नेहरु जी की बिटिया और हमारी माँ -
हमारे घर में इंदिरा
गाँधी की पहली पहचान नेहरु जी की बिटिया के रूप में थी. हमारी माँ तो इंदिरा गाँधी
की ज़बर्दस्त प्रशंसिका थीं. अख़बारों या पत्रिकाओं में इंदिरा गाँधी की फ़ोटो आती थी
तो माँ का एक ही कमेंट होता था –
‘हाय ! कितनी सुन्दर है !’
इंदिरा गाँधी उम्र में
माँ से तीन साल से भी ज़्यादा बड़ी थीं लेकिन माँ उन्हें एक अर्से तक लड़की ही माना करती थीं. इंदिरा गाँधी
की प्रशंसिकाओं में माँ से भी ऊंची पायदान पर हमारी नानी विराजमान थीं. उन्हें जब
भी इंदिरा गाँधी की कोई फ़ोटो दिखाई जाती थी तो वो ठेठ ब्रज भाषा में कहती थीं –
‘जे तो बापऊ ते जादा मलूक ऐ !’ (यह तो बाप से भी ज़्यादा सुन्दर है)
फ़ीरोज़ गाँधी बड़े ख़ूबसूरत
थे लेकिन नेहरु जी की ही तरह माँ को वो इंदिरा गाँधी के लायक़ नहीं लगते थे. माँ के
हिसाब से इंदिरा-फ़ीरोज़ तनाव का मुख्य कारण उनका बेमेल विवाह ही था. एक बड़ी मज़ेदार
बात बताऊँ –
माँ को इंदिरा गाँधी और
केनेडी की जोड़ी बड़ी प्यारी लगती थी. हमारे घर में अमेरिकन मैगज़ीन ‘स्पैन’ आया करती थी. उसमें नेहरु जी और इंदिरा गाँधी की अमेरिका यात्रा के समय
की तमाम फ़ोटोज़ केनेडी परिवार के साथ आई थीं. माँ ने उन फ़ोटोज़ को देख कर कहा था –
‘ये मरी जैकलीन केनेडी मुझे बिलकुल अच्छी
नहीं लगती. जोड़ी तो केनेडी और इंदिरा की अच्छी लगती है. अगर इंदिरा को अपनी बिरादरी से बाहर ही शादी करनी थी तो फिर
केनेडी से ही कर लेती.’
प्रधानमंत्री लाल बहादुर
शास्त्री की कैबिनेट में इंदिरा गाँधी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाई गईं. 1965 के
भारत-पाक युद्ध में अपने साहस का परिचय देते हुए वो सीमा पर जवानों का साहस बढ़ाने
के लिए चली गईं. माँ ने अटल जी से बहुत पहले इंदिरा गाँधी के इस साहस के कारण
उन्हें दुर्गा का अवतार मान लिया था.
भारत-पाक युद्ध के समय
इंदिरा गाँधी ने अधिक सब्ज़ी-फल, अन्न आदि
उगाने के लिए हम भारतीयों को एक अनोखा सुझाव दिया था –
‘आप लोग अपने घरों में फूल की जगह फूल
गोभी लगाएं.’
इस सन्देश पर अमल करते
हुए माँ ने घर में गुलाब की क्यारियों में गुलाब हटाकर फूल गोभी के पौधे लगवा दिए
थे.
लाल बहादुर शास्त्री का
आकस्मिक निधन हमारे परिवार में भी व्यक्तिगत त्रासदी के रूप में देखा गया था. माँ
का दुःख तब और भी बढ़ गया था जब उन्हें पता चला कि वो चौदह कैरेट का सोना चलवाने
वाला खलनायक मुरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में है. लेकिन जब उनसे लगभग 22
साल छोटी इंदिरा गाँधी ने उन्हें प्रधानमंत्री की दौड़ में पटखनी दी तो माँ की ख़ुशी
का ठिकाना नहीं रहा. शास्त्री जी की मृत्यु के बाद पहली बार उसी दिन हमारे यहाँ
पकवान बनाए गए थे.
माँ को वी. वी. गिरि तबसे
नापसंद थे जब वो उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे. लेकिन 1969 में जब इंदिरा गांधी ने
राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में उनका समर्थन किया तो वो भी उन्हें अच्छे लगने
लगे थे. मुरारजी देसाई, सी. बी. गुप्ता आदि को इंदिरा गाँधी की
खिलाफ़त करने के कारण उन्होंने खलनायकों की श्रेणी में डाल दिया था.
