रविवार, 10 अप्रैल 2022

नए ट्विस्ट के साथ एक प्राचीन नीति-कथा

 

अपने शरीर के केवल निचले भाग पर केले के पत्ते लपेटे हुए एक नवयुवक तपती दोपहरी में, अपने खेत की मेड़ पर केले की पौध लगा रहा था. अपने इस केलारोपण अभियान के समय वह नवयुवक हंस रहा था और गा भी रहा था.

एक पथिक ने मात्र केले के पत्तों से अपनी लाज बचाने वाले इस नवयुवक से ऐसी आग उगलती धूप में नंगे-बदन केलारोपण करते समय भी प्रसन्न होने का कारण पूछा –

ऐ पागल नवयुवक ! तू इस तपती दोपहरी में अपने शरीर के केवल मध्य-भाग को केले के पत्तों से ढक कर ये केलारोपण क्यों कर रहा है?’

उस नवयुवक ने जिज्ञासु पथिक के दो पंक्ति के प्रश्न का उत्तर देते हुए अपने खानदान का पिछले ढाई हज़ार साल से भी पुराना इतिहास सुनाना प्रारंभ कर दिया.  

नवयुवक ने पथिक को बताया कि उसके 111 वें दादा जी श्री संतोषानंद, भगवान बुद्ध के और पाप नगरी के राजा हवस सिंह के, समकालीन थे.

राजा हवस सिंह के राजकोष में सोने-चांदी के और हीरे-मोती के अम्बार लगे थे. उसके राज्य की सीमा एक ओर समुद्र तक थी तो दूसरी ओर हिमालय पर्वत तक थी. उसकी चतुरंगिणी सेना उसके शत्रुओं के लिए काल के समान थी.

हवस सिंह की रानियाँ पद्मिनी नायिका के समान सुन्दर थीं और इसके अलावा कम से कम औपचारिक रूप से पतिव्रता भी थीं.

राजा के राजकुमार तथा राज कुमारियाँ रूप और गुण से संपन्न थे.

किन्तु अपने वैभव और ऐश्वर्य से राजा हवस सिंह संतुष्ट नहीं था. उसे अपनी अपार शक्ति भी पर्याप्त नहीं लगती थी. वह अपने राज्य की सीमाएं अभी और बढ़ाना चाहता था. वह धन के देवता कुबेर से भी अधिक धनवान होना चाहता था.

हवस सिंह अपनी रानियों के साथ भोग-विलास करता हुआ भी अन्य राज्यों की अनिंद्य सुंदरियों के स्वप्न देखा करता था.

एक बाप के रूप में हवस सिंह को अपने पुत्र-पुत्रियों में गुणों से अधिक दोष दिखाई देते थे.

अपनी परिस्थितियों से सर्वथा असंतुष्ट राजा हवस सिंह अब चिंताग्रस्त रहने लगा. उसको अनिद्रा रोग हो गया. उसने हँसना-मुस्कुराना छोड़ दिया.

राजा हवस सिंह के समकालीन भगवान बुद्ध के विषय में कहा जाता था कि उन्होंने दुःख का निदान खोज लिया है.

हवस सिंह के राजगुरु ने उसे भगवान बुद्ध की शरण में जा कर अपने दुखों का निवारण करने का परामर्श दिया.

हवस सिंह, भगवान बुद्ध की शरण में गया और फिर उसने विस्तार से उन्हें अपने अभावों की, अपनी कुंठाओं की, अपनी अतृप्त कामनाओं की और अपने अधूरे सपनों की कथा सुनाई.

भगवान बुद्ध ने धैर्यपूर्वक राजा हवस सिंह की व्यथा-कथा सुनी फिर उन्होंने मुस्कुराते हुए उस से कहा –

राजन ! तुम्हारे दुःख का, तुम्हारे असंतोष का और तुम्हारी कुंठाओं का निदान मेरे पास नहीं है.  तुम्हारा दुखों का और तुम्हारी कुंठाओं का निवारण तो वही व्यक्ति कर सकता है जो कभी दुखी न हुआ हो और जो अपने जीवन से पूर्णतया संतुष्ट हो.

तुमको ऐसे व्यक्ति से उसका उत्तरीय यानी कि कुर्ता अथवा दोशाला मांग कर पहनना होगा. जैसे ही तुम उस सुखी-संतुष्ट व्यक्ति का उत्तरीय धारण करोगे तुम्हारे सभी कष्टों-दुखों का निवारण हो जाएगा.

राजा हवस सिंह ने अपने राज्य पाप नगरी की चतुरंगिणी सेना के साथ अपने राज्य में ही क्या, अपने सभी पड़ौसी राज्यों में भी सुखी-संतुष्ट व्यक्ति की खोज प्रारंभ कर दी किन्तु वह उसे कहीं भी नहीं मिला.

