हिंदी के 'चिंदी दिवस' (हिंदी की चिंदी-चिंदी करना) की हम सबको बधाई!
आज ही के दिन कलयुगी राजा रामचंद्र ने माता कौशल्या (हिंदी) को निर्वासित कर, अपनी सौतेली माता कैकयी (अंग्रेज़ी) को राजमाता के पद पर प्रतिष्ठित किया था.
एक बार फिर से मेरी पुरानी कविता -
कितनी नक़ल करेंगे, कितना उधार लेंगे,
सूरत बिगाड़ माँ की, जीवन सुधार लेंगे.
पश्चिम की बोलियों का, दामन वो थाम लेंगे,
हिंदी दिवस पे ही बस, हिंदी का नाम लेंगे.
जिसे स्कूल, दफ्तर से, अदालत से, निकाला था,
उसी हिंदी को अब, घर से और दिल से भी निकाला है.
तरक्क़ी की खुली राहें, मिली अब कामयाबी भी,
बड़ी मेहनत से खुद को, सांचा-ए-इंग्लिश में ढाला है.
सूर की राधा दुखी, तुलसी की सीता रो रही है,
शोर डिस्को का मचा है, किन्तु मीरा सो रही है.
सभ्यता पश्चिम की, विष के बीज कैसे बो रही है,
आज अपने देश में, हिन्दी प्रतिष्ठा खो रही है.
आज मां अपने ही बेटों में, अपरिचित हो रही है,
बोझ इस अपमान का, किस शाप से वह ढो रही है.
सिर्फ़ इंग्लिश के सहारे, भाग्य बनता है यहां,
देश तो आज़ाद है, फिर क्यूं ग़ुलामी हो रही है.
एक नए छंद का जन्म -
सुश्री सुषमा सिंह ने अपनी टिप्पणी में यह सुन्दर कविता उद्धृत की -
‘कभी तुलसी, कभी मीरा, कभी रसखान है, हिन्दी
कभी दिनकर, कभी हरिऔध की, मुस्कान है हिन्दी.
निराला की कलम से जो, निकलकर विश्व में छाई,
हमारे देश हिन्दुस्तान की, पहचान है हिन्दी.’
मैंने इसके जवाब में दुखी होकर क्या लिखा अब यह आप देख लीजिए -
'निराला को कभी जो एक कुटिया तक न दे पाई,
वही बे-बेबस, भिखारन, बे-सहारा, है मेरी हिंदी !'
किसी वृद्धाश्रम में, ख़ुद उसे, अब दिन बिताने हैं,
किसी के भाग्य को अब क्या संवारेगी, मेरी हिंदी !
कितनी नक़ल करेंगे, कितना उधार लेंगे,
सूरत बिगाड़ माँ की, जीवन सुधार लेंगे.
पश्चिम की बोलियों का, दामन वो थाम लेंगे,
हिंदी दिवस पे ही बस, हिंदी का नाम लेंगे.
सूरत बिगाड़ माँ की, जीवन सुधार लेंगे.
पश्चिम की बोलियों का, दामन वो थाम लेंगे,
हिंदी दिवस पे ही बस, हिंदी का नाम लेंगे.
जिसे स्कूल, दफ्तर से, अदालत से, निकाला था,
उसी हिंदी को अब, घर से और दिल से भी निकाला है.
तरक्क़ी की खुली राहें, मिली अब कामयाबी भी,
बड़ी मेहनत से खुद को, सांचा-ए-इंग्लिश में ढाला है.
उसी हिंदी को अब, घर से और दिल से भी निकाला है.
तरक्क़ी की खुली राहें, मिली अब कामयाबी भी,
बड़ी मेहनत से खुद को, सांचा-ए-इंग्लिश में ढाला है.
सूर की राधा दुखी, तुलसी की सीता रो रही है,
शोर डिस्को का मचा है, किन्तु मीरा सो रही है.
सभ्यता पश्चिम की, विष के बीज कैसे बो रही है,
आज अपने देश में, हिन्दी प्रतिष्ठा खो रही है.
शोर डिस्को का मचा है, किन्तु मीरा सो रही है.
सभ्यता पश्चिम की, विष के बीज कैसे बो रही है,
आज अपने देश में, हिन्दी प्रतिष्ठा खो रही है.
आज मां अपने ही बेटों में, अपरिचित हो रही है,
बोझ इस अपमान का, किस शाप से वह ढो रही है.
सिर्फ़ इंग्लिश के सहारे, भाग्य बनता है यहां,
देश तो आज़ाद है, फिर क्यूं ग़ुलामी हो रही है.
बोझ इस अपमान का, किस शाप से वह ढो रही है.
सिर्फ़ इंग्लिश के सहारे, भाग्य बनता है यहां,
देश तो आज़ाद है, फिर क्यूं ग़ुलामी हो रही है.
एक नए छंद का जन्म -
सुश्री सुषमा सिंह ने अपनी टिप्पणी में यह सुन्दर कविता उद्धृत की -
‘कभी तुलसी, कभी मीरा, कभी रसखान है, हिन्दी
कभी दिनकर, कभी हरिऔध की, मुस्कान है हिन्दी.
निराला की कलम से जो, निकलकर विश्व में छाई,
हमारे देश हिन्दुस्तान की, पहचान है हिन्दी.’
कभी दिनकर, कभी हरिऔध की, मुस्कान है हिन्दी.
निराला की कलम से जो, निकलकर विश्व में छाई,
हमारे देश हिन्दुस्तान की, पहचान है हिन्दी.’
