रविवार, 28 अगस्त 2022

मैसूर सिल्क का रामनामी दोशाला

 पंडित नित्यानंद चौबे जैसा मूंजी, सारे कीर्ति नगर में ही क्या, सारे भारत में मिलना मुश्किल था.

अपने पूज्य पिताजी स्वर्गीय परमानन्द चौबे से उन्हें विरासत में पंडिताई मिली थी.

कीर्तिनगर के कम से कम सौ-डेड़सौ परिवार उनकी अपनी भाषा में उनके – ‘कस्टेम्पर (कस्टमर) थे और वो उनके लिए उनके सोलह संस्कारों पर ही क्या, तमाम अल्लम-गल्लम शुभ-अशुभ अवसरों पर भी पूजा करने के लिए बुलाए जाते थे.

धन-धान्य से परिपूर्ण पंडित जी के घर में उनकी चौबाइन ख़ुद को और अपने बच्चों को, रूखा-सूखा खिलाने को, और उल्टा-सीधा पहनाने को, मजबूर हुआ करती थीं क्यों कि उनके पतिदेव कस्टेम्परों से दान में मिले  दान में मिले कपड़े, मिठाइयाँ फल,दक्षिणा में मिले कपड़े, मिठाइयाँ, फल, मेवे आदि को घटी दरों पर कीर्ति नगर की विभिन्न दुकानों पर बेच कर, खाली हाथ लेकिन भरी जेब, ले कर ही घर में प्रवेश करते थे.

चौबे जी की जेब तक और उनकी तिजोरी तक, चौबाइन और उनके बच्चे ही क्या, फ़रिश्ते तक नहीं पहुँच सकते थे.

सेठ छंगामल चौबेजी के सबसे बड़े जजमान थे.

सेठ जी के पोते का अन्नप्राशन था.

पंडित नित्यानंद चौबे तीन दिन से सेठ जी के यहाँ ख़ुद तो तर माल उड़ा रहे थे लेकिन उनके बीबी-बच्चों की किस्मत में घर की बनी दाल-

रोटी-सब्ज़ी ही थी क्योंकि चढ़ावे के सारे पकवान, फल, मेवे आदि तो हलवाइयों की और पंसारियों की दुकानों में जा कर नक़दी का रूप धारण कर चुके थे.

पूजा संपन्न होने पर सेठ छंगामल ने पंडित नित्यानंद चौबे को मोटी दक्षिणा के साथ मैसूर सिल्क का एक बहुत सुन्दर दोशाला भेंट किया.

फ़रीद फल वाले के यहाँ फल, नत्थूलाल पंसारी के यहाँ मेवे और जगन हलवाई के यहाँ मिठाइयां बेचने के बाद पंडित जी ने रामनाथ बजाज की दुकान की ओर प्रस्थान किया.

चौबे जी को उम्मीद थी कि सेठ छंगामल से भेंट में मिला मैसूर सिल्क का दोशाला उन्हें कम से कम हज़ार रूपये तो दिला ही देगा.

चौबे जी ने बड़ी शान से अपना दोशाला रामनाथ बजाज के सामने रख दिया.

रामनाथ बजाज ने दोशाले को उल्टा-पलटा फिर सर हिलाते हुए उसने चौबे जी को दोशाला वापस करते हुए कहा –

पंडित जी, इस दोशाले में तो हल्दी-रोली के दाग लगे हुए हैं. ऐसा दागी माल हमारी दुकान पर नहीं बिकेगा.

पंडित जी ने अपनी दलील देते हुए कहा –

जजमान ! हल्दी-रोली लगा ये दोशाला तो बड़ा शुभ माना जाएगा. वैसे तो मैं इसके तुमसे कम से कम हज़ार रूपये लेता पर इन शुभ चिह्नों के कारण मैं इसके सिर्फ़ सात सौ रूपये लूँगा.

घाघ रामनाथ बजाज ने दोशाले पर हिकारत भरी नज़र डाल कर मसखरी के अंदाज़ में कहा –

पंडित जी दान-दक्षिणा में मिले कपड़े बेचने के बजाय कभी ख़ुद भी पहन लिया कीजिए. इस हल्दी-रोली लगे दोशाले को ओढ़ कर आप बहुत अच्छे लगेंगे.

पंडित जी ने हथियार डालते हुए अंतिम ऑफ़र दिया –

जजमान ! पांच सौ तो दे दो !

जजमान ने पहला ऑफ़र दिया –

पंडित जी, दो सौ में देते हों तो दोशाला छोड़ जाइए वरना दुकान से सादर प्रस्थान कीजिए.

पंडित जी ने सादर प्रस्थान करने वाला विकल्प चुना और मन ही मन रामनाथ बजाज को कोसने का कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया –

हम से औने-पौने में माल खरीद कर उसे दुगुने-चौगुने दाम में बेचने वाले नटवरलाल ! अब तेरी दुकान पर हम झांकें भी तो हमारी आँखें फूट जाएं.

