मेरे मित्र प्रोफ़ेसर हितेंद्र पटेल ने फ़ेसबुक पर अपनी एक
पोस्ट में फ़िल्म उपकार के गीत –
‘कस्मे-वादे, प्यार वफ़ा, सब बातें हैं, बातों का क्या.’
का ज़िक्र करते हुए कहा है कि हम अपना जीवन तो इस फ़िल्म में
अभिनेता मनोज कुमार वाले किरदार जैसे एक अच्छे इन्सान के रूप में शुरू करते हैं पर
फिर धीरे-धीरे हम ख़ुद प्रेम चोपड़ा वाले खलनायक के किरदार में बदल जाते हैं.
बहुत गहरी बात कह गए हैं हितेंद्र पटेल. इस बात से मुझे एक
कहानी याद आ रही है -
शायद मोपासां की एक कहानी है जिसमें प्रभु यीशु के बचपन का
एक चित्र बनाने के लिए अपने मॉडल के रूप में एक नौजवान चित्रकार, किसी भोले, मासूम और
मुखमंडल पर दिव्य आभा वाले किसी बच्चे की तलाश में इधर-उधर
भटकता है. बहुत दिनों के तलाश के बाद उसे ऐसा बच्चा मिल जाता है और
वह उसे मॉडल बनाकर अपने जीवन का सबसे सुन्दर चित्र बनाता है.
दिन बीतते जाते हैं और वह चित्रकार अपने जीवन के अंतिम चरण
में पहुँच जाता है किन्तु मरने से पहले अब उसकी इच्छा - 'शैतान' का चित्र बनाने की है. पर उसके लिए उसे एक ऐसा मॉडल चाहिए
जिसमें दरिंदगी, वहशियत और हैवानियत टपकती
हो. बहुत तलाश के बाद भी उसे ऐसा कोई आदमी
नहीं मिलता.
एक अंधेरी रात में सुनसान सड़क पर उसे फटे-हाल,
दरिंदा सा दिखने वाला एक आदमी मिल जाता
है जो उसे धमका कर शराब के लिए पैसे वसूलना चाहता है. चित्रकार उस दरिन्दे से आदमी को देखकर यह तुरंत जान लेता है
कि उसे वो आदमी मिल गया है जिसकी उसे इतने दिनों से तलाश थी.
चित्रकार उसे ढेर सारे पैसे देता है और किसी बार में अपने
साथ ले जाकर उसे बोतल पर बोतल शराब पिलाता है. अब वह उसे शैतान के चित्र के लिए
मॉडल बन जाने के लिए एक मोटी रकम की पेशकश करता है. यह सुनकर वह हैवान सा दिखने
वाला आदमी अचानक रोने लगता है. यह बात उस चित्रकार के समझ में नहीं आती तो वह
चित्रकार का हाथ पकड़ कर उस से कहता है -
'तुमने मुझे नहीं पहचाना पर मैंने तुम्हें पहचान लिया है. 'मैं वही भोला, मासूम और निष्पाप बच्चा हूँ जिसको तुमने कभी बाल-यीशु के
चित्र के लिए अपना मॉडल बनाया था.’
कहानी तो ख़त्म हो गयी पर यह बता गयी कि हम सब भगवान और
पैगम्बर के गुण लेकर पैदा होते हैं पर हम कब शैतान बन जाते हैं, यह ख़ुद हमको भी पता नहीं चलता.
इस कहानी को पढ़कर मुझे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के वो
सेनानी याद आ जाते हैं जो भारत की स्वतंत्रता के बाद सत्तासीन हुए और शोषण तथा
अन्याय करने में अंग्रेज़ों से भी दो-चार हाथ आगे निकल गए. लेकिन कितने दुःख की बात
है कि हम इन्हें आज भी बाल-यीशु के रूप में ही पूजते हैं, इनकी मूर्तियाँ खड़ी करते
हैं, इनके स्मारक बनाते हैं पर इनकी दरिंदगी, इनकी हैवानियत और इनकी हवस को भूल
जाते हैं. और उस से भी ज़्यादा हैरानी की बात तो यह है कि भगवान से शैतान बने इन
धोखेबाज़ दरिंदों के जाने के बाद हम अपनी आँखें मूंदकर देश का सिंहासन और अपनी
किस्मत इनकी औलादों को ही सौंप देते हैं.
सचमुच जीवन के दो रंग है।....एक कहानी के माध्यम से आपने बहुत ही सही बात समझाई है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी. जीवन मिनरल वाटर की तरह शुद्ध कहाँ होता है?
हटाएंअब तो किनारे से देखिये और आगे चल दीजिये के दिन आ गये हैं। बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंनहीं, तैरते को भंवर में ले जाने के, और डूबते को एक पत्थर मारकर और गहरे में डुबाने के दिन आ गए हैं. अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो फिर राम से रावण कैसे हो पाएंगे?
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन युगदृष्टा श्रीराम शर्मा आचार्य जी को सादर नमन : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी. 'ब्लॉग बुलेटिन' में मेरी रचना को सम्मिलित किए जाने से मेरी बात सुधी पाठकों तक पहुंचेगी. मैं इस अंक की रचनाओं का अवश्य आनंद उठाऊँगा.
हटाएंसियार हैं ये ...
जवाब देंहटाएंअसल रंग जितना जल्दी समझ आये उतना अच्छा ...
ये सियार हैं लेकिन हम 'होशियार' नहीं हैं. इन रंगे हुए सियारों को शेर समझकर इन से हम डरते रहेंगे और ये हमारा मांस नोंच-नोंच कर खाते रहेंगे.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थकता के साथ आपने अपनी बात रखी है आदरणीय गोपेश जी -- कितनी गहरी सच्चाई लिखी है आपने | सचमुच आदर्शों के बूते सत्तासीन होने वाले ये प्रपंची लोग देश में अराजकता और अस्थिरता के सबसे बड़े जिम्मेदार बन गये | सच है उन्ही की औलादों का महिमा मंडन करने में हम भारतवासी सबसे आगे हैं | काश ! उनकी संताने ही कोई ढंग के आदर्श स्थापित कर अपने पुरखों के दाग धो देती | साधुवाद इस सार्थक लेख के लिए |सादर --
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रेनू जी. भारत के स्वतंत्र होने पर गाँधी जी ने अपने साथियों से यह अनुरोध किया था कि वो या तो सत्ता से दूर रहकर देश-सेवा के कार्य में जुट जाएं या सत्ता में रहते हुए भी त्याग भरा जीवन बिताएं पर विनोबा और जय प्रकाश नारायण को छोड़ कर सबने कुर्सी पकड़ ली और अपनी औलादों को अपना-अपना राजनीतिक-राज्य सौंप दिया. सब के सब राम से रावण बन गए.
हटाएंहम स्वयं नहीं गिरते हैं, न ही बदलते हैं यह समाज हमें जबरन लतियाते हुये खलनायक बना देता है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक लेख
धन्यवाद व्याकुल पथिक जी. अगर हम नायक से खलनायक बनते हैं तो परिस्थितियों का दोष कम और हमारा दोष अधिक होता है.
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