बुधवार, 29 सितंबर 2021

नाम पर मत जाइए

  अवधी के हास्य-कवि रमई काका की प्रसिद्द कविता है - 'ध्वाखा हुई गा' (धोखा हो गया). इस कविता के ग्रामीण नायक को लखनऊ शहर में आ कर एक से एक बड़े धोखे होते हैं. कुछ ऐसे ही धोखे मेरे साथ हुए हैं.

बम्बैया मसाला और घिसे-पिटे फ़ॉर्मूला वाली चालू फ़िल्में देख-देख कर फ़िल्मों का मेरे जैसा जैसा दीवाना भी बोर हो जाता था. आखिर कब तक हीरो-हीरोइन को पेड़ों के चक्कर लगाते हुए, बे-मौसम बारिश में भीगते हुए, बेसुरा, हल्ला-मचाऊ, कान-फोडू गाना गाते हुए कोई बर्दाश्त कर सकता है?

ऐसी फ़िल्मों की कहानियां बेसिर-पैर की ही होती हैं.
अपने बचपन में ही महा-रोमांटिक गीत गाने वाली, एक-दूजे के लिए वफ़ा की कसमें खाने वाली, लेकिन हालात की मारी जोड़ी बिछड़ जाती है.
एक-दूसरे से अंजान प्रेमी फिर मिलते हैं लेकिन तब उन में से कोई एक गरीब हो जाता है तो दूसरा अमीर.
गरीब का प्यार कायम रहता है और अमीर सब कुछ भूल जाता है.
भला हो – ‘क्या हुआ तेरा वादा, वो क़सम वो इरादा’ जैसे गाने का, जिस से दो बिछड़े हुए सितारों का फिर से ज़मीं पर मिलन हो जाता है.
सात समुन्दर पार कोई शेक्सपियर थे जिन्होंने न जाने किस मूड में – ‘कॉमेडी ऑफ़ एरर्स’ लिख मारी थी.
हमारे फ़िल्म निर्माता-निर्देशकों ने इस जुड़वां काण्ड पर दर्जनों फ़िल्में बना डालीं. लेकिन हमारे हीरोज़ को जब जुड़वां भूमिकाएं अपर्याप्त लगीं तो उन्होंने कहानीकारों को ट्रिपल रोल वाली कहानियां लिखने की सलाह दे डाली.
दिलीपकुमार और अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार भी ऐसी मौलिक कहानियों का हिस्सा बने और संजीव कुमार ने तो नौ-नौ भूमिका वाली फ़िल्म – ‘नया दिन नई रात’ ही कर डाली.
काने खलनायक का पीपों और रस्सियों से भरा अड्डा होना और उसकी एक अदद मोना डार्लिंग होना बड़ा ज़रूरी होता है.
हमारा निहत्था हीरो बंदर जैसी कलाबाज़ियाँ खाते हुए खलनायक की और उसके बंदूकधारी गुर्गों की जम कर धुनाई करते हुए अगवा की गयी हीरोइन को छुड़ा लाता है.
हीरोइन के बेरहम बाप का का ह्रदय-परिवर्तन हो जाता है.
आखिरकार हीरो-हीरोइन मिल जाते हैं और फ़िल्म के आख़िरी सीन में फिर से पेड़ों के चक्कर लगाते हुए पहले भी दिखाए गए गाने को गाते हुए वो हम से विदा लेते हैं.
मेरी फ़िल्मी दीवानगी पर ऐसी फ़िल्मों ने ब्रेक लगा दिया.
मैंने तय किया कि अब से मैं सिर्फ़ अच्छी कहानियों पर बनाई गयी फ़िल्में ही देखूँगा.
बिमल रॉय ने शरदचंद्र चट्टोपाध्याय की कहानियों पर कैसी-कैसी शानदार फ़िल्में बनाई थीं !
गुरुदत्त ने जब बिमल मित्र के उपन्यास – ‘साहब बीबी और गुलाम’ पर आधारित उसी टाइटल वाली फ़िल्म बनाई थी तो वह मुझे मूल उपन्यास से भी ज़्यादा अच्छी लगी थी.
रस्किन बांड की कहानी पर श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित फ़िल्म – ‘जूनून’ ने तो मेरा दिल ही जीत लिया था.
सत्यजित रे ने रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों को किस खूबसूरती से परदे पर उतारा था !
अब असली मुद्दे पर आया जाए. यानी कि नाम बड़े और दर्शन थोड़े वाली बात पर!
धर्मवीर भारती का उपन्यास – ‘गुनाहों का देवता’ एक फ़िल्म निर्देशक को बहुत पसंद आया था.
फ़िल्म-निर्देशक महोदय धर्मवीर भारती के पास पहुँच गए. जब इस प्रसिद्द उपन्यास पर फ़िल्म बनाने की बात चली तो भारती जी फ़िल्म-निर्देशक से उनकी पहले निर्देशित की गयी फ़िल्मों के नाम पूछ डाले. इस सवाल के जवाब में जब आधा दर्जन घटिया फ़िल्मों के नाम सुनाए गए तो भारती जी ने अपने उपन्यास की हत्या करवाने से इनकार कर दिया.
