गुरुवे नमः
जनवरी, 1975 से मैंने लखनऊ विश्विद्यालय
के मध्य कालीन एवं आधुनिक भारतीय इतिहास विभाग में गुरुदेव की भूमिका निभाना
प्रारम्भ किया था. 5 वर्ष वहां पर अध्यापन करने की बहुत खट्टी-मीठी यादें मुझे कभी
गुदगुदाती हैं तो कभी रुलाती हैं. हमारा विभाग कला संकाय के मुख्य भवन के कोने में
स्थित था जो कि अपनी शानो-शौकत के लिए सारे जहाँ से अच्छा था. हमारे विभाग के व्याख्यान
कक्ष ऐसे थे कि कोई कबाड़ खाना भी उनके सामने भव्य लगे. गर्मी के मौसम में बाबा आदम
के ज़माने के उनके पंखे अगर ढंग से चल जाते थे तो विद्यार्थीगण व अध्यापक गण
बाकायदा जश्न मनाते थे. एक बड़ा सा कमरा हमारा स्टाफ़-रूम था जिसे कि हम वेस्टर्न
हिस्ट्री डिपार्टमेंट के अध्यापकों के साथ शेयर करते थे. खैर इतनी असुविधा के दिन
5 साल में ही समाप्त हो गए क्योंकि फिर लखनऊ विश्वविद्यालय को मेरी सेवाओं की
आवश्यकता ही नहीं रह गयी.
आसमान से गिरकर मैं मार्च, 1980 में
राजकीय स्नातकोत्तर विद्यालय, बागेश्वर के खजूर में अटक गया. उन दिनों हमारा
विद्यालय एक पुराने डाक बंगले में था जिसमें कि टीन शेड वाले कुल जमा 8-10 कमरे
हुआ करते थे. इनके बीच में वॉली बॉल या कबड्डी खेलने भर का एक विशाल मैदान भी था.
स्टाफ़-रूम के नाम पर एक खोखा हमको उपलब्द्ध कराया गया था जहाँ ज़रा भी ज़ोर से अगर
हम बात करते थे तो उसकी गूँज क्लास-रूम्स तक पहुँचती थी और फिर मिलते थे प्रिंसिपल
साहब के धमकियों भरे लम्बे उपदेश. हम अध्यापकों के लिए आवासीय सुविधा शून्य थी पर
आये दिन कॉलेज की नयी बिल्डिंग और टीचर्स’ क्वार्टर्स बनने की बात होती रहती थी.
बागेश्वर प्रवास के आठ महीने मैंने एक पंजाबी लाला के मकान के एक हिस्से में शान
से गुज़ार दिए.
नवम्बर, 1980 से जून, 2011 तक, अर्थात
अवकाश प्राप्ति तक मैंने कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के इतिहास विभाग
में अपनी सेवाएँ दीं. मेरे देखते-देखते परिसर की छोटी सी इमारत बढ़ती चली गयी लेकिन
हम इतिहास विभाग वालों के नसीब में दो-तीन पुराने व्याख्यान कक्ष और जेल की कोठरी
जैसा स्टाफ़ रूम ही बदा था.
दो टर्म्स तक हमारे कुलपति रहे स्वर्गीय
एम. डी. उपाध्याय को कक्षाओं का मुआयना कर अध्यापकों की शिक्षण-कला देखने का बड़ा
शौक़ था. एक बार वो मेरे क्लास में भी मुआयना करने आये तो मैं लेक्चर देना छोड़कर
उन्हें टूटी कुर्सी-मेज और खस्ता हाल ब्लैक बोर्ड दिखाने लगा. मुझसे सुधार करने के
झूठ-मूठ के वादे करके वो बेचारे अपने दल-बल के साथ भाग खड़े हुए. आगे से इतिहास
विभाग में मुआयना करने से पहले वो पूछ लेते थे –
‘उस क्लास-रूम में जैसवाल तो नहीं है?’
पच्चीस साल तक स्टाफ़-रूम शेयर करने के
बाद मुझे विभाग में बरामदे के एक हिस्से से बनाया गया अपना खुद का कक्ष मिल गया.
सात गुणा आठ फुट के इस विशाल कक्ष में बैठकर मैं फूला नहीं समाता था. हाँ यह बात
और है कि मैं नहीं चाहता था कि कोई बाहरी या कोई अपना आकर मेरे विभागीय कक्ष में
मुझसे मिले.
कुमाऊँ विश्वविद्यालय में, खासकर उसके
अल्मोड़ा परिसर में आवासीय सुविधा की मांग करने वालों में मैं सबसे मुखर था पर
पच्चीस साल के अनवरत प्रयास के बाद भी मैं अपने मिशन में नाकाम का नाकाम ही रहा. मेरे
वो साथी जिन्हें कि परिसर में आवासीय सुविधा मिल चुकी थी, यह क़तई नहीं चाहते थे कि
और टीचर्स’ क्वार्टर्स बनें. ऐसे हमदर्द साथी विश्वविद्यालयों के अलावा और कहाँ
मिल सकते हैं?
