बहुत पहले एक किस्सा सुना था. एक बड़े आदमी की श्रीमतीजी अपने बच्चे का नर्सरी क्लास में एडमिशन कराने के लिए एक प्रतिष्ठित स्कूल गईं. प्रिंसिपल ने उनका स्वागत किया. मोहतरमा ने अपने बच्चे की खूबियाँ सुनाने में आधा घंटा खर्च कर दिया. बाद में वो प्रिंसिपल से बोलीं –
‘मेरा बेटा बहुत ही अच्छा है पर कभी-कभी शरारत कर देता है. जब भी ये शरारत करे तो आप इसे कभी सज़ा मत दीजिएगा. बस बगल वाले बच्चे के दो थप्पड़ जड़ दीजिएगा, यह समझ जाएगा कि इसने कुछ गलत किया है.’
खैर यह तो किस्सा हुआ लेकिन हक़ीक़त में ऐसा ही होता है. बड़ा आदमी अव्वल तो गलती करता ही नहीं है और अगर गलती करता भी है तो उसको अन-देखा करना हम आम आदमियों का फ़र्ज़ हो जाता है.
मेरे छात्र-जीवन में हुई एक घटना याद आ गई. अपनी जान बचाने के लिए मैं शहर का नाम नहीं बताऊंगा. बस इतना ही बताऊंगा कि उस समय मेरे पिताजी वहां जुडीशियल मजिस्ट्रेट थे.
शहर के सबसे बड़े उद्योगपति का पूरा परिवार अपनी ऐय्याशी के लिए बदनाम था. शहर से कुछ दूर पर उद्योगपति का फार्म हाउस था जहाँ पर कि परिवार के सदस्य बारी-बारी से रास-लीला रचाते थे. पुलिस के जागरूक और कर्मठ कर्मचारियों को वहां हो रहे हर कुकर्म को अनदेखा करने के लिए नियमित रूप से हफ़्ता पहुंचा दिया जाता था. लेकिन एक बार हफ़्ते की राशि को लेकर उद्योगपति परिवार और दरोगा टाइप पुलिस अधिकारियों में ठन गई और दोनों के बीच संबंधों में दरार पड़ गई. उद्योगपति परिवार की तो डी. आई. जी., आई. जी. और मिनिस्टरों तक पहुँच थी, वो दरोगाओं के नाराज़ होने की क्या परवाह करते. पर ‘दरोगाओं, दीवानजियों और बाके सिपहियों से कभी पंगा मत लो’, इस व्यावहारिक वेद-वाक्य की जो भी उपेक्षा करता है उसकी किस्मत निश्चित रूप से फूटती है, यह सबको ज्ञात होना चाहिए.
होली से तीन दिन पहले एक अनहोनी हो गई. एक व्यक्ति ने इस उद्योगपति के छोटे बेटे के विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट दर्ज की कि उसने उसकी नाबालिग पत्नी का अपहरण कर उसे अपने फार्म हाउस में जबरन बंधक बना रक्खा है.
हमारी कर्मठ और प्रजा-वत्सल पुलिस ने उस उद्योगपति के फार्म हाउस पर तुरंत छापा मारकर अपहृत लड़की को छुड़वाया और अपराधी रईसज़ादे को मौका-ए-वारदात से गिरफ्तार किया. लड़की का मेडिकल एग्जामिनेशन हुआ जिसमें उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाए जाने की पुष्टि हुई. संगीन आरोपों के साथ मुक़द्दमा पिताजी के कोर्ट में पेश हुआ. बचाव पक्ष के वक़ील शहर के नामी-गिरामी वकील थे जो कि आम तौर पर लोअर कोर्ट में पैर भी नहीं रखते थे पर यहाँ बात बड़े आदमी के मासूम साहबज़ादे को निर्दोष सिद्ध करने की थी इसलिए उन्हें लोअर कोर्ट में कभी पैर न रखने की अपनी क़सम तोड़नी पडी थी.
बचाव पक्ष के वकील ने विस्तार से बताया कि पुलिस ने उनके मुवक्किल पर निराधार आरोप लगाए हैं –
1. लड़की का अपहरण नहीं हुआ, वह अपने शरीर का धंधा करने वाली एक पेशेवर औरत है और वह अपनी मर्ज़ी से फार्म हाउस गई थी.
2. लड़की नाबालिग नहीं बल्कि बालिग है. इस तथ्य की पुष्टि के लिए उसका मेडिकल एग्जामिनेशन कराया जा सकता है.
3. फार्म हाउस में जो कुछ भी हुआ, वह सब लड़की की रज़ामंदी से हुआ इसलिए रौंगफ़ुल कंफाइनमेंट और बलात्कार का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता.
