द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेज़ सरकार ने भारत में किसी भी प्रकार के राजनीतिक आन्दोलनों पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया था.
लेकिन गांधी जी ने अगस्त, 1942 में अंग्रेज़ों को भारत से भगाने के लिए – ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का आह्वान किया जिसमें कि नौजवानों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था.
8 अगस्त, 1942 की रात को कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं की गिरफ़्तारी के बाद यह आन्दोलन थमा नहीं, बल्कि भारत के नौजवानों ने इसे इसके शबाब पर पंहुचा दिया था.
संयुक्त प्रान्त के गवर्नर गार्नियर हैलेट मॉरिस ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ को कुचलने में अत्याचार की सभी सीमाएं पार कर दी थीं.
आम भारतवासियों में उसके अत्याचारों का आतंक व्याप्त था लेकिन हमारे नौजवानों में उसके अत्याचारों से ब्रिटिश हुकूमत की खिलाफ़त का जज़्बा ज़रा भी मंद नहीं पड़ा था.
मॉरिस की नाक के ठीक नीचे, यानी कि संयुक्त प्रान्त की राजधानी लखनऊ में, लखनऊ यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में पूरे जोशो-ख़रोश से भाग लिया था.
इन नौजवानों को रोक पाने की ताक़त किसी दफ़ा 144 में तो क्या, किसी कर्फ्यू या किसी मार्शल लॉ में भी नहीं थी.
तमाम प्रतिबंधों के बावजूद विद्यार्थियों ने यूनिवर्सिटी से लेकर लेजिस्लेटिव असेंबली (अब विधान सभा) तक जुलूस निकालने का फ़ैसला कर लिया.
पुलिस की हथियारबंद टुकड़ी के सामने यह जुलूस निकला.
इस जुलूस का नेतृत्व सरदार जाफ़री नाम का एक नौजवान कर रहा था.
सरदार जाफ़री लखनऊ यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. का विद्यार्थी रहा था. वह अंग्रेज़ी में एम. ए. करने में तो नाकामयाब रहा था लेकिन उर्दू के एक उभरते हुए शायर की हैसियत से वह अब अदबी दुनिया में जाना जाने लगा था.
अठारहवीं शताब्दी के शायर फ़िदवी लाहौरी का एक मशहूर शेर है -
‘चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले
आशिक़ का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले’
सरदार जाफ़री ने फ़िदवी लाहौरी के इस शेर को एक नई शक्ल में ढाला और फिर जुलूस की अगवाई करते हुए उसने गाया –
‘मॉरिस का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
लाज़िम है कि तुलबा (विद्यार्थियों) के क़दम चूम के निकले’
मॉरिस का मातम करते हुए नौजवान विद्यार्थी बेख़ौफ़ लेजिस्लेटिव असेंबली तक पहुँच गए.
पैदल और घुड़सवार पुलिस की टुकडियां उनका स्वागत करने के लिए वहां मौजूद थीं.
लाठियां चलीं और फिर सरदार जाफ़री सहित सैकड़ों आन्दोलनकारियों की गिरफ़्तारी हुई. लेकिन तब तक मॉरिस के जनाज़े के साथ-साथ ब्रिटिश हुकूमत का जनाज़ा तो निकल ही चुका था.
सरदार जाफ़री आगे चल कर उर्दू अदब के तरक्कीपसंद शायर के रूप में मशहूर हुए.
उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.
लेकिन उनकी पहली शोहरत उस शेर से ही हुए थी जिसने कि मॉरिस के साथ-साथ ब्रिटिश हुकूमत की भी रातों की नींदें उड़ा दी थीं.
गोपेश भाई, सरदार जाफरी और इस जुलस के बारे में जानकारी देने के लिए शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंज्योति, ऐसी जानकारी सबके साथ साझा करना मुझे अच्छा लगता है.
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (5-07-2021 ) को 'कुछ है भी कुछ के लिये कुछ के लिये कुछ कुछ नहीं है'(चर्चा अंक- 4116) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
'कुछ है भी कुछ के लिए कुछ के लिए कुछ कुछ भी नहीं है' (कर्चा अंक - 4116) में मेरे आलेख को सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद रवीन्द्र सिंह यादव जी.
जवाब देंहटाएंहूकूमतों की भी नींद उडा करती है ? बढिय़ा।
जवाब देंहटाएंदोस्त ! हुकूमतों की नींद तो अब भी उड़ाई जा सकती है. बस, उसके लिए इस्पात का कलेजा होना चाहिए.
हटाएंबहुत ही सुंदर सर हमेशा की तरह।
जवाब देंहटाएंसादर
तारीफ़ के लिए शुक्रिया अनीता.
हटाएंबहुत ही बढ़िया संस्मरण,देशभक्ति का जुनून लिए हुए ।
जवाब देंहटाएंइस तरह के लेख आज भी देशभक्ति का जज़्बा पैदा करते हैं। बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय सर।
धन्यवाद जिज्ञासा.
जवाब देंहटाएंतारीफ़ के क़ाबिल तो सरदार जाफ़री जैसे जाबांज़ और वतनपरस्त नौजवान हैं.
बहुत अच्छा लेख। भारतीय स्वतंत्रता के ऐसे सैकड़ों वाकयों से अधिकतर लोग अनजान ही हैं। साझा करने हेतु आभार।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी.
हटाएंअपने क्लास में किसी भी ऐतिहासिक घटना से जुड़ी महत्वपूर्ण और रोचक अंतर्कथा सुनाना मेरी आदत में शुमार था.