सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

सती -



सती
                 बंगाल प्रान्त के बर्दवान जिले के राधानगर गांव में एक मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार का एक बालक, राममोहन बहुत दुखी था। उसके बड़े भाई की अचानक ही मृत्यु हो गई थी। घर में शोक का वातावरण था पर एक ओर शोर भी था। कुछ महिलाएं ऊँचे स्वर में किसी को भला-बुरा कह रही थीं। राममोहन के कानों में कुछ ऐसी बातें पड़ रही थीं-
अभागी! आते ही पति को खा गई। यह तो हमारे कुल का सर्वनाश कर देगी। वहीं चली जाए जहां इसने हमारा बेटा भेज दिया है। इसके सती होने में ही परिवार और समाज का भला है। इसे सती होना चाहिए! इसे सती हो जाना चाहिए! बोलो सती मैया की जय !
                राममोहन ने देखा कि अभी-अभी विधवा हुई उसकी भाभी को घेर कर महिलाएं यह सब कह रही हैं। भाभी को भला-बुरा कहते-कहते अचानक सती मैया का जय-जयकार क्यों होने लगा,  यह नन्हे राममोहन के समझ में बिल्कुल नहीं आया। उसने अपनी माता श्रीमती फूल थाकुरानी से इन बातों का कारण पूछा तो उन्होंने अपने आंसू पोंछते हुए उसे बताया -
तेरी भाभी के दुर्भाग्य से हमारा बेटा हमको छोड़कर भगवान के पास चला गया है। यह अभागी विधवा हो गई है। इसका घर में रहना इसके लिए और सारे परिवार के लिए अशुभ होगा। पर हां,  अगर यह सती हो जाती है तो इसे स्वर्ग मिलेगा और हमारे कुल का नाम भी समाज में ऊँचा होगा।
राममोहन ने फिर पूछा -
माँ! सती किसे कहते हैं?  मेरी भाभी सती कैसे होंगी?
राममोहन की माँ ने उत्तर दिया – 
जो स्त्री अपने पति को अपना भगवान मानती हो और उसके बिना जीवित रहने को तैयार न हो वह सती कहलाती है। तेरी भाभी तेरे भैया की चिता में बैठ कर उसके शव के साथ ही जल कर सती हो जाएगी।
                बालक राममोहन इस भयानक घटना की कल्पना करके ही कांप गया। उसकी प्यारी सी भाभी, उसके खेल की साथी,  बिना किसी अपराध के जि़न्दा जला दी जाएगी और इस हत्या से पाप लगने के स्थान पर उल्टे कुल का और समाज का भला होगा, यह बात उसकी समझ से बाहर थी। महिलाएं जबर्दस्ती उसकी रोती हुई भाभी का दुल्हन की तरह श्रृंगार कर रही थीं। राममोहन दौड़कर अपनी भाभी के पास पहुंचा और उसने उसका हाथ पकड़ लिया। उसने चिल्लाते हुए कहा-
मैं अपनी भाभी को सती नहीं होने दूंगा। भैया के मरने में भाभी का क्या दोष है?  मैं किसी को इनकी हत्या नहीं करने दूंगा।
                राममोहन का चिल्लाना सुनकर लोग-बाग उसके आस-पास जमा हो गए। उसे लगा कि अब सब उन दुष्ट महिलाओं से उसकी भाभी को बचा लेंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ,  उल्टे एक आदमी ने बढ़कर राममोहन को पकड़ लिया और दूसरे ने उसके गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया। राममोहन की माँ दौड़कर उसके पास पहुंचीं पर वह भी उसकी मदद करने के स्थान पर उसे ही डांटकर कहने लगीं -
अभागे ! अधर्म की बात करता है?  सती प्रथा का पालन करने में बाधा पहुंचाएगा तो सीधा नरक जाएगा।
                राममोहन के देखते-देखते धर्म के ठेकेदार उसकी भाभी को घसीटते हुए उसके पति की चिता तक ले गए। वह बेचारी प्राणों की भीख मांगती रही पर वहां शंख,  घडि़याल और ढोल की आवाज़ में उसकी पुकार सुनने वाला कौन था?  दो पल में ही रोती-चीखती, दया की भीख मांगती, राममोहन की बेबस भाभी आग की लपटों में समा गई। सती मैया के जय-जयकार ने राममोहन के दुख को और बढ़ा दिया। बालक राममोहन की आँखों के आंसू अब सूख चुके थे,  उनमें अब अंगारे थे। उसने सती की  चिता की गर्म राख को मुट्ठी में भरकर प्रण किया -
मैं आज यह शपथ खाता हूं कि इस हत्यारी प्रथा का समाज से नामो-निशान मिटा दूंगा। चाहे इसके लिए मुझे अपनी जान की बाज़ी ही क्यों न लगानी पड़े।
                उस दिन से राममोहन को रीति-रिवाज के नाम पर भांति-भांति की कुरीतियों और अंध-विश्वासों से चिढ़  हो गई। जब उसने पण्डितो और मौलवियों को धर्म के नाम पर भोले-भाले ग्रामवासियों को ठगे जाते देखा तो उसके हृदय में उनके प्रति भी कोई श्रद्धा नहीं रह गई। कुछ दिनों पहले तक सामान्य बालकों की तरह उछल-कूद करने वाला राममोहन अब धीर-गम्भीर हो गया था। वह दिन-रात पुस्तकों का ही अध्ययन करता रहता था। इन पुस्तकों में धार्मिक ग्रंथ भी होते थे और नीति व दर्शन के भी। \
राममोहन ने हिन्दू धर्म के सच्चे स्वरूप को जानने का प्रयास किया। उसने हिन्दू धर्म के आधार ऋग्वेद, सहित चारो वेदों का अध्ययन किया पर यह जानकर उसे आश्चर्य हुआ कि सनातन हिन्दू धर्म वैदिक परम्पराओं से बहुत दूर चला गया है। ऋग्वेद में ईश्वर के एकत्व और उसके निराकार होने पर बल दिया गया है। मूर्तिपूजा, बहुदेव-वाद और अवतारवाद का उसमें कोई स्थान नहीं है। राममोहन ने धर्म के इसी रूप को स्वीकार किया और मूर्तिपूजा से मुंह मोड़ लिया। उसके सनातनी परिवार को उसका धार्मिक विद्रोह सहन नहीं हुआ। उसकी माँ श्रीमती फूल थाकुरानी ने उसको बुलाकर उससे पूछा -
राममोहन तूने मूर्ति-पूजा क्यों छोड़ दी?  क्या तू मुसलमान या क्रिस्तान हो गया है?
राममोहन ने जवाब दिया-
नहीं माँ! मैंने धर्म परिवर्तन नहीं किया है। मैंने तो सच्चे वैदिक धर्म को अपनाकर मूर्ति-पूजा छोड़ी है।
माँ ने नाराज़ होकर कहा-
वेद अपनी जगह पर ठीक कहते होंगे पर हमारे कुल में मूर्ति-पूजा होती आई है और तुझे भी करनी पड़ेगी। नहीं करेगा तो परिवार तेरा बहिष्कार कर देगा।
मां और बेटा दोनों ही अपनी जि़द पर अड़े रहे। राममोहन ने मूर्ति-पूजा नहीं अपनाई तो माँ और परिवार वालों ने बेटे का ही परित्याग कर दिया। अपने सिद्धान्तों की खातिर राममोहन को घर और परिवार से निकाला जाना भी स्वीकार्य था।

