शनिवार, 21 अक्टूबर 2017

अगले जनम बड़ी बिटिया न कीजो

अगले जनम बड़ी बिटिया न कीजो -
अवकाश-प्राप्ति के बाद हम अल्मोड़ा से ग्रेटर नॉएडा स्थित अपने मकान में शिफ्ट कर गए. झाड़ू-बर्तन करने के लिए रमा ने जिस महिला को काम पर रक्खा उसका कोई असली नाम तो जानता ही नहीं था. उसको सब गुड़िया की मम्मी के नाम से ही जानते थे. गुड़िया की मम्मी यही कोई तीस-इकत्तीस साल की रही होगी, छोटे से क़द की, कमज़ोर सी, थकी सी. लेकिन जब उसने काम किया तो घर और बर्तन दोनों ही चमका कर रख दिए.
एक दिन मैं गेट के पास कुर्सी पर बैठा अख़बार पढ़ रहा था कि एक प्यारी सी, 11-12 साल की टिपटॉप लड़की मुझ से पूछने लगी –
‘अंकल जी, हमारी मम्मी क्या आपके घर में है?’
मैंने जवाब दिया-
‘नहीं बिटिया ! यहाँ तो कोई नहीं आया.’
बिटिया रानी मेरा जवाब सुनकर बड़ी परेशान हुई उसने फिर पूछा –
‘आप के यहाँ झाड़ू-बर्तन करने वाली आज क्या नहीं आई?’
मैंने लड़की को बताया –
‘गुड़िया की मम्मी तो अन्दर काम कर रही है.’
फिर एकदम से दिमाग की बत्ती ऑन हुई और मैंने उस से पूछा –
‘तू गुड़िया तो नहीं है?’
लड़की ने शर्माते हुए, मुस्कुराते हुए, अपना सर हिलाया और फिर वो घर के अन्दर चली गयी. मैं गुड़िया को देख कर हैरान था और परेशान भी था. हैरान इसलिए कि जिस घर में औरतों और लड़कियों की किस्मत में झाड़ू-बर्तन करना ही लिखा हो वहां लड़की का इतना सुन्दर होना किस काम का? और परेशान इसलिए था कि इस गरीब घर की लड़की की सुन्दरता आगे चलकर उसके लिए कोई मुसीबत न खड़ी कर दे.
चाइल्ड डेवलपमेंट की विशेषज्ञ हमारी बड़ी साहबज़ादी गीतिका उन दिनों कुछ दिन के लिए हमारे ही साथ रह रहीं थीं. गुड़िया के हाथों में झाड़ू देखी तो उन्होंने उसकी मम्मी को भाषण देना शुरू कर दिया और साथ में अपने मम्मी पापा को भी इस में लपेटना ज़रूरी समझा. बाल मज़दूरी कराने के गुनहगार तो हम भी थे ही.
गीतिका और हमारी हैरानी का तब ठिकाना नहीं रहा जब हमको पता चला कि गुड़िया अपने अकेले दम पर तीन-चार घर का काम सम्हालती है और घर की बड़ी बेटी होने के नाते अपने घर के सारे कामों में भी माँ का हाथ बटाती है.
हमारे घर में घुसते ही गुड़िया अपनी पसंद का कोई टीवी चेनल ऑन करवाती थी फिर काम करने की सोचती थी. उसकी मम्मी के मना करने के बावजूद हम लोग गुड़िया का फ़रमाइशी टीवी चेनल लगा देते थे फिर उसकी कार्य क्षमता में अद्भुत सुधार हमको दिखाई देने लगता था.
एक बार यू ट्यूब पर मैं चार्ली चैपलिन का बॉक्सिंग वाला मैच देख रहा था मेरे पीछे खड़े होकर गुड़िया भी इस ऐतिहासिक मुक्केबाज़ी को देख रही थी. हँसते-हँसते गुड़िया पागल हुई जा रही थी. उसके अनुरोध पर उस दिन लगातार कई बार यह मुक्केबाज़ी होती रही और आने वाले दिनों में भी गुड़िया किसी टीवी चेनल को ऑन करने की जगह पर मुझ से कहने लगी -
अंकल जी, कम्पूटर पर जरा चार्ली ऑन कर दो.’
रमा को गुड़िया कुछ ज़्यादा ही प्यारी लगती थी और उसे भी शायद सब घरों में सबसे अधिक आनंद हमारे घर ही आता था. गुड़िया रमा को रोज़ाना कोई न कोई नया फ़िल्मी समाचार ज़रूर सुनाती थी. उसके सवालात भी आमतौर पर फ़िल्मी या टीवी दुनिया से ही जुड़े होते थे.
