मेरे बाल-कथा संग्रह ‘कलियों की मुस्कान’ की एक कहानी. इस कहानी को मेरी बारह साल की बेटी गीतिका सुनाती है और इसका काल है – 1990 का दशक ! पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वो गीतिका के इन गुप्ता अंकल में मेरा अक्स देखने की कोशिश न करें.
बैलेन्स्ड डाइट
भगवान ने कुछ लोगों को कवि बनाया है, उन्हें भावुकता अच्छी लगती है. सुन्दर दृष्य देखकर या किसी ट्रैजेडी के बारे में सुनकर उनके मन में कविता के भाव उमड़ने लगते हैं. कुछ को नेता का जिगर दिया गया है, इन्हें तिकड़म और जुगाड़ लगाना पसन्द होता है. जिनको अपराधी का दिमाग मिला है, उनको ठाँय-ठूँ और ढिशुम-ढिशुम का कान-फोड़ संगीत पसंद आता है. मीरा के नयनों में नन्दलाल बसते हैं, एम. एफ़ हुसेन के दिल में माधुरी दीक्षित रहती हैं पर हमारे गुप्ता अंकिल के प्राण पकवानों में बसते हैं. गुप्ता अंकिल कहते हैं –
‘अब आप ही बताइए इसमें हमारा क्या कुसूर है? भगवान ने हमको ऐसा ही बनाया है. उन्होंने हमको सूंघने की ऐसी शक्ति दी है जो दो मील से पकवानों की खुशबू पकड़ लेती है, आँखें ऐसी दी हैं जिन्हें सिर्फ़ पकवानों की ही फ़िगर और उनका गैटअप लुभाता है और जीभ ऐसी दी है जिसे मीठा, नमकीन, खट्टा, तीख़ा, चरपरा, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, पश्चिम भारतीय, इटालियन, कान्टिनेन्टल, थाई, मैक्सिकन, मंचूरियन, चायनीज़ सब पसन्द है. दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं. एक तो वो जो जीने के लिए खाते हैं और दूसरे वो जो खाने के लिए जीते हैं. हम तो दूसरी कैटेगरी में आते हैं.’
‘अब आप ही बताइए इसमें हमारा क्या कुसूर है? भगवान ने हमको ऐसा ही बनाया है. उन्होंने हमको सूंघने की ऐसी शक्ति दी है जो दो मील से पकवानों की खुशबू पकड़ लेती है, आँखें ऐसी दी हैं जिन्हें सिर्फ़ पकवानों की ही फ़िगर और उनका गैटअप लुभाता है और जीभ ऐसी दी है जिसे मीठा, नमकीन, खट्टा, तीख़ा, चरपरा, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, पश्चिम भारतीय, इटालियन, कान्टिनेन्टल, थाई, मैक्सिकन, मंचूरियन, चायनीज़ सब पसन्द है. दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं. एक तो वो जो जीने के लिए खाते हैं और दूसरे वो जो खाने के लिए जीते हैं. हम तो दूसरी कैटेगरी में आते हैं.’
