सोमवार, 26 अप्रैल 2021

मीडिया भारत का लेकिन फ़िक्र पाकिस्तान की

 पड़ौसी के यहाँ कौन सी दाल बनी है और कौन सी सब्ज़ी, इसकी फ़िक्र करने वाले अक्सर अपनी रसोई में दाल-सब्ज़ी बनाना भूल जाते हैं.

हमारे जागरूक मीडिया को पाकिस्तान में हो रही हर गलत हरक़त की जानकारी रहती है लेकिन उसे अपनी नाक के नीचे हो रही तमाम गड़बड़ियाँ दिखाई नहीं देतीं.
पाकिस्तान की चरमराती अर्थ-व्यवस्था पर रोज़ाना उपन्यास लिखे जाते हैं.
पाकिस्तान कहाँ भीख मांगने गया, कहाँ ख़ुद को गिरवी रखने गया, कहाँ से उसे रोटी मिली, किधर से उसे कपड़े मिले, कौन-कौन से पाकिस्तानी बैंक डूबने की कगार पर हैं, पाकिस्तान के कौन-कौन से उद्योग-संस्थानों में ताला लगने वाला है, इसकी विस्तृत जानकारी देने वाला हमारा मीडिया भारत की अर्थव्यवस्था को तो जैसे फलते-फूलते ही दिखलाना चाहता है.
हम यह भूल जाते हैं कि राफ़ेल से लेकर टीवी, मोबाइल के छोटे से छोटे पुर्ज़े भी हम आयात करते हैं.
हम को यह भी याद नहीं रहता कि हम अपने देश में पाकिस्तान की कुल आबादी के दस प्रतिशत से ज़्यादा तो हर साल बेरोज़गार बढ़ा देते हैं.
हम रोज़ सुनते हैं कि पाकिस्तान में भुखमरी है और हमारे यहाँ तो जैसे लोग ज़्यादा खाने से मर रहे हैं.
हम रोज़ पढ़ते हैं कि पाकिस्तान में आए दिन लोकतान्त्रिक मूल्यों की बलि चढ़ाई जा रही है तो क्या हमारे देश में लोकतंत्र का आदर्श स्वरूप स्थापित हो गया है?
सब जानते हैं कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ बहुत ज़्यादतियां होती हैं लेकिन हमको इस बात की फ़िक्र करने के बजाय इस बात की फ़िक्र करनी चाहिए कि हमारे देश में अल्पसंख्यकों के साथ या किसी समुदाय विशेष के साथ किसी प्रकार का कोई अन्याय न हो.
हमारे मीडिया विशेषज्ञ पाकिस्तान के विषय में भविष्यवाणी करने के लिए भृगुसंहिता का शायद इस्तेमाल करते हैं.
अगस्त, 2018 में इमरान खान ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की ढुलमुल होती हुई कुर्सी संभाली थी.
सबको पता था कि उसकी कुर्सी पाकिस्तान की सेना के रहमो-करम पर टिकी है लेकिन सिर्फ़ हमारे मीडिया को यह पता था कि किस दिन, कितने बज कर, कितने मिनट पर, उसकी गद्दी छिननी है.
पिछले 32 महीनों में हमारे मीडिया ने कम से कम 32 बार इमरान खान का मर्सिया पढ़ लिया है लेकिन वो कमबख्त आज भी वज़ीरे-आज़म की अपनी कुर्सी पर जमा हुआ है.
हमारे मीडिया को इस बात की कोई चिंता नहीं होती कि भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध को कैसे सुधारा जाए.
उसे तो इस बात की फ़िक्र होती है कि इमरान खान की नई शादी कब टूटने वाली है और उसकी किसी पूर्व-पत्नी ने उस पर क्या-क्या इल्ज़ाम लगाए हैं.
हमारे मीडिया ने सबसे ज़्यादा अक्लमंदी कोरोना-संकट के विषय में दिखाई है.
पिछले साल हमने व्यापक तालाबंदी कर के न जाने कितनी बार अपनी पीठ ठोकी थी.
कोरोना-दैत्य को तो हमने ताली और थाली बजा कर ही भगा दिया था. और दूसरी तरफ़ मरदूद पाकिस्तान था कि वहां न तो कोरोना से लड़ने वाली दवाइयां थीं और न ही ऐसी समस्या से निपटने के लायक़ शासनतन्त्र.
इस कोरोना-संकट में पाकिस्तान कितना बर्बाद हुआ इसका हिसाब तो बाद में होगा लेकिन यह सबको पता है कि इस संकट की दूसरी लहर में हम पूरी दुनिया के चालीस प्रतिशत से भी अधिक शिकार दे रहे हैं और हमारे यहाँ रोज़ाना मरने वालों का आंकड़ा अब तीन हज़ार के क़रीब हो गया है.
आज हम कहीं से वैक्सीन के लिए कच्चा माल मंगा रहे हैं तो कहीं से वैक्सीन आयात कर रहे हैं.
हम आत्मनिर्भरता की डींग हांकने वाले आज हवाई जहाजों पर लाद कर ऑक्सीजन प्लांट्स ला रहे हैं.
पाकिस्तान की हालत ख़राब है, यह साबित कर के हमको क्या हासिल होने वाला है?
क्या इस से हमारी मुश्किलें हल हो जाएँगी?
धन्य हो तुम भारत के सियासतदानों !
धन्य हो तुम भारत के मीडिया वालो !
हमको इस बात की चिंता नहीं है कि हमारी कमीज़ गंदी है.
हम तो इस बात का जश्न मना रहे हैं कि पड़ौसी की कमीज़ हमारी कमीज़ से कहीं ज़्यादा गन्दी है.
हम अगर गढ्ढे में गिर गए हैं तो उस से निकलने की भला कोशिश क्यों करें?
देखो, देखो ! हमारा दुश्मन पड़ौसी तो खाई में गिर गया है.
भगवान महावीर का संदेश - 'जियो और जीने दो' न तो हम भारतीयों तक पहुंचा है और न ही पाकिस्तानियों तक. एक-दूसरे को डुबाने में ही हमारी सारी ऊर्जा समाप्त हो जाती है.
अंत में इस भ्रष्ट एंटी-पाकिस्तान मीडिया के और विक्षिप्त एंटी-भारत मीडिया के बारे में और हवा में नफ़रत का ज़हर घोलने वाले इन सियासतदानों के विषय में, मैं भगवान से प्रार्थना करना चाहूँगा -
अवतार ले के भगवन, इस सृष्टि को बचा ले,
नफ़रत के बीज बोएं, उनको अभी उठा ले.