मेरे तो समझ में नहीं आता था कि ऐसी मस्त और बाल-स्वभाव की बच्ची घर और बाहर के काम को इतनी ज़िम्मेदारी से कैसे संभाल सकती है. अपने से छोटे चार भाई-बहनों का ख़याल रखने में गुड़िया में वाक़ई बहुत बड़प्पन था. रमा गुड़िया को कभी कोई पकवान देती थी तो उसे वो खुद खाने के बजाय अपने भाई-बहनों के लिए बचाकर रख लेती थी.
फ़िल्म ‘दीवार’ में मज़दूरी करने वाली माँ जब अपने बड़े बेटे विजय से कहती है कि वो अपने दोनों बेटों की पढ़ाई का बोझ नहीं उठा सकती है तो वो कहता है –
‘हम दोनों मेहनत कर के अकेले रवि (छोटा भाई) को तो पढ़ा सकते हैं.’
यहाँ इस बात का जिक्र इसलिए आया कि गुड़िया ने खुद मेहनत करके अपने माँ-बाप के सामने ये शर्त रख दी कि उसके अलावा घर का कोई और बच्चा दूसरों के घरों में काम नहीं करेगा और बाक़ी सब बच्चों को स्कूल भी भेजा जाएगा.
हमारी बेटी गीतिका और दामाद वैभव जब दुबई चले गए तो रोज़ाना स्काइप पर उन से बात होने लगी. गुड़िया को दूर बैठी दीदी से बात करने में बहुत आनंद आता था. जब हमारे नाती अमेय को गुड़िया ने पहली बार स्काइप पर देखा तो वो उस से मिलने के लिए छटपटाने लगी एक दिन वो मुझ से पूछने लगी –
‘अंकल जी दुबई जाने में कितना पैसा लगता है? मैं लाला को देखने दुबई जाऊंगी.’
मैंने जवाब दिया –
‘गुड़िया, अपने लाला से मिलने के लिए तुझे दुबई जाने की कोई ज़रुरत नहीं है. वो होली पर ग्रेटर नॉएडा आ रहा है.’
अमेय के साथ खेलते हुए गुड़िया हमारे घर का काम करना भी भूल जाती थी. उसकी मम्मी काम करने का उस से तकाज़ा करती थी तो वो बागी हो जाती थी. अमेय का ग्रेटर नॉएडा का हर प्रवास गुड़िया के लिए विशुद्ध आनंद का समय होता था और हमारे अमेय के लिए भी गुड़िया के पीछे-पीछे भागना उसकी सबसे फ़ेवरिट एकसरसाइज़.
अमेय थोड़ा बड़ा हुआ तो उसकी फ़रमाइश पर इन्टरनेट पर मुझे उसका मनपसंद कार्टून लगाना पड़ता था और अगर उसकी गुड़िया दीदी तब घर में मौजूद होती थी तो उसे अपने साथ बिठाना उसका हक़ बन जाता था.
कार्टून देखते हुए दोनों बच्चे इतना शोर मचाते थे कि दीपावली में होने वाला पटाखों का शोर भी उनके सामने पानी भरने लगे.
लेकिन फिर गुड़िया की खुशियों को मानो नज़र लग गयी. उसकी मम्मी बीमार क्या पड़ी सब घरों के काम का बोझ उस पर पड़ गया. थकी-मांदी गुड़िया अब कभी ख़ुद की बदकिस्मती पर रोती थी तो कभी अपनी दुर्दशा के लिए अपने माँ बाप को कोसती थी. अब न वो मुझसे चार्ली ऑन करने का अनुरोध करती थी और न ही किसी से अपना मन-पसंद टीवी चेनल लगाने को कहती थी. काम के बोझ के नीचे एक बच्ची की बेफ़िक्री, उसकी मस्ती, पता नहीं कब, सिसक-सिसक कर दम तोड़ चुकी थी.
गुड़िया की मम्मी ठीक होकर काम पर वापस आ गयी तो भी उसकी बेटी वो पुरानी वाली हमारी अल्हड़ गुड़िया नहीं रही. इस बीच रमा ने गुड़िया में एक और बदलाव महसूस किया था. गुड़िया अब बहुत बन संवर कर आने लगी थी. अब काम काज करने में उसका मन नहीं लगता था और अपनी मम्मी के टोकने पर वो उस से लड़ने भी लगी थी. रमा ने उसे ऐसा न करने के लिए प्यार से समझाया तो फफक फफक कर रोते हुए बोली –
‘आंटी, सात साल की उमर से झाड़ू-बर्तन कर रही हूँ. इस से तो अच्छा था कि मैं पैदा होते ही मर जाती.’
