क़त्ल-ए-उर्दू –
मुसाफ़िरों से खचाखच
भरी ट्रेन, हिरनी की तरह कुलांचे मारते हुए लखनऊ की
तरफ़ दौड़ी चली जा रही थी. एक बाबा जी नीचे की बर्थ पर आराम से पसरे हुए थे और उनके
आस-पास दो दर्जन लोग एक-दूसरे से गुंथे हुए खड़े थे. किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह
बाबा जी से यह कह दे कि वो बैठ जाएं ताकि औरों के बैठने के लिए कुछ जगह खाली हो
जाए.
शेरवानी और तुर्की टोपी में सजे एक बुज़ुर्ग मौलाना साहब ने हिम्मत बटोरते हुए उन से कहा –
‘हुज़ूर थोड़ी ज़हमत करेंगे? आप बराय मेहरबानी बैठ जाएं तो हम भी अपनी पीठ टिका लें.’
बाबाजी ने मौलाना साहब का अनुरोध अनसुना कर दिया.
मौलाना साहब ने फिर तकाज़ा किया –
‘क़िबला, सुनते हैं? मैं आप से ही मुख़ातिब हूँ.’
इस बार मौलाना साहब को आग्नेय दृष्टि से घूरते हुए बाबा जी ने कहा-
‘द्याखो मौलाना ! हम गोमुख से हरद्वार तक पैदल चल कर आय रहे हैं. हम तो अब लेटे-लेते ही जाब. तुम कोऊ और ठिकाना खोज लेओ. और तुम हम का ‘किबला’ काहे कह्यो? जौन ई ‘किबला’ कौनो अच्छी बात है तो ठीक ! और जौन यू कौनो गाली है तो - तू किबला, तोहार बाप किबला और तोहार अम्मा किबलिया !’
शेरवानी और तुर्की टोपी में सजे एक बुज़ुर्ग मौलाना साहब ने हिम्मत बटोरते हुए उन से कहा –
‘हुज़ूर थोड़ी ज़हमत करेंगे? आप बराय मेहरबानी बैठ जाएं तो हम भी अपनी पीठ टिका लें.’
बाबाजी ने मौलाना साहब का अनुरोध अनसुना कर दिया.
मौलाना साहब ने फिर तकाज़ा किया –
‘क़िबला, सुनते हैं? मैं आप से ही मुख़ातिब हूँ.’
इस बार मौलाना साहब को आग्नेय दृष्टि से घूरते हुए बाबा जी ने कहा-
‘द्याखो मौलाना ! हम गोमुख से हरद्वार तक पैदल चल कर आय रहे हैं. हम तो अब लेटे-लेते ही जाब. तुम कोऊ और ठिकाना खोज लेओ. और तुम हम का ‘किबला’ काहे कह्यो? जौन ई ‘किबला’ कौनो अच्छी बात है तो ठीक ! और जौन यू कौनो गाली है तो - तू किबला, तोहार बाप किबला और तोहार अम्मा किबलिया !’
अल्मोड़ा के अपने 31 साल के प्रवास में अक्सर मेरा साबक़ा ऐसे
बाबाजियों और ऐसी देवियों से पड़ता रहता था. मुझे शहद की मिठास वाली लखनवी ज़ुबान की
बहुत याद आती थी. मेरे साथियों में बहुत कम लोग ऐसे थे जिनका कि उर्दू तलफ्फ़ुज़
दुरुस्त था. अपने साथियों के और अपने विद्यार्थियों के, क़ाफ़ और शीन के दुरुस्त होने की कल्पना
करना भी मेरे लिए एक गुनाह-ए-अज़ीम था.
अल्मोड़ा के
निवासियों की रगों में संगीत बहता है. आम तौर पर आपको दस-पन्द्रह लोगों के समूह
गान में एक भी स्वर भटका हुआ नहीं दिखाई देगा. लेकिन अगर आप उनके गाए नग्मों और
उनकी गाई गज़लों में उर्दू शब्दों के साथ उनके द्वारा की गयी ज्यादतियों का हिसाब
करेंगे तो आपको बार-बार उन पर दफ़ा 307 ही क्या,
दफ़ा 302 भी लगाने की ज़रुरत पड़ जाएगी.
अल्मोड़ा में
लड़कियों-महिलाओं के बीच,
फ़िल्म ‘साहिब बीबी और गुलाम’ का मुजरा –
‘साक़िया, आज मुझे नींद नहीं आएगी,
सुना है तेरी महफ़िल में, रतजगा है.’
गाने का बड़ा चलन था. लेकिन इसको अपने अनोखे उर्दू-ज्ञान की वजह से वो कुछ इस तरह गाती थीं –
‘साथिया, आज मुझे नींद नहीं आएगी,
सुना है तेरी महफिल में, रतन जड़ा है.’