एक विद्वान के रूप में अब तक राममोहन राय पूरे बंगाल में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अपने विचार वह बुद्धि और विवेक की कसौटी पर परखने के बाद ही व्यक्त करते थे। इनमें न तो कोई पूर्वाग्रह होता था न किसी प्रकार की हठधर्मिता ही। उनके हृदय में दूसरो के विचारों के प्रति आदर और सहिष्णुता की भावना तो थी पर साथ ही साथ गलत को गलत कहने का साहस भी था। इसीलिए उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों पर खुलकर प्रहार किए। किसी भी बात को रीति-रिवाज,  परम्परा और संस्कार के नाम पर आंख मूंद कर स्वीकार कर लेना उन्हें सहन नहीं था। धर्म के नाम पर ढोंग करना उन्हें स्वीकार्य नहीं था।
  राममोहन राय ने नारी उत्थान को राष्ट्र के विकास के लिए पहली शर्त माना। स्त्री-शिक्षा पर लगे सामाजिक प्रतिबन्धों को तोड़ने के लिए उन्होंने घर-घर जाकर अभिभावकों को इस बात के लिए तैयार करने का प्रयास किया कि वह अपनी बेटियों को उनके द्वारा स्थापित कन्या पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजें। स्त्री-शिक्षा में बाधक पर्दा प्रथा और बाल-विवाह की प्रथा की हानियों पर भी उन्होंने प्रकाश डाला। उन्होंने बंगाल के ब्राह्मण समाज का कलंक कही जाने वाली कुलीन प्रथा पर निर्मम प्रहार किए। कुलीन प्रथा में उच्च कुलीन ब्र्राह्मण अपनी बेटियों का विवाह अपने से ऊँचे कुल में ही कर सकते थे और इस कारण अनेक कन्याएं या तो अविवाहित रह जाती थीं अथवा उनका बेमेल विवाह कर दिया जाता था या एक ही वर को भारी दहेज देकर अनेक कन्याएं ब्याह दी जाती थीं। बाल-विवाह और बाल-वैधव्य की त्रासदी भी इस कुरीति से जुड़ी थी। राममोहन राय ने इस कुरीति के विरुद्ध जन-जागृति अभियान छेड़ा।
उन्होंने कन्या-विक्रय और स्त्रियों को पति और पिता की सम्पत्ति में कोई भी अधिकार न दिए जाने जैसी सामाजिक कुरीतियों पर भी जमकर प्रहार किए।
स्त्रियों के इस उद्धारक ने सती प्रथा के उन्मूलन के लिए तो अपना जीवन ही दांव पर लगा दिया। उन्होंने सती की घटना को जघन्य हत्या माना। उनके द्वारा स्थापित ‘आत्मीय सभा’ ने सती प्रथा को वैदिक परम्परा के विरुद्ध बताया। ‘धर्म सभा’ के कट्टर पंथियों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी तो उन्होंने उसकी भी परवाह नहीं की। अनुदारवादी पत्र ‘समाचार चन्द्रिका’ में उनकी लगातार निन्दा की जाती रही पर इससे भी सती प्रथा के उन्मूलन हेतु उनका अभियान थमा नहीं। इस प्रथा को कानूनन अपराध घोषित कराने के लिए उन्होंने मैटकाफ और बेंटिंग जैसे उदार ब्रिटिश अधिकारियों का सहयोग प्राप्त करने का हर सम्भव प्रयास किया। इस काम के लिए उन्होंने एलेक्जे़ण्डर डफ़ जैसे ईसाई धर्म प्रचारक की भी मदद ली। कभी वह सरकार को उसकी प्रगतिशीलता का वास्ता देते थे तो कभी जागरूक भारतीयों से अनुरोध करते थे कि वह भारतीय समाज को कलंकित करने वाली इस कुप्रथा को दूर करने में उनका साथ दें। अपने तर्कों से वह यह सिद्ध करने का प्रयास करते थे कि सती प्रथा एक सामाजिक कुरीति है न कि एक शास्त्र-सम्मत धार्मिक परम्परा। सरकार को वह यह भरोसा दिलाने में भी सफल रहे कि सती प्रथा के उन्मूलन से भारत में किसी प्रकार के सैनिक विद्रोह की सम्भावना नहीं है। अन्ततः उनके भगीरथ प्रयासों से 1829 में गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिग के शासनकाल में रेग्युलेशन 17 के द्वारा सती प्रथा को ग़ैरकानूनी घोषित कर दिया गया। उस दिन राममोहन राय को अपनी सती भाभी की
बहुत याद आ रही थी। वह मन ही मन अपनी मृत भाभी से कह रहे थे -
भाभी! जब तुम्हें लोग जबर्दस्ती चिता में बिठाकर जला रहे थे, तब मैं छोटा था और कानून अंधा था। आज मैं बड़ा हो गया हूं और कानून को आँखे मिल गई हैं। अब सती मैया के जय-जयकार और शंख, ढोल व घडि़याल के शोर के बीच किसी मासूम की हत्या नहीं होने दी जाएगी।

शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

अगले जनम बड़ी बिटिया न कीजो

अगले जनम बड़ी बिटिया न कीजो -
अवकाश-प्राप्ति के बाद हम अल्मोड़ा से ग्रेटर नॉएडा स्थित अपने मकान में शिफ्ट कर गए. झाड़ू-बर्तन करने के लिए रमा ने जिस महिला को काम पर रक्खा उसका कोई असली नाम तो जानता ही नहीं था. उसको सब गुड़िया की मम्मी के नाम से ही जानते थे. गुड़िया की मम्मी यही कोई तीस-इकत्तीस साल की रही होगी, छोटे से क़द की, कमज़ोर सी, थकी सी. लेकिन जब उसने काम किया तो घर और बर्तन दोनों ही चमका कर रख दिए.
एक दिन मैं गेट के पास कुर्सी पर बैठा अख़बार पढ़ रहा था कि एक प्यारी सी, 11-12 साल की टिपटॉप लड़की मुझ से पूछने लगी –
‘अंकल जी, हमारी मम्मी क्या आपके घर में है?’
मैंने जवाब दिया-
‘नहीं बिटिया ! यहाँ तो कोई नहीं आया.’
बिटिया रानी मेरा जवाब सुनकर बड़ी परेशान हुई उसने फिर पूछा –
‘आप के यहाँ झाड़ू-बर्तन करने वाली आज क्या नहीं आई?’
मैंने लड़की को बताया –
‘गुड़िया की मम्मी तो अन्दर काम कर रही है.’
फिर एकदम से दिमाग की बत्ती ऑन हुई और मैंने उस से पूछा –
‘तू गुड़िया तो नहीं है?’
लड़की ने शर्माते हुए, मुस्कुराते हुए, अपना सर हिलाया और फिर वो घर के अन्दर चली गयी. मैं गुड़िया को देख कर हैरान था और परेशान भी था. हैरान इसलिए कि जिस घर में औरतों और लड़कियों की किस्मत में झाड़ू-बर्तन करना ही लिखा हो वहां लड़की का इतना सुन्दर होना किस काम का? और परेशान इसलिए था कि इस गरीब घर की लड़की की सुन्दरता आगे चलकर उसके लिए कोई मुसीबत न खड़ी कर दे.
चाइल्ड डेवलपमेंट की विशेषज्ञ हमारी बड़ी साहबज़ादी गीतिका उन दिनों कुछ दिन के लिए हमारे ही साथ रह रहीं थीं. गुड़िया के हाथों में झाड़ू देखी तो उन्होंने उसकी मम्मी को भाषण देना शुरू कर दिया और साथ में अपने मम्मी पापा को भी इस में लपेटना ज़रूरी समझा. बाल मज़दूरी कराने के गुनहगार तो हम भी थे ही.
गीतिका और हमारी हैरानी का तब ठिकाना नहीं रहा जब हमको पता चला कि गुड़िया अपने अकेले दम पर तीन-चार घर का काम सम्हालती है और घर की बड़ी बेटी होने के नाते अपने घर के सारे कामों में भी माँ का हाथ बटाती है.
हमारे घर में घुसते ही गुड़िया अपनी पसंद का कोई टीवी चेनल ऑन करवाती थी फिर काम करने की सोचती थी. उसकी मम्मी के मना करने के बावजूद हम लोग गुड़िया का फ़रमाइशी टीवी चेनल लगा देते थे फिर उसकी कार्य क्षमता में अद्भुत सुधार हमको दिखाई देने लगता था.
एक बार यू ट्यूब पर मैं चार्ली चैपलिन का बॉक्सिंग वाला मैच देख रहा था मेरे पीछे खड़े होकर गुड़िया भी इस ऐतिहासिक मुक्केबाज़ी को देख रही थी. हँसते-हँसते गुड़िया पागल हुई जा रही थी. उसके अनुरोध पर उस दिन लगातार कई बार यह मुक्केबाज़ी होती रही और आने वाले दिनों में भी गुड़िया किसी टीवी चेनल को ऑन करने की जगह पर मुझ से कहने लगी -