फ़िल्म-निर्देशक ने धर्मवीर भारती को टाटा करते हुए जम्पिंग जैक जीतेंद्र और राजश्री को ले कर ‘गुनाहों का देवता’ टाइटल से ही एक निहायत घटिया फ़िल्म बनाई और हमारे जैसे धर्मवीर भारती के हजारों-लाखों प्रशंसकों के पैसों और वक़्त को बर्बाद करवाया.
टॉलस्टॉय के उपन्यास – ‘वार एंड पीस’ पर अंग्रेज़ी में और रूसी भाषा में एक से एक शानदार फ़िल्में बनी हैं.
हमको रूसी भाषा तो आती नहीं थी और अंग्रेज़ी में हम सेमी-पैदल थे.
फ़िल्म देखने के बाद भी हमारे समझ में नहीं आया था कि लोगबाग आपस में इतना लड़ क्यों रहे थे.
1968 में एक फ़िल्म आई थी – ‘जंग और अमन’. इस फ़िल्म का टाइटल देख कर ही हमारा दिल बाग़-बाग़ हो गया.
वाह ! आख़िरकार ‘वार एंड पीस’ उपन्यास पर हिंदी में फ़िल्म बन ही गयी.
हम फ़िल्म देखने पहुंचे तो कास्टिंग देख कर कर हमारे कान खड़े हो गए. टॉलस्टॉय की कहानी पर बनी फ़िल्म में दारासिंह और मुमताज़ क्या कर रहे थे?
फ़िल्म के अंत में क्या हुआ, हमको पता नहीं क्यों कि हम तो फ़िल्म के इंटरवल में ही सिनेमा हॉल छोड़ कर भाग खड़े हुए थे.
एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन ने इंतकाम लेते-लेते हमको पका दिया था.
एंग्री यंग मैन की इमेज से हट कर उनकी फ़िल्म – ‘अमर अकबर एंथोनी’ देख कर हमको मज़ा तो बहुत आया था लेकिन एक वृद्ध अंधी महिला को एक साथ तीन नौजवानों का खून चढ़ाते देख हमने अपना सर पीट लिया था.
रही-सही क़सर शिर्डी वाले साईं बाबा के दरबार में उसी अंधी वृद्ध महिला की आँखों की रौशनी की वापसी वाले चमत्कार ने पूरी कर दी थी.
ऐसी बेसिर-पैर की कहानियों पर बनी फ़िल्मों में महारत हासिल कर चुके हमारे महानायक की जब फ़िल्म – ‘कुली’ आई तो हमारा ह्रदय प्रसन्न हो गया.
मुल्क राज आनंद के कालजयी उपन्यास – ‘कुली’ पर फ़िल्म बने और उसे जैसवाल साहब न देखें! भला ऐसा कभी हो सकता था?
अच्छा हुआ फ़िल्म ‘कुली’ देखने के लिए मुल्कराज आनंद इस दुनिया में मौजूद नहीं थे वरना हमको अखबारों में पढ़ना पड़ता कि एक विख्यात उपन्यासकार ने आधा दर्जन लोगों का बेरहमी से खून कर दिया.
संजय लीला भंसाली ने शरदचंद्र के उपन्यास – ‘देवदास’ पर जब फ़िल्म बनाने का फैसला किया तो हम सोच रहे थे कि बिमल रॉय के जादुई निर्देशन और दिलीपकुमार के कमाल के अभिनय से भी कुछ अधिक कलात्मक हमको देखने को मिलेगा.
पर हमको मिला क्या?
थोड़ी नींद, थोड़ी बेहोशी, और फिर अधूरी फ़िल्म छोड़ कर सिनेमा हॉल से भाग खड़ा होना.
'यादों की बारात' शायरे-इंक़लाब जोश मलिहाबादी की बहुत ही ख़ूबसूरत आत्मकथा है.
नासिर हुसेन ने 1970 के दशक में इस टाइटल की जो फ़िल्म बनाई, अगर उसे कोई शख्स किसी भी तरह जोश मलिहाबादी की ज़िंदगी से जोड़ कर दिखा दे तो कोहिनूर हीरा इंग्लैंड से वापस आते ही उसे इनाम में दिया जा सकता है.
भारत के विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखे गए यशपाल के प्रसिद्द उपन्यास – ‘झूठा सच’ पर आज तक कोई फ़िल्म नहीं बनी है लेकिन इस टाइटल पर बनी फ़िल्म में हम दो-दो धर्मेन्द्र की मारधाड़ देख चुके हैं.
तो मित्रो ! आप सब से प्रार्थना है कि आप फ़िल्म के नाम पर मत जाइए.
उसका बढ़िया टाइटल देख कर ही उसे देखने का फ़ैसला न कर लें.
आप ठोक बजा कर फ़िल्म के कहानीकार और उसके निर्देशक के बारे में भी जब तफ़सील से मालुमात हासिल कर लें तभी सिनेमा हॉल की ओर या फिर अपने टीवी की तरफ क़दम बढ़ाएं.

