(सोमवार की सुबह)
शुक्ल जी – अहा गुप्ता बन्धु ! बहुत दिनों बाद मिले. सब कुशल मंगल?
गुप्ता जी – नमस्कार सुकुल बन्धु ! इधर कुछ अस्वस्थ था. अब ठीक हो गया हूँ तो सोचा कि थोड़ा घूम-फिर लूं.
शुक्ल जी – अच्छा हुआ तुम स्वस्थ हो गए. अब हमको सुबह घूमने के लिए एक साथी मिल जाएगा.
गुप्ता जी – अरे ये तो मेरा सौभाग्य होगा सुकुल मित्र ! चलो सिविल लाइन्स की तरफ़ चलते हैं.
शुक्ल जी – ना भाई ! हम तो ठंडी सड़क पर जाएंगे.
गुप्ता जी – बन्धु, इतने दिनों बाद तो घर से निकला हूँ. आज मेरे कहने से सिविल लाइन्स की तरफ़ ही चल दो.
शुक्ल जी – जैसी तुम्हारी मर्ज़ी. और सुनाओ क्या हाल-चाल हैं !
गुप्ता जी – बस तुम मित्रों की कृपा है.
अरे वाह, हनुमान-मन्दिर आ गया. चलो, यहाँ माथा टेक के चलेंगे.
शुक्ल जी (कुछ सोचते हुए) – घूमने-फिरने की बीच में भक्ति का क्या काम? तुम हनुमान जी के दर्शन फिर कभी कर लेना.
गुप्ता जी – क्या बात है सुकुल? हनुमान जी से तुम्हारी अनबन कब से हो गयी?
तुम तो उनके बड़े भक्त हुआ करते थे.
शुक्ल जी – अनबन तो नहीं लेकिन अब मन्दिर जाने का मन नहीं करता.
गुप्ता जी – क्या तुम नास्तिक हो गए हो?
शुक्ल जी – नास्तिक तो नहीं लेकिन संत रैदास की बानी का महत्व अब समझ में आ गया है – ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा.’
गुप्ता – यार, तुम यहीं खड़े रह कर अपने चंगे मन में गंगा बहाओ. मैं दो मिनट में बजरंगबली को प्रणाम कर के आता हूँ.
शुक्ल जी – ठीक है. जैसी तुम्हारी मर्ज़ी. मैं यहीं तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ.
गुप्ता जी (मन्दिर से लौट कर) – सुकुल प्रसाद तो ले लो या फिर उसमें भी आपत्ति है?
शुक्ल जी – प्रसाद भी तुम्हीं ग्रहण करो. चलो अब आगे चलते हैं.
गुप्ता जी – समझ में नहीं आ रहा कि हमारे बजरंग बली भक्त को एकदम से क्या हो गया जो उसका ऐसा ह्रदय-परिवर्तन हो गया !
शुक्ल जी – तुम नहीं समझोगे.
(मंगलवार की सुबह)
गुप्ता जी (हनुमान-मन्दिर के प्रांगण में) – अरे सुकुल, तुम बजरंग बली के दरबार में?
शुक्ल जी – सवाल बाद में पूछना. पहले प्रसाद तो ले लो.
गुप्ता जी – ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ का पाठ पढ़ाने वाले संत रैदास के शिष्य हमारे सुकुल आज हनुमान जी का प्रसाद कैसे बाँट रहे हैं?
शुक्ल जी – अमाँ कल की बात भूल जाओ ! प्रसाद ग्रहण करो.
गुप्ता जी – हम प्रसाद तो तभी ग्रहण करेंगे जब तुम इस ह्रदय-परिवर्तन के रहस्य का उद्घाटन करोगे.
शुक्ल जी – प्रसाद ले लो यार ! बड़ी अच्छी बूंदी हैं.
गुप्त जी – पहले तुम इस ह्रदय-परिवर्तन का कारण बताओ. तुम्हें बजरंग बली की कसम !
शुक्ल जी – बड़े धर्म-संकट में डाल दिया तुमने ! बजरंग बली की झूठी कसम तो मैं खा नहीं सकता.
मेरा कोई ह्रदय-परिवर्तन नहीं हुआ है. बजरंग बली का भक्त मैं कल भी था और आज भी हूँ. हाँ मेरा मोज़ा-परिवर्तन ज़रूर हुआ है.
गुप्ता जी – मोज़ा-परिवर्तन? ये क्या बला है सुकुल?
शुक्ल जी – यार, कल मैंने जूते के अन्दर फटे हुए मोज़े पहन लिए थे.
मन्दिर जाने के लिए जूते-मोज़े उतारता तो तुमको ही क्या, दूसरे भक्तों को भी मेरे फटे हुए मोज़े दिख जाते.
आज मोज़ा-परिवर्तन कर मैं फिर से बजरंग बली के दरबार में हाज़िर हो गया हूँ.