अंकल जी, कम्पूटर पर जरा चार्ली ऑन कर दो.’
रमा को गुड़िया कुछ ज़्यादा ही प्यारी लगती थी और उसे भी शायद सब घरों में सबसे अधिक आनंद हमारे घर ही आता था. गुड़िया रमा को रोज़ाना कोई न कोई नया फ़िल्मी समाचार ज़रूर सुनाती थी. उसके सवालात भी आमतौर पर फ़िल्मी या टीवी दुनिया से ही जुड़े होते थे.
मेरे तो समझ में नहीं आता था कि ऐसी मस्त और बाल-स्वभाव की बच्ची घर और बाहर के काम को इतनी ज़िम्मेदारी से कैसे संभाल सकती है. अपने से छोटे चार भाई-बहनों का ख़याल रखने में गुड़िया में वाक़ई बहुत बड़प्पन था. रमा गुड़िया को कभी कोई पकवान देती थी तो उसे वो खुद खाने के बजाय अपने भाई-बहनों के लिए बचाकर रख लेती थी.
फ़िल्म ‘दीवार’ में मज़दूरी करने वाली माँ जब अपने बड़े बेटे विजय से कहती है कि वो अपने दोनों बेटों की पढ़ाई का बोझ नहीं उठा सकती है तो वो कहता है –
‘हम दोनों मेहनत कर के अकेले रवि (छोटा भाई) को तो पढ़ा सकते हैं.’
यहाँ इस बात का जिक्र इसलिए आया कि गुड़िया ने खुद मेहनत करके अपने माँ-बाप के सामने ये शर्त रख दी कि उसके अलावा घर का कोई और बच्चा दूसरों के घरों में काम नहीं करेगा और बाक़ी सब बच्चों को स्कूल भी भेजा जाएगा.
हमारी बेटी गीतिका और दामाद वैभव जब दुबई चले गए तो रोज़ाना स्काइप पर उन से बात होने लगी. गुड़िया को दूर बैठी दीदी से बात करने में बहुत आनंद आता था. जब हमारे नाती अमेय को गुड़िया ने पहली बार स्काइप पर देखा तो वो उस से मिलने के लिए छटपटाने लगी एक दिन वो मुझ से पूछने लगी –
‘अंकल जी दुबई जाने में कितना पैसा लगता है? मैं लाला को देखने दुबई जाऊंगी.’
मैंने जवाब दिया –
‘गुड़िया, अपने लाला से मिलने के लिए तुझे दुबई जाने की कोई ज़रुरत नहीं है. वो होली पर ग्रेटर नॉएडा आ रहा है.’
अमेय के साथ खेलते हुए गुड़िया हमारे घर का काम करना भी भूल जाती थी. उसकी मम्मी काम करने का उस से तकाज़ा करती थी तो वो बागी हो जाती थी. अमेय का ग्रेटर नॉएडा का हर प्रवास गुड़िया के लिए विशुद्ध आनंद का समय होता था और हमारे अमेय के लिए भी गुड़िया के पीछे-पीछे भागना उसकी सबसे फ़ेवरिट एकसरसाइज़.
अमेय थोड़ा बड़ा हुआ तो उसकी फ़रमाइश पर इन्टरनेट पर मुझे उसका मनपसंद कार्टून लगाना पड़ता था और अगर उसकी गुड़िया दीदी तब घर में मौजूद होती थी तो उसे अपने साथ बिठाना उसका हक़ बन जाता था.
कार्टून देखते हुए दोनों बच्चे इतना शोर मचाते थे कि दीपावली में होने वाला पटाखों का शोर भी उनके सामने पानी भरने लगे.
लेकिन फिर गुड़िया की खुशियों को मानो नज़र लग गयी. उसकी मम्मी बीमार क्या पड़ी सब घरों के काम का बोझ उस पर पड़ गया. थकी-मांदी गुड़िया अब कभी ख़ुद की बदकिस्मती पर रोती थी तो कभी अपनी दुर्दशा के लिए अपने माँ बाप को कोसती थी. अब न वो मुझसे चार्ली ऑन करने का अनुरोध करती थी और न ही किसी से अपना मन-पसंद टीवी चेनल लगाने को कहती थी. काम के बोझ के नीचे एक बच्ची की बेफ़िक्री, उसकी मस्ती, पता नहीं कब, सिसक-सिसक कर दम तोड़ चुकी थी.