गुप्ता अंकिल के हिसाब से खाने-पीने का शौक़ रखने वाले शख़्स का होशियार होना लाज़मी है. पकवानों की किस्मों की जानकारी हासिल करने के लिए पता नहीं उसे क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं. अब पापड़ की ही बात लीजिए तो क्या आप अमृतसरी, राजस्थानी, सिन्धी और गुजराती पापड़ में फ़र्क कर सकते हैं? नहीं न! पर गुप्ता अंकिल पापड़ों में आँखमूंद कर सिर्फ़ जीभ का इस्तेमाल कर फ़र्क कर सकते हैं. खाने के मामले में उनका भौगोलिक और ऐतिहासिक ज्ञान बहुत व्यापक है. कुछ साल पहले पापा हमारे लिए जनरल नौलिज वाला एक इलैक्ट्रो गेम लाए थे, उसमें ख़ास-ख़ास स्थानों से जुड़ी हुई प्रसिद्ध चीज़ें खोजनी होती थीं. अगर आप किसी ख़ास स्थान और उससे जुड़ी चीज़ का सही मैच कर पॉइंट्स तार लगाते थे तो लाइट जल जाती थी. गुप्ता अंकिल भी हमारे इस खिलौने पर अपनी जनरल नौलिज का टैस्ट देने को बेताब रहते थे. गेम में तो अंकिल कई मामलों में पीछे रह जाते थे. उन्हें यह नहीं मालूम होता था कि ताजमहल कहाँ है या विक्टोरिया मेमोरियल कहां है. पापा ने उसी इलैक्ट्रोगेम के पैटर्न पर गुप्ता अंकिल के लिए एक विशेष पकवान गेम तैयार कर दिया. इसमें आगरा के साथ ताजमहल का मैच मिलाने के बजाय पेठे-दालमोठ का मैच किया गया था. इसी तरह कलकत्ते को विक्टारिया मेमोरियल की जगह रशोगुल्ला से जोड़ा गया था, लखनऊ को इमामबाड़े की जगह रेवड़ी के साथ और जयपुर को हवामहल की जगह घेवर के साथ मिलाया गया था. गुप्ता अंकिल इस पकवान गेम में कभी गलत नहीं होते थे और अपने हर अटेम्प्ट में लाइट ज़रूर जलवा लेते थे.
हमारी ही तरह विशुद्ध शाकाहारी होने की वजह से गुप्ता अंकिल को बिरयानी, तन्दूरी मुर्ग या कबाब की पर्याप्त जानकारी नहीं है पर दुनिया भर के तमाम शाकाहारी व्यन्जनों के विषय में उन्हें चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया ज़रूर कहा जा सकता है. लोगबाग मथुरा-वृन्दावन भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थली देखने जाते हैं पर हमारे गुप्ता अंकिल वहाँ पेड़े खरीदने जाते हैं. दिल्ली में उनके लिए सारे रास्ते चाँदनी चौक की पराठेवाली गली से होकर गुज़रते हैं. लखनऊ में वो आँखें बन्द कर अमीनाबाद की प्रसिद्ध चाट की दुकानों पर और चौक की ठन्डाई की दुकान पर पहुँच सकते हैं. कितने लोग जानते होंगे कि कलकत्ते में खजूर के गुड़ से बना सबसे बढि़या सन्देश कहाँ मिलता है, बीकानेर में भुजिया की सबसे प्रामाणिक दुकान कौन सी है, जयपुर में घेवर की बैस्ट दुकान तक कैसे पहुँचा जा सकता है, मैसूरी दोसे और मद्रासी दोसे में क्या फ़र्क होता है, मुम्बई में पाव-भाजी कहाँ जाकर खाई जाए, आपको ऐसी तमाम जानकारियाँ गुप्ता अंकिल को दो-चार पकवान खिलाकर तुरन्त मिल सकती हैं. चाय के बागानों में ऊँची-ऊँची तनख्वाहों पर प्रोफ़ेशनल टी-टेस्टर्स रक्खे जाते हैं लेकिन पता नहीं क्यों मिठाई बनाने वाले और नमकीन या चाट बनाने वालों को ऐसे एक्सपर्ट्स की ज़रूरत नहीं होती. अगर उन्हें ऐसे एक्सपर्ट् की ज़रूरत होती तो क्या गुप्ता अंकिल कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसरी कर अपनी जि़न्दगी किताबों में माथापच्ची करने और स्टूडेन्ट्स को इंग्लिश लिटरेचर पढ़ाने में बरबाद करते? वो तो ऊँची तनख्वाह लेकर दिन में चौबीसों घन्टे और साल में तीन सौ पैसठों दिन अपने दोनों हाथों की दसो उंगलियाँ घी में और अपना इकलौता सर कढ़ाई में रख लेते.
