1962 में मैं गवर्नमेंट इंटर
कॉलेज, रायबरेली में क्लास सेवेंथ
में पढ़ता था. मिड-सेशन में एक लड़के का हमारे क्लास में एडमीशन हुआ. उस लड़के के
पापा डी० एस० पी० थे और शायद अनुशासनात्मक कार्रवाही के तहत उनका मिड-सेशन में
ट्रांसफ़र हुआ था. इन अंकल का असली नाम कुछ और था पर यहाँ उनके गुणों के अनुरूप सुविधा के लिए मैं उनका नाम ‘नटवर लाल’ और अपने नए दोस्त का नाम ‘किशन’ रख लेता हूँ.
किशन बहुत मिलनसार और बहुत ज़हीन लड़का था और बहुत जल्द वो मेरा
बहुत पक्का दोस्त बन गया था. बातों-बातों में उसने मुझे बताया कि बहुत पहले उसके
पापा और मेरे पिताजी दोनों ही, आगरा में पोस्टेड थे. मैंने घर जाकर बड़े उत्साह से यह बात
पिताजी को बताई तो उन्होंने बहुत रुखाई से जवाब दिया –
‘हाँ, मैं और ‘नटवर लाल’ आगरा में एक साथ पोस्टेड थे पर हमारी आपस में दोस्ती नहीं
थी.’
अब बड़े लोगों की आपस में
दोस्ती क्यूँ नहीं थी, इसका
स्पष्टीकरण तो मैं पिताजी से मांग नहीं सकता था पर किशन मेरा पक्का दोस्त ज़रूर बन
गया था.
कुछ दिनों के बाद नटवर लाल अंकल’ अपनी श्रीमतीजी और अपने बेटे
किशन के साथ हमारे घर आए.
पिताजी ने उन लोगों का बड़े
ठन्डेपन से स्वागत किया. अपने घर में अतिथियों का ऐसा रूखा आदर-सत्कार मैंने पहली
बार देखा था. माँ भी उन लोगों से कुछ उखड़ी-उखड़ी ही थीं पर मैं और किशन बाहर जाकर बैडमिंटन खेले और
हमने साथ-साथ बहुत अच्छा वक़्त बिताया.
इस बार मैंने पिताजी को नहीं, बल्कि माँ को कठघरे में खड़ा
कर के उनकी इस बेरुखी का सबब पूछा तो उन्होंने मेरे बहुत टटोलने पर सिर्फ़ इतना
बताया कि नटवर लाल अंकल ने आगरा
में ऐसा कोई काण्ड किया था जिसके कारण पिताजी उन से अभी भी खफ़ा थे.
माँ और पिताजी ने तो नटवर लाल अंकल के घर जाना मुनासिब नहीं
समझा पर एक दिन किशन मुझे अपने घर खींच कर ले गया.
किशन के घर में
उसकी मम्मी प्यार से मिलीं, नटवर लाल अंकल थोड़े रिज़र्व रहे पर उसकी बुआजी और बुआजी की बेटी मुझसेके
प्यार भरे आतिथ्य ने मेरा दिल जीत लिया.
किशन की मम्मी तो बड़े नखड़े
वाली थीं पर साधारण शक्ल-सूरत की, थोड़ी देहाती सी बुआजी और उनकी बेटी मुझे बहुत सहज और निश्छल
लगीं. उनकी बातों में जितना प्यार झलकता था, उस से कहीं ज़्यादा अपनापन उनके बनाए स्वादिष्ट पकवानों से
छलकता था.
किशन की बुआ जी विधवा वेश
में थीं पर पता नहीं क्यूँ मुझे ऐसा लगा कि वो अपनी मांग में हल्का सा सिन्दूर
लगाती हैं.
बुआ जी की बेटी इन्टर कर रही
थीं पर प्राइवेट कैंडिडेट के रूप में. बुआ जी ने बड़े गर्व से मुझको बताया कि उनकी
बिटिया ने फ़र्स्ट डिवीज़न में पास किया था और अब इन्टर में भी उसकी अच्छी तैयारी
है. मैंने दीदी से पूछा –
‘दीदी आप प्राइवेट क्यूँ पढ़
रही हैं?’
न तो दीदी के पास मेरे सवाल
का जवाब था और न ही बुआ जी के पास और आंटी थीं कि उन्होंने बुआजी और दीदी दोनों को
ही काम के बहाने हमसे दूर भेज दिया.
