मंगलवार, 29 मार्च 2022

रक्तबीज जैसी मुश्किलें

चचा ग़ालिब ने कहा है –
‘रंज से खूगर (अभ्यस्त) हुआ इंसां तो, मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पडीं, इतनी, कि आसां हो गईं.’
इसी अंदाज़ में जोश मलिहाबादी ने अपना पहला शेर कहा –
‘हाय, मेरी मुश्किलों, तुमने भी क्या धोखा दिया,
ऐन दिलचस्पी का आलम था, कि आसां हो गईं.’
पर आजकल के हालात को देख कर जोश साहब के इस शेर को दुरुस्त कर के
मुझको कहना पड़ रहा है -
‘हाय, मेरी मुश्किलों, तुमने भी क्या धोखा दिया,

दस पुरानी हल करीं, सौ और पैदा हो गईं.’ 

शनिवार, 26 मार्च 2022

एक संशोधित नीति-कथा

 गुरु जी - बच्चों तुमको उज्जवल नगर से जुड़ी एक प्राचीन नीति-कथा सुनाता हूँ.

उज्जवल नगर के राजा के दरबार में तीन चोर पेश किये गए.

उन तीनों ने राजा के कोषागार में चोरी की थी पर वहां से भागते समय पकड़े गए थे.

पहला चोर राजा का अपना ही बेटा, अर्थात उज्जवल नगर का राजकुमार था.

दूसरा चोर उज्जवल नगर राज्य के मंत्री का बेटा था.

तीसरा चोर एक पेशेवर चोर का बेटा था.

अब देखो राजा का न्याय !

राजा ने अपने बेटे अर्थात राजकुमार को देख कर चोर पकड़ कर लाने वालों से कहा -

तुम लोगों को ग़लतफ़हमी हो गयी है. मेरा बेटा चोरी कर ही नहीं सकता. मैं इसे बाइज़्ज़त बरी करता हूँ.

दूसरे चोर अर्थात मंत्री के पुत्र को राजा ने केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया.

तीसरा चोर जो कि एक पेशेवर चोर का बेटा था, उसको राजा ने 100 कोड़े लगवाए तब जा कर उसे छोड़ा गया.

अगले दिन निर्दोष घोषित किए गए राजकुमार ने आत्मग्लानि के कारण आत्महत्या कर ली.

चेतावनी देकर मुक्त किया गया मंत्री-पुत्र लज्जित होकर खुद देश छोड़ कर चला गया.

तीसरा चोर अगले दिन ही फिर चोरी करते हुए पकड़ा गया.

तो बच्चों ! उज्जवल नगर राज्य के राजा ने एक ही अपराध के लिए इन अपराधियों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया क्योंकि वह जानता था कि इनके संस्कार, इनके चरित्र एक-दूसरे से भिन्न हैं.

अब बताओ, कैसा लगा तुम्हें राजा का न्याय?

एक सयाना बालक -

गुरूजी, आपने जो कथा सुनाई है उसके प्रारंभ में हक़ीक़त है और बाद में फ़साना है यानी कि आपने कहानी के इंटरवल तक हमको सच्ची कथा सुनाई है लेकिन बाद में आप ने उसको अपने ढंग से मोड़ दिया है.

असल में इंटरवल के बाद की कहानी कुछ यूँ है -

हम जानते हैं कि हर राजा अपने चोर बेटे को निर्दोष घोषित करता है, अपने ख़ास लोगों के बच्चों के घपलों की भी अनदेखी करता है और गरीब पर ही उसका डंडा चलता है.

वास्तव में यह कथा उज्जवल नगर की नहीं है बल्कि अंधेर नगरी की है.

अंधेर नगरी के राजा ने भी चोरी के अपराधी राजकुमार को बाइज्ज़त बरी कर दिया था और मंत्री के पुत्र को केवल चेतावनी दे कर छोड़ दिया था.

यह भी सही है कि उसने पेशेवर चोर के बेटे को सौ कोड़े लगवा कर ही मुक्त किया था.

लेकिन अंधेर नगरी राजा के न्याय के परिणाम की कहानी आपके द्वारा बताई गयी उज्जवल नगर के राजा के न्याय के परिणाम की कहानी से बिलकुल भिन्न है.

राजा के न्याय के परिणाम की असल कहानी कुछ यूँ है -

निर्दोष घोषित किए गए राजकुमार ने आत्महत्या नहीं की थी बल्कि वह साधु हो गया था और फिर उसने अपना उद्योग स्थापित किया जिसमें कि अधिकतर चीन ,जापान, कोरिया आदि का सस्ता और घटिया माल अपना लेवल लगा कर ऊंचे दामों में बेचा जाता था.

इस उद्योग का सालाना टर्न ओवर एक लाख करोड़ का था. बड़ी-बड़ी बहुदेशीय विदेशी कंपनियां तक उसकी कंपनी के सामने पानी भरती थीं.

चेतावनी देकर मुक्त किए जाने वाले मंत्री-पुत्र ने देश ज़रूर छोड़ा था पर वह विदेश जा कर हवाला व्यापार करने लगा था.

सभी देशभक्त नेता उसके क्लाइंट्स थे और उनके स्विस-बैंक खातों का सारा लेन-देन उसी की देखरेख में होता था.

