1980 में मैंने जब लेक्चरर के रूप में कुमाऊँ यूनिवर्सिटी के अल्मोड़ा कैंपस में अपनी पारी शुरू की तो मैंने वहां कई कीर्तिमान स्थापित कर दिए.
पहला कीर्तिमान था –
मैं अपने कैंपस का मोस्ट एलिजिबिल बैचलर था.
अब इस सवाल का उठना लाज़मी है कि तीस साल से महज़ बारह दिन छोटा शख्स अपने तबक़े का मोस्ट एलिजिबिल बैचलेर कैसे हो सकता है !
इस सवाल का जवाब मेरे दूसरे कीर्तिमान से जुड़ा है.
अल्मोड़ा कैंपस में मेरे नाम दूसरा कीर्तिमान यह था कि अपनी मित्र-मंडली में मैं अकेला ही अविवाहित बचा था.
मुझ से तीन-चार साल क्या, पांच साल छोटे भी, अपने सर पर सेहरा बाँध चुके थे और उन में से कईयों ने तो मुझे ताउजी कहलवाने का सम्मान भी दिलवा दिया था.
प्रथम परिचय में आम तौर भाभीजियों का मुझ से पहला सवाल हुआ करता था –
‘भाई साहब ! भाभी जी को आप अपने साथ क्यों नहीं लाए?’
अपने अविवाहित होने का जैसे ही मैं खुलासा करता था तो अधिकतर भाभीजियों के श्री-मुख खुलने के बाद बंद होने से ही इंकार कर दिया करते थे.
राजा भर्तृहरि के अंदाज़ में कहूं तो –
रूप-यौवन संपन्न, विशाल-कुल वाले और विद्या-युक्त देवर का क्वारा ही रह जाना इन सभी भाभीजियों के लिए किसी अजूबे से कम नहीं था.
इन फ़िक्रमंद भाभीजियों ने शायद मुकेश का गाया ख़ूबसूरत नग्मा –
‘मुझे तुम से कुछ भी न चाहिए
मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो -- -’
कभी नहीं सुना था और दूसरे के फटे में अपनी टांग अड़ाना ये न सिर्फ़ अपना फ़र्ज़ समझती थीं बल्कि ऐसा करना अपना हक़ भी मानती थीं.
एक दिन मैं भगवे रंग का कुर्ता पहन कर एक मित्र के बच्चे की बर्थ-डे पार्टी में चला गया. बर्थ-डे बेबी की मम्मी यानी कि हमारी भाभी जी ने मुझ से पूछा –
‘भाई साहब, आपने क्या स्वामी विवेकानंद की तरह से सन्यासी बनने का इरादा कर लिया है?’
मैंने दुखी हो कर जवाब दिया –
‘भाभी जी, भगवा वस्त्र धारण करने से न तो मैं स्वामी विवेकानंद बन सकता हूँ और न ही दाढ़ी रखने से विनोबा भावे!
आप अपने लिए कोई सुयोग्य देवरानी खोजने की कोशिश तो कीजिए.’
यह सुन कर कि मेरे सर पर आजन्म ब्रह्मचारी रहने का कोई भूत नहीं चढ़ा है, हमारी भाभी जी की बांछें खिल गईं.
उन्होंने तुरंत मुझे अपनी ननद के लिए एडवांस में बुक कर लिया.
इस एडवांस बुकिंग की सूचना मिलते ही मेरे हाथ-पैर कांपने लगे. इसलिए नहीं कि मैं स्वामी विवेकानंद और विनोबा भावे की कैटेगरी से निकलने को तैयार नहीं था, बल्कि इसलिए कि इन भाभी जी के पतिदेव यानी कि हमारे मित्र निहायत ही मग्घे (गंवार और बेवकूफ़) किस्म के प्राणी थे. मैं सोच रहा था –
‘अगर भाभी जी की ननदिया यानी कि हमारे दोस्त की बहन भी उन्हीं के जैसी मग्घी हुईं तो फिर मेरा क्या होगा?’
एडवांस बुकिंग की इस बात को बीते हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि मुझे भाभी जी का फिर बुलावा आ गया. मुझे बताया गया कि इस बार उनका अपना हैप्पी बर्थ-डे है.
मैं भाभी जी के लिए अच्छा-खासा गिफ्ट लेकर उनके दौलतखाने पर पहुंचा तो देखा कि वहां मेरे अलावा कोई और मेहमान नहीं है. लेकिन उनके घर में किसी एक नए सदस्य की बढ़ोत्तरी ज़रूर हो गयी थी. परिवार की यह नई सदस्य भाभी जी की ननदिया थीं जो कि मेरे लिए चाय की ट्रे लेकर आई थीं.
आधा पाव चमेली के तेल से भीगे हुए और महकते हुए बालों के जूड़े वाली इस स्मार्ट बाला को देख कर मेरे दिल में अचानक ही एक पंक्ति गूंजने लगी.
