नहीं समझते थे. हॉस्टल के मेस में हम लोगों को मजबूरन लहसुन-प्याज़ पड़े खाने से ही अपना पेट भरना पड़ता था. माँ तो चाहती थीं कि हम लोग रोज़ अमीनाबाद जाकर नेतराम हलवाई की पूरियां ही उड़ाएं. अब चूंकि हम ऐसा नहीं करते थे तो उनकी दृष्टि में हमारा भ्रष्ट होना तो तय ही था.
मुझे छोड़कर मेरे सभी भाई और मेरी बहन कई साल सपरिवार विदेश में रहे थे. पिताजी को हमेशा यही फ़िक्र रहती थी कि कहीं उनके बच्चे विलायत जाकर खान-पान में भ्रष्ट न हो जाएं. उनके लिए अच्छी बात यह थी कि उनके सभी बच्चे विदेश में भी महा-शाकाहारी बने रहे.
हमारे एक चाचाजी शाकाहारी तो थे लेकिन केक, पेस्ट्री और आइसक्रीम खाते समय ये कभी नहीं पूछते थे कि उनमें अंडा पड़ा है कि नहीं. पिताजी उन्हें खुलेआम भ्रष्ट चटोरा कहा करते थे.
हमारे एक और चाचाजी थे जिन्हें उनके एक दोस्त ने आलू की टिक्की बताकर कबाब खिला दिए थे. खैर, धोखे से कुछ भी खा लेना क्षम्य था लेकिन जब उन कबाब-खोर चाचा जी ने पिताजी के सामने स्वादिष्ट कबाब की शान में कसीदे पढ़ने शुरू किए तो पिताजी ने उनके कान पकड़ कर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया.
घर का सबसे छोटा और सबसे उत्पाती सदस्य होने के कारण मैं पिताजी से भी बहुत लिबर्टी ले लिया करता था. मेरी शादी से पहले माँ-पिताजी अल्मोड़ा आए थे. हम लोग बाहर घूम कर अल्मोड़ा वापस आ रहे थे. रास्ते में गरम पानी पर हमको लंच लेना था. वहां हर भोजनालय में सब्जी-दाल में लहसुन प्याज़ था. एक हलवाई पूरी बना रहा था. साथ में थे आलू के गुटके और ककड़ी का रायता. रायता तो ठीक पर आलू के गुटके में प्याज़-लहसुन पड़ा था. मैंने आलू के गुटकों को पानी से धुलवाकर और उन्हें दुबारा छुंकवा कर, काम-चलाऊ शुद्ध करवा लिया. पिताजी ने अपने मुंह में पहला कौर रखते ही आलू के गुटके रिजेक्ट कर दिए लेकिन माँ ने मेरी बात का भरोसा कर के उन्हें शुद्ध मानकर खा लिया.
बाद में मेरी मक्कारी पकड़ी गयी. पिताजी को बड़ा अफ़सोस हुआ था कि वो तीन साल पहले ही सी. जे. एम. के पद से रिटायर क्यों हो गए. अगर वो उन दिनों भी सी. जे. एम. होते तो उनका और माँ का धर्म भ्रष्ट करने के इल्ज़ाम में मुझे 2-3 साल के लिए तो वो अन्दर करवा ही देते.

2016 में हम पति-पत्नी 12 दिन के पैकेज टूर पर यूरोप गए थे. हमको इंग्लैंड, फ़्रांस, स्विटज़रलैंड और इटली, सब जगह भारतीय भोजनालयों में बिना लहसुन-प्याज़ वाली स्वादिष्ट जैन थाली सर्व की गयी. लेकिन रोम से दिल्ली आते समय वायुयान में हमको जैन-मील के नाम पर एक पाव के साथ उबला पालक, उबली बीन्स और उबले छोले दिए गए. इस से बुरा खाना हमने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं खाया था.

आज खान-पान के मूल्य बदल गए हैं हमारे परिवार के सभी मूल-सदस्य आज भी शाकाहारी हैं लेकिन परिवार में शामिल बहुओं और दामादों के विषय में इस नियम का लागू रह पाना पूरी तरह संभव नहीं है.
मैं यह कल्पना कर के भी काँप जाता हूँ कि हमारे बाबा, पिताजी या माँ आज खान-पान का बदला माहौल देखते तो वो क्या करते?
किस-किसको वो भ्रष्ट कहते, किस-किस चटोरे कबाबखोरे को, उसके कान पकड़ कर, वो उसे अपने घर से बाहर निकालते और किस-किस धोखेबाज़ को अपना धर्म भ्रष्ट करने के इल्ज़ाम में वो जेल भिजवाते?