जानकारों का कहना था कि 50 एम० पी० तो उसकी मुट्ठी में रहते थे.

और रहा तीसरा चोर जिसको कि राजा ने 100 कोड़े लगवाए थे, उसने राजनीति में प्रवेश कर अपार धन, ए० के० 47 और ए० के० 56 का अतुलित भंडार एकत्र कर, एक उपद्रवी सेना संगठित की थी जिसके बल पर उसने पुराने राजा का तख्ता पलट दिया था.

वही पेशेवर-खानदानी चोर अंधेर नगरी का राजा बना.

मज़े की बात यह थी कि ख़ुद राजकुमार ने राजा का अर्थात अपने पिता का, तख्त पलटने में अपने पुराने साथी, उस पेशेवर चोर का साथ दिया था.

इस घर के भेदी को नए राजा ने गृहमंत्री बना दिया.

विदेश में रह कर हवाला किंग के रूप में नाम कमाने वाले और स्विस-बैंकों में देशभक्तों के खातों का कुशल संचालन करने वाले मंत्री-पुत्र ने इस तख्त-पलटी के लिए अपने चोर मित्र को अरबों रूपये की धन-राशि उपलब्ध कराई थी.

नए राजा ने सत्ता सँभालते ही अपने इस मददगार को विदेश मंत्री बना दिया.

ये तीनों पुराने चोर, देश की सेवा के नाम पर मिल कर चोरी करते  रहे और मिलजुल कर ही देश को बरसों तक 24X7 लूटते रहे.

गुरुवार, 24 मार्च 2022

बड़ा आदमी

बहुत पहले एक किस्सा सुना था. एक बड़े आदमी की श्रीमतीजी अपने बच्चे का नर्सरी क्लास में एडमिशन कराने के लिए एक प्रतिष्ठित स्कूल गईं. प्रिंसिपल ने उनका स्वागत किया. मोहतरमा ने अपने बच्चे की खूबियाँ सुनाने में आधा घंटा खर्च कर दिया. बाद में वो प्रिंसिपल से बोलीं

हम लोग बड़े ऊंचे खानदानी रईस हैं. हमारा बेटा तो हीरा है पर कभी-कभी शरारत कर देता है. जब भी ये शरारत करे तो आप इसे मारिएगा या डांटिएगा नहीं, बस, बगल वाले बच्चे के दो थप्पड़ जड़ दीजिएगा, फिर यह समझ जाएगा कि इसने कुछ गलत किया है.

खैर, यह तो किस्सा हुआ लेकिन हक़ीक़त में ऐसा ही होता है. बड़ा आदमी अव्वल तो गलती करता ही नहीं है और अगर गलती करता भी है तो उसको अन-देखा करना हम आम आदमियों का फ़र्ज़ हो जाता है.

मेरे छात्र-जीवन में हुई एक घटना याद आ गई. अपनी जान बचाने के लिए मैं शहर का नाम नहीं बताऊंगा. हाँ, इतना ज़रूर बताऊंगा कि उस समय पिताजी वहां जुडीशियल मजिस्ट्रेट थे.

शहर के सबसे बड़े उद्योगपति का पूरा परिवार अपनी ऐय्याशी के लिए बदनाम था. शहर से कुछ दूर पर उद्योगपति का फ़ार्म हाउस था जहाँ पर कि परिवार के सदस्य बारी-बारी से रास-लीला रचाते थे. पुलिस के जागरूक और कर्मठ कर्मचारियों को वहां हो रहे हर कुकर्म को अनदेखा करने के लिए नियमित रूप से हफ़्ता पहुंचा दिया जाता था. लेकिन एक बार हफ़्ते की राशि को लेकर उद्योगपति परिवार और दरोगा टाइप पुलिस अधिकारियों में ठन गई और दोनों के बीच संबंधों में दरार पड़ गई. 

उद्योगपति परिवार की तो डी. आई. जी., आई. जी. और मिनिस्टरों तक पहुँच थी, वो दरोगाओं के नाराज़ होने की क्या परवाह करते. पर दरोगाओं, दीवानजियों और बांके सिपाहियों से कभी पंगा मत लोयह बात सबको याद रखनी चाहिए.  .

बड़े-बूढ़े कहते हैं कि जल में रह कर मगरमच्छ से बैर नहीं करना चाहिए. इस व्यावहारिक वेद-वाक्य की अगर कोई फ़न्ने खां भी अनदेखी करता है तो उसकी किस्मत निश्चित रूप से फूटती है, उसे भांति-भांति के पापड़ बेलने पड़ते हैं और कभी-कभी जेल की चक्की भी पीसनी पड़ती है. 

होली से तीन दिन पहले एक अनहोनी हो गई. एक व्यक्ति ने इस उद्योगपति के छोटे बेटे के विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट दर्ज की कि उसने उसकी नाबालिग पत्नी का अपहरण कर उसे अपने फ़ार्म हाउस में जबरन बंधक बना रक्खा है.

 हमारी कर्मठ और प्रजा-वत्सल पुलिस ने उस उद्योगपति के फ़ार्म हाउस पर तुरंत छापा मार कर अपहृत लड़की को छुड़वाया और अपराधी रईसज़ादे को मौका-ए-वारदात से गिरफ़्तार किया.