हमारा यह मैसूर सिल्क का दुशाला अब हज़ार से ऊपर बिकेगा और इसी कीर्तिनगर में बिकेगा.

अब हम सौ रूपये दे कर हनीफ़ पेंटर से इसका ऐसा रामनामी दोशाला तैयार करवाएँगे कि इसके हल्दी-रोली के दाग किसी को दिखाई ही नहीं देंगे.

हनीफ़ पेंटर ने पंडित जी की मिन्नतों की और दुआओं की, क़तई परवाह न करते हुए, दागी दोशाले के मेकअप करने के, उन से पूरे दो सौ रूपये झटक लिए. लेकिन काम उसने ऐसा बेजोड़ किया था कि ख़ुद पंडित जी भी लाख कोशिश कर के भी दोशाले में राम-नाम के बीच हल्दी-रोली के दाग खोज नहीं पाए थे.

रामनाथ बजाज की दुकान छोड़ कर पूरे कीर्तिनगर के कपड़ों की दुकानें छान मारने पर भी पंडित जी के इस रामनामी दुपट्टे के लिए किसी ने तीन सौ रूपये से ऊपर की बोली नहीं लगाई.

आख़िरकार रामनाथ बजाज की दुकान की तरफ़ झाँकने पर भी अपनी ऑंखें फोड़ने को तैयार पंडित जी ने फिर उसकी दुकान पर धरना दे दिया और बड़ी मिन्नत-चिरौरी कर उसे साढ़े तीन सौ में अपना रामनामी दोशाला बेच डाला.

इस तरह पंडित जी ने दो सौ रूपये का पहला ऑफ़र ठुकरा कर फिर दो सौ रूपये अपनी तरफ़ से खर्च कर के, अपने नवीनीकृत दोशाले के साढ़े तीन सौ रूपये प्राप्त किए.

इस सयानेपन में उन्हें पचास रूपये नक़द की ज़बर्दस्त चोट लगी और अपनी कसम तोड़ने पर अपनी ऑंखें फूटने का ख़तरा भी पैदा हो गया.

पंडित जी कब तक इस चोट को, इस दर्द को, और अपनी ऑंखें फूटने की सम्भावना को ले कर परेशान रहते?

वक़्त के साथ उनके सारे घाव भर गए और उनके दिल से अपनी आँखें फूटने का डर भी जाता रहा.  

एक दिन लाला छंगामल के यहाँ से पंडित जी के लिए फिर बुलावा आ गया.

लाला जी की नई कोठी का गृह-प्रवेश था और पूजा का सारा दायित्व पंडित नित्यानंद चौबे को सम्भालना था.

तीन दिनों तक पंडित नित्यानंद चौबे ने ऐसी लगन से सारा पूजा-कार्यक्रम किया कि पूजा संपन्न होने पर लाला छंगामल ने उनकी जेब सौ-सौ के नोटों से भर दी और मिठाइयों के डिब्बों, फल-मेवे के टोकरों, का उनके लिए अम्बार लगा दिया.

गिलोगिल्ल पंडित नित्यानंद चौबे अपने जजमान को आशीर्वाद देते हुए जब प्रस्थान कर रहे थे तो उनके जजमान ने उन्हें रोकते हुए कहा –

पंडित जी ठहरिए ! मुझे आपको एक भेंट और देनी है.

अपने पोते के अन्नप्राशन में मैंने आपको मैसूर सिल्क का दोशाला दिया था. इस बार मेरी इच्छा हुई कि मैं गृह-प्रवेश पर आपको वैसा ही रामनामी दोशाला दूं.

भला हो रामनाथ बजाज का, जिसने पता नहीं कैसे चार दिन में ही प्योर मैसूर सिल्क का रामनामी दोशाला मेरे लिए मंगवा लिया. इस दोशाले को ओढ़ कर आप मुझे कृतार्थ कीजिए.

सेठ छंगामल के हाथों, हनीफ़ पेंटर की कलाकारी से सज्जित, उस चिर-परिचित रामनामी दोशाले को ओढ़ कर पंडित नित्यानंद चौबे ऊपरी तौर पर तो हंस रहे थे पर अन्दर से उनका दिल ज़ार-ज़ार रो रहा था.  

शनिवार, 20 अगस्त 2022

सर्व धर्म समानत्व -

 स्वर्गीय राजीव गाँधी के राज में धर्म-विकृति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी थी.