21 टिप्‍पणियां:

  1. 'चर्चा अंक- 3399' में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूप चन्द्र शास्त्री 'मयंक'. आप लोगों का स्नेह मुझे सदैव साहित्य-सृजन की प्रेरणा देता है.

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  2. बढ़िया संस्मरण। समय के साथ थोड़ा सा लचीला हो लेना बुरा नहीं है अगर आप किसी का बुरा नहीं कर रहे हैं तो हमारे हिसाब से वैसे मूल्यों का ठेका लिये हुऐ समाज के प्रतिष्ठितों की रायशुमारी जरूरी है। आप लिखते रहिये अपनी पैनी कलम से।

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    1. मैं भी यही कह रहा हूँ कि हमको दूसरों के जीवन में ज़्यादा दखल नहीं देना चाहिए. जैसे शेर को शाकाहार का पाठ पढ़ाना नादानी है वैसे ही किसी व्यक्ति, किसी परिवार, किसी खानदान, किसी समाज, किसी धर्म या किसी देश के मूल्य और लोगों पर नहीं थोपे जा सकते लेकिन इसकी वजह से ज़बरदस्ती अपने मूल्यों को बदलने की ज़रुरत भी नहीं है. बात मज़ाक़-मज़ाक़ में गंभीर हो गयी है लेकिन इस पर गौर ज़रूर किया जाना चाहिए.

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  3. बुराई नहीं है ... जब तक किसी का नुक्सान नहीं हो रहा तो चलता है ...
    अपने मन की सहमती होनी चाहिए ...

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    1. बिल्कुल सही बात दिगंबर नासवा जी. अगर हम-आप ख़ुद अपना और किसी अन्य का कोई नुक्सान नहीं कर रहे हैं तो अपनी ज़िंदगी को अपनी तरह से जीने का हमको-आपको पूरा हक़ है. शाकाहार और मांसाहार दोनों पर ही यह बात लागू होती है.

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  4. आदरणीय सर, आपका यह संस्मरण बहुत ही रोचक है। हमारे घर में भी सब कट्टर शाकाहारी हैं। फर्क इतना है कि यदि कोई सामने बैठकर अंडा या मांसाहार खाए तो मेरे गले से खाना नहीं उतरेगा पर मेरा बेटा और पतिदेव आराम से 'एडजस्ट' कर लेंगे। कहेंगे - 'वो हमारे मुँह में थोड़े ही ना डाल रहा है'। कहीं घूमने जाने पर प्योर वेज होटल या रेस्तरां की तलाश करनी होती है मुझे। मेरी एक ईसाई सहेली का स्नेह इतना है कि वह अपने नॉन वेज वाले टिफिन को मुझे छूने भी नहीं देगी। इसी तरह बेटे के भी कई मुस्लिम दोस्त हैं जो अंडा या मांसाहार वाला खाना लाते हैं तो उसे पहले ही बता देते हैं। एक तो ऐसा है कि जब अतुल पहली बार उसके घर गया और उसके घर में नॉनवेज बना था तो बाहर से कोल्ड ड्रिंक और बिसलेरी ले आया। यहाँ मुझे मेरी दादी से जुड़ी एक बात याद आती है। एक मुस्लिम वकील की पत्नी दादी की पक्की सहेली थी। पर खानेपीने के बारे में दादी के अपने नियम थे और वो उनके घर का पानी भी नहीं पीती थी। मुझे यह बात बुरी लगती पर इस बात से दादी और उन मुस्लिम महिला की दोस्ती में कोई फर्क नहीं पड़ा।
    आप इसी तरह लिखते रहें, गंभीर संदेश को भी रोचक ढ़ंग से कहने की ये शैली बहुत ही कम रह गई है अब।

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  5. मीना जी, आप से मेरा अनुरोध है कि शाकाहार से जुड़े अपने परिवार के अनुभव हमारे साथ ज़रूर साझा करें. शाकाहारी होने का मतलब किसी की नज़र में ऊपर उठना क़तई नहीं है लेकिन हम को अपने ढंग से जीने का पूरा अधिकार है और अगर कोई हमारे भोजन को घास-फूस कहेगा तो हम भी आक्रामक होकर उसे उसकी भाषा में ही जवाब देंगे.
    मेरे भी कई मुसलमान दोस्त हैं, उनके यहाँ आना-जाना भी है लेकिन हमारा खान-पान का रिश्ता आमतौर पर वन-साइडेड ही है.
    मेरे संस्मरण मुझे ज़िन्दादिली से जीने के लिए प्रेरित करते हैं.
    आप लोगों का प्रोत्साहन मिलेगा तो मेरी कलम यूँ ही चलती रहेगी.