लड़की का मेडिकल एग्ज़ामिनेशन हुआ जिसमें उसके साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाए जाने की पुष्टि हुई. संगीन आरोपों के साथ मुक़द्दमा पिताजी के कोर्ट में पेश हुआ. बचाव पक्ष के वक़ील शहर के नामी-गिरामी वकील थे जो कि आम तौर पर लोअर कोर्ट में पैर भी नहीं रखते थे पर यहाँ बात बड़े आदमी के मासूम साहबज़ादे को निर्दोष सिद्ध करने की थी इसलिए उन्हें लोअर कोर्ट में कभी पैर न रखने की अपनी क़सम तोड़नी पडी थी.  

बचाव पक्ष के वकील ने विस्तार से बताया कि पुलिस ने उनके मुवक्किल पर निराधार आरोप लगाए हैं

1.  लड़की का अपहरण नहीं हुआ,तथाकथित अपहृत लड़की अपने जिस्म का धंधा करने वाली एक पेशेवर औरत है और वह अपनी मर्ज़ी से फ़ार्म हाउस गई थी.

2.  लड़की नाबालिग नहीं बल्कि बालिग है. इस तथ्य की पुष्टि के लिए उसका मेडिकल एग्ज़ामिनेशन कराया जा सकता है.

3.  फ़ार्महाउस पर जो भी हुआ वह सब लड़की की रज़ामंदी से हुआ इसलिए रौंगफ़ुल कंफाइनमेंट और बलात्कार का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता.

4.  अभियुक्त एक प्रतिष्ठित परिवार का लड़का है. वह विवाहित है, उसके एक छोटा सा बेटा है. इस मिथ्या-आरोप से उसकी और उसके प्रतिष्ठित परिवार की अनावश्यक बदनामी हो रही है इसलिए उसे तुरंत मुक्त किया जाए.

वकील साहब की दलील क़ाबिले तारीफ़ थी लेकिन न्यायधीश महोदय पर उसका कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा. न्यायधीश ने बचाव पक्ष के वक़ील से तीन प्रश्न पूछे

1.  मेडिकल एग्ज़ामिनेशन से क्या इस बात की पुष्टि नहीं हुई है कि हाल ही में आरोपी ने इस लड़की के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाए गए थे

2. . क्या यह लड़की आरोपी के फ़ार्म हाउस से बरामद नहीं हुई है?

3. फ़ार्म हाउस में लड़की की बरामदगी के समय अभियुक्त वहां मौजूद था या नहीं?’

बचाव पक्ष के वकील को इन तीनों सवालों का जवाब सिर्फ हाँमें देना पड़ा.

न्यायधीश ने बचाव पक्ष के वकील से एक सवाल और पूछा

नाबालिग का अपहरण, उसका बलात्कार और उसे जबरन बंधक बनाए रखने के अपराधों की अधिकतम सज़ा क्या होती है?’

बचाव पक्ष के वकील ने हकलाते हुए जवाब दिया

हु-हु-हुज़ूर, उम्र क़ैद.

अब न्यायधीश ने अपनी टिप्पणी दी

लोअर कोर्ट्स में ऐसे संगीन आरोपों पर कोई फ़ैसला नहीं दिया जाता इसलिए मैं यह केस सेशंस कोर्ट के सुपुर्द करता हूँ. अब अभियुक्त को ज़मानत दिए जाने या न दिए जाने का फ़ैसला भी सेशंस कोर्ट में होगा.

बचाव पक्ष के वकील ने गिडगिडाते हुए कहा

हुज़ूर अनर्थ हो जाएगा. अगले तीन दिन छुट्टी है. इस बेचारे को तब तक जेल में ही रहना होगा. आप इसको ज़मानत तो दे ही सकते हैं.

न्यायाधीश ने बचाव पक्ष के वकील से पूछा

ऐसे संगीन आरोपों से शोभित महानुभावों की ज़मानत भी आम तौर पर सेशंस कोर्ट्स में ही होती है. आप मुझे क्यों इसमें घसीटना चाहते हैं?

बचाव पक्ष के वकील ने कहा

जनाब, आप अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इस मासूम नौजवान को ज़मानत दे सकते हैं.

न्यायाधीश ने फिर पूछा

मैं इस मासूम नौजवान को अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर ज़मानत दे दूँ जो अपने फ़ार्म हाउस में इस तरह की ऐयाशियाँ करता है?

वकील साहब ने कहा –

हुज़ूर लड़का है, गलती हो गई, माफ़ कर दीजिए. (यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि वक़ील साहब का नाम मुलायम सिंह यादव नहीं था) अगर इसको जेल जाना पड़ा तो गज़ब हो जाएगा. इसकी भोली सी बीबी पर एक नज़र डालिए, इसके मासूम बच्चे पर रहम कीजिए. इसके परिवार की प्रतिष्ठा का ख़याल कीजिए.

न्यायधीश ने सख्त लहजे में कहा –

'ऐयाशी करने से पहले इस नौजवान को अपनी भोली सी बीबी, अपने मासूम से बच्चे पर नज़र डाल लेनी चाहिए थी और अपने परिवार की प्रतिष्ठा का ख़याल करना चाहिए था. और रही गलती की बात तो यह नौजवान ऐयाशी करने की और अपने परिवार का नाम मिटटी में मिलाने की गलती कर सकता है पर मैं अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर, इन्साफ का गला घोंट कर, इसे ज़मानत देने की गलती नहीं कर सकता.