1971 के भारत-पाक युद्ध
के समय तो हमारे घर में इंदिरा गाँधी की एक तरह से पूजा ही की जाने लगी थी. माँ की
दृष्टि में बांगला देश का तो दुनिया में वजूद ही अकेले इंदिरा गाँधी के दम पर
मुमकिन हो पाया था.
फिर पता नहीं क्या हुआ कि
माँ की दुर्गा के खिलाफ़ फिर से साज़िशें शुरू हो गईं और उसमें सबसे बड़ा हाथ किसी
सिर-फिरे जे. पी. का था. माँ के शब्दों में -
‘भला किसी चाचा को अपनी भतीजी के खिलाफ़
ऐसी ओछी हरक़त करनी चाहिए थी?’
1975 में जब इंदिरा गाँधी
के खिलाफ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया तो जस्टिस सिन्हा माँ की दृष्टि में प्राण
जैसे खलनायक हो गए. फिर जब जून, 1975 में
इमरजेंसी लगाई गयी तो माँ की दलील थी –
‘और क्या करती बेचारी?’
हम नौजवान माँ की इस
बेचारी को जब उसकी हिटलरशाही के लिए कोसते थे तो माँ बाक़ायदा हम से खफ़ा हो
जाती थीं. लेकिन एक बात अच्छी थी. हमारी ही तरह माँ को संजय गाँधी नापसंद था.
फिर इमरजेंसी ख़त्म हुई और
मार्च, 1977 में चुनाव हुए. माँ को इंदिरा
गाँधी की जीत पर पूरा यकीन था. उन दिनों हमारे यहाँ टीवी नहीं था. ताज़ा समाचार के
लिए हम ट्रांजिस्टर पर ही निर्भर थे. सवेरे 5 बजे मैंने ट्रांजिस्टर पर समाचार
लगाए. मुख्य समाचार था –
‘रायबरेली से इंदिरा गाँधी चुनाव हार
गईं.’
मैंने माँ-पिताजी के कमरे
में जाकर उन्हें जगा कर यह समाचार सुनाया. माँ ने अविश्वास जताते हुए कहा –
‘चल झूठे ! खा मेरी क़सम !’
मैंने कोई क़सम नहीं खाई
बस ट्रांजिस्टर उनके सामने रख दिया. हिंदी समाचार चल रहे थे राजनारायण का जीवन
परिचय चल रहा था और यह बताया जा रहा था कि विश्व इतिहास में एम. पी. का चुनाव
हारने वाली पहली प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी हैं.
माँ का रुदन दो मील दूर
से भी सुना जा सकता था. इस दारुण दुःख देने वाले समाचार को उन तक पहुँचाने वाला
मैं गरीब, महा-पापी घोषित कर दिया गया था.
उस दिन हमारे घर में
नाश्ता-खाना कुछ नहीं बना. बाज़ार से लाए हुए समोसों, कचौड़ी को माँ ने हाथ भी नहीं लगाया और मेरे लाए हुए
लड्डुओं में से एक लड्डू तो उन्होंने मुझ पर यह कहते हुए तान के दे मारा –
दुष्ट ! अब तू इंदिरा गाँधी के हारने पर लड्डू बांटेगा?’
जनता पार्टी की सरकार की
हर टूट-फूट पर माँ खुश होती रहीं और जनवरी, 1980 में इंदिरा गाँधी की सत्ता में वापसी का समाचार माँ
के लिए किसी जश्न से कम नहीं था.
संजय गाँधी को निहायत
नापसंद करते हुए भी हमारी माँ उसकी मृत्यु पर शायद उतना ही रोई होंगी जितना कि
इंदिरा गाँधी.
इंदिरा गाँधी की हत्या को
तो माँ ने गाँधी जी की हत्या के बाद का सबसे दुखद समाचार माना था. रोते-रोते टीवी
पर हर गतिविधि देखना और फिर आह भरते हुए कहना –
‘छाती ठंडी हो गयी दुश्मनों की. चली गयी
देवी भगवान के घर !’
माँ को देव-लोक गए हुए क़रीब 12 साल हो गए हैं. मेरी भगवान से यही प्रार्थना है कि देवलोक में
मेरी माँ अपनी आराध्या के पड़ौस में ही कहीं रहें और नित्य उनके सानिंध्य का सुख
प्राप्त करती रहें.