रमा ने गुड़िया को दो-तीन बार एक लड़के के साथ मोटर साइकिल पर भी देखा तो उसने उसे आने वाले खतरे से आगाह किया –
‘देख गुड़िया, इन लड़कों से तू दूर ही रह. तेरी मम्मी तो तेरे लिए एक अच्छा सा लड़का देख रही है. तू ऐसा-वैसा कुछ मत करना कि तुझे आगे लेने के देने पड़ जाएं.’
गुड़िया ने जवाब दिया –
‘आंटी, बिना पढी लिखी गुड़िया को तो ससुराल जाकर भी बर्तन ही तो मांजने हैं. इस से तो अच्छा है कि कुछ दिन तो मोटर साइकिल पर घूम लूं.’
और फिर वही हुआ जिसका कि रमा को अंदेशा था गुड़िया उस मोटर साइकिल वाले लड़के के साथ भाग गयी.
गुड़िया की मम्मी का रोना पीटना देख कर भी मुझे उसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं हो रही थी, उल्टे मुझे उस पर गुस्सा आ रहा था.
लानत है उन माँ बाप पर जो कि अपने बच्चों का बचपन कुचलकर अपनी हिस्से की जिम्मेदारियां उन पर थोप देते हैं.
गरीब गुड़िया की मम्मी अपने गहने बेचकर पुलिस और अदालत के चक्कर लगाती रही. लड़के पर इलज़ाम था कि उसने सोलह साल से भी कम उम्र की लड़की का अपहरण कर उस से ज़बर्दस्ती शादी की है जब कि लड़के वालों ने डॉक्टर को पैसे देकर झूठा सर्टिफिकेट हासिल कर लिया कि लड़की 18 साल से ऊपर की है. लड़की ने अदालत में बयान दे दिया कि उसने अपनी मर्ज़ी से उस लड़के से शादी की है.
अंत भला होता तो सब भला होता पर गुड़िया शादी के तीन महीने बाद ही दिहाड़ी मजदूर हो गयी. उसकी ससुराल तो उसके मायके से भी ज़्यादा गरीब थी. शादी के बाद गुड़िया एक बार हम से मिलने आई तो उसकी दुर्दशा देख कर रमा तो रो ही दी. उस प्यारी सी मस्त गुड़िया को इस हाल में देख कर मेरी भी आँखें भर आईं. खैर, मैंने माहौल को हल्का करने के लिए उस से पूछा -
गुड़िया क्या कम्यूटर पर तेरा चार्ली ऑन करूँ ?'
उदास गुड़िया ने मेरी बात का कोई जवाब देने के बजाय अपना सर झुका लिया.
जा गुड़िया ! मेरी भगवान से प्रार्थना है कि तू अपने पुराने कुएँ से निकल कर इस नई खाई में सुखी रहे, आबाद रहे. पर तुझसे हाथ जोड़ कर मेरी यह प्रार्थना है कि तू खुद कोई ऐसी गुड़िया मत पैदा करना जिसे अपने बचपन में ही झाड़ू-बर्तन करने या किसी बन रही इमारत पर दिहाड़ी करने के लिए जाना पड़े.

4 टिप्‍पणियां:

  1. कितनी कहानियाँ बिखरी हैं ना हमारे आसपास और किस कहानी को हम कह पाते हैं अपनी हिम्मत के हिसाब से ?

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    1. सुशील बाबू ! ऐसी कहानी खुद कहो या उसे पढ़ो,मन को उदास तो होना ही है. लेकिन तुम्हारे जैसे सहृदय पाठक मिलें तो ऐसी कहानियां लिखने की हिम्मत आ ही जाती है.

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  2. मार्मिक कथा, शब्द कम पड़ रहें हैं भावनाओं को व्यक्त करने में, साथ ही सादर आग्रह है कि मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों --
    मेरे ब्लॉग का लिंक है : http://rakeshkirachanay.blogspot.in

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  3. धन्यवाद राकेश कुमार राही जी. आपके ब्लॉग में मैं ज़रूर सम्मिलित होना चाहूँगा. विचारों का आदान-प्रदान रचनात्मकता को हमेशा बढ़ावा देता है.

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