बचाव पक्ष के वकील ने दावा किया

सेशंस कोर्ट में तो मेरे मुवक्किल को 5 मिनट में ज़मानत मिल जाएगी.

न्यायाधीश ने कहा –

हो सकता है. पर आपके मुवक्किल को जेल में तीन दिन तक रह कर उस शुभ घड़ी का इंतज़ार करना पड़ेगा.

इस तरह हमारा बेचारा मासूम रईसजादा न्यायधीश की ज्यादतियों का शिकार हुआ और उसे सेशंस कोर्ट से ज़मानत मिलने तक तीन दिन जेल में बिताने पड़े. 

पूरे शहर में मजिस्ट्रेट की बेरहमी के किस्से मशहूर हो गए. लोगबाग कह रहे थे

इतने बड़े आदमी के लड़के की इत्ती सी गलती पर ज़मानत नहीं दी. मजिस्ट्रेट वाक़ई बड़ा बेरहम है.

दुनिया वालों ने जो भी कहा, ठीक ही कहा था पर मुझे उस बेरहम मजिस्ट्रेट का बेटा होने पर आज भी फख्र है. 

रविवार, 20 मार्च 2022

TO-LET

 पुराने ज़माने में लैंडलार्ड यानी कि ज़मींदार या फिर मकानमालिक दोनों का ही रुतबा हुआ करता था और उन्हें अपने किसानों पर या फिर अपने किराएदारों पर, अपनी मर्ज़ी थोपने का और भांति-भांति के ज़ुल्मो-सितम ढाने का पैदायशी हक हुआ करता था.