सवर्ण हिन्दू निर्लज्ज होकर अपने दलित भाइयों की आहुति दे रहे थे.
शाह बानो प्रकरण में इस्लाम के अंतर्गत स्त्री-अधिकार की समृद्धि परंपरा की धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं.
जैन समुदाय में दुधमुंही बच्चियों को पालने में ही साध्वी बना कर धर्म का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था.
उस समय खालिस्तान आन्दोलन अपने शिखर पर था.
पन्थ के नाम पर और स्वतंत्र खालिस्तान के नाम पर, अन्य धर्मावालाबियों का खून बहाया जा रहा था.
हमारे देश में ईसाई धर्म-प्रचारक डॉलर से भरी थैलियाँ खर्च कर हज़ारों की तादाद में धर्म-परिवर्तन करा, मानवता की तथाकथित सेवा कर रहे थे.
लगभग 35 साल पहले लिखी गयी इस कविता में मैंने यह प्रश्न उठाने का साहस किया है कि धर्म-विकृति को ही हम कब तक अपना धर्म मानते रहेंगे.
आज भी धर्म-विकृति को ही हम धर्म के नाम पर अपना रहे हैं.
मेरे मन में - 'सभी कुंअन में भांग पड़ी' की कहावत को चरितार्थ करने वाले इन धर्मों की उपयोगिता पर और उनकी हमारे जीवन में आवश्यकता पर, अनेक प्रश्न उठ रहे थे, अनेक शंकाएँ भी उठ रही थीं -
सर्व-धर्म समानत्व -
जहां धर्म में दीन-दलित की, निर्मम आहुति दी जाती है,
लेने में अवतार, प्रभू की छाती, कांप-कांप जाती है।
जिस मज़हब में घर की ज़ीनत, शौहर की ठोकर खाती है,
वहां कुफ्र की देख हुकूमत, आंख अचानक भर आती है।।
जहां पालने में ही बाला, साध्वी बनकर कुम्हलाती है,
वहां अहिंसा का उच्चारण करने में, लज्जा आती है।
जिन गुरुओं की बानी केवल, मिल कर रहना सिखलाती है,
वहां देश के टुकड़े कर के, बच्चों की बलि दी जाती है।।
बेबस मासूमों की ख़ातिर, लटक गया था जो सलीब पर,
उसका धर्म प्रचार हो रहा, आज ग़रीबों को ख़रीद कर।
यह धर्मों का देश, धर्म की जीत हुई है, दानवता पर,
पर विकृत हो बोझ बना है धर्म, आज खुद मानवता पर।।

सोमवार, 15 अगस्त 2022

खादी

'खादी का झंडा सत्य, शुभ्र अब सभी ओर फहराता है।'
पंडित सोहनलाल द्विवेदी
लेकिन आज -
सिंथेटिक कपड़े का झंडा अब सभी ओर फहराता है.
पंडित सोहनलाल द्विवेदी की अमर रचना – ‘खादी’ हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन की अमर धरोहर है.
परतंत्र भारत में खादी केवल कपास से काते गए सूत और फिर उस से बुने गए कपड़े की कहानी नहीं कहती है बल्कि यह तो आत्मसम्मान, स्वदेशी, आर्थिक आत्मनिर्भरता, नारी-उत्थान, ग्राम-स्वराज्य, और दलितोद्धार के अतिरिक्त ब्रिटिश-भारतीय साम्राज्य की जड़ों को खोखला करने की प्रेरक गाथा भी कहती है.
आज आज़ादी के अमृत-महोत्सव पर इस कविता को आप सब मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ.
जय हिन्द ! वंदेमातरम् !
खादी -
खादी के धागे-धागे में, अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा।
खादी के रेशे-रेशे में, अपने भाई का प्यार भरा,
मां-बहनों का सत्कार भरा, बच्चों का मधुर दुलार भरा।
खादी की रजत चंद्रिका जब, आ कर तन पर मुसकाती है,
जब नव-जीवन की नई ज्योति, अंतस्थल में जग जाती है।
खादी से दीन निहत्थों की, उत्तप्त उसांस निकलती है,
जिससे मानव क्या, पत्थर की भी, छाती कड़ी पिघलती है।
खादी में कितने ही दलितों के, दग्ध हृदय की दाह छिपी,
कितनों की कसक कराह छिपी, कितनों की आहत आह छिपी।
खादी में कितनों ही, नंगों-भिखमंगों की है, आस छिपी,
कितनों की इसमें भूख छिपी, कितनों की इसमें प्यास छिपी।
खादी तो कोई लड़ने का, है भड़कीला, रणगान नहीं,
खादी है तीर-कमान नहीं, खादी है खड्ग-कृपाण नहीं।
खादी को देख-देख तो भी, दुश्मन का दिल थहराता है,
खादी का झंडा सत्य, शुभ्र अब सभी ओर फहराता है।
खादी की गंगा जब सिर से, पैरों तक बह लहराती है,
जीवन के कोने-कोने की, तब सब कालिख धुल जाती है।
खादी का ताज चांद-सा जब, मस्तक पर चमक दिखाता है,
कितने ही अत्याचार ग्रस्त, दीनों के त्रास मिटाता है।
खादी ही भर-भर देश प्रेम का, प्याला मधुर पिलाएगी,
खादी ही दे-दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी।
खादी ही बढ़, चरणों पर पड़, नुपूर-सी लिपट मना लेगी,
खादी ही भारत से रूठी, आज़ादी को घर लाएगी।।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

बैलेंस्ड डाइट

 मेरे बाल-कथा संग्रह ‘कलियों की मुस्कान’ की एक कहानी आपकी सेवा में प्रस्तुत है. इस कहानी को मेरी बारह साल की बेटी गीतिका सुनाती है और इसका काल है – 1990 का दशक ! पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वो गीतिका के इन गुप्ता अंकल में मेरा अक्स देखने की कोशिश न करें.

