'खादी का झंडा सत्य, शुभ्र अब सभी ओर फहराता है।'
पंडित सोहनलाल द्विवेदी
लेकिन आज -
सिंथेटिक कपड़े का झंडा अब सभी ओर फहराता है.
पंडित सोहनलाल द्विवेदी की अमर रचना – ‘खादी’ हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन की अमर धरोहर है.
परतंत्र भारत में खादी केवल कपास से काते गए सूत और फिर उस से बुने गए कपड़े की कहानी नहीं कहती है बल्कि यह तो आत्मसम्मान, स्वदेशी, आर्थिक आत्मनिर्भरता, नारी-उत्थान, ग्राम-स्वराज्य, और दलितोद्धार के अतिरिक्त ब्रिटिश-भारतीय साम्राज्य की जड़ों को खोखला करने की प्रेरक गाथा भी कहती है.
आज आज़ादी के अमृत-महोत्सव पर इस कविता को आप सब मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ.
जय हिन्द ! वंदेमातरम् !
खादी -
खादी के धागे-धागे में, अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा।
खादी के रेशे-रेशे में, अपने भाई का प्यार भरा,
मां-बहनों का सत्कार भरा, बच्चों का मधुर दुलार भरा।
खादी की रजत चंद्रिका जब, आ कर तन पर मुसकाती है,
जब नव-जीवन की नई ज्योति, अंतस्थल में जग जाती है।
खादी से दीन निहत्थों की, उत्तप्त उसांस निकलती है,
जिससे मानव क्या, पत्थर की भी, छाती कड़ी पिघलती है।
खादी में कितने ही दलितों के, दग्ध हृदय की दाह छिपी,
कितनों की कसक कराह छिपी, कितनों की आहत आह छिपी।
खादी में कितनों ही, नंगों-भिखमंगों की है, आस छिपी,
कितनों की इसमें भूख छिपी, कितनों की इसमें प्यास छिपी।
खादी तो कोई लड़ने का, है भड़कीला, रणगान नहीं,
खादी है तीर-कमान नहीं, खादी है खड्ग-कृपाण नहीं।
खादी को देख-देख तो भी, दुश्मन का दिल थहराता है,
खादी का झंडा सत्य, शुभ्र अब सभी ओर फहराता है।
खादी की गंगा जब सिर से, पैरों तक बह लहराती है,
जीवन के कोने-कोने की, तब सब कालिख धुल जाती है।
खादी का ताज चांद-सा जब, मस्तक पर चमक दिखाता है,
कितने ही अत्याचार ग्रस्त, दीनों के त्रास मिटाता है।
खादी ही भर-भर देश प्रेम का, प्याला मधुर पिलाएगी,
खादी ही दे-दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी।
खादी ही बढ़, चरणों पर पड़, नुपूर-सी लिपट मना लेगी,
खादी ही भारत से रूठी, आज़ादी को घर लाएगी।।
नमन । शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंजय हिन्द ! वन्दे मातरम् !
हटाएंसोहन लाल द्विवेदी जी की रचना साझा करने के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंअमर रचना है यह संगीता जी. मुझे अपने बचपन से यह कविता बहुत ही प्रिय है.
हटाएंबहुत सुंदर 👌🙏
जवाब देंहटाएंआंचल, इस कविता को ख़ुद याद करो और अपने छोटे भैया को भी इसे याद कराओ.
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१५-०८ -२०२२ ) को 'कहाँ नहीं है प्यार'(चर्चा अंक-४५२३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
'कहाँ नहीं है प्यार' (चर्चा अंक - 4523) में पंडित सोहनलाल द्विवेदी की अमर रचना को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता.
हटाएंकवि का सात्विक चिन्तन मांस-खोर विचारों पर प्रभाव डाले - शायद यह भी कभी संभव हो .
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा प्रतिभा जी !
हटाएंपंडित सोहनलाल द्विवेदी द्वारा खादी का गुणगान आज फीका पड़ गया है. देख के लिए मरने-मिटने का जज़्बा तो अब किताबों में ही मिलता है.
पंडित सोहनलाल द्विवेदी जी की अमर रचना पढ़वाने के लिए बहुत बहुत आभार सर !
जवाब देंहटाएंमीना जी, इस कविता के चार छंदों से तो मैं पहले से अवगत था किन्तु शेष चार छंद अभी हाल ही में प्राप्त हुए हैं.
हटाएंइतनी सुन्दर और प्रेरणादायक कविता को मित्रों के साथ साझा करना तो मेरा कर्तव्य है.
खादी पर सारगर्भित रचना ।
जवाब देंहटाएंसुंदर आलेख के साथ पंडित सोहनलाल द्विवेदी जी की रचना साझा करने के लिए आपका हार्दिक आभार।
जिज्ञासा, यह कविता मुझे अपने बचपन से बहुत प्रिय रही है.
हटाएंकरीब 30 साल पहले मैंने आकाशवाणी अल्मोड़ा के लिए एक रूपक - 'कलम आज उनकी जय बोल' लिखा था. उस रूपक में भी मैंने इस कविता को सम्मिलित किया था.