(किंचित परिवर्तन के साथ एक पुराना संस्मरण)
1980 में अल्मोड़ा आने के एकाद साल बाद ही मेरी मित्रता डॉक्टर डी० के० पांडे से हो
गयी थी.
डॉक्टर साहब
को विभिन्न विषयों में डिग्री हासिल करने का शौक़ है.
एम० बी० बी०
एस० और एम० डी० की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने एलएल० बी० किया फिर समाज-शास्त्र, राजनीति-शास्त्र, मनोविज्ञान तथा
इतिहास में एम० ए० किया है और अब वो इतिहास में पीएच० डी० की डिग्री भी
हासिल कर चुके हैं.
मैंने अपने
जीवन में इतना खुश मिजाज़, मस्त और ज़्यादा पैसा कमाने की कोई भी चाहत न रखने वाला कोई और डॉक्टर नहीं
देखा.
अल्मोड़ा में
अपनी प्रैक्टिस शुरू करने से पहले डॉक्टर पांडे हरयाणा
के एक मेडिकल
कॉलेज में अध्यापन भी कर चुके थे.
एक डॉक्टर के
रूप में हमारे मित्र की योग्यता का कोई जवाब नहीं.
डॉक्टर पांडे रोग
की जड़ तक पहुंचे बिना मरीज़ को सर दर्द की एक गोली भी नहीं देते हैं.
मैं एक बार
काफी अस्वस्थ हो गया था. अल्मोड़ा के डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल
में लम्बा इलाज
करवाने से भी मुझे कोई फायदा नहीं हो रहा था. मेरे मित्र मुझे डॉक्टर पांडे के
क्लीनिक में ले गए.
डॉक्टर साहब
ने विस्तार से मेरी केस हिस्ट्री जानी और तब जा कर कहीं अपना नुस्खा लिखा. उनके
इलाज से मुझे जादुई फ़ायदा हुआ.
फ़ीस लेने के
स्थान पर डॉक्टर साहब ने मुझसे केवल इतिहास विषयक किस्सों का आदान-प्रदान किया.
डॉक्टर साहब की
किस्सागोई मुझे पसंद आई और मैं भी उन्हें इस मामले में अपना जोड़ीदार ही लगा.
हम जल्द ही
दोस्त बन गए और हमारी यह दोस्ती आज भी क़ायम है.
डॉक्टर साहब
इतिहास में जब एम० ए० कर रहे थे तब मैंने उनके अंशकालिक गुरु की भूमिका निभाई थी. इसके
बाद हमारी दोस्ती और भी गाढ़ी हो गयी.
डॉक्टर साहब
में ज्ञान अर्जित करने का, और उसे ज्यादा से ज्यादा लोगों में बांटने का अदम्य उत्साह है.
डॉक्टर पांडे
गरीब मरीजों के लिए तो किसी मसीहा से कम नहीं हैं. नाममात्र की फ़ीस लेकर वो गरीब
से गरीब मरीज़ की देर तक जांच-पड़ताल करते हैं फिर उसको ऐसी ही दवा सुझाते हैं जो
उसकी जेब गवारा कर सके.
गरीब मरीज़ों
को स्वास्थ्यवर्धक बादाम खाने के बजाय वो सर्व-सुलभ काले चने खाने की सलाह देते
हैं.
‘प्रिवेंशन इज़ बैटर दैन क्योर’ के सिद्धांत में विश्वास करने वाले डॉक्टर
पांडे मरीज़ का इलाज करते वक़्त अपनी दवाओं से ज्यादा महत्व उसके द्वारा किये गए
परहेज़ और व्यायाम को देते हैं.
एक बार मेरे
घुटनों में बहुत दर्द था, ज़रा सा चलने में भी तकलीफ हो रही थी. डॉक्टर साहब ने जांच-पड़ताल के दौरान मुझे
वेइंग मशीन पर खड़ा कर दिया. वज़न देख कर डॉक्टर साहब ने बताया कि मैं 10-12 किलो
ओवर वेट हूँ और मेरा असली इलाज, अपनी खुराक में चर्बीयुक्त खाद्य-पदार्थों को तिलांजलि देने
में तथा
नियमित व्यायाम करने में ही छुपा है.
मेरे लिए डॉक्टर
साहब के शब्द थे –
‘पिछले बीस साल से आपकी टांग रूपी मशीनें अपनी कैपेसिटी से 10-12 किलो वज़न
ज्यादा उठा रही हैं, आखिर थक हार कर उन्हें भी रिवोल्ट करने का और ख़ुद को आर्थराइटिस कराने का हक
है.’
मैंने तो
डॉक्टर साहब की सलाह पर अमल करने की नाकाम कोशिश ज़रूर की पर बहुतों को, ख़ास कर महिलाओं
को, उनकी ऐसी सलाहें ज़हर बुझे तीर जैसी चुभती हैं.