बैलेन्स्ड डाइट -
भगवान ने कुछ लोगों को कवि बनाया है, उन्हें भावुकता अच्छी लगती है.
सुन्दर दृष्य देखकर या किसी ट्रैजेडी के बारे में सुनकर उनके मन में कविता के भाव उमड़ने लगते हैं.
कुछ को नेता का जिगर दिया गया है, इन्हें तिकड़म और जुगाड़ लगाना पसन्द होता है.
जिनको अपराधी का दिमाग मिला है, उनको ठाँय-ठूँ और ढिशुम-ढिशुम का कान-फोड़ संगीत पसंद आता है.
मीरा के नयनों में नन्दलाल बसते हैं, एम. एफ़ हुसेन के दिल में माधुरी दीक्षित रहती हैं पर हमारे गुप्ता अंकिल के प्राण पकवानों में बसते हैं. गुप्ता अंकिल कहते हैं –
‘अब आप ही बताइए इसमें हमारा क्या कुसूर है? भगवान ने हमको ऐसा ही बनाया है. उन्होंने हमको सूंघने की ऐसी शक्ति दी है जो दो मील से पकवानों की खुशबू पकड़ लेती है, आँखें ऐसी दी हैं जिन्हें सिर्फ़ पकवानों की ही फ़िगर और उनका गैटअप लुभाता है और जीभ ऐसी दी है जिसे मीठा, नमकीन, खट्टा, तीख़ा, चरपरा, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, पश्चिम भारतीय, इटालियन, कान्टिनेन्टल, थाई, मैक्सिकन, मंचूरियन, चायनीज़ सब पसन्द है. दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं. एक तो वो जो जीने के लिए खाते हैं और दूसरे वो जो खाने के लिए जीते हैं. हम तो दूसरी कैटेगरी में आते हैं.’
गुप्ता अंकिल के हिसाब से खाने-पीने का शौक़ रखने वाले शख़्स का होशियार होना लाज़मी है.
पकवानों की किस्मों की जानकारी हासिल करने के लिए पता नहीं उसे क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं.
अब पापड़ की ही बात लीजिए तो क्या आप अमृतसरी, राजस्थानी, सिन्धी और गुजराती पापड़ में फ़र्क कर सकते हैं? नहीं न! पर गुप्ता अंकिल पापड़ों में आँख मूंद कर सिर्फ़ जीभ का इस्तेमाल कर फ़र्क कर सकते हैं.
खाने के मामले में उनका भौगोलिक और ऐतिहासिक ज्ञान बहुत व्यापक है.
कुछ साल पहले पापा हमारे लिए जनरल नौलिज वाला एक इलैक्ट्रो गेम लाए थे, उसमें ख़ास-ख़ास स्थानों से जुड़ी हुई प्रसिद्ध चीज़ें खोजनी होती थीं. अगर आप किसी ख़ास स्थान और उससे जुड़ी चीज़ का सही मैच कर पॉइंट्स पर तार लगाते थे तो लाइट जल जाती थी.
गुप्ता अंकिल भी हमारे इस खिलौने पर अपनी जनरल नौलिज का टैस्ट देने को बेताब रहते थे. गेम में तो अंकिल कई मामलों में पीछे रह जाते थे. उन्हें यह नहीं मालूम होता था कि ताजमहल कहाँ है या विक्टोरिया मेमोरियल कहां है.
पापा ने उसी इलैक्ट्रोगेम के पैटर्न पर गुप्ता अंकिल के लिए एक विशेष पकवान गेम तैयार कर दिया. इसमें आगरा के साथ ताजमहल का मैच मिलाने के बजाय पेठे-दालमोठ का मैच किया गया था.
इसी तरह कलकत्ते को विक्टारिया मेमोरियल की जगह रशोगुल्ला से जोड़ा गया था, लखनऊ को इमामबाड़े की जगह रेवड़ी के साथ और जयपुर को हवामहल की जगह घेवर के साथ मिलाया गया था और कचौड़ियों को बनारस से जोड़ा गया था.
गुप्ता अंकिल इस पकवान गेम में कभी गलत नहीं होते थे और अपने हर अटेम्प्ट में लाइट ज़रूर जलवा लेते थे.
हमारी ही तरह विशुद्ध शाकाहारी होने की वजह से गुप्ता अंकिल को बिरयानी, तन्दूरी मुर्ग या कबाब की पर्याप्त जानकारी नहीं है पर दुनिया भर के तमाम शाकाहारी व्यन्जनों के विषय में उन्हें चलता-फिरता एनसाइक्लोपीडिया ज़रूर कहा जा सकता है.
लोगबाग मथुरा-वृन्दावन भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थली देखने जाते हैं पर हमारे गुप्ता अंकिल वहाँ पेड़े खरीदने जाते हैं.
दिल्ली में उनके लिए सारे रास्ते चाँदनी चौक की पराठेवाली गली से होकर गुज़रते हैं.