गुड़िया की मम्मी ठीक होकर काम पर वापस आ गयी तो भी उसकी बेटी वो पुरानी वाली हमारी अल्हड़ गुड़िया नहीं रही. इस बीच रमा ने गुड़िया में एक और बदलाव महसूस किया था. गुड़िया अब बहुत बन संवर कर आने लगी थी. अब काम काज करने में उसका मन नहीं लगता था और अपनी मम्मी के टोकने पर वो उस से लड़ने भी लगी थी. रमा ने उसे ऐसा न करने के लिए प्यार से समझाया तो फफक फफक कर रोते हुए बोली –
‘आंटी, सात साल की उमर से झाड़ू-बर्तन कर रही हूँ. इस से तो अच्छा था कि मैं पैदा होते ही मर जाती.’
रमा ने गुड़िया को दो-तीन बार एक लड़के के साथ मोटर साइकिल पर भी देखा तो उसने उसे आने वाले खतरे से आगाह किया –
‘देख गुड़िया, इन लड़कों से तू दूर ही रह. तेरी मम्मी तो तेरे लिए एक अच्छा सा लड़का देख रही है. तू ऐसा-वैसा कुछ मत करना कि तुझे आगे लेने के देने पड़ जाएं.’
गुड़िया ने जवाब दिया –
‘आंटी, बिना पढी लिखी गुड़िया को तो ससुराल जाकर भी बर्तन ही तो मांजने हैं. इस से तो अच्छा है कि कुछ दिन तो मोटर साइकिल पर घूम लूं.’
और फिर वही हुआ जिसका कि रमा को अंदेशा था गुड़िया उस मोटर साइकिल वाले लड़के के साथ भाग गयी.
गुड़िया की मम्मी का रोना पीटना देख कर भी मुझे उसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं हो रही थी, उल्टे मुझे उस पर गुस्सा आ रहा था.
लानत है उन माँ बाप पर जो कि अपने बच्चों का बचपन कुचलकर अपनी हिस्से की जिम्मेदारियां उन पर थोप देते हैं.
गरीब गुड़िया की मम्मी अपने गहने बेचकर पुलिस और अदालत के चक्कर लगाती रही. लड़के पर इलज़ाम था कि उसने सोलह साल से भी कम उम्र की लड़की का अपहरण कर उस से ज़बर्दस्ती शादी की है जब कि लड़के वालों ने डॉक्टर को पैसे देकर झूठा सर्टिफिकेट हासिल कर लिया कि लड़की 18 साल से ऊपर की है. लड़की ने अदालत में बयान दे दिया कि उसने अपनी मर्ज़ी से उस लड़के से शादी की है.
अंत भला होता तो सब भला होता पर गुड़िया शादी के तीन महीने बाद ही दिहाड़ी मजदूर हो गयी. उसकी ससुराल तो उसके मायके से भी ज़्यादा गरीब थी. शादी के बाद गुड़िया एक बार हम से मिलने आई तो उसकी दुर्दशा देख कर रमा तो रो ही दी. उस प्यारी सी मस्त गुड़िया को इस हाल में देख कर मेरी भी आँखें भर आईं. खैर, मैंने माहौल को हल्का करने के लिए उस से पूछा -
गुड़िया क्या कम्यूटर पर तेरा चार्ली ऑन करूँ ?'
उदास गुड़िया ने मेरी बात का कोई जवाब देने के बजाय अपना सर झुका लिया.
जा गुड़िया ! मेरी भगवान से प्रार्थना है कि तू अपने पुराने कुएँ से निकल कर इस नई खाई में सुखी रहे, आबाद रहे. पर तुझसे हाथ जोड़ कर मेरी यह प्रार्थना है कि तू खुद कोई ऐसी गुड़िया मत पैदा करना जिसे अपने बचपन में ही झाड़ू-बर्तन करने या किसी बन रही इमारत पर दिहाड़ी करने के लिए जाना पड़े.

