ऊंची कुर्सी पर एक चश्माधारी महानुभाव गम्भीर मुद्रा में विराजमान हैं। उनके हाथ में लाल स्याही वाला लाल पैन है, सामने टेबिल है, जिस पर उत्तर पुस्तिकाओं का ढेर लगा हुआ है.
जी हां, यह एक परीक्षक हैं जो इस समय किसी भाग्यविधाता से कम नहीं हैं. यह महानुभाव अपने पैन से परीक्षार्थियों का भाग्य लिखने जा रहे हैं.
पहले प्रश्न में सात अंक, दूसरे में बारह, तीसरे में दस, बस इसी तरह से बेचारे परीक्षार्थी की किस्मत बनाई या बिगाड़ी जा रही है.
तीन घण्टे के इस शो के अच्छे या बुरे होने पर उसकी साल भर की मेहनत को आंका जा रहा है.
वाह क्या नज़ारा है ! इन भाग्य- विधाता अर्थात परीक्षक महोदय की किस्मत पर किसे रश्क नहीं होगा? पर लाल स्याही से किसी और की किस्मत लिखने का हक़ क्या इन्हें सेंत-मेंत में मिल गया है?
नहीं ! इन्होंने बरसों दिमागी पापड़ बेले हैं, विद्यार्थी जीवन में तपस्या की है, पीएच० डी० की डिग्री हासिल करने के लिए शोध करते समय पेट से पीठ मिलाकर हज़ारों घण्टे आंखें फोड़ी हैं, फिर एप्लाई, नो रिप्लाई और साक्षात्कार के चक्रव्यूह से निकलकर लेक्चरर का पद प्राप्त किया है. उसके बाद भी दस साल अध्यापन में सर खपाने के बाद ही इन्हें परीक्षक बनने का गौरव प्राप्त हो पाया है.
हम ने भी बरसों तक परीक्षक बनने का सपना देखा था. हमारी भी तमन्ना थी कि हम भी कभी चित्रगुप्त बनकर किसी परीक्षार्थी के बौद्धिक पाप-पुण्य का लेखा-जोखा तैयार करें.
अब वो हसरत पूरी हो चुकी है. हम परीक्षक बन चुके हैं.
उत्तर पुस्तिकाओं का एक बड़ा सा बन्डल हमारे सामने पड़ा है.
हम भी आंखों पर चश्मा चढ़ाए, लाल स्याही वाला पैन हाथ में लेकर ऑपरेशन परीक्षकत्व के लिए तैयार हैं.
हमारी श्रीमतीजी हमारा काम शुरू होने से पहले ही चाय बना कर ले आई हैं.
आदतन उन्होंने हमारी एक्ज़ामिनरशिप का एडवान्स में सदुपयोग कर डाला है.
हमारी बच्चियां भी आजकल नम्रता और आज्ञाकारिता की प्रतिमूर्ति बनी हुई हैं.
उत्तरपुस्तिकाएं जांचे जाने के बाद उनको कपड़े की थैलियों में बन्द करने का दायित्व हमारी श्रीमतीजी का है.
लिफ़ाफ़ों पर और जांची हुई कापियों के बन्डलों पर स्केचपैन से पते लिखने का काम हमारी बड़ी बेटी गीतिका का है और हमारी नन्हीं सी बिटिया रागिनी लाख लेकर लिफ़ाफ़ों पर सील लगाने की ज़िम्मेदारी बखूबी निभाती हैं.
अपना कर्तव्य निभाने वाली इस फ़ौज को मुंहमांगा पारश्रमिक मिलता है. पर सबसे पहले हमको कापियां जांचनी हैं, फिर मार्कलिस्ट पर उनके अंक चढ़ाने हैं.
हमारी सहायतार्थ खड़ी फ़ौज को अभी सब्र करना पड़ेगा.
सेवा के बदले मेवा मिलने की कहावत कहीं और सही बैठती है या नहीं, यह तो हम नहीं जानते पर हमारे घर में वह हर साल चरितार्थ होती हुई देखी जा सकती है.
