पंडित नित्यानंद चौबे जैसा मूंजी, सारे कीर्ति नगर में ही क्या, सारे भारत में मिलना मुश्किल था.
अपने पूज्य
पिताजी स्वर्गीय परमानन्द चौबे से उन्हें विरासत में पंडिताई मिली थी.
कीर्तिनगर के कम
से कम सौ-डेड़सौ परिवार उनकी अपनी भाषा में उनके – ‘कस्टेम्पर’ (कस्टमर) थे और वो उनके लिए उनके सोलह संस्कारों पर
ही क्या, तमाम अल्लम-गल्लम शुभ-अशुभ अवसरों पर भी पूजा करने के लिए बुलाए जाते थे.
धन-धान्य से
परिपूर्ण पंडित जी के घर में उनकी चौबाइन ख़ुद को और अपने बच्चों को, रूखा-सूखा
खिलाने को, और उल्टा-सीधा पहनाने को, मजबूर हुआ करती थीं क्यों कि उनके पतिदेव ‘कस्टेम्परों’ से दान में
मिले दान में मिले कपड़े, मिठाइयाँ फल,दक्षिणा
में मिले कपड़े, मिठाइयाँ, फल, मेवे आदि को घटी दरों पर कीर्ति नगर की विभिन्न दुकानों पर बेच कर, खाली हाथ
लेकिन भरी जेब, ले कर ही घर में प्रवेश करते थे.
चौबे जी की
जेब तक और उनकी तिजोरी तक, चौबाइन और उनके बच्चे ही क्या, फ़रिश्ते तक नहीं पहुँच सकते थे.
सेठ छंगामल
चौबेजी के सबसे बड़े जजमान थे.
सेठ जी के
पोते का अन्नप्राशन था.
पंडित
नित्यानंद चौबे तीन दिन से सेठ जी के यहाँ ख़ुद तो तर माल उड़ा रहे थे लेकिन उनके
बीबी-बच्चों की किस्मत में घर की बनी दाल-
रोटी-सब्ज़ी ही थी
क्योंकि चढ़ावे के सारे पकवान, फल, मेवे आदि तो हलवाइयों की और पंसारियों की
दुकानों में जा कर नक़दी का रूप धारण कर चुके थे.
पूजा संपन्न
होने पर सेठ छंगामल ने पंडित नित्यानंद चौबे को मोटी दक्षिणा के साथ मैसूर सिल्क
का एक बहुत सुन्दर दोशाला भेंट किया.
फ़रीद फल वाले
के यहाँ फल, नत्थूलाल पंसारी के यहाँ मेवे और जगन हलवाई के यहाँ मिठाइयां बेचने के बाद
पंडित जी ने रामनाथ बजाज की दुकान की ओर प्रस्थान किया.
चौबे जी को
उम्मीद थी कि सेठ छंगामल से भेंट में मिला मैसूर सिल्क का दोशाला उन्हें कम से कम हज़ार
रूपये तो दिला ही देगा.
चौबे जी ने
बड़ी शान से अपना दोशाला रामनाथ बजाज के सामने रख दिया.
रामनाथ बजाज
ने दोशाले को उल्टा-पलटा फिर सर हिलाते हुए उसने चौबे जी को दोशाला वापस करते हुए
कहा –
‘पंडित जी, इस दोशाले
में तो हल्दी-रोली के दाग लगे हुए हैं. ऐसा दागी माल हमारी दुकान पर नहीं बिकेगा.’
पंडित जी ने
अपनी दलील देते हुए कहा –
‘जजमान ! हल्दी-रोली
लगा ये दोशाला तो बड़ा शुभ माना जाएगा. वैसे तो मैं इसके तुमसे कम से कम हज़ार रूपये
लेता पर इन शुभ चिह्नों के कारण मैं इसके सिर्फ़ सात सौ रूपये लूँगा.’
घाघ रामनाथ
बजाज ने दोशाले पर हिकारत भरी नज़र डाल कर मसखरी के अंदाज़ में कहा –
‘पंडित जी
दान-दक्षिणा में मिले कपड़े बेचने के बजाय कभी ख़ुद भी पहन लिया कीजिए. इस
हल्दी-रोली लगे दोशाले को ओढ़ कर आप बहुत अच्छे लगेंगे.’
पंडित जी ने
हथियार डालते हुए अंतिम ऑफ़र दिया –
‘जजमान ! पांच
सौ तो दे दो !’
जजमान ने पहला
ऑफ़र दिया –
‘पंडित जी, दो सौ में
देते हों तो दोशाला छोड़ जाइए वरना दुकान से सादर प्रस्थान कीजिए.’