बहुत भटकने के बाद राजा हवस सिंह की भेंट नवयुवक के 111 वें दादा, संतोषानंद से हो गयी. तपती दोपहरी में संतोषानंद अपने छोटे से खेत में मात्र एक कच्छा पहने, गाते-गुनगुनाते हुए हल चला रहा था.  

राजा हवस सिंह ने संतोषानन्द से पूछा –

क्यों रे अधनंगे किसान ! तू इस प्रचंड गर्मी में, तपते सूरज की चिंता किये बिना, गीत गाते हुए, हल कैसे चला रहा है? क्या तुझे कोई दुःख नहीं है? क्या तुझे कोई चिंता नहीं है? क्या तू अपने जीवन से पूर्णतया संतुष्ट है?’

संतोषानंद ने राजा हवस सिंह को उत्तर दिया –

मैं अपने जीवन से पूर्णतया संतुष्ट हूँ.. दिन भर कड़ा श्रम कर के मुझे जो कुछ रूखा-सूखा खाने-पहनने को मिल जाता है, मैं उसे भगवान का प्रसाद मान कर प्रसन्नता से ग्रहण कर लेता हूँ.

 

राजा हवस सिंह को वह व्यक्ति मिल गया था जिसकी कि तलाश में वह दर-दर भटक रहा था.

अब राजा ने महा-संतुष्ट संतोषानंद से अनुरोध किया -

हे अध-नंगे किन्तु संतुष्ट और प्रसन्न कृषक ! तू अपना उत्तरीय अर्थात अपना कुर्ता या अपना दोशाला मुझे दे दे. उसे पहन कर अथवा उसे ओढ़ कर मैं भी सदा-सदा के लिए प्रसन्न और संतुष्ट हो जाऊंगा.

अभाव में भी प्रसन्न रहने वाले अध-नंगे संतोषानंद ने हंसते हुए राजा हवस सिंह से कहा –

राजा ! मेरे पास कोई उत्तरीय नहीं है. तू देख रहा कि मैं तो केवल एक कच्छा पहने हूँ. मेरी फूस की टूटी-फूटी झोंपड़ी में भी कोई कुर्ता या कोई दोशाला नहीं है. 

राजा हवस सिंह ने सोचा –

अगर संतुष्ट व्यक्ति का उत्तरीय दुखी व्यक्ति के दुःख और असंतोष को हर सकता है तो फिर उसके कच्छे में भी उसे पहनने वाले के दुःख-निराशा-असंतोष को हरने का कुछ न कुछ गुण तो होगा ही.  

 

राजा ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वो उस अध-नंगे किसान का कच्छा उतार लें और उसकी झोंपड़ी में भी उसके जितने कच्छे हैं, उन्हें भी ज़ब्त कर, उसके राजसी वस्त्रागार में पहुंचा दें.

उस दिन खेत की मेड़ पर लगे केलों ने कच्छा-विहीन संतोषानंद की लाज बचाई थी. बेचारे ने केले के पत्ते तोड़-तोड़ कर और फिर उन्हें जोड़-जोड़ कर, अपने लिए एक वानस्पतिक कच्छा तैयार किया था.

राजा हवस सिंह के कुकृत्य के कारण संतोषानंद के खानदान में पहली बार भय के भाव का संचार हुआ था.

अपने अभावों में और अपनी विपन्नता में भी प्रसन्न और संतुष्ट रहने वाले संतोषानंद के वंशज अब अपना एकमात्र वस्त्र कच्छा भी छीने जाने की सम्भावना से डरने लगे थे.

संतोषानंद के वंशज यह जानते थे कि राजा हवस सिंह के वंशज भी उसी की तरह शक्तिशाली-वैभवशाली होते हुए भी असंतुष्ट और दुखी थे और इसलिए उनकी कु-दृष्टि श्री संतोषानंद के वंशजों के कच्छों पर अवश्य रही होगी.

इस कच्छा-हरण की ऐतिहासिक घटना के बाद से संतोषानंद खानदान के पुरुषों ने यह निर्णय लिया कि वो किसी भी प्रकार के वस्त्र धारण नहीं करेंगे और वस्त्र के नाम पर मात्र केले के पत्तों को अपने शरीर के मध्य-भाग के चारो-ओर लपेट लेंगे.

राजा हवस सिंह के वंशजों को केले के पत्तों को कच्छे के रूप में प्रयोग करने की विद्या तो आती ही नहीं थी अतः संतोषानंद के वंशजों के इन प्राकृतिक दिव्य-वस्त्रों के छीने जाने का तो कोई भय था ही नहीं.  