शनिवार, 25 सितंबर 2021

संगीत-नृत्य प्रेमी आसावरी

10 फ़रवरी, 2020 को जन्मी हमारी नातिन आसावरी उर्फ़ सारा आज साढ़े उन्नीस महीने की हुई हैं.
जन्म लेते ही तो नहीं, लेकिन 3-4 महीने की उम्र से ही उनका संगीत प्रेम हम सबको चकित कर रहा है.
उनका पहला पसंदीदा गाना येसु दास का गाया हुआ फिल्म 'सदमा' का -
'सुरमई अंखियों से, नन्हा-मुन्ना इक सपना दे जा रे’ था.
इस गाने को जब तक वो दो-तीन बार सुन नहीं लेती थीं उन्हें नींद ही नहीं आती थी.
येसु दास के अलावा उन्हें यह गाना अपनी नानी की आवाज़ में सुनना भी बहुत पसंद था.
एक और लोरी – ‘
नन्ही कली, सोने चली, हवा धीरे आना ---‘
भी उन्हें बहुत पसंद थी.
अब कुछ बड़ी होने पर आसावरी जी को नृत्य-संगीत की जुगलबंदी वाले ऐसे गाने बहुत पसंद आ रहे हैं जिनको सुन कर वो उन पर थिरक सकें.
‘उर्वशी, उर्वशी, टेक इट इज़ी उर्वशी –’
पर वो नॉन-स्टॉप डांस करती हैं.
और
‘इक हो गए हम और तुम, तो उड़ गयी नींदे रे’
को वो पहले ध्यान से सुनती हैं लेकिन वो थिरकना तभी शुरू करती हैं जब फिज़ां में – ‘हम्मा, हम्मा, हम्मा’ गूंजने लगता है.
आजकल वीडियो चैट पर वो अपनी नानी से –
‘नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए ----’ गाए जाने की फ़रमाइश भी करती हैं.
इन दिनों मन्ना डे का गाया हुआ फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ का भोजपुरी लोकगीत –
‘चलत मुसाफ़िर मोह लिया रे, पिंजड़े वाली मुनिया’
उन्हें बहुत पसंद आ रहा है.
आजकल उनके घर की खिड़की पर एक बंदर आ जाता है.
उनकी मम्मी रागिनी जी गाने की एक अधूरी लाइन गाती हैं -
' मेरे सामने वाली खिड़की पे --'
आसावरी जी उस लाइन को पूरा करती हैं -
'एक मोटा मंकी रहता है'
हम सब इंतज़ार में हैं कि आगे चल कर कौन-कौन से गाने उनकी पसंद में आने वाले हैं.
अब तो आसावरी जी इन गानों के बोलों को अपने हिसाब से दोहराने भी लगी हैं.