श्रीमती जी की साड़ी और बच्चियों की चाकलेट्स के बाद एक्ज़ामिनरशिप की राशि में से जो दो-चार नोट बचते हैं उन्हें इनकमटैक्स वाले हमसे झटक लेते हैं. अब कोई उन से जाकर पूछे, आधी उम्र किताबें पढ़ने में खपा कर, रात-रात भर जाग-जाग कर, आंखें दुखाकर, अपनी पीठ तोड़ कर, अपनी दसों उंगलियां थका कर, बढि़या टीवी प्रोग्राम्स को भुलाकर और काम हो जाने के बाद महीनों प्रतीक्षा करने के बाद जो मुट्ठी भर रकम हमको हासिल होती है, उस पर उनका क्या हक़ बनता है?
क्या कोई जवाब है उनके पास?
पर हम बेबस चूहे सरकार रूपी इस खूंखार बिल्ली के खिलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजाएं तो बजाएं कैसे? खून का घूंट पीकर रह जाते हैं, और हम करें भी तो क्या करें?
मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। ठीक है !
‘है इसी में प्यार की आबरू, वो जफ़ा करें मैं वफ़ा करूं.’
अब ओखली में सर दिया है तो ठाठ से मूसलों की मार भी सहेंगे. परीक्षक बनने का सपना देखा था सो सच हो गया.
अब परीक्षकत्व के पारश्रमिक से लखपती बनने की तमन्ना पूरी नहीं हो पाए तो क्या रोने बैठ जाएं?
जो लोग परीक्षकत्व के दर्द से नहीं गुज़रे हैं उन्हें उसकी शिद्दत का गुमान कहां हो सकता है?
देखने वाले को तो यही लगता है कि गुरुदेव शायद आंख मूंद कर धड़ाधड़ कापियां जांचे जा रहे हैं, उन्हें न कोई परेशानी है, न ही उन्हें कोई मेहनत करनी पड़ रही है.
ऐसे आलोचकों के विषय में ही शायद कहा गया है –
‘जाके पैर न फटे बिवाई सो क्या जाने पीर पराई’
परीक्षकत्व के गुरुतर दायित्व को हम बक़ौल जिगर मुरादाबादी –
‘इक आग का दरिया है और डूब के जाना है’ बता सकते हैं.
अब हमने एक्ज़ामिनर के खि़ताब से इश्क किया है तो इसमें यह सब तो होगा ही. चंद रुपयों की ख़ातिर इतनी दिमागी कसरत कौन करना चाहता है? मीरा की तर्ज़ पर हम कहते हैं -
‘हे री! मैं तो परीक्षकत्व दिवानो, म्हारा दरद न जाने कोय !’
जब तक घर में मूल्यांकन हेतु कापियां रहती हैं, हमको अपनी श्रीमतीजी का भरपूर प्यार मिलता है. अख़बार पढ़ने के लिए हम चश्मा मांगते रहें, नहीं मिलेगा पर कापियां जांचने बैठेंगें तो केस सहित चश्मा करीने से वहीं रक्खा हुआ मिलेगा.
मूल्यांकन के काम के दौरान मिलने वाली चाय की प्यालियों का तो हम शुमार ही नहीं कर सकते.
चाय की तलब हुई नहीं कि चाय हाजि़र !
इन दिनों बच्चियों के गलों में बांसुरी फि़ट हो जाती है.
के दुर्लभ किन्तु मधुर स्वर घर में जब-तब घर में गूंजा करते हैं.
सवाल उठता है कि जब मूल्यांकन के काम के दौरान हमारी घर में क़दर बढ़ जाती है तो फिर हम इस काम को अपने लिए अग्नि-परीक्षा क्यों मानते हैं.
चलिए, इस काम से जुड़ी हुई परेशानियों की ही चर्चा कर ली जाए.
हमारी मुश्किलों की बोहनी तो उत्तर-पुस्तिकाओं के विश्वविद्यालय परिसर पहुंचते ही हो जाती है.