किशन जब मुझे
अपने घर से बाहर छोड़ने आया तो मैंने उसके सामने बुआ-दीदी प्रशंसा पुराण छेड़ दिया
पर उसने इस पर कोई खुशी ज़ाहिर नहीं की.
इसके बाद मैंने एक बहुत
बदतमीज़ी वाला सवाल पूछ लिया –
‘बुआ जी विधवा हैं तो वो
सिन्दूर क्यूँ लगाती हैं?’
‘किशन ने बेरुखी
से जवाब दिया –
‘मुझको नहीं मालूम कि वो
क्यूँ सिन्दूर लगाती हैं. वैसे भी बड़ों की बातों में हम बच्चों को टांग नहीं अड़ानी
चाहिए. गोपेश ! तुमसे एक रिक्वेस्ट है, आगे से तुम बुआजी और दीदी के बारे में मुझसे कोई सवाल मत
पूछना.’
अपने दोस्त से बाकायदा झिड़की
खाकर, मैं तो
खिसिया कर अपने घर वापस आ गया पर इस विषय में मेरी उत्सुकता बनी रही. बुआ जी और
दीदी की हैसियत उस घर में नौकरानियों से शायद थोड़ी ही ऊपर रही होगी.
मैंने माँ को किशन के घर की
पूरी दास्ताँ सुनाई फिर उन्हें नटवरलाल अंकल की असलियत बताने के लिए घेरा.
विधवा बुआ जी के सिन्दूर
लगाने की बात सुन कर माँ से रहा नहीं गया और उन्होंने नटवर लाल अंकल को बाक़ायदा कोसना शुरू कर
दिया. अंत में माँ को मेरे सामने रहस्योद्घाटन करना ही पड़ा.
दरअसल बुआ जी नटवर लाल अंकल की बहन नहीं थीं, बल्कि उनकी तलाक़शुदा पहली
पत्नी थीं और दीदी उनकी भांजी
नहीं, बल्कि
उनकी अपनी बेटी थीं.
जब नटवर लाल अंकल आगरा में पोस्टेड थे तो उन्होंने शादीशुदा और एक बेटी के
बाप होते हुए ‘किशन’ की मम्मी से शादी कर ली थी. बाद में अपनी नौकरी बचाने के
लिए उन्होंने अपनी पहली पत्नी से पारस्परिक सहमति से तलाक़ ले लिया था. पर बेसहारा
तलाक़शुदा पत्नी और बेटी का कोई और ठिकाना नहीं था इसलिए उनको अपने ही साथ रखना नटवर लाल अंकल की मजबूरी थी.
इस राज़ पर से पर्दा उठने के
बाद मेरी और किशन की दोस्ती
में ऐसी दरार पड़ गयी जो कभी भरी नहीं जा सकी.
नटवर लाल अंकल, आंटी और किशन, ये सब मेरी नज़र में खल पात्र हो गए. अब मेरी समझ में आया कि
पिताजी क्यों नटवर लाल अंकल से इतने खफ़ा थे.
अपने बचपन की नादानी का क्या
बयान करूं?
नटवर लाल अंकल से तो मैं इतना खफ़ा था कि मैं चाहता था कि विधवा होने का
नाटक करने वाली बुआ जी वाक़ई विधवा हो जाएं.
बड़े होकर मैंने ऐसी मजबूर
औरतों के कई किस्से सुने जिन्हें कि अपने और अपने बच्चों के गुज़ारे के लिए अपने
बेवफ़ा पतियों की तमाम ज़्यादतियों को मजबूरन स्वीकार करना पड़ा और अपने ही पति की
बहन या भाभी या साली बनकर रहना पड़ा.
हम, हमारा समाज, सब नपुंसक हैं. हम कितनी
आसानी से, पूरे
होशो-हवास में, पाप की, ज़ुल्म की, अन्याय की, ऐसी हर हरक़त को अनदेखा कर
देते हैं या उसे मान्यता दे देते हैं जो कि सीधे हमारी अपनी ज़िंदगी पर असर नहीं
डालती है.
अपने पति को अपना भाई कहने पर मजबूर बुआजी का उदास चेहरा और
अपने पापा को मामा कहकर पुकारने वाली दीदी का सहमा हुआ व्यक्तित्व मुझे आज भी याद
आता है पर मैं उनके लिए महज़ सहानुभूति के कुछ शब्द लिखने के या दो-चार बूँद आंसू
बहाने के अलावा और क्या कर सकता हूँ?