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  6. मुझे यह सब पढ़ते हुए आपनी माँ की बहुत याद आई.. शाकाहारी परम्परा उनकी भी इतनी ही सख्त थी । अब की पीढ़ी ने लहसुन-प्याज की छूट ले ली है लेकिन सभी ने नही.. मगर बाकी वर्जनाएं आज भी मानी जाती हैं । रेस्टोरेंटस् में होटलों में जाएँगे तो जैन खाना ही ढूंढेंगे ..,बाहर जाने पर आलू की बनी चीजें और अन्य विकल्प जो शाकाहार के हैं वही तलाशे जाएंगे । बहुत सारे किस्से जो इन परम्पराओं के कारण घटित हुए ... आपका संस्मरण पढ़ कर याद आ गए ।

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    1. मीना जी, पुराने ज़माने में लोगों का और खासकर महिलाओं का बाहर आना-जाना कम हुआ करता था, कुछ धार्मिक-सामाजिक मूल्यों के पालन के प्रति उत्साह भी अधिक था, इसलिए तब उनके लिए ऐसे नियमों का पालन करना सरल था लेकिन आज परिस्थितयां बदल गयी हैं. शाकाहार एक स्वस्थ परंपरा है लेकिन मांसाहारियों की इसके बारे में विचित्र से विचित्र राय होती हैं.
      सामिष भोजन के भक्त मेरे एक मित्र कहा करते थे - जैसवाल न तो कुछ बढ़िया पीना जानता है और न ही कुछ बढ़िया खाना. इसे तो पार्टी में बुलाने के बजाय 30-40 रूपये दे दो तो यह ज़्यादा खुश होगा.' इस पर मेरी प्रतिक्रिया उनकी पीठ पर दो-चार मुक्के जड़ने के रूप में होती थी.

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  7. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना गुरुवार १८ जुलाई २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  8. 18 जुलाई के 'पांच लिंकों का आनंद' के अंक में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद श्वेता.

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  9. छोटी मुँह, बड़ी बात ...माना कि भोजन(खानपान) स्वरुचि का विषय है और लोगों को इसकी स्वतंत्रता भी है (ये अलग बात है कि बिहार में शराबबंदी है सरकार की ओर से , कानूनन या जबरन)...
    पर एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक कसौटी पर तो इसके परिणाम को कसना ही चाहिए। वैसे भी पुरखों का कहना रहा है कि " जैसा आहार, वैसा विचार" ...विज्ञान भी सारे खानपान के परिणाम का विस्तृत रूप से व्याख्या करता है।
    वैसे भी अपने जीवन-नुक्सान पर विदारक् रूप से ना तो अंडे गोंगियाते हैं और ना ही मछलियाँ मेमियाती हैं।
    हम "स्वेच्छा" कह कर भोजन के सही और उचित चयन को टाल नहीं सकते ... शायद ....(छोटी मुँह, बड़ी बात) ...

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    1. सुबोध सिन्हा जी, कौन क्या खाता है और क्या नहीं खाता, इसका निर्णय हम और आप कैसे ले सकते हैं? मैं शाकाहारी होते हुए भी मांसाहार को अनुचित नहीं मानता. अब शराब तो एक सामाजिक बुराई है लेकिन उस पर प्रतिबन्ध लगाया जाना बेकार तथा अव्यावहारिक है.