मेरा बचपन, किशोरावस्था और मेरी युवास्था का प्रारंभिक हिस्सा, पिताजी के साथ हर तीन साल बाद आशियाना बदलते हुए बीता है.
पिताजी मजिस्ट्रेट थे. उनको अपने सेवा-काल में या तो सरकारी कोठी मिल जाती थी या फिर एलॉटमेंट वाला मकान मिल जाता था. इस तरह रिटायरमेंट से पहले तक पिताजी को किराएदार होते हुए भी आम किराएदार वाली निरीह स्थिति का कभी सामना नहीं करना पड़ा था.
लेकिन मेरी किस्मत में मकान मालिकों की कम और मकानमालकिनों की थोक में धौंस-घुड़कियाँ लिखी थीं.
लखनऊ यूनिवर्सिटी की मुदर्रिसी छूटने के बाद मुझे जब रोजी-रोटी की तलाश में बागेश्वर जाना पड़ा तो एक पंजाबी लाला के एक बड़े से मकान में एक छोटी सी यूनिट मुझे भी मिल गयी.
पंजाबी लाला तो ठीक-ठाक थे लेकिन उनकी श्रीमती जी की ताका-झांकी और हर बात में टांग अड़ाने की आदत थी.
इन मकान मालकिन को मैं जब भी अपनी हद पार न करने की सलाह देता था तो वो कहती थीं –
‘जैसवाल भाई साहब, आपको रोटियों आपका कॉलेज दे रहा है और हम आपको रहने का ठिकाना दे रहे हैं.
भगवान जी के बाद आपको रोज़ाना अपने कॉलेज को और हमको शुक्रिया कहना चाहिए.’
खैर, बागेश्वर में मेरा प्रवास मात्र आठ महीने ही रहा और फिर आशियाने की तलाश में मेरा सामना अल्मोड़ा के मकान मालिकों से होने लगा.
मेरा पहला मकान खत्यारी गाँव में था जो कि स्टेडियम से करीब 50 मीटर नीचे था. निर्जन इलाके के इस सीलन भरे मकान में रहते हुए मुझे रोज़ अपनी नानी याद आती थीं.
मेरे मकानमालिक दूध बेचते थे और उनके हर किराएदार को उनके पानी मिले दूध को ही खरीदना पड़ता था.
मेरे अगले मकान मालिक ठाकुर दीवान सिंह यूँ तो कलेक्टर के यहाँ टेलीफ़ोन ड्यूटी पर नियुक्त चपरासी थे लेकिन वो भी हम किराएदारों को अपनी भैंसों का, गधेरे के पानी का मिला दूध बेचा करते थे.
मुझको 'साहब बहादुर' कहने वाले ठाकुर दीवान सिंह मुझ पर धौंस तो नहीं जमाते थे लेकिन अपने पक्की छत वाले और पक्के फ़र्श वाले मकान का नक्शा ज़रूर मारा करते थे.
मैं ठाकुर दीवान सिंह से कहा करता था –
‘ठाकुर दीवान सिंह, तुम्हारी बदौलत मुझे पक्की छत और पक्के फ़र्श वाला मकान मिल गया वरना तो मेरी अब तक की ज़िंदगी पेड़ पर लटक कर ही बीती थी.’
खत्यारी के नरक से निकल कर हम दुगालखोला के स्वर्ग जैसे इलाके में पहुँच गए.
वहां हमारे पहले मकानमालिक पान की दुकान चलाते थे और निहायत शरीफ़ इंसान थे लेकिन उनकी श्रीमती जी – ‘घोड़ा था घमंडी’ किस्म की हुआ करती थीं और ख़ुद को मकानमालकिन के बजाय मालकिन कहलवाना पसंद करती थीं.
पिताजी की मृत्यु के बाद हम भी लखनऊ में मकान मालिक बन गए थे लेकिन हमने किसी किराएदार का मालिक बनने की कभी जुर्रत नहीं की.
अल्मोड़ा में नौकरी करते हुए लखनऊ वाला मकान बेच कर, ग्रेटर नॉएडा में जब हमारा मकान बना तो उसकी नीचे की तीन बेड रूम वाली यूनिट हमको किराए पर उठानी पड़ी.
एक डिप्टी कलेक्टर हमारे किराएदार बने.
इन डिप्टी साहब ने हम से बिना पूछे घर के बाहर गार्ड्स केबिन बनवा दिया और घर के अन्दर अपने बुलडॉग के लिए एक केनेल बनवा दिया.
बात-बात पर धौंस दिखाने की और अपनी डींगें हांकने की उनकी आदत से मैं तो परेशान हो गया था.
एक बार डिप्टी साहब अच्छे मूड में दिखाई दिए तो मैंने उन से पूछा –
‘मित्र, एक बात बताओ, ये डिप्टी कलेक्टर क्या लाट साहब से बड़ा होता है?’
डिप्टी साहब ने हैरान हो कर जवाब दिया –
‘नहीं तो ! लेकिन आप यह सवाल क्यों पूछ रहे हैं?’
मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया –
‘अपनी उम्र से पंद्रह साल बड़े यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर को बात-बात पर धमकाने वाला शख्स तो लाट साहब से भी बड़ा अफ़सर ही होना चाहिए.’
मेरा ताना सुनने के बाद डिप्टी साहब की धौंस तो कम हो गयी पर उनका कुत्ता हमको फिर भी सताता रहा.
डिप्टी साहब के विदा होने पर मैंने बाक़ायदा घी के दिए जलाए थे.