पकवानों में डूबते-उतराते गुप्ता अंकिल बच्चे से कब बड़े हो गये यह किसी को पता ही नहीं चला. अब वो बड़े हुए तो उनकी शादी का मौसम भी आ गया. होने वाली दुल्हन के रूप-रंग, शिक्षा-दीक्षा, घर-परिवार के बारे में मालुमात करना तो औरों की जि़म्मेदारी थी पर शादी से पहले उन्होंने लड़की की अर्थात हमारी होने वाली आंटी की सिर्फ़ पाक विद्या में परीक्षा ली थी. उनकी बनाई फूली-फूली गोल पूडि़यों, सुडौल स्वादिष्ट समौसों और मूँग की दाल के बने सुनहरे हल्वे ने गुप्ता अंकिल का दिल जीत लिया था. गुप्ता आंटी के पाक-विद्या ज्ञान में जो थोड़ी बहुत कमी थी उसे गुप्ता अंकिल ने दूर कर दिया. गुप्ता अंकिल का घर प्रामाणिक कलकतिया सन्देश, मद्रासी दोसा, गुजराती ढोकला, देहलवी चाट, पंजाबी छोलों और बनारसी कलाकन्द का निर्माण केन्द्र बन गया. गुप्ता आंटी पाक विद्या की हर प्रतियोगिता में कोई न कोई पुरस्कार जीत ही लातीं थीं. इन प्रतियोगिताओं से पहले आंटी की तैयारियों में पकवान चखने का जि़म्मा गुप्ता अंकिल का ही होता था. अगर वो आंटी के बनाए पकवान को अप्रूव कर देते थे तो उनका प्रतियोगिता में पुरस्कार पाना निश्चित हो जाता था.
अपनी शादी के सात साल गुप्ता अंकिल ने किचिन के इर्द-गिर्द घूमते हुए और पकवानों को चखते हुए गुज़ार दिए पर कुदरत को उनका ऐसा सुख मन्ज़ूर नहीं था. पकवान बनवाने और उन्हें अकेले ही कम से कम आधा हज़म कर जाने के शौक ने कब उनका वज़न सौ किलो तक पहुँचाया, कब उनकी कमर का नाप फ़ोर्टी फ़ोर इंचेज़ तक पहुँचा, कब उनको बिठाने के लिए रिक्शे वाले डबल किराए की माँग करने लगे और कब उनके नाप के इनर वियर्स ख़ास-ख़ास दुकानों के अलावा छोटी-मोटी दुकानों पर मिलना बन्द हो गए, किसी को पता ही नहीं चला. एक बार वो कुछ गम्भीर रूप से बीमार पड़े तो उन्हें तमाम टैस्ट्स कराने पड़े. पता चला कि उनको डायबटीज़ हो गयी है. डॉक्टर्स ने उनकी मिठाइयों पर रोक लगवा दी, चाट-पकौडों जैसी भोली-भाली मासूम चीज़ों के घर आने या उन्हें घर पर ही बनाने पर पाबन्दी लगा दी गयी.
डॉक्टर मेहता, गुप्ता अंकिल के बचपन के दोस्त थे पर इस समय उन्होंने गुप्ता अंकिल के सबसे बड़े दुश्मन का रोल निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. उन्होंने गुप्ता अंकिल के घर के सभी सदस्यों को और हम दोनों बहनों को भी उनके ऊपर जासूस बनाकर छोड़ दिया था. गुप्ता अंकिल के सभी हितैषियों को उनके हाथ से कोई भी पकवान कहीं भी छीनने का अधिकार डॉक्टर मेहता ने दे दिया था. गुप्ता अंकिल की मुसीबत यह थी कि उनके सभी करीबी बड़े उत्साह से इस नई जि़म्मेदारी को निभाने के लिए बेताब रहते थे. ख़ासकर उनका नन्हा बेटा बंटी और उनके परम मित्र की बेटियाँ यानी कि हम दोनों बहनें आज भी अपने इस अधिकार का धड़ल्ले से उपयोग कर रही हैं.