लखनऊ में वो आँखें बन्द कर अमीनाबाद की प्रसिद्ध चाट की दुकानों पर और चौक की ठन्डाई की दुकान पर पहुँच सकते हैं.
कितने लोग जानते होंगे कि कलकत्ते में खजूर के गुड़ से बना सबसे बढि़या सन्देश कहाँ मिलता है, बीकानेर में भुजिया की सबसे प्रामाणिक दुकान कौन सी है, जयपुर में घेवर की बैस्ट दुकान तक कैसे पहुँचा जा सकता है, मैसूरी दोसे और मद्रासी दोसे में क्या फ़र्क होता है, मुम्बई में पाव-भाजी कहाँ जाकर खाई जाए, आपको ऐसी तमाम जानकारियाँ गुप्ता अंकिल को दो-चार पकवान खिलाकर तुरन्त मिल सकती हैं.
चाय के बागानों में ऊँची-ऊँची तनख्वाहों पर प्रोफ़ेशनल टी-टेस्टर्स रक्खे जाते हैं लेकिन पता नहीं क्यों मिठाई बनाने वाले और नमकीन या चाट बनाने वालों को ऐसे एक्सपर्ट्स की ज़रूरत नहीं होती.
अगर उन्हें ऐसे एक्सपर्ट् की ज़रूरत होती तो क्या गुप्ता अंकिल कुमाऊँ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसरी कर अपनी जि़न्दगी किताबों में माथापच्ची करने और स्टूडेन्ट्स को इंग्लिश लिटरेचर पढ़ाने में बरबाद करते?
वो तो ऊँची तनख्वाह लेकर दिन में चौबीसों घन्टे और साल में तीन सौ पैसठों दिन अपने दोनों हाथों की दसो उंगलियाँ घी में और अपना इकलौता सर कढ़ाई में रख लेते.
पकवानों में डूबते-उतराते गुप्ता अंकिल बच्चे से कब बड़े हो गये यह किसी को पता ही नहीं चला. अब वो बड़े हुए तो उनकी शादी का मौसम भी आ गया.
होने वाली दुल्हन के रूप-रंग, शिक्षा-दीक्षा, घर-परिवार के बारे में मालुमात करना तो औरों की जि़म्मेदारी थी पर शादी से पहले उन्होंने लड़की की अर्थात हमारी होने वाली आंटी की सिर्फ़ पाक-विद्या में परीक्षा ली थी. उनकी बनाई फूली-फूली गोल पूडि़यों, सुडौल स्वादिष्ट समौसों और मूँग की दाल के बने सुनहरे हल्वे ने गुप्ता अंकिल का दिल जीत लिया था. गुप्ता आंटी के पाक-विद्या ज्ञान में जो थोड़ी बहुत कमी थी उसे गुप्ता अंकिल ने दूर कर दिया.
शादी के बाद गुप्ता अंकिल का घर प्रामाणिक कलकतिया सन्देश, मद्रासी दोसा, गुजराती ढोकला, देहलवी चाट, पंजाबी छोलों और बनारसी कलाकन्द का निर्माण केन्द्र बन गया.
गुप्ता आंटी पाक विद्या की हर प्रतियोगिता में कोई न कोई पुरस्कार जीत ही लातीं थीं. इन प्रतियोगिताओं से पहले आंटी की तैयारियों में पकवान चखने का जि़म्मा गुप्ता अंकिल का ही होता था.
अगर वो आंटी के बनाए पकवान को अप्रूव कर देते थे तो उनका प्रतियोगिता में पुरस्कार पाना निश्चित हो जाता था.
अपनी शादी के सात साल गुप्ता अंकिल ने किचिन के इर्द-गिर्द घूमते हुए और पकवानों को चखते हुए गुज़ार दिए पर कुदरत को उनका ऐसा सुख मन्ज़ूर नहीं था.
पकवान बनवाने और उन्हें अकेले ही कम से कम आधा हज़म कर जाने के शौक ने कब उनका वज़न सौ किलो तक पहुँचाया, कब उनकी कमर का नाप फ़ोर्टी फ़ोर इंचेज़ तक पहुँचा, कब उनको बिठाने के लिए रिक्शे वाले डबल किराए की माँग करने लगे और कब उनके नाप के इनर वियर्स ख़ास-ख़ास दुकानों के अलावा छोटी-मोटी दुकानों पर मिलना बन्द हो गए, किसी को पता ही नहीं चला.
एक बार गुप्ता अंकल गम्भीर रूप से बीमार पड़े तो उन्हें तमाम टैस्ट्स कराने पड़े. पता चला कि उनको डायबटीज़ हो गयी है. डॉक्टर्स ने उनकी मिठाइयों पर रोक लगवा दी, चाट-पकौडों जैसी भोली-भाली मासूम चीज़ों के घर आने या उन्हें घर पर ही बनाने पर पाबन्दी लगा दी गयी.
डॉक्टर मेहता, गुप्ता अंकिल के बचपन के दोस्त थे पर इस समय उन्होंने गुप्ता अंकिल के सबसे बड़े दुश्मन का रोल निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