पंडित जी ने सादर
प्रस्थान करने वाला विकल्प चुना और मन ही मन रामनाथ बजाज को कोसने का कार्यक्रम
प्रारंभ कर दिया –
‘हम से
औने-पौने में माल खरीद कर उसे दुगुने-चौगुने दाम में बेचने वाले नटवरलाल ! अब तेरी
दुकान पर हम झांकें भी तो हमारी आँखें फूट जाएं.
हमारा यह मैसूर
सिल्क का दुशाला अब हज़ार से ऊपर बिकेगा और इसी कीर्तिनगर में बिकेगा.
अब हम सौ
रूपये दे कर हनीफ़ पेंटर से इसका ऐसा रामनामी दोशाला तैयार करवाएँगे कि इसके
हल्दी-रोली के दाग किसी को दिखाई ही नहीं देंगे.’
हनीफ़ पेंटर ने
पंडित जी की मिन्नतों की और दुआओं की, क़तई परवाह न करते हुए, दागी दोशाले
के मेकअप करने के, उन से पूरे दो सौ रूपये झटक लिए. लेकिन काम उसने ऐसा बेजोड़ किया था कि ख़ुद
पंडित जी भी लाख कोशिश कर के भी दोशाले में राम-नाम के बीच हल्दी-रोली के दाग खोज
नहीं पाए थे.
रामनाथ बजाज
की दुकान छोड़ कर पूरे कीर्तिनगर के कपड़ों की दुकानें छान मारने पर भी पंडित जी के
इस रामनामी दुपट्टे के लिए किसी ने तीन सौ रूपये से ऊपर की बोली नहीं लगाई.
आख़िरकार
रामनाथ बजाज की दुकान की तरफ़ झाँकने पर भी अपनी ऑंखें फोड़ने को तैयार पंडित जी ने
फिर उसकी दुकान पर धरना दे दिया और बड़ी मिन्नत-चिरौरी कर उसे साढ़े तीन सौ में अपना
रामनामी दोशाला बेच डाला.
इस तरह पंडित
जी ने दो सौ रूपये का पहला ऑफ़र ठुकरा कर फिर दो सौ रूपये अपनी तरफ़ से खर्च कर के, अपने
नवीनीकृत दोशाले के साढ़े तीन सौ रूपये प्राप्त किए.
इस सयानेपन
में उन्हें पचास रूपये नक़द की ज़बर्दस्त चोट लगी और अपनी कसम तोड़ने पर अपनी ऑंखें
फूटने का ख़तरा भी पैदा हो गया.
पंडित जी कब
तक इस चोट को, इस दर्द को, और अपनी ऑंखें फूटने की सम्भावना को ले कर परेशान रहते?
वक़्त के साथ
उनके सारे घाव भर गए और उनके दिल से अपनी आँखें फूटने का डर भी जाता रहा.
एक दिन लाला
छंगामल के यहाँ से पंडित जी के लिए फिर बुलावा आ गया.
लाला जी की नई
कोठी का गृह-प्रवेश था और पूजा का सारा दायित्व पंडित नित्यानंद चौबे को सम्भालना था.
तीन दिनों तक पंडित
नित्यानंद चौबे ने ऐसी लगन से सारा पूजा-कार्यक्रम किया कि पूजा संपन्न होने पर लाला
छंगामल ने उनकी जेब सौ-सौ के नोटों से भर दी और मिठाइयों के डिब्बों, फल-मेवे के
टोकरों, का उनके लिए अम्बार लगा दिया.
गिलोगिल्ल पंडित
नित्यानंद चौबे अपने जजमान को आशीर्वाद देते हुए जब प्रस्थान कर रहे थे तो उनके
जजमान ने उन्हें रोकते हुए कहा –
‘पंडित जी
ठहरिए ! मुझे आपको एक भेंट और देनी है.
अपने पोते के
अन्नप्राशन में मैंने आपको मैसूर सिल्क का दोशाला दिया था. इस बार मेरी इच्छा हुई कि
मैं गृह-प्रवेश पर आपको वैसा ही रामनामी दोशाला दूं.
भला हो रामनाथ
बजाज का, जिसने पता नहीं कैसे चार दिन में ही प्योर मैसूर सिल्क का रामनामी दोशाला मेरे
लिए मंगवा लिया. इस दोशाले को ओढ़ कर आप मुझे कृतार्थ कीजिए.’
सेठ छंगामल के
हाथों, हनीफ़ पेंटर की कलाकारी से सज्जित, उस चिर-परिचित रामनामी दोशाले को ओढ़ कर
पंडित नित्यानंद चौबे ऊपरी तौर पर तो हंस रहे थे पर अन्दर से उनका दिल ज़ार-ज़ार रो
रहा था.