हमारे हाथ में कापियां का बण्डल देखकर विद्यार्थी हमारी चरणरज लेने को और उस बण्डल को हमारे घर तक पहुंचाने के लिए दौड़ न पड़ें, इसके लिए हम उसे ऑफ़िस से शाम को ही उठा पाते हैं.
नंबर 11 की बस में सवारी करने वाले जैसवाल साहब के लिए घर तक कापियां पहुँचाना एक टेढ़ी खीर है.
इस समय बीस-पच्चीस किलो ज्ञान के इन बिना परखे हीरों को हमारे घर तक पहुंचाने के लिए कोई मेट या चपरासी बड़ी मुश्किल से मिलता है.
पता नहीं हमारे इतिहास के विद्यार्थियों को ढेर सारी कापियां भरने का क्या शौक है ! उनको शायद लुकमान हकीम ने बताया होगा कि तुम जितनी ज़्यादा कापियां भरोगे उतने ज़्यादा नम्बर तुमको मिलेंगे.
पांच-छह कापी भरना तो आम बात है पर कोई-कोई परीक्षार्थी तो बी० आंसर बुक में दस का आंकड़ा भी पार का जाते हैं.
नतीजा यह होता है कि हमारी एक्ज़ामिनरशिप का एक बड़ा हिस्सा कापियों का बण्डल लाने और ले जाने में उड़ जाता है.
कागज़ों के इस अथाह सागर में से ज्ञान की दो चार बूंदे खोजने में हमको कितना श्रम करना पड़ता है यह तो हम ही जानते हैं.
हर परीक्षक को खुद को सिफ़ारिशी पत्रों, टेलीफ़ोनों और सिफ़ारिश हेतु पधारे जाने-अनजाने मित्रों से बचाना पड़ता है. हम तो मूल्यांकन के दिनों में खुद फ़ोन ही नहीं उठाते. हमारी श्रीमती जी और हमारी बच्चियां हमारे बारे में हर पूछने वाले को हमारी अप्रत्याशित लखनऊ यात्रा का समाचार दे देती हैं. अनचाहे मेहमानों से बचने के लिए हम घर में ही नज़रबन्द हो जाते हैं.
खैर, इन कठिनाइयों से निपटना विशेष चिन्ता वाली बात नहीं है.
अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं !
हमारी असली अग्नि-परीक्षा तो मूल्यांकन कार्य करते समय होती है.
पहली उत्तर-पुस्तिका खुली नहीं कि अग्नि परीक्षा प्रारम्भ हुई.
पहले पन्ने के शीर्ष भाग पर – ‘श्री गणेशाय नमः’, ‘दीनदयाल विरद सम्भारी, हरहु नाथ मम संकट भारी’ और – ‘गुरुवे नमः’ लिखा देखने के बाद कौन सा मनुष्य है जो बेरहमी से बच्चों की गल्तियों के नम्बर काट पाएगा?
आखि़र हम भी तो दो बच्चियों के बाप हैं ! पर दया, ममता, करुणा और उदारता के भावों को कुचल कर हमको बेमुरव्वत, बेरहम और पत्थरदिल बन कर इंसाफ़ करना पड़ता है.
इंसाफ़ की देवी के तो मज़े हैं. इंसाफ़ करते वक़्त वो अपनी आंखों पर काली पट्टी जो चढ़ा लेती हैं. पर हम क्या करें? हमको तो अपनी पूरी आंखे खोल कर ही इंसाफ़ के नाम पर छोटी से छोटी गल्ती के बहाने मासूमों की गर्दनों पर छुरी चलानी पड़ती है.
इतिहास के विद्यार्थियों को असली बात पता हो या न हो पर अन्तर्कथाएं ज़रूर याद रहती हैं.
शासक की नीतियां, प्रशासन की बारीकियां, युद्ध की विभीषिकाएं और सुधारकों के सुधार वो भले भूल जाएं पर उन्हें रज़िया-याकूत, बाजबहादुर-रूपमती, सलीम-अनारकली और सलीम-नूरजहां की प्रेमकथाएं हमेशा याद रहती हैं.