मंगलवार, 21 सितंबर 2021

सर ए० ओ० ह्यूम का विलाप

 सर ए० ओ० ह्यूम का विलाप –

(सूरदास के पद – ‘तुम पै कौन दुहाबै गैया’ की तर्ज़ पर)

कांग्रेस की डूबत नैया
मात-सपूत जबर जोड़ी जब जाकी बनी खिवैया
दल के नेता संकेतन पै नाचैं ताता थैया
प्रतिभा-भंजक युवा-बिरोधी घर-घर फूट पडैया
आतम बानी बेद-बचन सम और न कछु सुनवैया
लोकमान्य गांधी नेहरु की संचित पुण्य मिटैया
ह्यूमदास प्रभु किरपा कीजो तुमहिं मुक्ति दिलवैया
नोट: ऐसा विलाप किसी भी राजनीतिक दल का संस्थापक कर सकता है. बस, हमको राजनीतिक दल के संस्थापक का नाम, राजनीतिक दल का नाम और उसे संचालित करने वाली जुगल-जोड़ी के नाम बदलने होंगे

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

हिंदी-दिवस

हिंदी दिवस, हिंदी पखवाड़ा आदि का नाटक हम 1960 के दशक से देखते और सहते आ रहे हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र की पंक्ति -

'निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति को मूल'

को सुन-सुन कर तो हमे घर के पालतू तोते भी उसे गुनगुनाने में निष्णात हो गए हैं.

हिंदी को भारत के माथे की बिंदी बताने की रस्म आज हिंदी भाषी क्षेत्र का बच्चा-बच्चा निभा रहा है.

अल्लामा इक़बाल के क़ौमी तराने की पंक्ति-

'हिंदी हैं, हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा'

का अर्थ समझे बिना आज के दिन हिंदी भक्त उसे दोहराते आए हैं.

यहाँ यह बता दूं कि इस पंक्ति में 'हिंदी' का अर्थ है -

हिंद का निवासी यानी कि हिन्दुस्तानी

यहाँ हिंदी भाषा से इसका कोई लेना देना नहीं है.

भारतेन्दुकालीन हिंदी नवजागरण में हिंदी के सर्वतोमुखी विकास का सार्थक प्रयास प्रारंभ प्रारंभ हुआ.

हिंदी को हिंदी की स्थानीय बोलियों और हिंदी साहित्य की प्रचलित भाषा – ब्रज भाषा से कहीं ऊपर – शिक्षा राजकाज न्यायपालिका और व्यापार की भाषा बनाने के सार्थक प्रयास प्रारंभ हुए.

फूट डाल कर शासन करने की नीति अपनाने वाले अंग्रेज़ शासकों ने इसे इसे हिंदी-उर्दू और हिन्दू-मुसलमान का आपसी झगड़ा बना दिया.

हिंदी-उर्दू भाषाओँ के झगडे को देवनागरी लिपि और उर्दू-फ़ारसी लिपि का विवाद भी बना दिया गया.

कबीर के शब्दों में कहें तो –

अरे इन दोउन राह न पाई !

भाषा और लिपि के इस विवाद ने भारत में अंग्रेज़ी भाषा के और रोमन लिपि के आधिपत्य को और भी स्थायी बना दिया.