‘साक़िया, आज मुझे नींद नहीं आएगी,
सुना है तेरी महफ़िल में, रतजगा है.’
गाने का बड़ा चलन था. लेकिन इसको अपने अनोखे उर्दू-ज्ञान की वजह से वो कुछ इस तरह गाती थीं –
‘साथिया, आज मुझे नींद नहीं आएगी,
सुना है तेरी महफिल में, रतन जड़ा है.’
अब साथिया की महफ़िल
में रतन कैसे जड़ा जा सकता है, यह
सोचने की बात है.
हमारे बहुत से
पर्वतवासी मित्रों की और हमारे पुरबिया मित्रों की ज़ुबानों में, एक ऐसी मशीन फ़िट होती है जो ‘श’ को ‘स’ में और ‘स’ को ‘श’ में ऑटोमेटिकली बदल देती है. इस से – ‘क़िस्मत’,
‘किश्मत’ में बदल जाती है और ‘कोशिश’, ‘कोसिस’
में तब्दील हो जाती
है.
मेरे एक बिहारी
मित्र का गला बहुत अच्छा था. मैथिली के और भोजपुरी के लोकगीतों को गाने में उनका
कोई सानी नहीं था लेकिन उनको मुहम्मद रफ़ी की और जगजीत सिंह की ग़ज़लें गाने का बहुत
शौक़ था-
‘तेरा हुश्न रहे, मेरा इस्क रहे तो, ये शुबहो या साम, रहे न रहे ---’
और -
‘शरकती जाए है, रुख शे नकाब, आहिश्ता-आहिश्ता --- ’
और -
‘शरकती जाए है, रुख शे नकाब, आहिश्ता-आहिश्ता --- ’
मित्र की ऐसी ग़ज़लें
सुनकर मैं या तो अपना सर धुनने लगता था या फिर उनका गला दबाने के लिए दौड़ पड़ता था.
एक बार इन्हीं
दोस्त ने मुझे अपना उर्दू-उस्ताद नियुक्त कर दिया. मुझे ज़िम्मेदारी सौंपी गयी कि
मैं उनका उर्दू तलफ्फ़ुज़ दुरुस्त करूं. इस काम के लिए मेरे टेप-रिकॉर्डर की सेवाएँ
भी ली गईं. फ़िल्म ‘काजल’ का एक ख़ूबसूरत नग्मा है –
‘ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा ---’
इस नग्मे के पहले लब्ज़ के अलावा हमारे दोस्त को किसी और लफ़्ज़ में दिक्कत नहीं थी. मुझे सिर्फ़ उनके - ‘जुल्फ’ को - ‘ज़ुल्फ़’ में बदलना था. लेकिन इसमें कभी वो - ‘ज़ुल्फ़’ को -‘जुल्फ’ कहते थे तो कभी - ‘झुल्फ’, तो कभी - ‘वुल्फ़’ से मिलती-जुलती आवाज़ निकालते थे. मैं बार-बार टेप-रिकॉर्डर पर उनके गाए हुए नग्मे और मुहम्मद रफ़ी के गाए हुए नग्मे का फ़र्क दिखाता था. मेरी दो दिन की मेहनत के बाद, मेरी डांट-फटकार से आज़िज़ आकर और अपनी गुरु-भक्ति भूलकर मेरे मित्र मुझ से बोले –
‘ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा ---’
इस नग्मे के पहले लब्ज़ के अलावा हमारे दोस्त को किसी और लफ़्ज़ में दिक्कत नहीं थी. मुझे सिर्फ़ उनके - ‘जुल्फ’ को - ‘ज़ुल्फ़’ में बदलना था. लेकिन इसमें कभी वो - ‘ज़ुल्फ़’ को -‘जुल्फ’ कहते थे तो कभी - ‘झुल्फ’, तो कभी - ‘वुल्फ़’ से मिलती-जुलती आवाज़ निकालते थे. मैं बार-बार टेप-रिकॉर्डर पर उनके गाए हुए नग्मे और मुहम्मद रफ़ी के गाए हुए नग्मे का फ़र्क दिखाता था. मेरी दो दिन की मेहनत के बाद, मेरी डांट-फटकार से आज़िज़ आकर और अपनी गुरु-भक्ति भूलकर मेरे मित्र मुझ से बोले –
‘हम तो ‘जुल्फ’
ही कहूँगा. आप
हमारा क्या उखाड़ लेंगे?
ठहरिए, अभी आपका टेप-रिकॉर्डर तोड़ता हूँ.’
अपनी और अपने
टेप-रिकॉर्डर की जान बचाने ले लिए मैंने उसी वक़्त से उर्दू-उस्ताद के सम्मानित पद
का परित्याग कर दिया.