गुप्ता अंकिल कभी आंटी की खुशामद कर डायटिंग में थोड़ी ढील दिए जाने की नाकाम कोशिश करते हैं तो कभी अपने ऊपर छोड़े गए जासूस, हम बच्चों को चाकलेट-टॉफ़ी की रिश्वत देकर खाने-पीने का प्रोहिबिटेड माल गड़पने का असफल प्रयास करते हैं. लेकिन हम बड़े प्रिंसिपल्स वाले बच्चे हैं, हमको गुप्ता अंकिल से चाकलेट-टॉफ़ी लेने में कोई ऐतराज़ नहीं है पर अपने फ़र्ज़ से बँधे रहने की वजह से वक़्त रहते ही हम उनकी शिकायत गुप्ता आंटी से कर देते हैं. आमतौर पर होता यह है कि उनके मुँह में पहुँचने से पहले ही लड्डू उनसे छीन लिया जाता है.
शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार, बर्थ-डे पार्टी, मैरिज-एनीवर्सरी, प्रमोशन या गृह-प्रवेश किसी की भी पार्टी हो पर गुप्ता अंकिल की किस्मत में भुना हुआ पापड़, सलाद, सूखी रोटी, सब्ज़ी और दाल ही आते हैं. सबसे ज़्यादा दुख की बात यह है कि चैम्पियन कुक हमारी गुप्ता आंटी अब अपने पतिदेव के खाने में ड्रापर से घी डालने लगी हैं. गाजर के हल्वे के साथ गर्मा-गर्म मौइन की कचौडि़यां खिलाने वाली उनकी चैंपियन कुक श्रीमती जी पता नहीं कब किसी फैमिली सीरियल की खूसट और अत्याचारी सास में तब्दील हो गईं. गुप्ता अंकिल तो आज भी पकवान चुराने तक को तैयार रहते हैं पर आजकल उनके घर में हर तर माल पर ताला लगा रहता है और हर जगह – ‘चाबी खो जाए’ वाला किस्सा सुनाई देता है.
कैलोरी-चार्ट, वेट-चार्ट, कार्बोहाइड्रेट की मात्रा, लो कैलोस्ट्रोल-डाइट जैसी नितान्त टैक्निकल बातों से गुप्ता अंकिल जैसे लिटरेचर के प्रोफ़ेसर का क्या लेना देना? वो कैसे मान लें कि एक छोटा सा रसगुल्ला उनके ब्लड शुगर लेवेल पर कहर ढा सकता है. मूँगफली जैसी मासूम और फ्रेंडली चीज़ को कैलोरीज़ और कार्बोहाइड्रेट का भण्डार कैसे माना जा सकता है? आलू और अरबी जैसी शानदार सब्जियों के बदले में कोई करेले या तोरई की बोरिंग सब्जियाँ क्यों खाए? फलों में अंगूर, आम, केले और चीकू जैसे शाही फलों से नाता तोड़कर वो खीरे, ककड़ी और मूली-गाजर जैसी घटिया चीज़ों को क्यों अपनाएँ? पुरानी कहावत है - ‘ पतली ने खाया, मोटी के सर आया. ’ अब उनका वज़न नहीं घटता तो क्या इसके लिए उन्हें दोषी ठहराना चाहिए? पर कौन समझाए दोस्त से दुश्मन बने डॉक्टर मेहता को और पुराने ज़माने में तर माल खिलाने वाली पर अब सिर्फ़ सलाद खिलाने वाली उनकी अपनी ही श्रीमतीजी को? सचिन या नवजोत सिंह सिद्धू किसी वन-डे मैच में धड़ाधड़ सिक्सर्स लगायें तो जश्न तो बनता है पर ऐसा कोई भी जश्न हमारे बेचारे गुप्ता अंकल एक-दो लड्डू खाकर भी नहीं मना सकते,
गुप्ता अंकिल की साहित्य सेवा तो इस संतुलित-आहार ने चौपट ही कर दी है. तीस ग्राम अंकुरित मूँग और दो सूखे ब्रेड स्लाइसेज़ के साथ फीकी चाय लेकर तो सिर्फ़ घाटे का बजट पेश किया जा सकता है, कहानी या कविता नहीं लिखी जा सकती. गुप्ता अंकिल की काव्य प्रतिभा चाय के साथ पोटैटो-चिप्स और गर्मा-गर्म पकौड़े खाकर ही निखर पाती है. डॉक्टर मेहता के इस डायटिंग के कानून से साहित्य-सृजन के क्षेत्र में कितनी हानि हो रही है, इसे कौन समझ पाएगा?