बहुत कम हिंदी समर्थक यह मानते हैं कि मानक हिंदी, उर्दू की ऋणी है.

भारतेंदु के युग में जिस खड़ी बोली का विकास किया गया, द्विवेदी युग में जिसका परिष्कार किया गया, उसका पहला पन्ना तो अमीर ख़ुसरो सात सौ साल पहले लिख चुके थे.

उन्नीसवीं शताब्दी में उर्दू, हिंदी से बहुत आगे थी और हिंदी का हर प्रतिष्ठित विद्वान उन दिनों उर्दू भाषा तथा उर्दू अदब का जानकार हुआ करता था.

स्वतंत्रता के बाद हिंदी का ही क्या, सभी भारतीय भाषाओँ का जिस तरह विकास होना चाहिए था, वह नहीं हुआ.

हमारी न तो कोई राष्ट्रभाषा बनी और न कोई राष्ट्र-लिपि बनी तथा  व्यावहारिक दृष्टि से अंग्रेज़ी ही आक़ाओं की ज़ुबान बनी रही.

1960 के दशक के हिंदी आन्दोलन को मुख्य रूप से संभाला अवसरवादी नेताओं ने, जिन्होंने कि अपने बच्चों को अंग्रेज़ी तालीम के लिए विलायत भेजने से कभी परहेज़ नहीं किया.

हिंदी का विरोध करने वालों ने भी अपनी-अपनी भाषाओँ के विकास के स्थान पर निजी स्वार्थ और हिंदी विरोध के नाम पर सत्ता हथियाने को ही वरीयता दी.

आज़ादी के 74  साल बाद भी हिंदी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में प्रामाणिक मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध कराने में अक्षम है.

आज भी हिंदी भाषी क्षेत्रों में न्यायालयों की भाषा आमतौर पर अंग्रेज़ी ही है.

लोकसभा राज्यसभा ही क्या सभी जन-प्रतिनिधि सभाओं में होने वाली कार्रवाई में अंग्रेज़ी बोलने वालों का ही दबदबा रहता है.

हिंदी की इस दुर्दशा के लिए हम हिंदीभाषी ही मुख्यतः ज़िम्मेदार हैं. आमतौर पर हम हिंदी भाषी केवल एक भाषा जानते हैं लेकिन अन्य भाषाभाषियों से यह अपेक्षा करते हैं कि वो हिंदी सीखें.

मेरी दृष्टि में हिंदी का विकास करने के लिए हमको किसी भी भाषा से कुछ भी अच्छा लेने से परहेज़ नहीं करना चाहिए.

सिर्फ़ हिंदी जानने वाले हिंदी का समुचित विकास नहीं कर सकते.

भाषा को धर्म से जोड़ने की ग़लती भी हिंदी का नुक्सान कर रही है.

प्रसाद-पन्त की जैसी शुद्ध-प्रांजल संस्कृत निष्ठ हिंदी को अपना कर हम हिंदी का भला नहीं कर सकते.

अगर हमारी भाषा में उर्दू, पंजाबी, तेलगु, मराठी आदि भारतीय भाषाओँ के ही क्या, अंग्रेज़ी के शब्द भी आ जाएं तो क्या हानि है?

ऐसा करने से हमारी भाषा समृद्ध ही होगी, दरिद्र नहीं !

तकनीकी और वैज्ञानिक शब्दावली में हमको विदेशी भाषाओँ के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए.

ऑक्सीजन- को ओशोजनऔर -  नाइट्रोजनको नत्रजनकह कर हम हिंदी की सेवा नहीं कर रहे हैं, बल्कि उसे दुरूह बना कर उसे हानि ही पहुंचा रहे हैं.

आज हमने देवनागरी लिपि में नुक्ते का प्रयोग कम कर के उसे उर्दू से बहुत दूर कर दिया है.

हम हिंदी भाषा को और देवनागरी लिपि को अधिक समर्थ बनाने का, उन्हें अधिक लचीली बनाने का प्रयास करें, न कि उन्हें एक सीमित दायरे में बाधें.