आप पूछेंगे क्या –
‘दो बदन प्यार की आग में जल गए
एक चमेली के मंडवे तले !’?
या फिर –
‘मेरा नाम है चमेली मैं हूँ मालन अलबेली ---‘?
लेकिन मेरे दिल में गूंजने वाली पंक्ति किसी गीत की नहीं थी बल्कि एक कहावत की थी –
‘छछून्दर के सर में चमेली का तेल !’
जल-पान के दौरान भाभी जी के आदेश पर उनकी ननदिया ने मुझे एक ख़ूबसूरत नग्मा भी सुना दिया –
‘लगिजा गले शे फ़िर ये हंशीं राति हो न हो
सायद फ़िर इश जनमि में मुलाकाति हो न हो –‘
मिमियाती हुई वाणी में इस निर्दोष उच्चारण को सुन कर तो मेरे पांवों तले ज़मीन सरक गयी. मैं मन ही मन सोच रहा था –
‘अगर इन मोहतरमा चमेली-बाला से मेरी शादी हो गयी तो मेरी बाक़ी बची ज़िंदगी तो इनका शीन-क़ाफ़ दुरुस्त करने में (उच्चारण-दोष सुधारने में) ही बीत जाएगी.’
चलते-चलते मैंने भाभी जी से झूठ-मूठ में कह दिया कि लखनऊ में मेरी शादी तय हो गयी है.
आग-बबूला हुई भाभी जी ने फिर बरसों तक मुझ से कभी सीधे मुंह बात तक नहीं की.
एक और भाभी जी थीं जो कि मेरी शादी कराने के लिए जी-जान से जुटी थीं. परेशानी यह थी कि इन भाभी जी द्वारा सुझाई गयी सभी कन्याएं अल्मोड़ा की ऐसी विख्यात कुमारियाँ थीं जिन से कि दोस्ती तो बहुत लोग करना चाहते थे लेकिन जिनके साथ शादी के खूंटे में कोई नहीं बंधना चाहता था.
ऐसे प्रस्तावों में सीरियसनेस कम और मेरी खिंचाई करने की दुर्भावना ज़्यादा हुआ करती थी.
भाभी जी के ऐसे सभी घातक प्रस्ताव किसी बर्थ-डे पार्टी में या फिर किसी अन्य आयोजन के समय पंद्रह-बीस लोगों के सामने रक्खे जाते थे.
मेरी ऐसी सार्वजनिक खिंचाई में भाभी जी का साथ उनके पतिदेव भी दिया करते थे.
हमारी ये वाली भाभी जी तो अच्छी-खासी स्मार्ट थीं पर उनके पतिदेव यानी कि हमारे मित्र, नाटे, गंजे और गोल-मटोल थे. इस जोड़ी के पीठ पीछे हम लोग इसे –
‘कौए की चोंच में अनार की कली’ कहा करते थे.
नौ बार अपनी सार्वजनिक जग-हंसाई के बाद मैंने एक पार्टी में जमा डेड़ दर्जन भाई साहबों और भाभीजियों के सामने नहले पर दहला देने का फ़ैसला कर लिया. मैंने हाथ जोड़ कर अपनी मैरिज काउंसलर भाभी जी से कहा –
'भाभी जी, आप और आपके पतिदेव अगर अल्मोड़ा कैंपस से लेकर लाला बाज़ार तक अगर मेरे साथ चलें तो शादी के लिए मुझे योग्य कन्या तो एक दिन में ही मिल जाएगी.’
भाभी जी ने और भाई साहब ने हैरान हो कर एक साथ पूछा –
‘आपके साथ अल्मोड़ा कैंपस से लाला बाज़ार तक हमारे घूमने से आपको योग्य कन्या कैसे मिल जाएगी?’
मैंने भाभी जी से कहा –
‘मैं आपके पतिदेव को और आपको सबको दिखा कर कहूँगा –
जब इस नाटे, गंजे और गोल-मटोल को, इतनी स्मार्ट कन्या मिल सकती है तो मुझ जैसे अच्छे-खासे नौजवान को कोई योग्य कन्या क्यों नहीं मिल सकती?’
डेड़ दर्जन ठहाकों के बीच गुस्से से तमतमाए चेहरे वाली मैरिज काउंसलर भाभी जी ने अपने पतिदेव के साथ उस महफ़िल को फ़ौरन गुड बाय कर दिया.
आगे की कथा में कोई थ्रिल या कोई एडवेंचर नहीं है.
जनता की बेहद मांग पर मैंने साल भर के अन्दर ही इन मददगार भाभीजियों की मदद के बिना ही शादी कर ली.
मेरी ख़ुशकिस्मती है कि मेरी श्रीमती जी अच्छा गाती हैं, उनका शीन-क़ाफ़ भी दुरुस्त है. सबसे अच्छी बात यह है कि वो अपने सर में चमेली का तेल नहीं लगाती हैं.