उन्होंने गुप्ता अंकिल के घर के सभी सदस्यों को और हम दोनों बहनों को भी उनके ऊपर जासूस बनाकर छोड़ दिया था.
गुप्ता अंकिल के सभी हितैषियों को उनके हाथ से कोई भी पकवान कहीं भी छीनने का अधिकार डॉक्टर मेहता ने दे दिया था.
गुप्ता अंकिल की मुसीबत यह थी कि उनके सभी करीबी बड़े उत्साह से इस नई जि़म्मेदारी को निभाने के लिए बेताब रहते थे. ख़ासकर उनका नन्हा बेटा बंटी और उनके परम मित्र की बेटियाँ यानी कि हम दोनों बहनें आज भी अपने इस अधिकार का धड़ल्ले से उपयोग कर रही हैं.
गुप्ता अंकिल कभी आंटी की खुशामद कर डायटिंग में थोड़ी ढील दिए जाने की नाकाम कोशिश करते हैं तो कभी अपने ऊपर छोड़े गए जासूस, हम बच्चों को चाकलेट-टॉफ़ी की रिश्वत देकर खाने-पीने का प्रोहिबिटेड माल गड़पने का असफल प्रयास करते हैं. लेकिन हम बड़े प्रिंसिपल्स वाले बच्चे हैं, हमको गुप्ता अंकिल से चाकलेट-टॉफ़ी लेने में कोई ऐतराज़ नहीं है पर अपने फ़र्ज़ से बँधे रहने की वजह से वक़्त रहते ही हम उनकी शिकायत गुप्ता आंटी से कर देते हैं.
आमतौर पर होता यह है कि उनके मुँह में पहुँचने से पहले ही लड्डू उनसे छीन लिया जाता है.
शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार, बर्थ-डे पार्टी, मैरिज-एनीवर्सरी, प्रमोशन या गृह-प्रवेश किसी की भी पार्टी हो पर गुप्ता अंकिल की किस्मत में भुना हुआ पापड़, सलाद, सूखी रोटी, सब्ज़ी और दाल ही आते हैं.
सबसे ज़्यादा दुख की बात यह है कि चैम्पियन कुक हमारी गुप्ता आंटी अब अपने पतिदेव के खाने में ड्रापर से घी डालने लगी हैं.
गाजर के हल्वे के साथ गर्मा-गर्म मौइन की कचौडि़यां खिलाने वाली उनकी चैंपियन कुक श्रीमती जी पता नहीं कब किसी फैमिली सीरियल की बेरहम और अत्याचारी सास में तब्दील हो गईं.
गुप्ता अंकिल तो आज भी पकवान चुराने तक को तैयार रहते हैं पर आजकल उनके घर में हर तर माल पर ताला लगा रहता है और हर जगह – ‘चाबी खो जाए’ वाला किस्सा सुनाई देता है.
कैलोरी-चार्ट, वेट-चार्ट, कार्बोहाइड्रेट की मात्रा, लो कैलोस्ट्रोल-डाइट जैसी नितान्त टैक्निकल बातों से गुप्ता अंकिल जैसे लिटरेचर के प्रोफ़ेसर का क्या लेना देना?
वो कैसे मान लें कि एक छोटा सा रसगुल्ला उनके ब्लड शुगर लेवेल पर कहर ढा सकता है.
तली मूँगफली जैसी मासूम और फ्रेंडली चीज़ को कैलोरीज़ और कार्बोहाइड्रेट का भण्डार कैसे माना जा सकता है?
आलू और अरबी जैसी शानदार सब्जियों के बदले में कोई करेले या तोरई की बोरिंग सब्जियाँ क्यों खाए? फलों में अंगूर, आम, केले और चीकू जैसे शाही फलों से नाता तोड़कर वो खीरे, ककड़ी और मूली-गाजर जैसी घटिया चीज़ों को क्यों अपनाएँ?
पुरानी कहावत है - ‘ पतली ने खाया, मोटी के सर आया. ’
अब उनका वज़न नहीं घटता तो क्या इसके लिए उन्हें दोषी ठहराना चाहिए?
पर कौन समझाए दोस्त से दुश्मन बने डॉक्टर मेहता को और पुराने ज़माने में तर माल खिलाने वाली पर अब सिर्फ़ सलाद खिलाने वाली उनकी अपनी ही श्रीमतीजी को?
सचिन या नवजोत सिंह सिद्धू किसी वन-डे मैच में धड़ाधड़ सिक्सर्स लगायें तो जश्न तो बनता है पर ऐसा कोई भी जश्न हमारे बेचारे गुप्ता अंकल यह जश्न एक-दो लड्डू खाकर भी नहीं मना सकते.
गुप्ता अंकिल की साहित्य-सेवा तो इस संतुलित-आहार ने चौपट ही कर दी है.
तीस ग्राम अंकुरित मूँग और दो सूखे ब्रेड स्लाइसेज़ के साथ फीकी चाय लेकर तो सिर्फ़ घाटे का बजट पेश किया जा सकता है, कहानी या कविता नहीं लिखी जा सकती.
गुप्ता अंकिल की काव्य प्रतिभा चाय के साथ पोटैटो-चिप्स और गर्मा-गर्म पकौड़े खाकर ही निखर पाती है.