हिंदी को गंगा की तरह होना चाहिए जो कि सभी नदियों का जल ख़ुद में मिलाने में कभी संकोच नहीं करती है.

अध्यापन में सारी उम्र बिताने के बाद मैं तो इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि फ़िलहाल भारत में तरक्की करने के लिए नई पीढ़ी को अंग्रेज़ी तो सीखनी ही पड़ेगी और अगर हो सके तो कोई अन्य भाषा जैसे चीनी या जापानी भी कोई सीख ले तो उसे आगे बढ़ने से फिर कोई नहीं रोक सकता.

हिंदी की विशेषता गिनाते समय हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि सिर्फ़ हिंदी का ज्ञान हमको सफल नेता तो बना सकता है लेकिन अन्य क्षेत्रों में हमारा पिछड़ना तय है.

हमारे जैसे हिन्दीभाषी बुद्धिजीवी भी आमतौर पर कोई अन्य भारतीय भाषा नहीं जानते.

क्या यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं है

तामिल, बांग्ला जैसी महान भाषाओँ के अमर ग्रंथों को हम उनके मूल रूप में तो पढ़ ही नहीं सकते.

यह सही है कि हिंदी का विकास हो रहा है किन्तु वह बाज़ार की आवश्यकताओं के कारण हो रहा है हमारे प्रयासों के कारण नहीं !

हिंदी के विकास में मुम्बैया फ़िल्मों का योगदान भी नकारा नहीं जा सकता. लेकिन इस पर हम हिन्दीभाषी कैसे गर्व कर सकते हैं?

हमने हिंदी को सक्षम बनाने के लिए अपनी तरफ़ से कुछ भी नहीं किया है.

मुझे हिंदी बोलने में शर्म नहीं आती लेकिन मुझे हम हिंदी भाषियों की काहिली पर, हमारी हठवादिता पर बहुत शर्म आती है.

हिंदी दिवस को, हिंदी पखवाड़े को, हम हिंदी युग तो तभी बना पाएंगे जब हम इमानदारी से उसके विकास के लिए प्रयास करेंगे.

और जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे तब तक एक दूसरे को हिंदी दिवस की, हिंदी पखवाड़े की, बधाई देकर अपना मन बहला लेंगे और हिंदी की सेवा करने का ख़ुद को श्रेय देकर अपनी पीठ थपथपा लेंगे.

हिंदी-दिवस पर एक बार फिर मेरी पुरानी रचना –

1.  कितनी नक़ल करेंगेकितना उधार लेंगे,
सूरत बिगाड़ माँ कीजीवन सुधार लेंगे.
पश्चिम की बोलियों कादामन वो थाम लेंगे,
हिंदी दिवस पे ही बसहिंदी का नाम लेंगे.

 

2.  जिसे स्कूलदफ्तर सेअदालत सेनिकाला था,
उसी हिंदी को अबघर से और दिल से भी, निकाला है.
तरक्क़ी की खुली राहेंमिली अब कामयाबी भी,
बड़ी मेहनत से खुद कोसांचा-ए-इंग्लिश में ढाला है.

 

3.  सूर की राधा दुखीतुलसी की सीता रो रही है,
शोर डिस्को का मचा हैकिन्तु मीरा सो रही है.
सभ्यता पश्चिम कीविष के बीज कैसे बो रही है,
आज अपने देश मेंहिन्दी प्रतिष्ठा खो रही है.

 

4.  आज मां अपने ही बेटों मेंअपरिचित हो रही है,
बोझ इस अपमान काकिस शाप से वह ढो रही है.
सिर्फ़ इंग्लिश के सहारेभाग्य बनता है यहां,
देश तो आज़ाद हैफिर क्यूं ग़ुलामी हो रही है.

 

5.    'निराला को कभी जो एक कुटिया तक न दे पाई,
वही बे-बेबसभिखारनबे-सहाराहै मेरी हिंदी !'
किसी वृद्धाश्रम मेंख़ुद उसेअब दिन बिताने हैं,
किसी के भाग्य को अब क्या संवारेगीमेरी हिंदी !