डॉक्टर साहब
ने मेरी ला-इलाज हो रही खांसी को भी एक हफ्ते में ठीक कर दिया था. उन्होंने ही
मेरी सुस्ती और अचानक कम होते वज़न को देख कर मुझे ब्लड शुगर टेस्ट करने की सलाह
दी. उनकी आशंका सही साबित हुई और मुझे डायबटीज़ निकली.
डॉक्टर साहब
नीम-हकीमों के नुस्खों के सख्त खिलाफ़ हैं.
पर्वतीय समाज
में व्याप्त चिकित्सा विषयक भ्रांतियों को और अंधविश्वासों को, मिटाने का तो
उन्होंने अभियान ही छेड़ रखा है.
अपने मरीज़ों
को और अपने मित्रों को वो - ‘इलू इलू’ का सन्देश अवश्य देते हैं.
हम मित्रगण उनको
और वो खुद भी अपने को, 'इलू डॉक्टर' कहते हैं.
डॉक्टर पांडे
परिवारजन के और मित्रों के, आपसी सम्बन्धों में प्यार के इज़हार को बहुत अधिक महत्व देते
हैं.
पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहन, माँ-बेटा आदि
सभी इस अकेले ‘इलू’ के बल पर अपनी पचासों बीमारियाँ को और सैकड़ों
तनावों को, दूर कर सकते हैं.
एक ग्रामीण, डॉक्टर साहब
के पास अपनी बहुत बूढ़ी और बीमार इजा को दिखाने लाया.
डॉक्टर साहब
ने मुआयना करने के बाद उसे बताया कि उसकी इजा को अब दवा से ज्यादा उनकी ‘इलू थेरेपी’ की ज़रुरत है.
डॉक्टर साहब ने उस ग्रामीण को
हिदायत दी कि दिन में कम से कम तीन-चार बार वह अपनी माँ से उसका हाल-चाल पूछे और
यह भी जताता रहे कि उसे वह कितना प्यार करता है.
पति कभी पत्नी
से कह दे कि फलां साड़ी तुम पर बहुत अच्छी लगती है या कभी उसकी बनाई हुई किसी डिश
की ही तारीफ़ कर दे.
पत्नी कभी
अपने ढीले-ढाले पति को भी स्मार्ट कह दे या ये कह दे कि वो परिवार में सबका बहुत
ख़याल करता है.
प्यार का
इज़हार करने वाले सच ही नहीं, बल्कि ऐसे झूठ भी, हमारी ज़िंदगी
में और हमारे आपसी रिश्तों में, मिठास घोल सकते हैं.
हम सब भी अगर
डॉक्टर पांडे के इन नुस्खों को अपने जीवन में आज़माएं तो आपसी सामंजस्य के अभाव के
कारण होने वाली डिप्रेशन, टेंशन जैसी अनेक बीमारयाँ हमारे पास फटकेंगी भी नहीं.
अल्मोड़ा छोड़े
हुए मुझे 11 साल हो गए हैं और अब डॉक्टर साहब भी मेरठ में रह रहे हैं लेकिन आज भी
मेरा उन से संपर्क बना हुआ है.
डॉक्टर पांडे
ने हम लोगों को सकारात्मक दृष्टिकोण, स्वस्थ-जीवन दर्शन, त्याग और
संयमपूर्ण जीवन की महत्ता सिखाई है. उन्होंने अपने व्यवहार से हमको सिखाया है कि
पर-निंदा से कहीं अधिक पर-सेवा में आनंद आता है.
डॉक्टर साहब
की आयु अब 80 साल से ऊपर है पर अब भी वह समाज सेवा के और जन-जागृति के अनेक अभियानों
से जुड़े हुए हैं.
वरिष्ठ
नागरिकों में मस्ती और उत्साह जगाने में तो उनका जैसा कोई और हो ही नहीं सकता.
मैंने अपने
अल्मोड़ा प्रवास में डॉक्टर पांडे को किसी की बुराई करते हुए नहीं सुना. मुझे लगता
है कि किसी से नफ़रत करना या किसी से बैर रखना उन्हें आता ही नहीं है.
मुझको डॉक्टर पांडे को देखकर कबीर याद आते हैं पर कुछ तब्दीली के साथ-
‘इलू के सन्देश संग,सबकी मांगे
खैर,
सबसे राखे दोस्ती, नहीं किसी से
बैर’
मेरे दोस्त ! मेरे सबसे प्रिय
छात्र और बहुत से विषयों में मेरे गुरु ! मेरे बड़े भाई !
खुश रहो, आबाद रहो, स्वस्थ रहो !, मस्त रहो !
हम सबको
तुम्हारी, तुम्हारे प्यार की और तुम्हारे मार्ग-दर्शन की, आज भी ज़रुरत है.
'इलू', डॉक्टर पांडे !