10 टिप्‍पणियां:

  1. धन्य तो हैं ही। चीन भूल गये हैं आजकल।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मित्र, 1962 में जब चीन ने हमको पटखनी दी थी तो हमने अपनी सुरक्षा-संबंधी तैयारियों में कमी देखने के स्थान पर यह देखना शुरू कर दिया था कि चीन में आम नागरिक और उसके सैनिक किस तरह भुखमरी के शिकार हो रहे हैं.
      आज यही मूर्खता भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया कर रहा है.
      हम अपना उजड़ता हुआ घर नहीं सुधारेंगे बल्कि दूसरे के घर को गिरता हुआ देख कर ख़ुश हो लेंगे.

      हटाएं
  2. गोपेश भाई, जिस दिन हम अपनी समस्याओं की तरफ ध्यान देने लगेंगे, जिस दिन खुद के गिरेबान में झाकेंगे उसी दिन से हमारे अच्छे दिन आएंगे।
    लेकिन पड़ौसी से जलन कम होगी तब ही न। विचारणीय लेख।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ज्योति, मीडिया के जितने भी कुँएं हैं, उन सब में भांग पड़ी है.

      हटाएं
  3. उत्तर
    1. मेरे आलेख के उदार आकलन के लिए धन्यवाद नितीश तिवारी जी.

      हटाएं
  4. खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
    जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।
    यहाँ तो पाकिस्तान मुकाबिल है। पेशे की मजबूरी जो ठहरी।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मित्र अशोक (अकबर भूल जाओ) प्रयागराजी (इलाहाबादी भूल जाओ) की विचारधारा के लोग ज़्यादा तादाद में होते तो पाकिस्तान बनता ही नहीं.

      हटाएं
  5. बहुत ही सारगर्भित विषय पर आपका आलेख है आदरणीय,ये हमारी बहुत पुरानी आदत है कि हम अपना घर संवारने के बजाय दूसरे के घर में ताकाझांकी करते हैं,मीडिया छोड़िए यहां एक अदना सा इंसान दूसरे की कमी देखता रहता है, जिससे वह अपनी मूल समस्या देखने के बजाय दूसरे की कमी बताते हैं,अगर हम अपने को देखकर, सुधारकर चलें तो अपना कीमती समय अपनी तरक्की में लगाएं और जिससे परिवार,समाज,देश सब आगे बढ़े । पाकिस्तान के बारे में फिर कौन सोचेगा,इसके लिए हमें,सरकार को,मीडिया को सभी को सामूहिक प्रयास करने चाहिए ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा.
      अमीर मीनाई का शेर है -
      ख़ंजर कहीं चले तो तड़पते हैं हम अमीर
      सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है

      यहाँ सारे जहाँ की जगह हम सिर्फ़ पाकिस्तान में ख़ंजर चलने की हम फ़िक्र तो नहीं, हाँ, उसका जश्न ज़रूर मनाते हैं. भले ही हमारे अपने घर में तलवारें चल रही हों.

      हटाएं