अगर सवाल जहांगीर की चित्रकला पर पूछा गया है तो वो उसे घुमा-फिरा कर सलीम-अनार कली की इश्किया दास्तान में तब्दील करके ही दम लेंगे.
विद्यार्थियों का फ़िल्मी ज्ञान बहुत अधिक होता है इसीलिए आमतौर पर इतिहास जानने के लिए भी वो फि़ल्मों और टीवी सीरियल्स पर निर्भर रहते हैं.
अकबर की नीतियों में मुग़ले आज़म के डायलॉग्स या ब्रिटिशकालीन भारतीय इतिहास के लिए – ‘भारत की एक खोज’ टीवी सीरियल के सम्वादों की प्रतिध्वनि उनके उत्तरों में सुनाई देना मेरे लिए आश्चर्य की बात नहीं होती है.
'दे दी हमें आज़ादी, बिना खडग, बिना ढाल' जैसे फ़िल्मी गानों की सहायता से हमको राष्ट्रीय आन्दोलन पढ़ना भी आता जा रहा है. पर कुछ परीक्षार्थी तो कमाल ही कर देते हैं. अगर हम ने प्रश्न पूछा है - अलाउद्दीन खिलजी की बाज़ार नियन्त्रण नीति पर तो जवाब में उसके द्वारा पद्मिनी हासिल करने के लिए किए गए अभियान की चर्चा शुरू हो जाती है.
विद्यार्थी की दलील है कि मैंने जो तैयार किया है वही तो लिखूंगा, यह परीक्षक की गल्ती है कि वह परीक्षार्थी की पसंद-नापसंद की जानकारी नहीं रखता.
परीक्षार्थी कालातीत होता है अर्थात उसे काल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, अब यदि इसके बाद भी परीक्षक इस बात पर ऐतराज़ करे कि हल्दीघाटी के मैदान में मानसिंह पैटन टैंक क्यों ले आया तो यह उसकी नाइंसाफ़ी है.
यदि अशोक महान ने अपनी प्रजा की सेवा के लिए रेलगाड़ी चलवाई थी तो परीक्षक को इस पर आपत्ति क्यों है?
क्या उस ज़माने में वह मौजूद था? हम ऐसे हज़ारों ओरिजिनल आइडियाज़ का हर साल रसास्वादन करते हैं.
मौलिक लेखन का पुरस्कार जिन लोगों को मिलना चाहिए उन्हें हम लाल गोलगप्पे खिलाने के लिए मजबूर हैं.
जो लोग इतिहास लेखन में और उसके पठन-पाठन में आमूल क्रांति लाना चाहते हैं हम जैसों परीक्षकों द्वारा उनकी प्रतिभा का नाहक गला घोंटा जा रहा है.
नुक्ताचीनी की आदत से परीक्षक बाज़ नहीं आता है.
बच्चों की जिन मासूम अदाओं पर और लोग हँसेंगे उन पर हम खूनी कलम से उनके नम्बर उड़ा देंगे. हद है कसाईपन की !
समझदार परीक्षार्थी जानते हैं कि परीक्षक भी किसी न किसी रिश्ते में बंधा होता है.
अब मातृत्व और पितृत्व के साथ ममता तो जुड़ी होगी ही.
किसी बेटी की शादी सिर्फ़ परीक्षा में फ़ेल होने की वजह से नहीं हो पाएगी, इस आशय का नोट पढ़ कर भी कोई परीक्षक न पसीजे तो उसे पत्थरदिल नहीं तो और क्या कहेंगे?
परीक्षार्थी ने स्पष्ट कर दिया है कि अगर उसे फ़ेल किया गया तो वह ज़हर खा लेगी.
अब परीक्षक का क्या फ़र्ज़ बनता है?
वैसे मज़े की बात यह है कि उत्तर-पुस्तिका में परीक्षक से याचना केवल लड़की बन कर ही की जाती है.