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (28-04-2019) को " गणित के जादूगर - श्रीनिवास रामानुजन की ९९ वीं पुण्यतिथि " (चर्चा अंक-3319) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
....
अनीता सैनी
मेरे संस्मरण को चर्चा अंक 3319 में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद अनीता जी.
हटाएंकल मैं चर्चा अंक को पढने का आनंद प्राप्त करूंगा.
बहुत पिटोगे 23 तारीख के बाद अगर उसे पता चल गया कि नेहरू के खानदान पर कुछ लिखे हो। सुधर जाओ।
जवाब देंहटाएंसुशील बाबू,
हटाएंमेरे संस्मरण में तो इंदु बुआ की कोई तारीफ़ नहीं है. इसको तो तुम प्रो-देशभक्त पार्टी आलेख कह सकते हो.
हो सकता है कि इनाम के तौर पर मुझे राज्यसभा भेज दिया जाए और मानव-संसाधन मंत्रालय भी मेरे हवाले कर दिया जाए.
लुटियंस की दिल्ली आओ तो हमारे बंगले पर बेखटके आना. वहां का चौकीदार तुम्हें रोकेगा नहीं.
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 27/04/2019 की बुलेटिन, " यमराज से पंगा - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएं'यमराज से पंगा - ब्लॉग बुलेटिन' में मेरे संस्मरण को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद शिवम् मिश्रा जी.
हटाएंबहुत बढ़िया संस्मरण एक काल खंड की हक़ीक़त को दर्शाता हुआ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विश्वमोहन जी. घर-घर में वैचारिक वैभिन्य के ऐसे रुचिकर प्रसंग होते हैं.
हटाएंवाह, बहुत खूब
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद ओंकार जी.
हटाएंउस समय की महिलाओं की अधिकतर सोच ऐसी थी ... सूचना तंत्र के आभाव में ... नेहरू जी की अपनी पकड़ (जो उन्होंने बड़ी चालाकी से मीडिया पर बनाई थी) के चलते नारी वर्ग विशेष कर इंदिरा जी के बारे में ऐसी ही बात करता था ... मेरी माता जी का भी ऐसा हो सोचना था ...
जवाब देंहटाएंदिगम्बर नासवा जी, मैं नेहरु जी को उनकी कमज़ोरियों के बावजूद चालाक और मक्कार नहीं मानता हूँ. इंदिरा गाँधी से वो बहुत ऊपर थे. इंदिरा गाँधी की सुन्दर और भोली छवि इमरजेंसी लगाए जाने केबाद ही टूटी थी लेकिन फिर भी उन्हें महिलाओं का ज़बर्दस्त समर्थन मिलता रहा. हमारी माँ और आपकी माताजी भी उनके छलावे में आ गयी थीं.
हटाएंइसमें कोई संदेह नहीं इंदिरा गाँधी का व्यक्तित्व वाकई इतना प्रभावशाली था कि उनकी नीतियों के धुर विरोधी भी उनके persona के परम भक्त हुआ करते थे और उनका बहुत सम्मान करते थे !
जवाब देंहटाएंसाधना जी, थोडा सॉफ्ट कार्नर तो आपका भी लग रहा है इंदिरा जी के लिए. भारतीय राजनीति की दुर्गति इंदिरा गाँधी के काल से प्रारंभ हो गयी थी किन्तु आज के नेताओं की तुलना में तो वो वाक़ई दूध की धुली ही प्रतीत होती हैं.
हटाएंआदरनीय गोपेश जी -- आपके ब्लॉग पर बहुत समु के बाद आ पाई हूँ | मैं राजनीति बिषयों और नेताओं के जीवन के बारे में ज्यादा नहीं जानती लेकिन मैं इस लेख को परीवार की भावपूर्ण यादों की थाती मान रही हूँ | सुंदर लेख उस समय के लोग बहुत भोले और अपने चहेतों के प्रति प्रतिबद्ध होते थे शायद तभी उनके स्नेह उनके प्रति बना रहता था | इंदिरा गांधी जी सचमुच निर्विवाद रूप से भारत की आदर्श महिला रही हैं उनके जादुई व्यक्तित्व ने एक कालखंड पर अपनी अमिट छाप छोडी है |
जवाब देंहटाएंरेणु जी, मुझ इतिहास के विद्यार्थी को यह पता ही नहीं था कि भारत में नारी-उत्थान के इतिहास में इंदिरा गाँधी का इतना बड़ा योगदान है. मेरी माँ से लेकर आज की पीढ़ी की नारी भी उन्हीं की मुरीद है.