संतोषानंद की संतति के लिए केला केवल एक पेड़ नहीं है. इसके पत्तों की घनी छाया तेज़ दोपहरी में उन्हें शीतल छांह प्रदान करती है. केला उनको मीठे फल तो देता ही है. वो कच्चे केले की सब्ज़ी भी बना कर खाते हैं और इसके चिप्स बना कर भी खाते हैं. गाँव-गाँव में, शहर-शहर में, मांगलिक कार्यों के समय उनके केलों के वृक्षों की, और उनके पत्तों की, मांग रहती है.

लेकिन संतोषानंद संतति के लिए केले की सबसे अधिक उपयोगिता यह है कि वो उसके पत्तों से अपने शरीर का मध्य-भाग ढकते हैं.

केले के पत्तों में लिपटी संतोषानंद की संतति आज भी संतुष्ट है और प्रसन्न है.

तो मित्रों यह कथा तो समाप्त हुई पर इस कथा से हमको जो सीख मिलती है, उस पर प्रकाश डालना आवश्यक है –

इस कथा से हमको यह शिक्षा मिलती है कि -

1.  हमको सुखी रहने के लिए अपने साधनों को बढ़ाने के स्थान पर अपनी संतोषवृत्ति को बढ़ाना चाहिए.

2.  हमको कपड़े से बने कच्छे के विकल्प के रूप में केले के पत्तों से बने कच्छे का उपयोग करना आज ही से सीखना चाहिए.

3.  सादा जीवन, उच्च विचार की जीवन-शैली अपनाने वाले सभी प्राणियों को, केलारोपण अभियान को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लेना चाहिए.            

12 टिप्‍पणियां:

  1. मतलब हम अपने कच्छे राजा को दे आयें फ़िर :)

    जवाब देंहटाएं
  2. मित्र, तुम अपने कच्छे राजा को दो या न भी दो.
    आख़िर में वो उसी की वार्डरोब में पहुँच जाएँगे.
    तुम तो अपने लिए केले के पत्तों के बने कच्छे तैयार कर ही लो.

    जवाब देंहटाएं
  3. 'पांच लिंकों का आनंद' के 11 अप्रैल, 2022 के अंक में मेरी व्यग्य-कथा को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

    जवाब देंहटाएं
  4. 'संसद के दरवाज़े लाखों चेहरे खड़े उदास' (चर्चा अंक - 4397) में मेरी व्यग्य-कथा को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.

    जवाब देंहटाएं
  5. दुर्योधन द्वारा केले के पत्ते का प्रयोग करने से वो हिस्सा सदा के लिए कमजोर होकर रह गया... इसलिए अन्य उपाय सोचने होंगे ...सबल बनाने हेतु


    अच्छा व्यंग्य
    जनता के त्राहिमाम का सुन्दर चित्रण

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी कहानी की प्रशंसा के लिए धन्यवाद विभा जी !
      5000 साल पहले दुर्योधन के माता गांधारी के सामने केले के पत्तों से अपने शरीर का मध्य भाग ढक कर जाने की बात तो मैं भूल ही गया था.
      वैसे भी मेरी कहानी की शुरुआत का काल तो 2500-2600 साल पहले का ही है.

      हटाएं
  6. कई यथार्थ समेटे बहुत ही गूढ़ कथा ।
    आज के सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक परिदृश्य पर गहन चिंतन प्रभाव समेटे महत्वपूर्ण कहानी।
    सादर नमन और वंदन ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मेरी कहानी की सराहना के लिए धन्यवाद जिज्ञासा. दरअसल यह कथा बिलकुल भी गूढ़ नहीं है. अनंत काल से भेड़िया, मेमने को खाता चला आ रहा है, आज भी खा रहा है और आगे भी उन्हें खाएगा. कभी भेड़िये का नाम हवस सिंह हो जाता है तो कभी कुछ और. लेकिन शिकार तो उसका हर बार कोई मेमना ही होता है.

      हटाएं
  7. उत्तर
    1. मेरी व्यंग्य-कथा की सराहना के लिए धन्यवाद संगीता स्वरुप (गीत) जी.

      हटाएं
  8. सन्तुष्टि परम धन तो धन नहीं संतुष्टि बढ़ाई जाय।
    क्या बात...लाजवाब व्यंग।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद सुधा जी. हम मधुमेह के रोगी फल के रूप में केलाहार का आनंद तो नहीं उठा सकते हैं लेकिन आजकल कच्चे केले की सब्ज़ी हम ख़ूब खा रहे हैं.

      हटाएं