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  10. सांगोपांग बस एक शब्द आपके संस्मरण के लिए।

    ये सिर्फ संस्मरण नहीं, देखा जाये तो एक पुरा विषय है।
    हम किसी से जबरदस्ती तो नहीं कर सकते पर अगर कोई चाहे तो प्रेरित कर सकते हैं अगर हमारे समझाने से एक भी शाकाहारी बनता है तो उसे मैं उपलब्धि मानती हूं ।प्राणी मात्र के प्रति दया इसका सबसे बड़ा सूत्र है,जीयो और जीने दो ।
    शाकाहारी भी बैठे बिठाये भावों से हिंसा करते हैं वो भी हिंसा के अन्तर्गत आते हैं वैसे ये गूढ़ विषय है जैन " कर्म - सिद्धांत" को समझें बिना समझना मुश्किल है ।
    ऊपर कमल भाईसाहब की छोटी पर गहरी बात से मैं सहमत हूं ।
    यहां शत्रु कोई प्राणी नहीं आत्मा पर आच्छादित मैल आवरण है। उन शत्रुओं से युद्ध कर हराने वाला अरिहंत है जिन है।
    आपका ये लेख पढ़कर हम शाकाहारियों के सामने आने वाले कई संकट आंखों के सामने घुम गये।
    महाराष्ट्र और गुजरात में जैन फूड़ के नाम पर बहुत सहुलियत है सिर्फ जैनियों को ही नहीं सभी शाकाहारी वर्ग को काफी पसंद आराम से मिल जाती है ।

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    1. धन्यवाद 'मन की वीणा' कमल भाई साहब हर विषय को उसकी गहराई में जाकर समझते हैं और फिर उसे हमको समझाते भी हैं.
      शाकाहार एक स्वस्थ जीवन पद्धति है किन्तु वह अपने आप में अंतिम साध्य नहीं है. वैचारिक शुद्धता का महत्व आहार की शुद्धता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.
      महाराष्ट, मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात में तो जैन-फ़ूड मिलता ही है, हमने तो दुबई में भी जैन-फ़ूड का खूब आनंद उठाया.

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  11. शाकाहारी लोगों को हमेशा ही इन तकलीफों का सामना करना पड़ा आज़ भी बहुत से परिवार हैं जो शादी ब्याह में जाते जरूर है पर प्याज लहसुन से परहेज़ करते हैं तो भोजन घर पर ही करते है। बहुत सुंदर संस्मरण लिखा आपने।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद अनुराधा जी. लहसुन-प्याज़ न खाने वाले अब दिनों-दिन कम होते जा रहे हैं और लाखों शाकाहारी अब अंडे को शाकाहारी मानकर खाने लगे हैं.
      जिसको जो खाना है, वह खाए पर दूसरों के खान-पान की आलोचना न करे.

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  12. प्रणाम सर
    आप का लेख दो तीन बार पढ़ा पर टिप्णी करने की हिम्मत नहीं हुई और लिखू तो क्या... |हैरान रह गई मासाहार से शिकायत वाज़िब है, भारतीय सभ्यता में नहीं है | परन्तु हलसून प्याज़ के बिना सब्जी की कल्पना मेरे लिए सम्भव नहीं... |परन्तु उस समय सब्जी की गुणवक्ता सायद अच्छी होंगी|आज मैं यदि ऐसी सब्जी की कल्पना ...|बहुत अच्छा लेख है सर विचारों का सृजन |
    सादर

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    1. अनीता जी, लहसुन-प्याज़ खाने की तो बात ही क्या, मुझे तो किसी के मांसाहारी होने में भी कोई आपत्ति नहीं है. व्यंजनों में लहसुन-प्याज़ के विकल्प के रूप में हम लोग हींग, ज़ीरा, अदरक और हरी-लाल मिर्च का प्रयोग कर लेते हैं. कैसा भी भोजन अगर सुरुचिपूर्ण ढंग से बनाया गया हो तो वह स्वादिष्ट होगा.

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  13. गोपेश जी,हमारे यहां हम किरायेदार रखते हैं तो हमारी एक ही शर्त रहती हैं कि वो शाकाहारी होना चाहिए। बाहर वो कुछ भी करे। क्योंकि बाहर हम देखने नहीं जा सकते।
    रही बात लहसुन प्याज की तो वो तो हम बहुत उपयोग करते हैं। क्योंकि दोनों ही चीजे गुणों से भरपूर हैं।
    आपका अपना संस्मरण कहने का अंदाज बहुत अच्छा लगा।

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    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति जी.
      विशुद्ध शाकाहारी होते हुए भी मैं इस विषय में अपने विचार किसी पर कभी थोपता नहीं हूँ. खाने-पीने से आदमी पवित्र-अपवित्र नहीं होता, उसे तो उसके विचार और उसका आचरण अच्छा-बुरा बनाते हैं.
      लहसुन-प्याज़ खाने में कोई बुराई नहीं है किन्तु हम जैसे, उन से परहेज़ करने वालों को भी अपने ढंग से खाने-पीने का पूरा अधिकार है.

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