हटाएंमैं इंदिरा गाँधी का प्रशंसक नहीं हूँ किन्तु उनके चुम्बकीय व्यक्तित्व और जन-मानस पर उनके जादुई प्रभाव को मैं भी नकार नहीं सकता. हांलाकि इमरजेंसी लगाए जाने को मैं स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे कलुषित अध्याय मानता हूँ.
बहुत भावपूर्ण संस्मरण लिखा है आपने । राजनीतिक विचारों के बारे में तो अनभिज्ञता ही है मेरी मगर उनके जैकलीन केनेडी के बारे में विचार मुस्कुराहट दे गए ।
जवाब देंहटाएंमीना जी, मेरी माँ सिर्फ़ मिडिल पास थीं किन्तु मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, बंकिमचन्द्र, शरतचंद्र और शिवानी उनके प्रिय साहित्यकार थे. उनका उर्दू-हिंदी उच्चारण बिलकुल उस्तादों जैसा था. पुराने ज़माने के लोग अपने नेताओं से भावनात्मक रूप से बहुत जुड़े रहते थे. मुझे माँ की नेता-स्तुति को लेकर छेड़ने में बहुत मज़ा आता था. मेरे न्यायाधीश पिता की इस खेल में भूमिका अंपायर की हुआ करती थी.
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरूवार 2 मई 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएं'पांच लिंकों का आनंद' में मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी. इस प्रतिष्ठित पत्रिका के माध्यम से मुझे सुधी पाठकों और अनेक प्रतिभाशाली साहित्यकारों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त होता है.
हटाएंबहुत ही बेहतरीन संस्मरण लिखा आपने
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अनुराधा जी. यह सब तो आप लोगों की सोहबत का असर है.
हटाएंभावपूर्ण संंस्मरण..कैनेडी के साथ जोडी और चुनाव हारने पर दो मील...वाकई लाजवाब
जवाब देंहटाएंधन्यवाद पम्मी सिंह 'तृप्ति' जी. माँ की पसंद और ना-पसंद, सब की सब, दिल से हुआ करती थीं. उनका अपना एक ख़ास ही लॉजिक हुआ करता था.
हटाएंआदरणीय गोपेश सर, आपकी लेखन शैली मंत्रमुग्ध कर देती है। आपके संस्मरण और उन्हें लिखने का आपका तरीका....वाह ! यह भाषा हिंदी की डिग्रियों से नहीं, जीवन के अनुभव और ज़िंदादिली से आती है।
जवाब देंहटाएंजब भी अलग सा पढ़ना हो तो आपका ब्लॉग याद आता है। आपके संस्मरणों को बार बार पढ़ना अच्छा लगता है और वे उदास एवं एकाकी वक्त में मनोरंजन एवं मुस्कुराहट दे जाते हैं।
धन्यवाद मीना जी. आप जैसी कलम की धनी की प्रशंसा के लिए मैं वाक़ई मोदी जी के 15 लाख छोड़ सकता हूँ.
हटाएंमेरी अपनी ज़िन्दगी तल्खियों और नाकामियों से भरपूर रही है लेकिन अपने अनुभवों को मैंने चटखारे लेकर बांटने की कोशिश की है.
अब अपनी पारी के आख़िरी पड़ाव को खुद हंस कर और दूसरों को हंसा कर गुज़ार सकूं तो मुझे बहुत संतोष मिलेगा.
हटाएं
वाह चुटिली थरथराती सरपट दौड़ती आपकी लेखन शैली मन मोह गई।
जवाब देंहटाएंवैसे किसी समय में मै भी इंदिरा भक्त रही हूं तो मुझे मां का ये इंदा प्रेम बिलकुल समझ आया और उस पर आपका लिखने का तरीका आम जिंदगी की किसी भी घटना को आप सजीव कर देते हैं। आपके इस लेख से पुनः उर्जा मिली राजनैतिक उठा पटक के इस माहौल से ।
अप्रतिम।।
'मन की वीणा' की यह मधुर झंकार तो लम्बे समय तक मेरे दिल में गूंजती रहेगी. धन्यवाद देना तो औपचारिकता होगी.
हटाएंइंदिरा गाँधी के जीवन में यदि संजय गाँधी का ग्रहण नहीं लगता तो वह निर्विवाद रूप से एक महान नेत्री होतीं.