डॉक्टर मेहता के इस डायटिंग के कानून से साहित्य-सृजन के क्षेत्र में कितनी हानि हो रही है, इसे कौन समझ पाएगा?
सूखी, उबाऊ और उबली जि़न्दगी जीते-जीते गुप्ता अंकिल तंग आ चुके हैं. टीवी पर बहुत से योगिराज भी उन्हें सताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
पूरी-पराठों की जगह सूखी रोटी, दम आलू की सब्ज़ी की जगह कच्ची लौकी खाने और करेले का जूस पीने का नुस्खा बता-बता कर उन्होंने गुप्ता आंटी को पहले से भी ज़्यादा सतर्क और स्ट्रिक्ट बना दिया है.
पेटुओं के प्रति बाबाजी लोगों द्वारा कहे गए अपशब्दों के खि़लाफ़ तो गुप्ता अंकिल कोर्ट में मानहानि का मुकदमा करने की भी सोच रहे हैं पर क्या करें, कोई वकील उनकी तरफ़ से ऐसा मुकदमा लड़ने को भी तैयार नहीं है.
पिछली दो-तीन ब्लड-रिपोर्ट्स संतोषजनक आ जाने के बाद डॉक्टर मेहता ने तरस खाकर गुप्ता अंकिल को डायटिंग में कुछ छूट दे दी हैं.
अब वो महीने में एकाद बार कुछ मीठा, कुछ नमकीन खा सकते हैं पर फिर सुबह-शाम उन्हें एक्सट्रा कैलोरीज़ जलाने के लिए पाँच-पाँच किलोमीटर ब्रिस्क वाक करना पड़ता है.
इसके बाद योगिराजों के सुझाए आसन उनको अलग से करने पड़ते हैं.
पापा के सजेशन पर अब उन्हें हर बार बदपरहेज़ी करने पर नीम की तीस पत्तियों खानी पड़ती हैं और करेले का एक गिलास जूस भी पीना पड़ता है.
पर इस छूट मिलने के बाद से गुप्ता अंकिल बड़े रिलैक्स्ड रहने लगे हैं. अब उनका थोड़ा वक्त तर माल खाने में और बहुत सारा वक्त एक्सट्रा कैलोरीज़ जलाने के लिए ब्रिस्क वाक करने में खर्च होता है.
पापा सहित तमाम दोस्तों को मालूम है कि गुप्ता अंकिल अब घर पर कम और सड़क पर कैलोरीज़ जलाने के चक्कर में ज़्यादा मिलते हैं.
गुप्ता अंकिल के संतुलित जीवन से डॉक्टर मेहता भी खुश है और हमारी गुप्ता आंटी भी.
गुप्ता अंकिल आजकल सबको अपनी बैलंस्ड डायट और एक्सरसाइज़ के बारे में बताते रहते हैं पर हम जासूसों ने उनकी चालाकी की पोल खोल दी है.
हमने पता कर लिया है कि मॉर्निंग-वाक के बहाने वो घर से दो चार किलोमीटर दूर जाकर किसी छोटी-मोटी दुकान पर चोरी से समौसे और जलेबी पर हाथ साफ़ कर लेते हैं.
गुप्ता आंटी ने पापा से रिक्वेस्ट की है कि मॉर्निंग-वाक में वो अपने मित्र का साथ दें और उनके पेटूपने पर पूरा कन्ट्रोल रखें. पापा मुस्तैदी से अपने दोस्त के प्रति अपना फ़र्ज़ निभा रहे हैं और उनके नियम तोड़ने पर तुरंत उन्हें एक-दो डन्डे भी रसीद कर देते हैं.
गुप्ता आंटी मॉर्निंग-वाक पर जाने से पहले ही अपने पतिदेव की सभी जेबें खाली कर देती हैं.
गुप्ता अंकिल की एक्सरसाइज़ जारी है.
भुने-चने के गिने-चुने दाने चबाते या बेमन से खीरा-ककड़ी, गाजर-मूली-खीरे का आहार लेते हुए गुप्ता अंकिल अपने हितैषियों को अक्सर कोसते हुए सुने जा सकते हैं पर क्या करें सन्तुलित आहार लेने के सिवा उनके पास कोई और चारा भी तो नहीं है.
हमारे गोल-मटोल गुप्ता अंकिल अब काफ़ी दुबले हो गए हैं. रिक्शे वालों ने उनसे डबल किराया माँगना भी बन्द कर दिया है.
अब एक्स्ट्रा लार्ज साइज़ के कपड़ों की खोज में उन्हें खून-पसीना भी एक नहीं करना पड़ता पर हमारे गुप्ता अंकिल फिर भी खुश नहीं हैं.
गुप्ता अंकल के हिसाब से जीवन में बैलंस्ड-डायट लेने से बड़ी कोई सज़ा नहीं है. उनका मन करता है कि वो बगावत कर दें, पेटूपने के खुले आकाश में फिर से उड़ान भरें पर फिर डॉक्टर मेहता के उपदेश, पापा के डन्डे की मार या गुप्ता आंटी की फटकार के डर से वो डिसिप्लिन्ड सोल्जर की तरह सारे निर्देशों को रिलीजसली फ़ालो करते हुए पाए जाते हैं.

