राजीव
गाँधी के राज में धर्म-विकृति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी थी. सवर्ण हिन्दू
निर्लज्ज होकर अपने दलित भाइयों की आहुति दे रहे थे.
शाह बानो प्रकरण में इस्लाम के अंतर्गत स्त्री-अधिकार की समृद्धि परंपरा की धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं.
जैन समुदाय में दुधमुंही बच्चियों को पालने में ही साध्वी बनाकर धर्म का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था.
उस समय खालिस्तान आन्दोलन अपने शिखर पर था और धर्म के नाम और स्वतंत्र खालिस्तान के नाम पर अन्य धर्मावलम्बियों का खून बहाया जा रहा था.
और हमारे ईसाई धर्म-प्रचारक डॉलर आदि की थैलियाँ खर्च कर हज़ारों-लाखों की तादाद में धर्म-परिवर्तन करा, मानवता की सेवा करने का दावा कर रहे थे.
शाह बानो प्रकरण में इस्लाम के अंतर्गत स्त्री-अधिकार की समृद्धि परंपरा की धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं.
जैन समुदाय में दुधमुंही बच्चियों को पालने में ही साध्वी बनाकर धर्म का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था.
उस समय खालिस्तान आन्दोलन अपने शिखर पर था और धर्म के नाम और स्वतंत्र खालिस्तान के नाम पर अन्य धर्मावलम्बियों का खून बहाया जा रहा था.
और हमारे ईसाई धर्म-प्रचारक डॉलर आदि की थैलियाँ खर्च कर हज़ारों-लाखों की तादाद में धर्म-परिवर्तन करा, मानवता की सेवा करने का दावा कर रहे थे.
आजकल
धर्म के नाम पर यौन शोषण के अनेक प्रसंग हमारे सामने आ रहे हैं. कितने आसाराम बापू, कितने राम-रहीम, कितने फ्रांको मुलक्कल, कितने आशु महाराज, धर्म को दीमक की तरह से
चाट-चाट कर खोखला कर रहे हैं?
मदरसों, गुरुकुलों, मिशन स्कूलों, में बच्चों-बच्चियों का
यौन शोषण ही नहीं, उनकी
हत्या तक हो रही हैं. और हम इन सबसे आँख मूंदकर इन ढोंगी धर्मावतारों के साथ
बेशर्म होकर कीर्तन कर रहे हैं.
लगभग
30 साल पुरानी इस कविता में मैंने यह प्रश्न उठाने का साहस किया था कि
– ‘धर्म-विकृति को ही हम कब तक अपना धर्म मानते रहेंगे?’
आज
भी धर्म-विकृति को ही हम धर्म के नाम पर अपना रहे हैं. ऐसे धर्म का परित्याग कर
अगर इन्सान नास्तिक हो जाए तो उसमें क्या बुराई होगी?
मेरी
दृष्टि में धर्म सबसे पुराना कल्प-वृक्ष है, पहला अलादीन का चिराग
है और इतिहास का पहला एटीएम है.. धर्म के नाम पर दोहन, शोषण और अनाचार भी
शाश्वत है. मुझसे बहुत पहले कबीर ने तो और भी खुलकर धर्मात्माओं की पोल खोली थी.
कबीर ने हिन्दू-मुसलमान के लिए कहा है - 'अरे, इन दोउन, राह न पाई.' पर मैं तो सभी
अंधभक्तों के लिए कहता हूँ - अरे, इन कोउन, राह न पाई !'
जहां
धर्म में दीन दलित की, निर्मम
आहुति दी जाती है,
लेने में अवतार, प्रभू की छाती, कांप-कांप जाती है.
जिस मज़हब में घर की ज़ीनत, शौहर की ठोकर खाती है,
वहां कुफ्र की देख हुकूमत, आंख अचानक भर आती है.
जहां पालने में ही बाला, साध्वी बनकर कुम्हलाती है,
वहां अहिंसा का उच्चारण करने में, लज्जा आती है.
जिन गुरुओं की बानी केवल, मिलकर रहना सिखलाती है,
वहां देश के टुकड़े करके, बच्चों की बलि दी जाती है.
बेबस मासूमों की ख़ातिर, लटक गया था जो सलीब पर,
उसका धर्म प्रचार हो रहा, आज ग़रीबों को ख़रीद कर.
यह धर्मों का देश, धर्म की जीत हुई है, दानवता पर,
पर विकृत हो बोझ बना है धर्म, आज खुद मानवता पर
लेने में अवतार, प्रभू की छाती, कांप-कांप जाती है.
जिस मज़हब में घर की ज़ीनत, शौहर की ठोकर खाती है,
वहां कुफ्र की देख हुकूमत, आंख अचानक भर आती है.
जहां पालने में ही बाला, साध्वी बनकर कुम्हलाती है,
वहां अहिंसा का उच्चारण करने में, लज्जा आती है.
जिन गुरुओं की बानी केवल, मिलकर रहना सिखलाती है,
वहां देश के टुकड़े करके, बच्चों की बलि दी जाती है.
बेबस मासूमों की ख़ातिर, लटक गया था जो सलीब पर,
उसका धर्म प्रचार हो रहा, आज ग़रीबों को ख़रीद कर.
यह धर्मों का देश, धर्म की जीत हुई है, दानवता पर,
पर विकृत हो बोझ बना है धर्म, आज खुद मानवता पर