सोमवार, 16 अक्टूबर 2017

नयी सुबह



बाल कथा
नयी सुबह
अलका सात साल की,  सुन्दर सी,  नटखट पर जि़द्दी लड़की थी। अलका के पापा साइंटिस्ट थे,  रिसर्च के सिलसिले में पिछले तीन साल से वह लन्दन में थे। इन तीन सालों से अलका को पालने की जि़म्मेदारी सिर्फ़ उसकी मम्मी की थी। यूं तो उसकी मम्मी छुट्टियों में उसे लेकर कभी उसके दादाजी के यहाँ तो कभी उसके नानाजी के यहाँ रहने चली जाती थीं पर ज़्यादातर दोनों माँ-बेटी अकेले ही अपने घर में रहते थे। अलका की मम्मी उसे बहुत प्यार करती थीं। अलका के पापा विदेश में थे इसलिए उनके हिस्से का प्यार भी उसे अपनी माँ से ही मिलता था। माँ के ज़रूरत से ज़्यादा लाड-प्यार ने उसे अव्वल दर्जे की जि़द्दी और आलसी बना दिया था। बिस्तर पर लेटे-लेटे अलका रानी आवाज़ लगातीं तो मम्मी दौड़कर उनके सामने खड़ी हो जातीं और फ़ौरन उनके हुक्म के मुताबिक उनकी मनपसन्द चीज़ हाजि़र कर देतीं। सात साल की हो जाने पर भी अलका अपना कोई भी काम खुद नहीं करती थी। बस, ‘ मम्मी मुँह धोना है  कहो तो,  मम्मी टूथ-ब्रश और टूथ-पेस्ट लेकर हाजि़र,  मम्मी भूख लगी है कहो तो मम्मी उसकी पसन्द का खाना लेकर हाज़िर,   इतना ही नहीं वह उसे अपने हाथों से खाना खिला भी देती थीं। अक्सर अलका का होमवर्क भी उसकी मम्मी कर देती थीं। अलका का कोई दोस्त नहीं था। उसके साथ के बच्चे उसे पसन्द नहीं करते थे,  वो उसे मम्मी की पैट डॉल कह कर चिढ़ाते थे । अलका भी अपनी उम्र के बच्चों के साथ बैडमिन्टन, क्रिकेट या आइस-पाइस खेलने की जगह अपनी मम्मी के साथ कैरम,  वीडियो गेम्स खेलना या टीवी देखना ही पसन्द करती थी।
                अलका बहुत खुश थी क्योंकि लन्दन से आज उसके पापा वापस भारत आ रहे थे। तीन साल से उसने अपने पापा को सिर्फ़ फ़ोटोग्राफ़्स में देखा था या फ़ोन पर उनसे बात की थी। अलका जानती थी कि उसके पापा उसे बहुत प्यार करते हैं। लन्दन से आए दिन वह उसके लिए गिफ़्ट्स भेजते रहते थे और बहुत प्यारे-प्यारे लैटर्स भी। एअरपोर्ट पर पापा को प्लेन से उतरते देखकर वह उड़कर उनके पास पहुँचना चाहती थी पर उसे उनके आने का इन्तज़ार करना पड़ा। पापा ने देखते ही उसे गोदी में उठा लिया पर कुछ देर बाद ही उन्होंने उसे उसका गिफ्ट देकर गोदी से उतार दिया और लगे मम्मी से बातें करने। उन्हें तो अलका की उंगली पकड़ कर चलने का भी खयाल नहीं आया। आज मम्मी भी अलका की तरफ़ ध्यान देने की जगह बस,  पापा से ही बातें किए जा रही थीं।
                सब लोग घर पहुँचे। घर को दुल्हन की तरह सजाया गया था,  ऐसी डैकोरेशन तो उसके बर्थ-डे पर भी नहीं की गई थी। डिनर का टाइम हो गया था। डायनिंग-टेबिल पर तरह-तरह के पकवान सजे थे, पापा की सभी फ़ेवरिट डिशेज़ थीं पर उसकी पसन्द की एक भी डिश नहीं थी। मम्मी ने आज तीन प्लेट्स लगाई थीं। एक पापा की,  एक अपनी और एक अलका की। अलका ने अलग प्लेट में कभी खाना खाया ही नहीं था। वह मम्मी की प्लेट में ही खाती थी वह भी उन्हीं के हाथ से।  मम्मी-पापा मज़े ले-ले कर खा रहे थे पर अलका ने खाने को हाथ भी नहीं लगाया था। मम्मी ने सिर झुकाए बैठी उदास अलका की परेशानी समझ ली थी पर जानकर भी वह अनजान बनी हुई थीं उधर पापा उससे पूछ रहे थे-
बेटे! क्या तबियत खराब है ? तुम खाना क्यों नहीं खा रही हो?“
अलका पापा को क्या जवाब देती? न पिज़ा,  न चाउमीन,  न सैण्डविचेज़ और न ही आइसक्रीम,  खाने के लिए बस थे-  कढी-चावल,  मक्के की रोटी,  सरसों का साग,  बाजरे के लड्डू और स्टुपिड रबड़ी। ऊपर से इस कबाड़ को खुद अपने हाथों खाना था। पापा को बिना जवाब दिए अलका चुपचाप सोने चली गई।
पापा के आते ही अलका को अलग कमरे में सुला दिया गया। उसे पापा के आने का कबसे इन्तज़ार था पर जब वह आ गए तो उसे सब कुछ खराब-खराब ही लग रहा था। सुबह मम्मी ने उसे खुद पेस्ट करने के लिए कह दिया। स्कूल जाने के लिए उसे ड्रेस तो दी गई पर उसे पहनना खुद ही पड़ा। अलका स्कूल से लौटी तो उसके साथ कैरम खेलने या टीवी देखने का समय भी मम्मी के पास नहीं था। अलका के हाथ में लूडो का बोर्ड देखकर उसके पापा उससे पूछ रहे थे –