नेहरु जी के बहुत से सदगुण उन में भी थे पर अपने पुत्र-प्रेम में वो पथ-भ्रष्ट हो गयी थीं और उसकी कीमत देश को आज भी चुकानी पड़ रही है.
लेकिन यह तय है कि वो आज के तथाकथित देशभक्तों से कहीं बेहतर थीं.
वाह!सर ,बहुत ही बेहतरीन संस्मरण !! आपकी माँ का इन्द्रा प्रेम अभिव्यक्ति करनें की शैली !! बहुत ही उम्दा ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शुभा जी. इंदिरा-प्रेम में तो लाखों माएं मुब्तिला थीं और आज भी हैं.
हटाएंहमारे घर में पिताजी ने राजनीतिक, धार्मिक-सामाजिक मामलों में बच्चों को कुछ ज़्यादा ही स्वतंत्रता दे रक्खी थी. 60 साल पहले बहुत कम घरों में इतना उदार वातावरण हुआ करता था.
वैसे भी मैं घर का सबसे छोटा बच्चा कुछ ज़्यादा ही शरारती और उद्दंड हुआ करता था.
मेरी बेटियों की नज़र में तो उनके पापा और उनकी कलम दोनों ही शरारती हैं.
माता जी के इंदिरा प्रेम पर आप का संस्मरण लाजबाब हैं सर ,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कामिनी जी. मेरी माँ तो स्वर्ग सिधार गईं लेकिन उनकी मज़ेदार बातें आज भी याद आती हैं.
हटाएंमेरा यह मानना है कि अपने से बड़ों का आदर करते हुए भी उनकी अटपटी-चटपटी बातों पर हंसा जा सकता है.
लाजवाब संस्मरण लिखा है आपने ...माँ के इन्दिरा प्रेम पर .....संस्मरण पढ़कर याद आया कि बचपन में मैंं भी घर की बुजुर्ग महिलाओं को इन्दिरा के गुणगान गाते सुनती थी खासकर हमारी ताईजी कहा कहती थी भला हो इन्दिरा का जिसके राज में घर की औरतों को चप्पल पहनने को मिली......।वाकई जीवन के अनुभव और जिन्दादिली आपके लेखन का प्रमाण है....आपके लेखन की जितनी प्रसंशा की जाय उतनी कम है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुधा जी.
हटाएंआपकी ताईजी और मेरी माँ एक जैसी थीं.
माँ को और मेरी नानी को दुनिया भर में एक ही 'बल-कटो' अच्छी लगती थी. इंदिरा गाँधी अगर नेहरु की विरासत का ही निर्वाह करतीं तो वो हम सबकी भी चहेती होतीं.
मैं यह मानता हूँ कि अगर मेरी स्मृतियाँ मुझे गुदगुदाती हैं तो मेरे संस्मरण औरों को भी आनंद दे सकते हैं. बस, यही सोचकर अपने अनुभव मैं अपने मित्रों के साथ साझा कर लेता हूँ.
राजनीतिक हलचल का उस जमाने की नारी पर इतना प्रभाव सच में काबिले तारीफ हैं। और सबसे ज्यादा काबिले तारीफ है आपकी लेखनशैली, गोपेश जी। बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्योति जी.
हटाएंमेरी माँ के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रमुख नेतागण देवी-देवता से कम नहीं थे और फिर नेहरु परिवार तो उनकी दृष्टि में देव-लोक से भारत का उद्धार करने के लिए ही भेजा गया था. उम्र में कोई तीन साल बड़ी इंदिरा तो उन्हें अपनी बहन जैसी लगती थीं.
आवश्यक सूचना :
जवाब देंहटाएंसभी गणमान्य पाठकों एवं रचनाकारों को सूचित करते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि अक्षय गौरव ई -पत्रिका जनवरी -मार्च अंक का प्रकाशन हो चुका है। कृपया पत्रिका को डाउनलोड करने हेतु नीचे दिए गए लिंक पर जायें और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाने हेतु लिंक शेयर करें ! सादर https://www.akshayagaurav.in/2019/05/january-march-2019.html
अक्षय गौरव ई - पत्रिका के प्रथम अंक का प्रकाशन हम सबके लिया अत्यंत हर्ष का विषय है. पत्रिका के इस अंक में रचनाओं का चयन सराहनीय है. आशा है कि इस पत्रिका के माध्यम से अनेक प्रतिभावान साहित्यकार प्रकाश में आएँगे.
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