रिटायरमेंट के बाद हम ग्रेटर नॉएडा में सेटल हो गए.
अब हमको ख़ुद नीचे की यूनिट में रहना था और ऊपर की दो कमरे की यूनिट को किराए पर उठाना था.
हमने प्रॉपर्टी डीलर्स से कह दिया था कि हमको किराएदार के रूप में एक छोटा शाकाहारी परिवार चाहिए. किराएदार पढ़ा-लिखा हो और नौकरीपेशा हो, यह भी वांछनीय था.
एक प्रॉपर्टी डीलर दो नाइजीरियन लड़कों को ले आए. वो मुझ से बोले -
‘अंकल जी, ये लड़के बहुत अच्छे हैं, ये दोनों शाकाहारी हैं. ये आपको ड्योढ़ा किराया देंगे. मेरी गारंटी पर आप इन्हें अपना मकान दे दीजिए.’
हमारे देश में आए दिन न जाने कितने नाइजीरियंस ड्रग पेडलिंग में पकड़े जाते हैं.
मैंने उस प्रॉपर्टी डीलर को फिर कभी अपने घर में घुसने नहीं दिया.
एक कथा-वाचक पंडित जी मेरा मकान देखने आए. पंडित जी के छह बच्चे थे. मैंने उन्हें मकान देने से इंकार करते हुए कहा -
'पंडित जी, मुझे तो छोटे परिवार वाला ही किराएदार चाहिए.'
पंडित जी ने कहा -
मान्यवर, हमारा तो छोटा ही परिवार है. छह बच्चे ज़्यादा थोड़ी होते हैं?
अब देखिए, लालू यादव के तो नौ बच्चे हैं.'
मैंने पंडित जी के आगे अपने हाथ जोड़ते हुए कहा -
'कल लालू यादव अपने नौ बच्चों के साथ मेरी इस यूनिट को देखने आए थे. मैंने उन्हें भी इंकार कर दिया था.'
एक बार एक मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट में पढ़ाने वाली तीन लड़कियां हमारी ऊपर की यूनिट देखने आईं.
मैं लड़कियों को अपनी यूनिट देने को तैयार नहीं था पर मेरी श्रीमती जी को वो लड़कियां बड़ी अच्छी लगी थीं.
लड़कियों को हमारी यूनिट पसंद आई. फिर किराए की बात भी हो गयी.
जाते-जाते एक लड़की ने मेरी श्रीमती जी से पूछा –
‘आंटी, सुबह के नाश्ते में आप क्या-क्या देंगी और रात के खाने में क्या देंगी? हमारा झाडू-बर्तन कौन करेगा?’
मेरी श्रीमती जी तो इन सवालों को सुन कर हक्की-बक्की रह गईं पर मैंने अपनी ज़ुबान में मिस्री घोलते हुए जवाब दिया –
‘नाश्ते-खाने में तुम लोग जो भी कहोगी वो तुम्हारी आंटी बना देंगी और तुम्हारा झाडू-बर्तन मैं कर दिया करूंगा.’
मेरी बात पर लड़कियों की प्रतिक्रिया से पहले ही मैंने उन से एक बात पूछ ली –
‘भई, तुम तीनों के एक जैसे स्पोर्ट्स शूज़ तो बड़े ज़ोरदार हैं. किस कंपनी के हैं?’
एक लड़की ने जवाब दिया –
‘हम तीनों के स्पोर्ट्स शूज़ प्यूमा कंपनी के हैं लेकिन अंकल, आप ये क्यों पूछ रहे हैं?’
मैंने उनके सवाल के जवाब में कहा –
‘तुम तीनों अपने शानदार प्यूमा स्पोर्ट्स शूज़ में मुझे भाग कर दिखाओ. और हाँ, भाग कर अपने घर ही चली जाना यहाँ वापस लौटने की तुम्हें कोई ज़रुरत नहीं है.’
मुझे पता चला है कि बहुत से दुष्ट प्रॉपर्टी डीलर्स और कई असंतुष्ट-असफल किराएदार, मुझे पीठ-पीछे – ‘खुड़-खुड़ अंकल जी’ कह कर पुकारते हैं.
ग्रेटर नॉएडा में किराए के लिए मकानों की बहुतायत है और किराएदारों की किल्लत होने की वजह से उनके बहुत नखड़े हैं.
मैंने औने-पौने दामों में एक ठीक-ठाक सा किराएदार रख लिया है. मुझे उम्मीद है कि उसे मैं – ‘खुड़-खुड़ अंकल जी’ नहीं लगूंगा.
बागेश्वर में पंजाबन मकानमालकिन की और अल्मोड़ा में पनवाड़न मकानमालकिन की धमकियों और धौंस से पीड़ित किराएदार, मैं बदनसीब, ग्रेटर नॉएडा में मकानमालिक ज़रूर बन गया हूँ पर मेरी किस्मत में किराएदार पर रौब मारना लिखा ही नहीं है.
मकानमालिक की मुश्किलों का सामना करते-करते मैं तो परेशान हो गया हूँ. मुझे तो अब हर किराएदार से जलन होती है.
न तो मेंटेनेंस की चिंता न ही वाटर टैक्स और बिजली का बिल जमा करने की फिक्र !
महंगाई के दौर में पहले से आधे किराए में कोई मन-पसंद यूनिट लो फिर आए दिन मकानमालिक के सामने अपना शिकायती बक्सा और – ‘हमारी मांगे पूरी हों’ वाला चिटठा खोल दिया करो.
एक ज़माने में मकानमालिक बनने की मेरी बड़ी हसरत थी लेकिन अब तो मैं भगवान से कहता हूँ –
‘अगले जनम मोहे किराएदार ही कीजो.’