सूखी, उबाऊ और उबली जि़न्दगी जीते-जीते गुप्ता अंकिल तंग आ चुके हैं. टीवी पर बहुत से योगिराज भी उन्हें सताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. पूरी-पराठों की जगह सूखी रोटी, दम आलू की सब्ज़ी की जगह कच्ची लौकी खाने और करेले का जूस पीने का नुस्खा बता-बता कर उन्होंने गुप्ता आंटी को पहले से भी ज़्यादा सतर्क और स्ट्रिक्ट बना दिया है. पेटुओं के प्रति बाबाजी लोगों द्वारा कहे गए अपशब्दों के खि़लाफ़ तो गुप्ता अंकिल कोर्ट में मानहानि का मुकदमा करने की भी सोच रहे हैं पर क्या करें, कोई वकील उनकी तरफ़ से ऐसा मुकदमा लड़ने को भी तैयार नहीं है.
पिछली दो-तीन ब्लड-रिपोर्ट्स संतोषजनक आ जाने के बाद डॉक्टर मेहता ने तरस खाकर गुप्ता अंकिल को डायटिंग में कुछ छूट दे दी हैं. अब वो महीने में एकाद बार कुछ मीठा, कुछ नमकीन खा सकते हैं पर फिर सुबह-शाम उन्हें एक्सट्रा कैलोरीज़ जलाने के लिए पाँच-पाँच किलोमीटर ब्रिस्क वाक करना पड़ता है. इसके बाद योगिराजों के सुझाए आसन उनको अलग से करने पड़ते हैं. पापा के सजेशन पर अब उन्हें हर बार बदपरहेज़ी करने पर नीम की तीस पत्तियों खानी पड़ती हैं और करेले का एक गिलास जूस भी पीना पड़ता है. पर इस छूट मिलने के बाद से गुप्ता अंकिल बड़े रिलैक्स्ड रहने लगे हैं. अब उनका थोड़ा वक्त तर माल खाने में और बहुत सारा वक्त एक्सट्रा कैलोरीज़ जलाने के लिए ब्रिस्क-वाक करने में खर्च होता है. पापा सहित तमाम दोस्तों को मालूम है कि गुप्ता अंकिल अब घर पर कम और सड़क पर कैलोरीज़ जलाने के चक्कर में ज़्यादा मिलते हैं. गुप्ता अंकिल के संतुलित जीवन से डॉक्टर मेहता भी खुश है और हमारी गुप्ता आंटी भी.
गुप्ता अंकिल आजकल सबको अपनी बैलंस्ड डायट और एक्सरसाइज़ के बारे में बताते रहते हैं पर हम जासूसों ने उनकी चालाकी की पोल खोल दी है. हमने पता कर लिया है कि मोर्निंग-वाक के बहाने वो घर से दो चार किलोमीटर दूर जाकर किसी छोटी-मोटी दुकान पर चोरी से समौसे और जलेबी पर हाथ साफ़ कर लेते हैं. गुप्ता आंटी ने पापा से रिक्वेस्ट की है कि मोर्निंग वाक में वो अपने मित्र का साथ दें और उनके पेटूपने पर पूरा कन्ट्रोल रखें. पापा मुस्तैदी से अपने दोस्त के प्रति अपना फ़र्ज़ निभा रहे हैं और उनके नियम तोड़ने पर तुरंत उन्हें एक-दो डन्डे भी रसीद कर देते हैं. गुप्ता आंटी मोर्निंग-वाक पर जाने से पहले ही अपने पतिदेव की सभी जेबें खाली कर देती हैं.