अलका क्या तुम्हारे फ्रेन्ड्स नहीं हैं?  तुम्हें उनके साथ जाकर आउटडोर गेम्स खेलने चाहिए।
अलका को मम्मी पर बहुत गुस्सा आ रहा था,  वह अब उसका कोई काम ही नहीं कर रही थीं और पापा तो उसकी सारी परेशानियों की जड़ थे। जब से आए थे उसे और मम्मी को उपदेश ही दिए जा रहे थे। उन्होंने आते ही उसे मम्मी के कमरे से हटा दिया था। न्यूट्रशस फ़ूड के बहाने उसकी मनपसन्द डिशेज़ बनवाना बन्द करा दी थीं। सुबह उसे बहुत जल्दी उठना पड़ रहा था। उसे खुद अपने हाथों से खाना खाने के लिए कम्पेल किया जा रहा था। उसे अपने सारे काम खुद करने पड़ रहे थे और अब मम्मी से दूर रखने के लिए ज़बर्दस्ती उसे दोस्तों के पास खेलने के लिए भेजा जा रहा था। पापा के आने के अगली रात अलका अपने अलग कमरे में सोने से पहले भगवान से प्रार्थना कर रही थी-
हे भगवान! पापा को रिसर्च के काम से फिर बाहर भेज दो।
अगले दिन सन्डे था,  अलका देर तक सोना चाहती थी पर बड़े सवेरे ही पापा ने उसे जगा दिया। उसके लाख मना करने पर भी वह ज़बर्दस्ती उसे अपने साथ मोर्निंग वाक पर ले गए। अलका का मूड बहुत खराब था,  कितनी अच्छी नींद आ रही थी,  अब चलते-चलते अपनी टाँगे तोड़ो। पर यह क्या! यह गोल-गोल ऊपर उठता हुआ चमकता हुआ सोने का थाल क्या है?  वाह कितना खूबसूरत सीन है! पापा से नाराज़ होते हुए भी उसने उसके बारे में पूछ लिया। पापा ने हँस कर जवाब दिया-
बिटिया रानी इसे सूरज कहते हैं। आप जो सीन देख रही हैं वह सनराइज़ है।
अलका को बड़ी शर्म आई। वह कभी सुबह जल्दी उठी ही नहीं थी,  सनराइज़ कहाँ से देखती। पार्क में टहलते हुए चह-चहाती चिडि़याएं देखकर भी अलका को बहुत अच्छा लगा। एक जगह उसने देखा कि एक बड़ी चिडि़या अपने बच्चे को चोंच से बार-बार मार रही है। अलका ने फिर पापा से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया-
ये चिडि़या अपने बच्चे को उड़ना सिखा रही है। जब तक यह अपने बच्चे को खुद से अलग नहीं करेगी तब तक वह उसे उड़ना नहीं सिखा पाएगी। कुछ दिन बाद तुम देखना यह चिडि़या का बच्चा उड़ना भी सीख जाएगा और अपने लिए खाना भी खुद ही खोजना शुरू कर देगा।
अलका को मोर्निंग वाक अब बहुत अच्छा लग रहा था। वह पापा से एक के बाद एक सवाल पूछ रही थी और पापा उसके हर सवाल का जवाब दे रहे थे। उसे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि जानवरों और पंछियों के बच्चे बहुत जल्दी अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं। अलका ने सुबह-सुबह छोटे-छोटे बच्चों को काम करते हुए देखा। बिना किसी से पूछे अलका को पता चल गया कि इंसानों में भी बहुत कम बच्चे उसकी तरह आलसी होते हैं।
आज अलका को किसी काम के लिए भी मम्मी की मदद लेना अच्छा नहीं लगा। तीसरे पहर मम्मी उसके साथ ताश खेलना चाहती थीं पर वह अपने दोस्तों के साथ बैडमिन्टन खेलने चली गई। डिनर पर अलका ने पिज़ा छोड़कर पापा की ही तरह दही,  सब्ज़ी के साथ रोटी खाई,  फिर बिना मम्मी की मदद के अपना होमवर्क कर वह अपने कमरे में सोने चली गई पर सोने ने पहले वह भगवान से प्रार्थना करना नहीं भूली-
हे भगवान! मेरे अच्छे पापा को हमेशा मेरे पास रखना और मुझे अपना काम खुद करने का वरदान देना।
अलका की मम्मी उसमें बदलाव देखकर बहुत परेशान थीं। उन्होंने अलका के पापा से कहा-
अलका बहुत बदली-बदली सी लग रही है। मेरी मदद के बिना वह अपने सारे काम कर रही है,  कहीं वह इतना स्ट्रेन करके बीमार नहीं पड़ जाएगी?
अलका के पापा ने कहा-तुमने अपने लाड-प्यार से बच्ची को बीमार बना दिया था। अब वह खुद को ठीक करने की कोशिश कर रही है।
अलका की मम्मी को यह बात अच्छी नहीं लगी,  उन्हें लग रहा था कि अलका के पापा उसके साथ कुछ ज़्यादा ही सख्ती कर रहे हैं। यही सोचते-सोचते उन्हें नींद आ गई।
सुबह बड़े सवेरे अलका की मम्मी को किसी ने जगाया। उन्होंने सोचा कि अलका के पापा होंगे पर नहीं, यह तो अलका थी जो कि अपनी मम्मी-पापा के लिए बैड-टी लेकर खड़ी मुस्कुरा रही थी। अलका का यह नया रूप देखकर मम्मी की आँखों में आँसू आ गए पर पापा प्यार से हँस रहे थे। यह सुबह देखने में और सुबहों की तरह ही थी पर अलका के लिए यह आशा की नयी सुबह थी जो उसे खुले आकाश में खुद उड़ना सिखा रही थी।