मंगलवार, 15 मार्च 2022

एक हंगामाखेज़ वसीयत

सूदखोर लाला फूलचंद के सुखी परिवार का हर सदस्य उनकी ज़िंदगी में ही उन्हें अपने दिल से दूध में पड़ी मक्खी की तरह से निकाल चुका था.
शादी की तीसवीं सालगिरह मनाने के बावजूद उनकी धर्मपत्नी कस्तूरी देवी उन से ज़्यादा मेहरबान तो अपनी पालतू बिल्ली पर रहा करती थीं क्योंकि अपने पतिदेव के दूध के हिस्से की मलाई वो उसको ही चटा दिया करती थीं.
अपने पतिदेव की खुराक के बादाम उनके देवर लालचंद के हिस्से में आया करते थे.
जहाँ दूजिया लाला फूलचंद कस्तूरी देवी से पंद्रह साल बड़े थे, वहां लालचंद, उनका हम-उम्र था.
इन देवर-भाभी की आपसी ट्यूनिंग के बारे में पूरे शहर में खुसुर-पुसर होती रहती थी.
लालचंद की ख़ुद की बीबी, देवर-भाभी की इस घनिष्ठ मित्रता से आज़िज़ हो कर अपने पूर्व प्रेमी के साथ कब की भाग चुकी थी.
विरही लालचंद ने दूसरी शादी नहीं की और वह अपनी भाभी की सेवा में ही अपने दिन और अपनी रातें बिताया करता था.
लाला को अपनी पहली बीबी राजबाला की निशानी, अपनी बिटिया, राजकुमारी उर्फ़ रज्जो से बड़ा प्यार था लेकिन उसकी और उसके दोनों बेटों की चोरी करने की आदत से वो इतने परेशान रहते थे कि उसे और उसके बेटों को अपने यहाँ बुलाने से पहले वो अपनी रेजगारी भी अपनी तिजोरी में रख लिया करते थे.
वैसे भी अपनी सौतेली माँ से रज्जो की बिलकुल भी पटती नहीं थी इसलिए उसका मायका-आगमन उँगलियों पर ही गिना जा सकता था.
लाला फूलचंद और कस्तूरी देवी का बेटा भालचन्द, जहाँ अपनी माँ की आँख का तारा था और अपने चाचा का महा-दुलारा था, वहां वह अपने बाप को फूटी आँख भी नहीं भाता था.
लाला फूलचंद तो उसकी शादी तक में शामिल नहीं हुए थे और शादी में बाप के हिस्से की सारी रस्में बेचारे लालचंद को निभानी पड़ी थीं.
दोस्त के नाम पर लाला को सिर्फ़ वकील चतुरसेन का साथ मिला था जो कि उनकी जायदाद की देखभाल भी किया करता था.
लाला फूलचंद की उजड़ी ज़िंदगी में सुखवंती देवी मास्टरनी बहार बन कर आई थीं.
राजबाला के बिस्तर पकड़ते ही लाला फूलचंद ने सुखवंती देवी मास्टरनी का आंचल थाम लिया था.
अपने अफ़ीमची और महा-नाकारा पति से दुखी, सुखवंती देवी, लाला को सहज ही उपलब्ध हो गयी थीं.
राजबाला की मौत के बाद यूँ तो लाला फूलचंद को दुबारा शादी करने की ज़रुरत नहीं थी क्योंकि उनकी पत्नी की सारी जिम्मेदारियां अन-ऑफ़िशियली सुखवंती देवी ही निभा रही थीं लेकिन चूंकि वो ऑफ़िशियली सधवा थीं इसलिए लोक-लाज की खातिर लाला ने अपनी भतीजी की उम्र की कस्तूरी देवी से विवाह कर लिया था.
कस्तूरी देवी को अपनी शादी के फ़ौरन बाद ही अधेड़ उम्र के लाला फूलचंद की रंगरेलियों के बारे में पता चल गया था लेकिन उन्होंने उन से कोई गिला-शिकवा करने के बजाय लालचंद के साथ रासलीला रचाना मुनासिब समझा था.
लुकाछिपी वाले इन इश्क-प्यार की बदौलत हमारी कहानी के पात्रों के दिन सुख-शांति से बीत रहे थे कि लाला फूलचंद ने अचानक बिस्तर पकड़ लिया.
पहले सस्ते वैद्य का इलाज हुआ फिर दो रूपये पुड़िया वाले हकीम साहब उनकी नब्ज़ टटोलते रहे लेकिन आखिरकार उन्हें शहर के सबसे बड़े डॉक्टर की शरण में जाना पड़ा.
हजारों-लाखों खर्च कर के भी लाला की दुनिया, बिस्तर और बाथरूम तक ही सिमट कर रह गयी.
लेकिन एक बात अच्छी थी – लाला के तेज़ दिमाग पर और उनकी ज़हरीली जुबान, दोनों पर, उनकी बीमारी का कोई असर नहीं हुआ था.
सुखवंती देवी मास्टरनी, लाला फूलचंद की मिजाज़पुर्सी के लिए रोज़ ही आती थीं. वो घंटों उनके पास बैठती थीं, उनकी बातें कम सुनती थीं और कस्तूरी देवी की गालियाँ ज़्यादा सुनती थीं.
सुखवंती देवी के बेटे रूपचंद पर लाला फूलचंद जान छिड़कते थे. रूपचंद भी उन्हें अपने पिनकिये बाप से कहीं ज़्यादा प्यार और इज्ज़त देता था.
रूपचंद भी अपनी माँ सुखवंती देवी मास्टरनी की तरह लाला की बीमारी में उनका हमसाया बना रहता था.
वकील चतुरसेन भी रोज़ाना ही बीमार लाला फूलचंद से मिलने पहुँच जाया करते थे.
दोनों दोस्तों के बीच न जाने कितनी गुप्त बैठकें हुआ करती थीं. इन बैठकों के दौरान वकील चतुरसेन के लिए नाश्ता-पानी लाने के लिए सिर्फ़ दीना को ही कमरे में घुसने की इजाज़त हुआ करती थी.
इन मुश्किल दिनों में रोज़ सुबह कस्तूरी देवी दीना से पूछती थीं –
‘तेरे मालिक अब कैसे हैं दीना?’
जैसे ही दीना का हज़ार बार का दोहराया हुआ –
‘आज तो मालिक पहले से बेहतर हैं मालकिन !’
वाला जवाब उन्हें मिलता तो उनके चेहरे पर मायूसी छा जाती और फिर वो निराश स्वर में बड़बड़ातीं –
‘बुढ़ऊ तो बिस्तर पर पड़े-पड़े ही सैकड़ा पार कर लेंगे.’
आखिरकार लम्बी और उबाऊ बीमारी के बाद लाला फूलचंद का निधन हो ही गया.