गुप्ता अंकिल आजकल सबको अपनी बैलंस्ड डायट और एक्सरसाइज़ के बारे में बताते रहते हैं पर हम जासूसों ने उनकी चालाकी की पोल खोल दी है. हमने पता कर लिया है कि मोर्निंग-वाक के बहाने वो घर से दो चार किलोमीटर दूर जाकर किसी छोटी-मोटी दुकान पर चोरी से समौसे और जलेबी पर हाथ साफ़ कर लेते हैं. गुप्ता आंटी ने पापा से रिक्वेस्ट की है कि मोर्निंग वाक में वो अपने मित्र का साथ दें और उनके पेटूपने पर पूरा कन्ट्रोल रखें. पापा मुस्तैदी से अपने दोस्त के प्रति अपना फ़र्ज़ निभा रहे हैं और उनके नियम तोड़ने पर तुरंत उन्हें एक-दो डन्डे भी रसीद कर देते हैं. गुप्ता आंटी मोर्निंग-वाक पर जाने से पहले ही अपने पतिदेव की सभी जेबें खाली कर देती हैं.
गुप्ता अंकिल की एक्सरसाइज़ जारी है. भुने-चने के गिने-चुने दाने चबाते या बेमन से खीरा-ककड़ी, गाजर-मूली का आहार लेते हुए गुप्ता अंकिल अपने हितैषियों को अक्सर कोसते हुए सुने जा सकते हैं पर क्या करें सन्तुलित आहार लेने के सिवा उनके पास कोई और चारा भी तो नहीं है. हमारे गोल-मटोल गुप्ता अंकिल अब काफ़ी दुबले हो गए हैं. रिक्शे वालों ने उनसे डबल किराया माँगना भी बन्द कर दिया है. अब एक्स्ट्रा लार्ज साइज़ के कपड़ों की खोज में उन्हें खून-पसीना भी एक नहीं करना पड़ता पर हमारे गुप्ता अंकिल फिर भी खुश नहीं हैं. उनके हिसाब से जीवन में बैलंस्ड-डायट लेने से बड़ी कोई सज़ा नहीं है. उनका मन करता है कि वो बगावत कर दें, पेटूपने के खुले आकाश में फिर से उड़ान भरें पर फिर डॉक्टर मेहता के उपदेश, पापा के डन्डे की मार या गुप्ता आंटी की फटकार के डर से वो डिसिप्लिन्ड सोल्जर की तरह सारे निर्देशों को रिलीजसली फ़ालो करते हुए पाए जाते हैं.
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की २५०० वीं बुलेटिन ... तो पढ़ना न भूलें ...
जवाब देंहटाएंढाई हज़ारवीं ब्लॉग-बुलेटिन बनाम तीन सौ पैंसठ " , में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सलिल वर्मा जी, 'ब्लॉग बुलेटिन' की 2500 वीं पोस्ट में मेरी रचना को सम्मिलित किए जाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-08-2019) को "खोया हुआ बसन्त" (चर्चा अंक- 3426) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'चर्चा मंच - 3426' में मेरी कहानी को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉक्टर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'.
हटाएंआप जैसे क़द्रदान मेरी क़लम को चलते रहने के लिए हौसला देते हैं.
काफी दिनों के बाद एक बढ़िया पोस्ट।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मित्र ! 22 दिन के बैंगलोर प्रवास में इन्टरनेट से दूर रहा.
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