इतिहास के साथ थोड़ी सी बेवफ़ाई करके हम कन्यादान का पुण्य लूट सकते हैं.
किसे पता चलेगा कि उस मासूम ने सन्त कबीर को मुग़ल बादशाह बताया था?
वैसे दया और उदारता की फ़ीस देने को भी अनेक परीक्षार्थी तैयार रहते हैं.
उत्तर- पुस्तिका के साथ अगर एक सौ का नोट नत्थी किया मिले तो क्या किया जाय? मार दिया जाय या छोड़ दिया जाय, इस ऊहापोह से हमें बार-बार गुज़रना पड़ता है.
हम बेरहम हैं, हम जल्लाद हैं, हम क्रूरसिंह हैं, ज़रा से नम्बर बढ़ाने में हमारा क्या जा रहा था – ‘हाय रे ! देखो लड़की ने बीमारी में इम्तहान दिया है, उस पर कुछ तो रहम करो !’
ऐसी टिप्पणियां तो हमको घर में भी सुननी पड़ जाती हैं, सोचिए, बाहर की दुनिया में हमारी क्या क़द्र होगी?
और हम हैं कि सारी आलोचना, निन्दा प्रस्तावों और प्रार्थनाओं को अनदेखा और अनसुना करते हुए दे-दनादन परीक्षार्थियों को फ़ेल करते जा रहे हैं.
नहीं! अब और नहीं ! अब भोले-भाले बच्चों के भविष्य का खून हम से और नहीं हो सकेगा. क्या अगली बार परीक्षकत्व के इस जल्लादनुमा काम को लेने से हम इंकार कर दें?
इन्कमटैक्स डिपार्टमेन्ट से बची हुई खुरचन खाने के लिए इतना खून-खराबा हम क्यों करें?
यह बार-बार की अग्नि-परीक्षा हमको एक दिन भस्म करके छोड़ेगी.
सीता माता ने एक बार अग्नि-परीक्षा दी थी.
भगवान श्री राम ने जब उनसे दूसरी बार अग्नि परीक्षा देने के लिए कहा तो वह साफ़ इन्कार कर के धरती में समा गयी थीं. पर हम हैं कि हर साल अग्नि-परीक्षा देने के लिए तैयार हो जाते हैं.
आज ही कुलसचिव को लिखकर परीक्षकत्व के भार से हम मुक्ति पा लेते हैं.
पर यह क्या? घंटों तक मेहनत कर के हमारी श्रीमती जी कॉपी के बंडलों को सिल चुकी हैं, बड़ी बिटिया गीतिका अपने सुन्दर हस्त-लेख से कापियों के बंडलों पर और लिफ़ाफ़ों पर पते लिख चुकी है और छोटी बिटिया रागिनी लिफ़ाफ़ों को बन्द करके उन पर लाख पिघला कर सील लगा रही है.
करें तो क्या करें?
चलो, फि़लहाल ऐसी अग्नि-परीक्षाओं से गुज़रते रहना मन्ज़ूर कर लेते हैं.
पर विश्वविद्यालय को ऐसी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरने वालों की खातिरदारी में कुछ इजाफ़ा तो करना ही चाहिए.
हम तो शिवजी के भक्त ठहरे ! उन्होंने विश्व के कल्याण के लिए ज़हर का घूंट पी लिया था तो हम भी क्यों पीछे रहें?
पर ठहरिए ! यह चर्चा फिर कभी सही.
अभी-अभी समाचार मिला है कि हमारे लिए कापियां का एक और बण्डल विश्वविद्यालय परिसर में पहुंच गया है.
इस बार लगता है ईश्वर कुछ ज़्यादा ही अग्नि-परीक्षा लेना चाहता है, हम कर भी क्या सकते हैं?
हुइ है वही जो राम रचि राखा !
हे भगवान ! अगले साल भी हमको इस साल की तरह ही जम कर परीक्षक वाली अग्नि-परीक्षा देनी पड़े, इसका इन्तज़ाम तुम ज़रूर कर देना.