पत्नी और बेटे ने लाला फूलचंद के अंतिम संस्कार में, उनकी तेरहवीं में और उनके नाम पर दान-पुण्य करने में, रुपया बहाने की कोई ज़रुरत नहीं समझी लेकिन सुखवंती देवी ने इन सब में इस तरह पानी की तरह पैसा बहाया कि सब शहर वाले कह उठे –
‘वाह ! महबूबा हो तो ऐसी हो.’
लाला फूलचंद की तेरहवीं के अगले दिन वकील चतुरसेन ने उनके ही बंगले में, उनके सभी सम्बन्धियों को बुला, उनकी वसीयत पढ़ कर सुनाने के लिए इकठ्ठा किया था.
लाला के परिवार-जन के हो-हल्ला करने के बावजूद वकील चतुरसेन ने सुखवंती देवी को और रूपचंद को भी, इस मौक़ा-ए-ख़ास में शामिल होने की दावत दी थी.
चतुरसेन ने लाला फूलचंद की वसीयत को बुलंद आवाज़ में सुनाना शुरू किया –
‘मैं लाला फूलचंद इस वसीयत को सुनाए जाने से चौदह दिन पहले भगवान जी के पास पहुँच चुका हूँ.
मैंने अपनी वसीयत सुनाए जाने की ज़िम्मेदारी अपने दोस्त चतुरसेन को दी है जिसकी सेवाओं के बदले मैं बीस लाख रूपये उसके नाम कर रहा हूँ.
अपनी नाम की धर्मपत्नी कस्तूरी देवी से मुझे कोई गिला-शिकवा नहीं है क्योंकि उसने मेरे साथ उतना ही बुरा किया है जितना कि मैंने उसके साथ किया है.
मेरा चक्कर सुखवंती देवी के साथ था तो उसका चक्कर मेरे नालायक भाई लालचंद के साथ था. तो हिसाब बराबर हुआ. फिर मेरी वसीयत में कस्तूरी देवी को कोई भी हिस्सा क्यों मिले?
फिर भी मैं अपना पुराना मकान और पचास लाख रूपये उसके नाम कर रहा हूँ.
रही भालचन्द की बात तो इस नालायक को मेरी जायदाद में से एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी जाए.
दरअसल ये निकम्मा, मेरी और कस्तूरी देवी की नहीं, बल्कि लालचंद की और कस्तूरी देवी की औलाद है.
इस पाप के बोझ को मैंने लोक-लाज के लिए पिछले छब्बीस साल ढोया है पर अब मरने के बाद ऐसा दिखावा करने की कोई ज़रुरत नहीं है.
वैसे भी अपनी माँ के पैसों पर इसी को तो ऐश करना है और उसको दिए मकान में भी इसी को रहना है.
लालचंद मेरा भाई कम और दुश्मन ज़्यादा था. इस विभीषण को तो मैं अपने घर से कब का निकाल फेंकता पर इसके लठैत, मेरे लठैतों से ज़्यादा ताक़तवर थे इसलिए मुझे खून का घूँट पी कर इसे अपने घर में बर्दाश्त करना पड़ा.
रूपचंद की ही तरह इस धोखेबाज़ के लिए भी मेरी जायदाद में एक चवन्नी नहीं है.
मेरी प्यारी रज्जो बिटिया चोर है और उसके दोनों बेटे तो चोर होने के साथ-साथ डाकू भी हैं.
हिसाब लगाया जाए तो इन माँ-बेटों ने मुझे तीस-चालीस लाख का चूना तो लगाया ही होगा. फिर भी इस मोहब्बती बाप की तरफ से रज्जो बिटिया को बीस लाख रूपये और दोनों नालायक नातियों को दस-दस लाख रूपये दिए जाने का इंतज़ाम कर दिया गया है.
मेरा नौकर दीना बहुत ही वफ़ादार रहा है. बरसों तक, ख़ास कर, मेरी बीमारी में, उसने मेरी बहुत सेवा की है.
दीना के नाम मुझे पांच लाख रूपये करने थे पर उसने मेरी सोने की चेन और मेरी पुखराज की अंगूठी पहले ही पार कर दी थी जिनकी कि कीमत करीब एक लाख की थी. इसलिए अब उसके नाम चार लाख रूपये ही किए जा रहे हैं.
सुखवंती देवी मास्टरनी तो मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं है.
इस डायन कस्तूरी देवी की जली-कटी सुन कर मुझे उसके शीतल आंचल में ही राहत और चाहत मिलती थी.
मैं एक करोड़ रूपये सुखवंती के नाम कर रहा हूँ.
अब बात आती है रूपचंद की.
दरअसल रूपचंद उस पिनकिये का नहीं, बल्कि मेरा ही बेटा है. मैंने तो उसका और अपना डीएनए टेस्ट करा कर यह बात कन्फ़र्म भी कर ली थी.
अपने सपूत के लिए आशीर्वाद के रूप में मैं एक करोड़ रूपये छोड़ रहा हूँ.
ज़िंदगी भर मैंने काली-कमाई की है और सूदखोरी के धंधे में न जाने कितनों की ज़मीन-जायदाद पर गैरकानूनी क़ब्ज़ा किया है.
अपने पापों का प्रायिश्चित करने के लिए मैं एक खैराती अस्पताल के निर्माण और उसके संचालन के लिए पचास लाख रूपये छोड़ रहा हूँ.
मेरा दोस्त चतुरसेन और सुखवंती देवी इस खैराती अस्पताल को चलाएँगे.
हाँ, अब रही इस बंगले की बात जिसके कि हॉल में यह वसीयत पढ़ी जा रही है.
इस बंगले का इस वसीयत में कोई ज़िक्र नहीं है. वो इसलिए कि इसकी रजिस्ट्री पहले ही सुखवंती देवी और रूपचंद के नाम हो चुकी है.
इस वसीयत को पढ़े जाने के एक महीने के अन्दर ही सुखवंती देवी का और रूपचंद का, इस पर क़ब्ज़ा हो जाएगा.’
वकील चतुरसेन के द्वारा लाला फूलचंद की वसीयत पढ़े जाने के बाद क्या-क्या हुआ, इसका विस्तृत वर्णन कोतवाली की फ़ाइल में दर्ज है.
लाला फूलचंद के जानने वाले यह हिसाब नहीं लगा पा रहे हैं कि इस वसीयत से जुड़े कितने लोग फ़ौजदारी करने के आरोप में थाने में बंद हैं और कितने लोग घायल हो कर अस्पताल में भर्ती हैं.