4. अभियुक्त एक प्रतिष्ठित परिवार का लड़का है. वह विवाहित है, उसके एक छोटा सा बेटा है. इस मिथ्या-आरोप से उसकी और उसके प्रतिष्ठित परिवार की अनावश्यक बदनामी हो रही है इसलिए उसे तुरंत मुक्त किया जाए.
वकील साहब की दलील क़ाबिले तारीफ़ थी लेकिन न्यायधीश महोदय पर उसका कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा. न्यायधीश ने बचाव पक्ष के वक़ील से तीन प्रश्न पूछे–
1. ‘मेडिकल एग्जामिनेशन से क्या इस बात की पुष्टि नहीं हुई है कि फार्म हाउस में इस लड़की के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाए गए थे?
2. क्या यह लड़की फार्म हाउस बरामद नहीं हुई है?
3. फार्म हाउस में लड़की की बरामदगी के समय क्या अभियुक्त वहां मौजूद नहीं था?’
बचाव पक्ष के वकील को इन तीनों सवालों का जवाब सिर्फ ‘हाँ’ में देना पड़ा.
न्यायधीश ने बचाव पक्ष के वकील से एक सवाल और पूछा –
‘नाबालिग का अपहरण, उसका बलात्कार और उसे जबरन बंधक बनाए रखने के अपराधों की अधिकतम सज़ा क्या होती है?’
बचाव पक्ष के वकील ने हकलाते हुए जवाब दिया –
‘हु-हु-हुज़ूर, उम्र क़ैद.’
अब न्यायधीश ने अपनी टिप्पणी दी –
‘लोअर कोर्ट्स में ऐसे संगीन आरोपों पर कोई फ़ैसला नहीं दिया जाता इसलिए मैं यह केस सेशंस कोर्ट के सुपुर्द करता हूँ. अब अभियुक्त को ज़मानत दिए जाने या न दिए जाने का फ़ैसला भी सेशंस कोर्ट में होगा.’
बचाव पक्ष के वकील ने गिडगिडाते हुए कहा –
‘हुज़ूर अनर्थ हो जाएगा. अगले तीन दिन छुट्टी है. इस बेचारे को तब तक जेल में ही रहना होगा. आप इसको ज़मानत तो दे ही सकते हैं.’
न्यायाधीश ने बचाव पक्ष के वकील से पूछा –
‘ऐसे संगीन आरोपों से शोभित महानुभावों की ज़मानत भी आम तौर पर सेशंस कोर्ट्स में ही होती है. आप मुझे क्यों इसमें घसीटना चाहते हैं?
बचाव पक्ष के वकील ने कहा –
‘जनाब, आप अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इस मासूम नौजवान को ज़मानत दे सकते हैं.’
न्यायाधीश ने फिर पूछा –
‘मैं इस मासूम को अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर ज़मानत दे दूँ जो अपने फार्म हाउस में इस तरह की ऐयाशियाँ करता है?
वकील साहब ने कहा –
‘हुज़ूर लड़का है, गलती हो गई, माफ़ कर दीजिए. अगर इसको जेल जाना पड़ा तो गज़ब हो जाएगा. इसकी भोली सी बीबी पर एक नज़र डालिए, इसके मासूम बच्चे पर रहम कीजिए. इसके परिवार की प्रतिष्ठा का ख़याल कीजिए. ’
न्यायधीश ने कहा –
ऐयाशी करने से पहले इस नौजवान को अपनी भोली सी बीबी, अपने मासूम से बच्चे पर नज़र डाल लेनी चाहिए थी और अपने परिवार की प्रतिष्ठा का ख़याल करना चाहिए था. और रही गलती की बात तो यह नौजवान ऐयाशी करने की और अपने परिवार का नाम मिटटी में मिलाने की गलती कर सकता है पर मैं अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर, इन्साफ का गला घोंटकर, इसे ज़मानत देने की गलती नहीं कर सकता.’
बचाव पक्ष के वकील ने दावा किया –
‘सेशंस कोर्ट में तो मेरे मुवक्किल को 5 मिनट में ज़मानत मिल जाएगी.
न्यायाधीश ने कहा –
हो सकता है. पर आपके मुवक्किल को जेल में तीन दिन तक रहकर उस शुभ घड़ी का इंतज़ार करना पड़ेगा.’
इस तरह हमारा बेचारा मासूम रईसजादा न्यायधीश की ज्यादतियों का शिकार हुआ और उसे सेशंस कोर्ट से ज़मानत मिलने तक तीन दिन जेल में बिताने पड़े. पूरे शहर में मेरे पिताजी की बेरहमी के किस्से मशहूर हो गए. लोगबाग कह रहे थे –
‘इतने बड़े आदमी के लड़के को ज़मानत नहीं दी. मजिस्ट्रेट वाक़ई बड़ा बेरहम है.’
दुनिया वालों ने जो भी कहा, ठीक है पर मुझे उस बेरहम मजिस्ट्रेट का बेटा होने पर आज भी फख्र है.