जोशी दंपत्ति (विवेक जोशी और शशि जोशी) मुझे बहुत अज़ीज़ हैं. फ़ेसबुक पर इन से मेरा आये दिन बहस-मुबाहिसा होता रहता है. कल शशि जोशी ने हाकिम से एक सवाल पूछा –
तेरे दावे हैं तरक्क़ी के, तो ऐसा क्यूँ है,
मुल्क आधा मेरा, फुटपाथ पे, सोता क्यूँ है?
इसके जवाब में मैंने अपनी एक पुरानी कविता उद्धृत की. हमारे बीच सवाल-जवाब में कुछ सवाल और बने जिन्हें मैंने अपनी पुरानी कविता में जोड़ दिया है. अब प्रस्तुत है संवर्धित कविता जिसमें कि चंद सवालात आम आदमी से हैं और आख़री सवाल अपने आक़ा से है -
हर तरफ़ चैन-ओ-अमन, पहरेदार भी मुस्तैद,
घर से बाहर तू निकलता है, तो डरता क्यूं है?
सर पे छत भी नहीं, औ पेट में रोटी भी नहीं,
आखरी सांस तलक, टैक्स तू भरता क्यूँ है?
कितने नीरव औ विजय, रोज़ बनाते हैं वो,
तू करमहीन, गरीबी में ही, मरता क्यूँ है?
उनके जुमलों पे, भरोसा तो दिखाता है तू ,
फिर बता मुझको, कि मुंह फेर के, हँसता क्यूँ है?
लोकशाही की सियासत, तो एक दलदल है,
हर कोई जाने मगर, फिर भी तू धंसता क्यूँ है?
अपने ज़ख्मों पे नमक, ख़ुद ही छिड़कने वाला,
पूछता हमसे, किसी वैद का रस्ता क्यूँ है?
जीते जी जिसको, भुलाया था, बुरे सपने सा,
मर के वो तेरी निगाहों में, फ़रिश्ता क्यूँ है?
वाह लाजवाब!
जवाब देंहटाएंहर सवाल वाजिब पर जवाब नदारद क्यूँ??
यथार्थ सा प्रश्न पूछती सार्थक रचना।
धन्यवाद कुसुम जी. सवाल हम पूछते जाएँगे और वो उनके जवाब में हमको जेलों में ठूंसते जाएंगे.
हटाएंसवाल पूछ रहे हैं
जवाब देंहटाएंगुस्ताखी कर रहे हैं।
सवलत पूछने की वजह से हम घर में नज़रबंद रहेंगे तो सब्ज़ी, फल, दूध आदि श्रीमती जी को लाने पड़ेंगे, बस यही चिंता है.
हटाएंसवाल पूछना जुर्म है
जवाब देंहटाएंज़ुबान को खोल में रखिये
आनंद लीजिए ख़बरों का
वक़्त को तोल में रखिए
खेल फुटबॉल का जनाब़
बस आँख को गोल में रखिये
बेहद सारगर्भित सुंदर रचना सर👌👌
ऐसी काव्यात्मक टिप्पणी तो मेरी रचना पर आज तक किसी ने नहीं की है श्वेता जी. धन्यवाद देने की औपचारिकता यहाँ व्यर्थ है. और रही - 'बंद आँखों को गोल में रखिए' तो आक़ा और उनके मुसाहिब यह कहाँ मानेंगे कि उनकी उपलब्धियों का कुल योग - 'गोल' अर्थात् - 'शून्य' है?
जवाब देंहटाएंकितने नीरव औ विजय, रोज़ बनाते हैं वो,
जवाब देंहटाएंतू करमहीन, गरीबी में ही, मरता क्यूँ है?
वाह !!!
यहाँ कवि दुष्यंत कुमार जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं...
मत कहो आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
सूर्य को हमने नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे सूर्य को क्या देखना है ?
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है !
दोस्तों,अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है।
वाह मीना जी ! मेरी कविता से आपको हम सबके प्रिय जन-कवि की पंक्तियाँ याद आ गईं, यह तो मेरे लिए गर्व की बात है. दुष्यंत कुमार की रचनाएँ हम सबको सोचने के लिए और निर्भीकता के साथ अपने विचार व्यक्त करने के लिए प्रेरित करती हैं.
हटाएंआपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 01 सितम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद यशोदा जी. कल मैं भी 'साप्ताहिक मुखरित मौन' का रसास्वादन करूंगा.
हटाएंजीते जी जिसको, भुलाया था, बुरे सपने सा,
जवाब देंहटाएंमर के वो तेरी निगाहों में, फ़रिश्ता क्यूँ है?
.. मरा इंसान कुछ बोलता नहीं है, इसलिए वह फरिश्ता बन जाता है, भले ही जीवन भर फूटी आंख न सुहाया हो वह
बहुत सही ....
धन्यवाद कविता जी. एक कहावत है - 'जियत पिता पर दंगई-दंगा, मरे पिता , पहुंचाए गंगा.' यहाँ राजनीतिक पिता को तो एक ही नदी में, पर उनकी अस्थियों को गंगा जी सहित पता नहीं कितनी नदियों में पहुँचाया जा रहा है.
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