मैंने इसके जवाब में दुखी होकर क्या लिखा अब यह आप देख लीजिए -
'निराला को कभी जो एक कुटिया तक न दे पाई,
वही बे-बेबस, भिखारन, बे-सहारा, है मेरी हिंदी !'
किसी वृद्धाश्रम में, ख़ुद उसे, अब दिन बिताने हैं,
किसी के भाग्य को अब क्या संवारेगी, मेरी हिंदी !
वही बे-बेबस, भिखारन, बे-सहारा, है मेरी हिंदी !'
किसी वृद्धाश्रम में, ख़ुद उसे, अब दिन बिताने हैं,
किसी के भाग्य को अब क्या संवारेगी, मेरी हिंदी !
हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं। अब हिन्दी मन्दिर बना कर भी कोई फायदा जो क्या होगा ?
जवाब देंहटाएंमेरे सुझाव पर अमल किया जाए तो ज़रूर फ़ायदा होगा - हिंदी-मंदिर की जगह हिंदी-मक़बरा बनवाते हैं पर उसकी नींव में ईंट-पत्थर की जगह हिंदी-विरोधी राज-नेताओं को ज़िन्दा ही गाड़ देते हैं.
हटाएंजी सर,
जवाब देंहटाएंअंधानुकरण में जबसे हम अपनी उन्नति देखने लगे
बोनसाई के फायदे गिनवा तुलसी घर के बाहर फेंकने लगे
सर आपके शब्द मारक होते है..हमेशा की तरह सारगर्भित सुंदर अभिव्यक्ति।👌👌
धन्यवाद श्वेता जी. फ़ेसबुक पर भी मैंने अपनी यह कविता पोस्ट की तो सुश्री सुषमा सिंह ने अपनी टिप्पणी में यह सुन्दर कविता उद्धृत की -
हटाएं‘कभी तुलसी, कभी मीरा, कभी रसखान है, हिन्दी
कभी दिनकर, कभी हरिऔध की, मुस्कान है हिन्दी.
निराला की कलम से जो, निकलकर विश्व में छाई,
हमारे देश हिन्दुस्तान की, पहचान है हिन्दी.’
मैंने इसके जवाब में दुखी होकर क्या लिखा अब यह आप देख लीजिए -
'निराला को कभी जो एक कुटिया तक न दे पाई,
वही बे-बेबस, भिखारन, बे-सहारा, है मेरी हिंदी !'
किसी वृद्धाश्रम में, ख़ुद उसे, अब दिन बिताने हैं,
किसी के भाग्य को अब क्या संवारेगी, मेरी हिंदी !
जी सर, सुषमा जी ने बहुत सुंदर कविता रची है..👌👌
हटाएंऔर आप की तो अपनी ही शैली है😊😊
श्वेता जी. यह कविता शायद सुषमा जी की अपनी रचना नहीं है पर है बहुत ख़ूबसूरत. अब मैंने अपनी इस पोस्ट में इन दोनों छंदों को अपनी पुरानी कविता के साथ जोड़ दिया है.
हटाएंआदरणीय गोपेश जी -- आपने क्या हरदम सच बोलने की कसम उठा रखी है ?ना बोला करिये किसी रोज मुसीबत में पड़ना तय है | हिंदी विरोध न करेंगे तो इन नताओं की वोट दूकान कैसे चलेगी ? सादर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रेनू जी. अधिकांश नेतागण तो हिंदी का विरोध कर अपनी रोटियों को घी से चुपड़ ही रहे हैं पर तथाकथित हिंदी-समर्थक नेतागण और अधिकारीगण भी उसका सतही समर्थन तथा गहरा दोहन कर रहे हैं. और रही सच बोलने की बात, तो कबीर के अनुयायियों को किसी सुल्तान सिकंदर लोदी के भेजे पागल हाथी का कभी न कभी सामना तो करना ही पड़ता है.
हटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १७ सितंबर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
धन्यवाद ध्रुव सिंह जी. 'लोकतंत्र' संवाद मंच के माध्यम से सुधी पाठकों तक मेरे विचार पहुंचें, मेरे लिए इस से अधिक प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है? मैं 17 सितम्बर के अंक का अवश्य आनंद उठाऊँगा.
जवाब देंहटाएंसूर की राधा दुखी, तुलसी की सीता रो रही है,
जवाब देंहटाएंशोर डिस्को का मचा है, किन्तु मीरा सो रही है.
सभ्यता पश्चिम की, विष के बीज कैसे बो रही है,
आज अपने देश में, हिन्दी प्रतिष्ठा खो रही है.
लाजवाब रचना....
वाह!!!
धन्यवाद सुधा जी. मातृभाषा के उत्थान के लिए अब कुछ न कुछ नई पीढ़ी को ही करना होगा. इस विषय में हम पुरानी पीढ़ी वाले तो कपूत ही निकले.
हटाएंकरार व्यंग ...
जवाब देंहटाएंपर हिंदी वाले इसे भी सह लेंगे हिंदी बोलेंगे आक जे दिन फिर चल पड़ेंगे पुराने ढर्रे पर ...
धन्यवाद दिगंबर नसवा जी. हिंदी की बदकिस्मती देखिए, हिंदी-दिवस, हिंदी पखवाड़ा, श्राद्ध के दिनों में, अथवा उसके आसपास ही पड़ता है. और पितरों को विसर्जन करने के बाद फिर भला कौन याद करता है?
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