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंहमने फटे मोज़े रिटायर कर दिए हैं. मित्र, तुम भी यही करो !
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (24-05-2021 ) को 'दिया है दुःख का बादल, तो उसने ही दवा दी है' (चर्चा अंक 4075) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
'दिया है दुःख का बादल, तो उसने ही दावा दी है' (चर्चा अंक - 4075) में मेरी कहानी को सम्मिलित करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
हटाएंखोदा पहाड़ निकली चुहिया -----!
जवाब देंहटाएंआदरणीय गोपेश जी, शुक्लजी की बहानेबाजी पर आधारित रोचक प्रसंग! लेकिन शुक्लजीने अच्छा किया! प्रसाद के बिना तो काम चल गया पर दूसरी तरफ इज्ज़त बचीऔर लाखोंपाएं१२😀😀🙏🙏
रेणु जी, राजा से लेकर रंक तक - 'ये अन्दर की बात है' का खुलासा भला कौन करना चाहेगा?
हटाएंशुक्ल जी ने वही किया जो कि हम अपना होश सँभालते ही करते आ रहे हैं.
हाँ, इस लाज बचाओ अभियान में एक दिन के लिए बजरंग बली के आशीर्वाद का और उनके प्रसाद का, नुक्सान ज़रूर हुआ.
जी,🙏🙏🙏🙏💐💐
हटाएंहरबार की तरह शानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंरोचक ! थोड़ी सी रहस्य में लिपटी।
सही है कपड़े इज्जत ढकने के काम आते हैं और यही बेमुद्दत इज्जत ....
वाह!
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
कुसुम जी, परदे में इतना कुछ छुपा रहता है कि असलियत खुलने तक समय का पहिया न जाने कितना आगे बढ़ जाता है.
जवाब देंहटाएंहमारी सरकारें भी अपने फटे मोज़े हमसे-आपसे छुपाती हैं !
भगवान बजरंगबली तो फटे मोजे वाली बात जरूर जानते होंगे। पर दुनिया से तो छिपाना पड़ता है।
जवाब देंहटाएंमीना जी, पर्दादारी बड़ा कन्फ्यूज़न पैदा करती है पर कभी-कभी इज्ज़त ढकने के लिए ज़रूरी भी हो जाती है.
हटाएंबाक़ी रही बजरंग बली की बात तो वो अपने भक्तों की असलियत जानते हुए भी चुप रहना ही पसंद करते हैं.
रहस्य जानकर मुख पे हंसी है। शुरूआत में तो मैं भी आश्चर्य में था कि इस हृदय परिवर्तन का कारण क्या है!
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक कहानी है। बेहतरीन।
कहानी की तारीफ़ के लिए शुक्रिया प्रकाश साह जी.
हटाएंकोई एक रोचक घटना याद आ जाए फिर कहानी तो अपने-आप बन जाती है.
मोजे के कारण भी व्यक्ति आस्तिक और नास्तिक हो सकता है। बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंज्योति, संकट काल में आस्तिक से नास्तिक बने व्यक्ति को संकट से उबरते ही फिर से आस्तिक बनने में कोई बाधा नहीं होती.
हटाएंभक्तवत्सल भगवान भक्त की मजबूरी को भलीभांति समझते हैं. भटके हुए भक्त को क्षमा करने में और उस पर फिर से अपनी कृपा-दृष्टि रखने में वो कभी विलम्ब नहीं करते हैं.
आदरणीय सर अगर आप इस कहानी या संस्मरण का नाम "मोजा परिवर्तन" रखते तो भी आनंद आता ,आज के दमघोटू माहौल में ये सुंदर कहानी हंसाने में कामयाब रही,आपका बहुत शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद जिज्ञासा !
हटाएंअपनी कहानी का शीर्षक अगर मैं - मोज़ा-परिवर्तन' रखता तो कहानी का सस्पेंस ख़त्म हो जाता.
ये बात तो है आदरणीय सर 🙏🙏💐
हटाएंक्या बात है 🤣🤣🤣🤣🤣🤣🤣
जवाब देंहटाएंशुक्ल जी प्रसाद तो ले सकते थे उससे उनका मोजा थोड़ी दिखता? रोचक और बेहतरीन व्यंग्य!
🙏🙏 हमारे ब्लॉग पर भी आइएगा आपका स्वागत है🙏🙏
क्या प्रसाद भी जूता और मोजा निकाल कर लिया जाता है❓
हटाएंप्रशंसा के लिए धन्यवाद मनीषा जी.
हटाएंशुल्क जी को पहले दिन तो ख़ुद को नास्तिक ही दिखाना था इसलिए उन्होंने प्रसाद भी ग्रहण नहीं किया.
प्रसाद जूते-मोज़े पहन कर खाया जा सकता है या नहीं, हमको नहीं पता.
वैसे हम तो प्रसाद जूते-मोज़े पहन कर भी गटक जाते हैं.