बुधवार, 11 अक्टूबर 2017

कवि से मेरा प्रश्न

सिसक-सिसक गेंहू कहें,
फफक-फफक कर धान,
खेतों में फ़सलें नहीं,
उगने लगे मकान.
(कुंवर बेचैन)

कवि से मेरा प्रश्न -

खेतों में उगते मकान, क्यों आप दुखी हैं,
देश प्रगति कर रहा, देख, नृप बड़े सुखी हैं.
फ़सलों का रोना क्यूं रोएँ, उस महफ़िल में,
जहाँ छलकते जाम, थिरकती, चन्द्रमुखी हैं.

सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

फिर से बदलो मुन्ना भाई




फिर से बदलो मुन्ना भाई -
सच का दामन जब से थामा,
मुन्ना पानी भरता है.
जिसका खौफ़ ज़माने को था,
साए से भी डरता है.
मेहनत कर के भी मुफ़लिस है,
निस-दिन फाके करता है.
हसरत लिए मकानों की पर,
किसी सड़क पर मरता है.
गांधीगिरी छोड़ कर मुन्ना,
बेक़सूर को मारेगा.
श्राद्ध, अहिंसा का कर के वो,
अपना कुनबा तारेगा.
क्या अफ़सर, क्या नेता-मंत्री
उसके पीछे भागेगा.
दुःख की बदली छट जाएगी,
भाग्य-सूर्य फिर जागेगा.