शनिवार, 6 अगस्त 2022

इतिहास के पन्नों से

 25 जुलाई, 1997 भारतीय इतिहास की सबसे शर्मनाक तारीखों में से एक है. इसी तारीख को बिहार के बेताज बादशाह लालू प्रसाद यादव की लगभग काला अक्षर भैंस बराबर धर्मपत्नी श्रीमती राबड़ी देवी ने पहली बार बिहार की मुख्यमंत्री की कुर्सी को सुशोभित किया था.

उन दिनों श्री इंद्रकुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री थे.

भाई लालू प्रसाद यादव ने इस घटना को भारतीय नारी के उत्थान की ज़िन्दा मिसाल के रूप में पेश किया था लेकिन मेरी दृष्टि में यह भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली के मुंह पर एक ज़बर्दस्त तमाचा था.

बिहार के गौरवशाली अतीत के बाद बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में बिहार के अधोपतन की इस चरम परिणति को देख कर मुझे महाकवि दिनकर की अमर रचना –

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

की याद आ गई थी और उसी अमर रचना को आधार बना कर मैंने अपनी कविता – ‘विध्वंस राग की रचना की थी.

इस कविता में बिहार के उत्थान से ले कर उसके पतन की कहानी है और इसके साथ ही इसमें यह आशंका भी व्यक्त की गयी है कि आज लालू यादव की उत्तराधिकारी बनी राबड़ी देवी कल भारत की प्रधानमंत्री भी बन सकती हैं.      

विध्वंस राग

हे महावीर औ बुद्ध, तुम्हारे दिन बीते,

प्रियदर्शी धम्माशोक, रहे तुम भी रीते.

पतिव्रता नारियों की सूची में नाम न पा,

लज्जित, निराश, धरती में, समा गईं सीते.

नालन्दा, वैशाली, का गौरव म्लान हुआ,

अब चन्द्रगुप्त के वैभव का, अवसान हुआ.

सदियों से कुचली नारी की क्षमता का पहला भान हुआ,

मानवता के कल्याण हेतु, मां रबड़ी का उत्थान हुआ.

घर के दौने से निकल आज, सत्ता का थाल सजाती है,

संकट मोचक बन, स्वामी के, सब विपदा कष्ट मिटाती है.

पद दलित अकल हो गई आज, हर भैंस यही पगुराती है,

अपमानित, मां वीणा धरणी, फिर, लुप्त कहीं हो जाती है.

जन नायक की सम्पूर्ण क्रांति, शोणित के अश्रु बहाती है,

जब चुने फ़रिश्तों की ग़ैरत, बाज़ारों में बिक जाती है.

जनतंत्र तुम्हारा श्राद्ध करा, श्रद्धा के सुमन चढ़ाती है,

बापू के छलनी सीने पर, फिर से गोली बरसाती है.

क्या हुआ, दफ़न है नैतिकता,  या प्रगति रसातल जाती है,

समुदाय-एकता, विघटन के,   दलदल में फंसती जाती है.

फलता है केवल मत्स्य न्याय,  समता की अर्थी जाती है,

क्षत-विक्षत, आहत, आज़ादी,  खुद कफ़न ओढ़ सो जाती है.

पुरवैया झोंको के घर से, विप्लव की आंधी आती है,

फिर से उजड़ेगी, इस भय से बूढ़ी दिल्ली थर्राती है.

पुत्रों के पाद प्रहारों से, भारत की फटती छाती है,

घुटती है दिनकर की वाणी, आवाज़ नई इक आती है -

गुजराल ! सिंहासन खाली कर, पटना से रबड़ी आती है,

गुजराल ! सिंहासन खाली कर, पटना से रबड़ी आती है.’