अपनी नौकरी के पहले आठ साल मैंने अल्मोड़ा
परिसर की नीचे स्थित खत्यारी मोहल्ले के सीलन और पिस्सू भरे मकानों में गुज़ारे थे. आवासीय
दृष्टि से मैं काला पानी को को इससे बेहतर जगह मानता हूँ. मेरे साथ मेरे दर्जनों
साथी अध्यापक भी इन खोली-नुमा मकानों में रहा करते थे और रास्ते में आते-जाते
शराबियों के शोर और उनके झगड़ों का आनंद उठाने के लिए मजबूर हुआ करते थे.
सूर, मीरा या तुलसी जैसा कोई भक्त भी
भगवान की खोज में इतना क्या रहता होगा जितना कि मैं एक अच्छे मकान की खोज में रहता
था. मैंने और मेरे मित्र प्रकाश उपाध्याय ने कर्बला से लेकर कसार देवी तक सैकड़ों
मकानों की ख़ाक छान ली पर कोई सफलता हाथ नहीं लगी. खत्यारी में मेरे मकान मालिक
ठाकुर साहब अपने दो कमरों के मकानों का बड़ा नक्शा लिया करते थे. एक बार उन्होंने
मुझसे कहा –
‘साहब बहादुर, मेरे मकान में तो आपको
हवा-पानी, धूप सब मिलती है, ऊपर से पूरा मकान पक्का. किराये में एक सौ का पत्ता
बढ़ाना तो बनता है.’
बार-बार नल के हड़ताल पर रहने से महीने
में औसतन 10 दिन नौले (प्राकृतिक जल-स्रोत) से पानी भर-भर कर पहले से ही मेरी कमर
टूट चुकी थी. मैंने सुलगकर जवाब दिया –
‘भला हो ठाकुर तुम्हारा. पेड़ पर
टंगे-टंगे हमारा पूरा खानदान थक चुका था, तुम्हारी बदौलत मकान में रहने को मिल
गया, वो भी पक्के वाले में. पर हम तुम्हारा किराया नहीं बढ़ाएंगे, अलबत्ता तुम्हारे
घर से ही विदा हो जायेंगे.’
अल्मोड़ा कैंट से लगे दुगालखोला में
बिताये गए हमारे 23 साल अपेक्षाकृत काफ़ी आराम से गुज़रे. अवकाश प्राप्ति से 5 साल
पहले पाताल लोक जैसे स्थान पर मुझे विश्वविद्यालय की ओर से मकान आवंटित किया गया
जिसे मैंने हाथ जोड़कर अस्वीकार कर दिया.
मेरी श्रीमतीजी और दोनों बेटियां इस गरीब
गुरूजी की गर्दिश की परमानेंट साथी रही हैं. मेरी बेटियां जब बच्चियां ही थीं, तभी
मैंने तय कर लिया था कि जो हादसा उनकी माँ के साथ हुआ है, वो उनके साथ नहीं होने
दूंगा, अर्थात, उनकी शादी किसी अध्यापक के साथ नहीं होने दूंगा. भगवान ने मेरी सुन
ली. मेरे दोनों दामाद अध्यापक नहीं हैं. मेरे संस्मरण को पढ़कर मेरे कुछ साथी नाराज़
हो सकते हैं पर मेरे साथियों की बेटियों में से भी शायद ही किसी ने अध्यापक का वरण
किया होगा.
गाँव-गाँव में डिग्री कॉलेज और
कस्बे-कस्बे में विश्वविद्यालय खोलने की कीमत, रोटी-रोज़ी की तलाश में किसी भी शर्त
पर काम करने वाले हम जैसों मजबूरों को चुकानी पड़ती है. गुरुजन की देह भी हाड़-मांस
की बनी होती है. उन्हें भी इज्ज़त से रहने का हक़ है पर ये हक़ अगर उन्हें मिलता भी
है तो अवकाश प्राप्ति से कुछ ही समय पहले या उसके भी बाद.
उच्च शिक्षा का प्रसार-प्रचार करने वालों
से मेरा कर बद्ध निवेदन है कि वो कोई भी नया विश्वविद्यालय अथवा नया विद्यालय
स्थापित करने से पहले यह ज़रुर देख लें कि वहां बुनियादी सुविधाएँ हैं या नहीं और
अगर उन्हें गुरुजन की भद्रा उतारने का, उनको तरसाने का, उनको तड़पाने का, रुलाने
का, खिजाने का, इतना ही शौक़ है तो वो कमसे कम ‘गुरुवे नमः’ का जुमला शास्त्रों,
पुराणों तथा पाठ्य-पुस्तकों से हमेशा-हमेशा के लिए निकलवा दें.