25 जुलाई, 1997 भारतीय इतिहास की सबसे शर्मनाक तारीखों में से एक है. इसी तारीख को बिहार के बेताज बादशाह लालू प्रसाद यादव की लगभग काला अक्षर भैंस बराबर धर्मपत्नी श्रीमती राबड़ी देवी ने पहली बार बिहार की मुख्यमंत्री की कुर्सी को सुशोभित किया था.
उन दिनों श्री इंद्रकुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री थे.
भाई लालू प्रसाद यादव ने इस घटना को भारतीय नारी के उत्थान
की ज़िन्दा मिसाल के रूप में पेश किया था लेकिन मेरी दृष्टि में यह भारतीय
लोकतांत्रिक प्रणाली के मुंह पर एक ज़बर्दस्त तमाचा था.
बिहार के गौरवशाली अतीत के बाद बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक
में बिहार के अधोपतन की इस चरम परिणति को देख कर मुझे महाकवि दिनकर की अमर रचना –
‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’
की याद आ गई थी और उसी अमर रचना को आधार बना कर मैंने अपनी
कविता – ‘विध्वंस राग’ की रचना की थी.
इस कविता में बिहार के उत्थान से ले कर उसके पतन की कहानी
है और इसके साथ ही इसमें यह आशंका भी व्यक्त की गयी है कि आज लालू यादव की
उत्तराधिकारी बनी राबड़ी देवी कल भारत की प्रधानमंत्री भी बन सकती हैं.
विध्वंस राग
हे महावीर औ बुद्ध, तुम्हारे दिन बीते,
प्रियदर्शी धम्माशोक, रहे तुम भी रीते.
पतिव्रता नारियों की सूची में नाम न पा,
लज्जित, निराश, धरती में, समा गईं सीते.
नालन्दा, वैशाली, का गौरव म्लान हुआ,
अब चन्द्रगुप्त के वैभव का, अवसान हुआ.
सदियों से कुचली नारी की क्षमता का पहला भान हुआ,
मानवता के कल्याण हेतु, मां रबड़ी का उत्थान हुआ.
घर के दौने से निकल आज, सत्ता का थाल सजाती है,
संकट मोचक बन, स्वामी के, सब विपदा कष्ट मिटाती है.
पद दलित अकल हो गई आज, हर भैंस यही पगुराती है,
अपमानित, मां वीणा धरणी, फिर,
लुप्त कहीं हो
जाती है.
जन नायक की सम्पूर्ण क्रांति, शोणित के अश्रु बहाती है,
जब चुने फ़रिश्तों की ग़ैरत, बाज़ारों में बिक जाती है.
जनतंत्र तुम्हारा श्राद्ध करा, श्रद्धा के सुमन
चढ़ाती है,
बापू के छलनी सीने पर, फिर से गोली बरसाती है.
क्या हुआ, दफ़न है नैतिकता, या प्रगति रसातल
जाती है,
समुदाय-एकता, विघटन के, दलदल में फंसती
जाती है.
फलता है केवल मत्स्य न्याय, समता की अर्थी
जाती है,
क्षत-विक्षत, आहत,
आज़ादी,
खुद कफ़न ओढ़ सो जाती है.
पुरवैया झोंको के घर से, विप्लव की आंधी आती है,
फिर से उजड़ेगी, इस भय से बूढ़ी दिल्ली थर्राती है.
पुत्रों के पाद प्रहारों से, भारत की फटती छाती है,
घुटती है दिनकर की वाणी, आवाज़ नई इक आती है -
‘गुजराल ! सिंहासन खाली कर, पटना से रबड़ी
आती है,
गुजराल ! सिंहासन खाली कर, पटना से रबड़ी आती है.’
मेरी काव्य-रचना को 'भारत' (चर्चा अंक - 4514) में सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद कामिनी जी.
जवाब देंहटाएंईनाम मिलेगा आपको इसपर। रबडी का।
जवाब देंहटाएंइनाम में शुगर-फ़्री रबड़ी सदैव स्वीकार्य है.
हटाएंबिलकुल सच और बहुत गजब लिखा था आपने ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जिज्ञासा !
हटाएंऐसे कलंकित कारनामे अब आए दिन दोहराए जाते हैं.