हमारे एक और दोस्त
हैं जो कि इतिहास के विश्व-विख्यात विद्वान हैं. उनके उर्दू-ज्ञान का एक किस्सा
बड़ा मशहूर है. मैं क्लास में कांग्रेस के नरमपंथी नेताओं की अंग्रेज़-सरकार के
प्रति वफ़ादारी प्रदर्शित करने की नीति की आलोचना करते समय अकबर इलाहाबादी का यह
शेर सुना रहा था –
‘क़ौम के गम में डिनर खाते हैं, हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत हैं, मगर आराम के साथ.’
रंज लीडर को बहुत हैं, मगर आराम के साथ.’
क्लास के बाहर मेरे
विद्वान मित्र खड़े थे. यह शेर उन्होंने भी सुना फिर मुझे अकेले में ले जाकर मुझसे
कहा -
‘जैसवाल साहब, आप स्टूडेंट्स को क्या बेसिर-पैर की
गप्पें सुनते रहते हैं?
ये बादशाह अकबर
इलाहाबाद का कब से हो गया?
और उसे अंग्रेज़ी
कहाँ से आ गयी?’
मैंने उसी वक़्त
अपनी गलती के लिए उनके चरण पकड़ लिए और फिर मौक़ा पाते ही मित्र-मंडली में पूरा
किस्सा सुना दिया. मेरे विद्वान मित्र के समझ में यह समझ में आ ही नहीं रहा था कि
लोगबाग जैसवाल साहब की गलती पर ठहाके क्यों लगा रहे हैं.
कुमाऊँ
विश्वविद्यालय में पद-भार सम्हालने से पहले मैंने आठ महीने बागेश्वर के राजकीय
स्नातकोत्तर महाविद्यालय में पढ़ाया था. अपने विद्यार्थियों को राष्ट्रीय आन्दोलन
पढ़ाते समय मैं मैथिलीशरण गुप्त, श्यामलाल
पार्षद, माखनलाल चतुर्वेदी और सोहनलाल द्विवेदी की
राष्ट्रवादी कविताओं के अलावा बहादुर शाह ज़फर, अकबर इलाहाबादी,
अल्लामा इक़बाल, चकबस्त और रामप्रसाद बिस्मिल के वतनपरस्ती
के जज़्बे वाले अशआर भी सुनाया करता था. मेरे विद्यार्थी कविताओं को सुनाने का तो
नहीं, लेकिन अशआर सुनाने का क्रेडिट मुझे ऐसे
देते थे जैसे कि वो सब अशआर मैंने ही कहे हों. अक्सर मेरे सुनने में आता था-
‘जैशवाल शर, सेर बहुत अच्छा मारते हैं.’
ममता बनर्जी जब
रेल-मंत्री थीं तो रेल बजट पेश करते हुए वो दो-चार ‘सायरी’
ज़रूर ‘पेस’ करती थीं. बजट पेश करने के दौरान उन्होंने जिस-जिस शायर के अशआर पेश किए
होंगे उन्होंने जन्नत में या जहाँ भी कहीं वो होंगे, ख़ुदकुशी ज़रूर कर ली होगी. मुझे लगता है कि ममता दीदी ने अल्मोड़ा के या
बागेश्वर के किसी उस्ताद से ही उर्दू का क़त्ल करना सीखा होगा.
फ़ेसबुक पर हमारे कई
मित्र अपने अनूठे उर्दू-ज्ञान से हमारा मनोरंजन करते रहते हैं. कुछ मेहरबान दोस्त
तो मिर्ज़ा ग़ालिब के या किसी और मकबूल शायर के अशआर इतना तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं
कि ख़ुद शायर भी उनको पढ़कर चकरा जाए.
भगवान महावीर, गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी की धरती पर
अहिंसा, करुणा, दया और प्रेम की सदैव महत्ता रही है लेकिन क़त्ल-ए-उर्दू देखकर किसी की
आँखों से आंसू की नदियाँ नहीं बहतीं, कोई आहें नहीं भरता और तो और, कोई करुणानिधान भी उर्दू को बचाने के लिए नंगे पाँव दौड़ा नहीं आता.
बागेश्वर और
अल्मोड़ा की ही तरह हमारे ग्रेटर नॉएडा में भी उर्दू के पैदल सैनिकों की भरमार है.
साहित्य और अदब के दर्शन होना यहाँ ईद के चाँद के दिखने जैसी दुर्लभ बात है. लेकिन
अब रोज़ाना क़त्ल-ए-उर्दू बर्दाश्त करना, क़त्ल-ए-अदब को अनदेखा करना, साहित्य की और सभ्यता की हत्या होते हुए देखना, मेरी आदत में और मेरी किस्मत में, शामिल हो गया है.